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जमीन बचाने की लड़ाई

सरकार की चौतरफा कार्रवाई से माओवाद की जमीन खिसकी. बदले की जुगत में बैठे  माओवादियों ने सुरक्षाबलों पर हवाई हमले का लगाया आरोप. छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित इलाके से ग्राउंड रिपोर्ट.

जंग के निशान : दंतेवाड़ा के अरणपुर में 26 अप्रैल को माओवादियों ने आइईडी ब्लास्ट कर सुरक्षाबलों को निशाना बनाया था
जंग के निशान : दंतेवाड़ा के अरणपुर में 26 अप्रैल को माओवादियों ने आइईडी ब्लास्ट कर सुरक्षाबलों को निशाना बनाया था
अपडेटेड 9 मई , 2023

अप्रैल की 25 तारीख. दंतेवाड़ा पुलिस को दरभा डिवीजन में माओवादियों के होने की खबर मिली. इस पर ऐक्शन लेते हुए छत्तीसगढ़ पुलिस और सीआरपीएफ जवान करीब 200 की तादाद में रातो-रात दरभा के लिए रवाना कर दिए गए. अगली सुबह पेट्रोलिंग टीम का निहाड़ी नाम के एक गांव के पास माओवादियों से आमना-सामना हुआ. इस दौरान हुई फायरिंग में दो संदिग्ध माओवादी गोली लगने से जख्मी हो गए. यह टीम अब ऑपरेशन खत्म करके और घायल माओवादियों को गिरफ्तार कर दंतेवाड़ा की तरफ लौट रही थी.

यह अक्षय तृतीया का दिन था. बस्तर में इसे आमा-पंडूम के तौर पर मनाया जाता है. इस दिन छोटे बच्चे आम खरीदने के लिए अपने बड़ों से नेग लेते हैं. रात को सुरक्षा बलों की टीम जिस रास्ते से दरभा की तरफ गई थी, वापसी में उसे वहीं से गुजरना था. सुरक्षाबलों के गुजरने के बाद जगरगुंडा और दंतेवाड़ा को जोड़ने वाली हाल ही में बनी सड़क पर माओवादियों ने उसी रात 40 से 50 किलो विस्फोटक प्लांट कर दिया था.

आमा-पंडूम के त्योहार के चलते सड़क पर जगह-जगह ग्रामीणों ने अस्थाई बैरिकेडिंग की हुई थी, जहां वे हर मुसाफिर से त्योहार के लिए नेग उगाह रहे थे. सुरक्षाबलों का काफिला अरणपुर पहुंचने वाला था, तभी उसका सामना ग्रामीणों के ऐसे ही एक बैरिकेड से हुआ. यहां उनके आगे तीन-चार और भी वाहनों को रोका गया था जिनमें आम नागरिक सवार थे.

यहां से सुरक्षाबलों का काफिला एक किलोमीटर भी नहीं बढ़ा था कि उनकी एक गाड़ी आइईडी ब्लास्ट की चपेट में आ गई. शुरुआती जांच में यह अंदेशा जताया जा रहा है कि आमा-पंडूम की यह चौकी माओवादियों की प्लानिंग का हिस्सा थी. यहां माओवादी संगठन के लोग आम ग्रामीणों की शक्ल में मौजूद थे. इस पूरे इलाके में यही वह जगह है जहां मोबाइल नेटवर्क आता है. कहा जा रहा है कि आमा पंडूम की इस चौकी पर मौजूद माओवादी संगठन के लोगों ने मोबाइल से सुरक्षाबलों के मूवमेंट की सूचना आगे दे दी और इस तरह सुरक्षाबलों को ले जा रही वैन को निशाना बनाया गया.

यह एक निजी वैन थी जिसका इस्तेमाल छत्तीसगढ़ पुलिस के डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी) के जवान कर रहे थे. डीआरजी छत्तीसगढ़ पुलिस की विशेष शाखा है जिसका गठन 2008 में किया गया. बाद में इसे माओवाद प्रभावित सात जिलों (नारायणपुर, सुकमा, दंतेवाड़ा, राजनांदगांव, कांकेर, बस्तर और बीजापुर) में अलग-अलग समय पर खड़ा किया गया. इस हमले में डीआरजी के 10 जवान और एक ड्राइवर मारे गए.

इस हादसे के बाद सुरक्षा में हुई चूक पर कई सवाल खड़े किए जा रहे हैं. पुलिस मैनुअल के मुताबिक, डीआरजी के जवानों को वाहन के तौर पर सिर्फ बाइक के इस्तेमाल की इजाजत है. बाइक कच्चे रास्तों पर चलने के लिए मुफीद है और आइईडी ब्लास्ट की सूरत में कम से कम नुक्सान होता है. दूसरा सुरक्षा बलों की मूवमेंट में हर काफिले के आगे रोड ओपनिंग पार्टी का चलना अनिवार्य है, जिसके पास लैंड माइन्स यानी बारूदी सुरंग की शिनाख्त करने के साधन होते हैं.

लेकिन इस नियम का पालन नहीं हुआ. इसकी एक वजह दंतेवाड़ा से जगरगुंडा तक हाल ही में बनी दो-लेन की सड़क है. यह सड़क बन जाने के बाद इस इलाके को माओवादियों से मुक्त माना जा रहा था. सरकार इसे अपनी बड़ी कामयाबी की तरह गिना रही थी लेकिन माओवादियों की तरफ से हुई इतनी बड़ी हिंसक कार्रवाई ने सरकारी दावों पर सवालिया निशान लगा दिया है.

हादसे के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक चिर-परिचित-सा बयान दिया कि माओवाद के खिलाफ सरकार की लड़ाई आखिरी चरण में चल रही है. दूसरी तरफ सीपीआइ (माओवादी) की दरभा डिवीजनल कमेटी की तरफ से जारी बयान में इस हमले को हाल ही में माओवादियों के खिलाफ हुई एयर स्ट्राइक के विरोध में उठाया गया कदम बताया गया है.

मध्य भारत के आदिवासी बहुल इलाके में हिंसा और प्रतिहिंसा के चार दशक पुराने सिलसिले की ताजा कड़ियां आखिर कहां जुड़ती हैं? दावों और जवाबी दावों के बीच सच की जमीन और सच का आसमान आखिर कहां है? इंडिया टुडे की टीम ने पखवाड़े भर पहले ही उस इलाके का दौरा किया था. आंखों देखी पड़ताल के जरिए हादसे की कड़िया जोड़ने  और धुंध को साफ करने की कोशिश की गई है. तो चलते हैं बीजापुर के गांव बासागुडा.

अप्रैल की 7 तारीख. दिन शुक्रवार था. दोपहर का करीब 1 बज रहा था. सुबह बीजापुर से निकलते वक्त हमारी योजना हाल ही बनी बीजापुर और जगरगुंडा को जोड़ने वाली सड़क को देखते हुए दोरनापाल जाने की थी. वहां से हमें अबूझमाड़ इलाके के गांव मेट्टागुडा जाना था. पिछली जनवरी में माओवादियों ने प्रेस रिलीज जारी करके आरोप लगाया था कि सुरक्षाबलों ने ड्रोन विमानों से आदिवासी क्षेत्रों में बमबारी की है. हम ग्रामीणों से घटना के बारे में जानने के लिए मेट्टागुडा की तरफ बढ़ रहे थे. हमें बासागुडा थाने के सामने लगी पुलिस बैरीकेडिंग पर रोक लिया गया.

''आप लोग अंदर मत जाइए. वहां ऑपरेशन चल रहा है,’’ बासागुडा थाने के एसएचओ डी.के. सिंह ने हमें आगाह किया. पर किस किस्म का ऑपरेशन? इसकी कोई जानकारी साझा नहीं की गई. इस बीच व्हॉट्सऐप पर सीपीआइ (माओवादी) की दक्षिण सब जोनल ब्यूरो की प्रवक्ता समता की ओर से जारी प्रेस नोट तैरने लगा था. इस में कोंडापल्ली के पास कुछ गांवों में एयर स्ट्राइक होने की बात कही गई थी. यह इलाका बासागुडा से 30 किलोमीटर दूर है.  

बासागुडा वही जगह है जहां 5 अप्रैल, 2021 को गृह मंत्री अमित शाह ने दौरा किया था. शाह जोनागुंडा में हुए नक्सली हमले के बाद जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए आए थे. 2006-07 में माओवादियों के खिलाफ लड़ने वाले सरकार प्रायोजित निजी मिलिशिया सलवा जुडूम ने यहां कई घरों में आगजनी की थी. फिलहाल, बीजापुर को जगरगुंडा से जोड़ने वाली सड़क पर बने बड़े कैंपों में से एक बासागुडा है. यहां सीआरपीएफ के 2,000 जवान तैनात हैं. कैंप में अपना हेलिपैड है. शाह का हेलिकॉप्टर यहीं उतरा था.

बासागुडा से कोंडापल्ली जाने वाला रास्ता बेहद खराब है. इतना कि 30 किलोमीटर का यह रास्ता पार करने में हमें यही कोई ढाई घंटे लग गए. शाम पांच बजे हम कोंडापल्ली पहुंचे. एक स्थानीय आदिवासी परिवार ने खुशी-खुशी हमें मेहमान के तौर पर स्वीकारा. परिजनों ने बताया कि सुबह छह से आठ के बीच बहुत तेज बम धमाकों की आवाज सुनाई दी थी. कई बम गिराए गए, लेकिन इस बमबारी से जान-माल का क्या नुक्सान हुआ है, इस बारे में उन्हें कुछ पता न था. हमने एक ग्रामीण के हाथों अपने आमद की खबर माओवादियों के स्थानीय नेतृत्व तक पहुंचाई.

रात के करीब आठ बजे 5-7 लोगों का एक दल हमारे सामने नमूदार हुआ. अंधेरा ढल चुका था. घर के अंदर से सोलर बल्ब की रोशनी आ रही थी. वह बल्ब की तरफ अपनी पीठ करके हमसे मुखातिब हुआ. पीछे से आ रही रोशनी के चलते उसके चेहरे को साफ देख पाना संभव न था. यह शख्स माओवादियों की जनताना सरकार का स्थानीय मुखिया था.

माओवादी संगठन के ढांचे में दायित्वों का साफ बंटवारा है. उसका एक हिस्सा स्थानीय प्रशासन की कमान संभालता है, जिसके पास स्थानीय स्तर पर हो रही सामूहिक खेती, जनताना सरकार के बनाए तालाब और स्कूल की जिम्मेदारी होती है. यही शाखा तय दरों पर गांव वालों से लेवी वसूलती है. महीने में आपकी एक दिन की कमाई पार्टी के खाते में जाती है. और अगर आप मोटरसाइकिल रखते हैं तो पार्टी को 500 रुपए सालाना की लेवी देनी होती है. ट्रैक्टर की लेवी 5,000 रु. सालाना है. हालांकि वे गिनती के हैं.

इन इलाकों में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था के तहत चुने गए सरपंच भी हैं. माओवादी अपने असर वाले इलाकों में चुनाव का बहिष्कार करते आए हैं लिहाजा हर पंचायत से सरपंच निर्विरोध चुने जाते हैं. यह काम माओवादियों की सहमति से होता है. निर्विरोध चुने गए ये सरपंच अमूमन सजावटी होते हैं. यहां का हर प्रशासनिक फैसला जनताना सरकार की ओर से नियुक्त मुखिया करता है. ऐसा ही एक मुखिया हमसे मुखातिब था. वह टूटी-फूटी हिंदी बोल रहा था. सख्त लहजे में उसने कहा कि हम लोग बिना किसी सूचना के माओवादी इलाके में घुस आए हैं. ऐसे में यहां से आगे नहीं जा सकते. उसने हमें अगली सुबह दस बजे तक लौट जाने की मोहलत दी. काफी बहस के बाद वह हमारा एक खत ऊपर के नेताओं के पास ले जाने को राजी हुआ.

अगले दिन 1 बजे तक हम माओवादियों की तरफ से आने वाले किसी संदेशवाहक की बाट जोहते रहे. आखिरकार चटख हरे रंग का गमछा ओढ़े एक शख्स साइकिल पर आते दिखाई दिया. वह माओवादियों की एरिया कमेटी का सदस्य था. यह माओवादियों के संगठन का दूसरा हिस्सा था जिसके तहत उसके लड़ाकू दस्ते आते हैं.

संदेशवाहक के तौर पर आए एरिया कमेटी के इस सदस्य ने अपना नाम सुधाकर बताया. यह उसका असल नाम हो, इसकी संभावना कम थी क्योंकि माओवादी कैडर बाहरी लोगों को अक्सर छद्म नाम ही बताते हैं. सुधाकर ने बताया कि अगले दिन 9 अप्रैल को सुबह 11 बजे हालिया ड्रोन हमले के खिलाफ ग्रामीण कवरगट्टा में प्रदर्शन करने वाले हैं और हम इस प्रदर्शन को कवर कर सकते हैं. कवरगट्टा यहां से 15 किमी दूर था.

कवरगट्टा में हम पहुंचे तो देखा कि आस-पास के गांवों से एक हजार से ज्यादा आदिवासी जुटे हुए थे. गोंडी और हिंदी में ड्रोन हमलों के खिलाफ नारे लगाए जा रहे थे. बीए के छात्र, बीजापुर के 23 वर्षीय जगदीश भी यहीं मौजूद थे. 7 तारीख की सुबह क्या हुआ था? जगदीश के ही शब्दों में, ''हम सब तड़के महुआ बीनने गए थे. करीब छह बजे के आसपास दो ड्रोन आए और जंगल में बम बरसाने लगे. धमाकों की आवाज सुनकर हम घरों की तरफ भागे. फिर करीब आठ बजे दो हेलिकॉप्टर आए. उन्होंने काफी देर तक फायरिंग की. बम धमाके से कोई जख्मी नहीं हुआ पर सब दहशत में हैं.’’

यह जानना दिलचस्प था कि ड्रोन और हेलिकॉप्टरों से हमले की खबर दे रहे ग्रामीणों में से किसी के पास भी यह ब्यौरा न था कि आखिर नुक्सान क्या और कितना हुआ है? माओवादियों की माने तो पिछले तीन साल में उनके खिलाफ सुरक्षाबलों ने चार बार एयर स्ट्राइक की है, जिसकी शुरुआत 19 अप्रैल, 2021 से हुई. यह जोनागुडा-टेकुलगुडम एनकाउंटर के दो सप्ताह बाद की बात है. जोनागुडा में माओवादियों ने घात लगाकर सुरक्षाबलों पर हमला किया था. इस हमले में 23 जवानों को जान गंवानी पड़ी थी. नक्सलियों की तरफ से की गई इतनी बड़ी वारदात के दो सप्ताह बाद बीजापुर के पालागुडम और बोटालंका में माओवादी कैंप पर एयरस्ट्राइक की बात सामने आई थी.

इस घटना के साल भर बाद माओवादियों ने सुकमा जिले के गांव मेट्टागुडा और बोटेथोंग में सुरक्षाबलों की तरफ से एयर स्ट्राइक करने का आरोप लगाया. उनका दावा है कि 14-15 अप्रैल, 2022 की दरम्यानी रात इन दोनों गांवों पर ड्रोन से 12 से ज्यादा बम फेंके गए. इस साल जनवरी में मेट्टागुडा और बोटेथोंग में एक बार फिर से एयर स्ट्राइक की खबरें सामने आईं. मीडिया रिपोट्र्स के मुताबिक, 11 जनवरी, 2023 की सुबह 11 बजे ड्रोन से बम बरसाए गए.

हालांकि सुरक्षाबल इन आरोपों को खारिज करते हैं. सीआरपीएफ के छत्तीसगढ़ रेंज के आइजी साकेत कुमार सिंह कहते हैं, ''माओवादी आज चारों तरफ से घिर चुके हैं. ये आरोप उनके प्रोपगेंडा का हिस्सा हैं. हमारे पास जो ड्रोन हैं वे सिर्फ दुश्मन की टोह ले सकते हैं. उनसे बम नहीं बरसाए जा सकते. जनवरी में हमारे दो हेलिकॉप्टर जवानों को फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस पर लेकर जा रहे थे. इन हेलिकॉप्टरों पर माओवादियों ने गोलियां दागीं. तब हमने उनके हमले का जवाब दिया. लेकिन उस समय भी कोई बम नहीं गिराया गया.’’

सिंह वैसे माओवादियों के चौतरफा घिरे होने की बात कह रहे हैं लेकिन दंडकारण्य और दक्षिण बस्तर में उनके फैलाव की कहानी कम दिलचस्प नहीं. 1980 के दशक में माओवादियों के कुछ दल गोदावरी नदी पार करके दक्षिण बस्तर और दंडकारण्य में दाखिल हुए. उस दौर तक यहां के आदिवासियों के लिए सरकार का मलतब जंगलात का महकमा होता था. यहां के आदिवासी अनपढ़ थे और तेंदूपत्ता और दूसरी उपज खरीदने वाले व्यापारियों के हाथों शोषण का शिकार हो रहे थे.

यह माओवादियों के लिए उर्वर स्थिति थी. देखते ही देखते माओवादी छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और ओडिशा के आदिवासी इलाकों में अपनी पैठ बनाने में कामयाब रहे. इन राज्यों का संधि स्थल माओवादियों के फलने-फूलने की दूसरी परिस्थितियां भी बेहतर बना रहा था. माओवादी एक राज्य में वारदात को अंजाम देते और दूसरे राज्य में दाखिल हो जाते, जहां उनका पीछा करना मुश्किल होता. माओवादियों की इस रणनीति का तोड़ निकालने का पहला प्रयास शुरू हुआ 2019 में.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर महाराष्ट्र के गोंदिया जिले में एक गांव पड़ता है मुर्कुटदोह. यह एक पहाड़ पर स्थित आदिवासियों की बस्ती है. 2019 की शुरुआत में यहां सुरक्षाबलों की चहलकदमी शुरू हुई. इससे पहले यह इलाका माओवादियों के लिए एक सुरक्षित पनाहगाह था. जब सुरक्षाबलों ने पहली बार इस इलाके में अपनी पकड़ बनाने की कोशिश की तब यहां तक पहुंचने के लिए सड़क तक नहीं थी. लेकिन 2019 के नवंबर तक यहां उन्होंने अपनी मजबूत किलेबंदी कर ली. आज इस जगह को मुर्कुटदोह कैंप के नाम से जाना जाता है.  

मुर्कुटदोह कैंप अपने आप में अनोखा प्रयोग है. यहां महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश पुलिस की साझा टीम एक साथ कार्यरत है. इसके अलावा तीनों राज्यों में नक्सल विरोधी ऑपरेशन के लिए बनी स्पेशल फोर्स के जवानों को भी यहां तैनात किया गया है. जिस दिन हम मुर्कुटदोह पहुंचे उस दिन यहां भी साप्ताहिक हाट का दिन था. कैंप से महज 30 फुट की दूरी पर लगे हाट में फल-सब्जी और दूसरी जरूरत की चीजें मिल रही थीं. यहां के जवान हाट में दुकान लगाने वाले हर दुकानदार से परिचित थे. उनकी तबीयत पूछ रहे थे.

तभी वहां बैठे एक जवान दिनेश कुमार ने इस कैंप के शुरुआती दिनों का किस्सा सुनाना शुरू किया. उन्होंने बताया, ''उस समय यहां माओवादियों की तूती बोलती थी. अगर हम पेट्रोलिंग के लिए निकलते थे तो गांव के लोग हमें पानी देने के लिए भी तैयार नहीं होते थे. धीरे-धीरे हमने लोगों का भरोसा जीता. आज हालात ये हैं लोग हमें शादी और दूसरे शुभ अवसरों पर घर बुलाते हैं.’’

यहां से मध्य प्रदेश का पहला गांव कट्टीपार 15 किलोमीटर की दूरी पर है जबकि छत्तीसगढ़ का कटेमा महज 6 किलोमीटर. इस कैंप के इंचार्ज कहते हैं, ''मुर्कुटदोह कैंप में तीनों राज्यों की पुलिस मौजूद है. हम किसी भी राज्य के सीमावर्ती इलाकों में सर्च ऑपरेशन चला सकते हैं.’’ इस कैंप के चलते माओवादियों की एक राज्य से दूसरे राज्य में आवाजाही लगभग रुक सी गई है. इस इलाके में सक्रिय बड़े माओवादी नेता अबूझमाड़ की तरफ रुख कर चुके हैं.

किसी दौर में माओवादी महाराष्ट्र के चार जिलों चंद्रपुर, गढ़चिरौली, गोंदिया और भंडारा में अपनी समानांतर सत्ता चलाते थे. लेकिन बीते सालों के दौरान हुई सख्ती के चलते महाराष्ट्र में माओवाद गढ़चिरौली और गोंदिया जिले के कुछ सीमावर्ती इलाकों तक सिमटकर रह गया है. 

माओवाद से निबटने के मामले में महाराष्ट्र मॉडल की काफी चर्चा होती है. महाराष्ट्र पुलिस ने एक के बाद एक पुलिस कैंप खोलकर माओवादी इलाकों में अपनी पकड़ मजबूत की. गांवों को सड़क से जोड़ने का काम किया गया. पुलिस की तरफ से 'दादा लोरा खिड़की’ योजना चलाई. इस योजना के तहत माओवादी इलाकों में खुले पुलिस कैंपों को सरकारी योजना के लिए सिंगल विंडो में तब्दील कर दिया गया. कोई भी ग्रामीण यहां से आधार कार्ड, मार्कशीट, राशन कार्ड जैसे सरकारी दस्तावेज हासिल कर सकता है. किसी सरकारी योजना के पात्र को उस योजना का लाभ हासिल करने में मदद की जाती है.  

ये प्रयोग छत्तीसगढ़ में भी दोहराने की कोशिश जा रही है. इस पूरे मॉडल को आसान भाषा में कैंप-सड़क-कैंप मॉडल कहा जा सकता है. इस मॉडल को सामान्य अर्थों में इस तरह समझा जा सकता है कि एक सीआरपीएफ कैंप से कुछ किलोमीटर दूरी पर नया सीआरपीएफ कैंप खोला जाता है. फिर दोनों के बीच सीआरपीएफ जवानों की देखरेख में सड़क बनाई जाती है. जैसे ही सड़क आखिरी छोर के कैंप तक पहुंचती है तो अगला कैंप खोल दिया जाता है. माओवाद के खिलाफ इस नई रणनीति का पहला सिरा हमें 2015 के साल में लेकर जाता है.

साल 2015 में केंद्र सरकार ने माओवाद के खिलाफ अपनी रणनीति में बड़े बदलाव की शुरुआत की. तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने वामपंथी उग्रवाद के खिलाफ नई नेशनल पॉलिसी और ऐक्शन प्लान की शुरुआत की. 2016 में नई पॉलिसी पर काम करते हुए केंद्र सरकार ने माओवाद प्रभावित इलाकों में सड़क निर्माण के लिए 11,724.53 करोड़ रुपए की परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई. केंद्र सरकार नई रणनीति का खाका खींच ही रही थी कि सुकमा के बुरकापाल में हुए नक्सली हमले ने सबको दहला दिया.

साल 2017 की 8 मई. बुरकापाल में हुए नक्सली हमले में 25 सीआरपीएफ जवानों की मौत के दो सप्ताह बाद तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने माओवाद के खिलाफ चल रहे एकीकृत सुरक्षा और विकास कार्यक्रम की समीक्षा के लिए एक बैठक बुलाई. इस बैठक में माओवाद के खिलाफ लड़ाई के लिए 'समाधान सिद्धांत’ बनाया गया. राजनाथ सिंह ने इसे स्पष्ट करते हुए समाधान शब्द की व्याख्या पेश की.

एस माने स्मार्ट नेतृत्व, ए माने आक्रामक (एग्रेसिव) नीति, एम माने मोटिवेशन और प्रशिक्षण, ए माने एक्शनेबल इंटेलिजेंस (अमल में लाने लायक खुफिया सूचनाएं), डी माने डैशबोर्ड केपीआइ (की परफॉर्मेंस इंडिकेटर) और केआरए (की रिजल्ट एरिया), एच माने हार्नेसिंग टेक्नोलॉजी (तकनीकी का इस्तेमाल), ए-माने ऐक्शन प्लान फॉर एव्री थिएटर, एन माने नो ऐक्सेस टू फाइनेंस (माओवादियों के वित्तीय स्रोतों को खत्म करना).

राजनाथ सिंह ने माओवादियों के खिलाफ जो समाधान पेश किया था, आने वाले सालों में उसका असर जमीन पर दिखाई देने लगा. महाराष्ट्र की तर्ज पर दूसरे नक्सल प्रभावित इलाकों में कैंप-सड़क-कैंप रणनीति पर काम शुरू हुआ. छत्तीसगढ़ के सातों नक्सल प्रभावित जिलों में तेजी से सड़क बनाने का काम शुरू हुआ.

इन जिलों में लगभग 2,500 किलोमीटर लंबी सड़कें बननी थीं. हालांकि सड़क निर्माण कार्य उम्मीद से काफी धीमी गति से हो रहा है. फिर भी कैंप-सड़क-कैंप नीति के तहत सुरक्षाबल उन इलाकों में अपनी पहुंच बनाने में कामयाब हुए हैं, जिन्हें आज से पांच साल पहले तक माओवादियों का गढ़ माना जाता था. ऐसी ही एक जगह है दंतेवाड़ा में पड़ने वाला गांव जगरगुंडा.

जगरगुंडा माओवाद प्रभावित तीन जिलों बीजापुर, सुकमा और दंतेवाड़ा का केंद्र बिंदु है और रणनीतिक तौर पर काफी महत्वपूर्ण है. इस सदी के पहले दशक का मध्य आते-आते माओवादी पूरी तरह से इस इलाके में छा गए थे. इसे दक्षिण बस्तर में माओवादियों की राजधानी कहा जाता था. जगरगुंडा को बीजापुर, दंतेवाड़ा और सुकमा से जोड़ना कैंप-सड़क-कैंप रणनीति की पहली परीक्षा था.

सुकमा जिले के दोरनापाल से जगरगुंडा के बीच की 58 किलोमीटर की सड़क को मौत का फंदा कहा जाता था. माओवादी हिंसा की सबसे बड़ी वारदातें इसी सड़क पर हुई हैं. 2010 में इसी सड़क पर ताड़मेटला में माओवादियों ने अपनी सबसे बड़ी वारदात को अंजाम दिया था जिसमें सीआरपीएफ के 76 जवान शहीद हुए थे. 2017 में इसी सड़क से सटे बुरकापाल में सीआरपीएफ के 25 जवानों को जान गंवानी पड़ी थी. 2020 में मिन्पा में हुए नक्सली हमले में छत्तीसगढ़ पुलिस की ऐंटी-नक्सल फोर्स डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड के 17 जवानों की मौत हुई थी.

दोरनापाल से जगरगुंडा तक यह सड़क बनाने का काम सुरक्षा बलों के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा था. 58 किलोमीटर में भी फिलहाल आखिरी चरण का काम बचा हुआ है. सीआरपीएफ ने हाल ही में मिन्पा में नया कैंप खोला है. यह इस 58 किलोमीटर की सड़क पर खुलने वाला 12वां कैंप है. इसके अलावा इस सड़क पर छह नए थाने भी खोले गए हैं.  

इसी तरह से बीजापुर से जगरगुंडा को जोड़ने के लिए भी सुरक्षा बलों को काफी मशक्कत करनी पड़ी और इसकी वजह सिर्फ माओवादी हिंसा नहीं थी. दरअसल, सड़क निर्माण के खिलाफ कई बार इस इलाके  में आंदोलन हुए. इनमें सबसे लंबा चलने वाला आंदोलन सिल्गेर का है. सिल्गेर में आदिवासी आज भी इस सड़क के विरोध में धरना दे रहे हैं. बासागुडा से जगरगुंडा के बीच बन रही सड़क अपने अंतिम चरण में है. 33 किलोमीटर लंबी इस सड़क को बनाने में सीआरपीएफ को आठ कैंप बनाने पड़े.   

दंतेवाड़ा से जगरगुंडा की दूरी 74 किलोमीटर है. इस सड़क को नकुलनार से अरणपुर होते हुए जगरगुंडा जाना था. अरणपुर से जगरगुंडा के बीच 18 किलोमीटर की सड़क सुरक्षाबलों के लिए किसी साहसिक अभियान जैसी थी. इस सड़क को बनाने के दौरान यहां 500 से करीब बूबी ट्रैप्स (आम इस्तेमाल का सामान जिसमें बम छिपा कर रख दिए जाते हैं) और सौ से ज्यादा आइईडी मिलीं.

यहां 18 किलोमीटर की दूरी में कुल पांच सीआरपीएफ कैंप खोले गए. इस सड़क को बनाने के दौरान नक्सलियों ने अलग-अलग समय में कंस्ट्रक्शन मटीरियल ला रहे 50 से ज्यादा वाहनों को आग के हवाले कर दिया. दस से ज्यादा जवान शहीद हुए. सड़क की सुरक्षा का खर्च सड़क बनाने की लागत से तीन गुना ज्यादा था. 18 किलोमीटर की यह सड़क तैयार होने में कुल 100 करोड़ रुपए से ज्यादा का खर्च हुआ.  

सड़क बनने के बाद इस पूरे इलाके को माओवाद के प्रभाव से मुक्त माना जा रहा था. 12 जनवरी, 2023 को बस्तर रेंज के आइजी पी. सुंदरराज ने मीडिया को बताया कि पिछले चार साल में बस्तर के 2,710 नक्सल प्रभावित गांवों में से 589 गांवों को माओवादियों के असर से मुक्त करवा लिया गया. पिछले चार साल में नक्सल प्रभावित सात जिलों में सुरक्षा बलों ने 54 से ज्यादा कैंप खोले हैं. साथ ही इंद्रावती नदी पर तीन बड़े पुलों का निर्माण जारी है. इन पुलों के बन जाने के बाद सुरक्षाबलों के लिए माओवाद के आखिरी किले अबूझमाड़ में घुसना आसान हो जाएगा.

यह सच है कि इन सड़कों के बनने से पड़ोसी राज्यों में माओवादियों की आवाजाही पर एक हद तक अंकुश लग गया है. झारखंड में भी ऑपरेशन ऑक्टोपस चलाकर माओवादियों के सबसे पुराने गढ़ बूढा-पहाड़ को दो दशक बाद माओवादियों से मुक्त करवा लिया गया है. अब वहां सीआरपीएफ के कैंप खुल चुके हैं. चौतरफा दबाव के चलते माओवादी अपने बेस को शिफ्ट करने में मजबूर हुए हैं लेकिन ये सारे तथ्य माओवाद के घटते रसूख की पूरी तस्स्वीर पेश नहीं करते.  

अरणपुर में हुए हालिया हमले ने कैंप-सड़क-कैंप रणनीति पर सवालिया निशान लगा दिए हैं. चिंतलनार-मोरापल्ली मार्ग पर पिछली जनवरी में माओवादियों ने सड़क निर्माण में लगे दो वाहनों को आग के हवाले कर दिया था. हाल ही में बनी इन सड़कों ने माओवादियों की आवाजाही रोकी जरूर है लेकिन जैसे ही आप सड़क छोड़कर दो किलोमीटर अंदर की तरफ दाखिल होते हैं तो उनका असर साफ समझ में आने लगता है. इसी साल फरवरी के दूसरे सप्ताह में माओवादियों ने भाजपा के तीन स्थानीय नेताओं की हत्या कर दी थी. 

बासागुडा बीजापुर-जगरगुंडा के बीच पड़ने वाला सबसे बड़ा गांव है. यहां सीआरपीएफ कैंप और पुलिस थाना कायम किए एक दो साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है. यहां के साप्ताहिक हाट में आए एक छोटे व्यापारी ने हमें बताया कि पुलिस और सीआरपीएफ की मौजूदगी के बावजूद वह अब भी माओवादियों को लेवी दे रहा है. माओवादी अपने तरीके से लेवी का पैसा मंगवा लेते हैं. सड़क बनने के बाद भी माओवादियों की आर्थिक सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ा है.

ऐसे में इन इलाकों को माओवाद के प्रभाव से कैसे मुक्त माना जाए? इसके जवाब में बीजापुर के एसपी आंजनेय वार्ष्णेय कहते हैं, ''माओवादियों की उस इलाके में मौजूदगी को तीन दशक से ज्यादा का वक्त बीत चुका है. हमें वहां पहुंचे अभी तीन साल भी नहीं बीते हैं. लोगों के मन में अब भी माओवाद का डर पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है. इसमें थोड़ा वक्त लगेगा. पुलिस आम नागरिकों को सुरक्षा देने और उनका भरोसा जीतने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है. उम्मीद है, जल्द ही हम माओवादियों के आर्थिक स्रोतों को भी काट देंगे.’’

आंजनेय लोगों का भरोसा जीतने की बात कर रहे हैं. लेकिन कैंप-सड़क-कैंप रणनीति ने आदिवासियों के एक हिस्से को अंदेशे में डाल दिया है. माओवाद के खिलाफ इस मॉडल की शुरुआत महाराष्ट्र से हुई थी. इससे जुड़े अंदेशों को समझने के लिए भी हमें महाराष्ट्र चलना होगा.  

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले का गांव तोड़गट्टा. यह महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा पर पड़ने वाला आखिरी गांव है. यहां से डेढ़ किलोमीटर की दूरी तय करके आप मेंद्री पहुंच जाते हैं जो छत्तीसगढ़ का पहला गांव है. जिस समय हम तोड़गट्टा पहुंचे, शाम के चार बज रहे थे. गांव की तरफ कई ग्रामीणों की गोलबंदियां निकल रही थीं. स्थानीय गाइड एडवोकेट लालसू नागोटी ने बताया कि यह तोडगट्टा में चल रहे आदिवासियों के प्रदर्शन में शिफ्ट बदलने का समय है. यहां आदिवासी पिछले डेढ़ महीने से सड़क के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. प्रदर्शन की वजह है इस इलाके से निकलने वाली सड़क.

माड़िया जनजाति से आने वाले लालसु पंचायत समिति के सदस्य हैं और इस प्रदर्शन में अगुआ की भूमिका में हैं. वे बताते हैं, ''छत्तीसगढ़ के बांगेतुरी तक चार-लेन की सड़क बन चुकी है. अब इस सड़क को तोड़गट्टा होते हुए एटापल्ली से मिलाने का प्रस्ताव है. लेकिन इस ग्रामीण इलाके में चार लेन की सड़क क्या हमारे भले के लिए बनाई जा रही है? नहीं, यह पूरा खेल दमकुंडावाही के पहाड़ों पर मौजूद लौह-अयस्क को ले जाने के लिए रचा जा रहा है. सरकार को अगर इस इलाके के आदिवासियों की इतनी ही चिंता होती तो शायद वह यहां पहले स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र खोलती, न कि सड़क बनाती.’’

आसपास के लगभग पचास गांव के लोग तोड़गट्टा के प्रदर्शन में शामिल होने आए हैं. 26 साल के राकेश आलम भी इनमें शामिल हैं. वे ग्रेजुएशन कर चुके हैं और फिलहाल प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं. वे कहते हैं, ''जिस तेजी से सड़कें बन रही हैं उससे एक डर है कि कहीं पुराना दौर फिर से न लौट आए. आदिवासियों की कई पीढ़ियों को शोषण का सामना करना पड़ा था. उन्हें अपने अधिकार पता नहीं थे. तब जंगलात और पुलिस महकमे के लोग उनके साथ मनमानी करते थे.’’  

छत्तीसगढ़-महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित इलाकों में 30 से ज्यादा जगहों पर सड़क के निर्माण के खिलाफ प्रदर्शन चल रहे हैं. इन प्रदर्शनों को लेकर सरकारें ऊहापोह की स्थिति में हैं. अगर इनके खिलाफ ज्यादा बल का प्रयोग किया गया तो सलवा जुडूम के दौर की तरह आम लोगों की सहानुभूति माओवादियों की तरफ बढ़ने का अंदेशा है. दूसरी तरफ सड़क बनाए बिना माओवादी इलाकों में सरकार की पहुंच होना आसान नहीं हैं.

मध्य भारत में फिलहाल सूरत-ए-हाल यह है कि माओवादी भयंकर दबाव में हैं. उन्हें अपना काफी इलाका खोना पड़ा है. दूसरी तरफ सड़क विरोधी आंदोलनों और माओवादियों की तरफ से मिल रही चुनौती के चलते सड़क निर्माण का काम उस तेजी से नहीं चल रहा जितना की उम्मीद थी, न ही कैंप-सड़क-कैंप रणनीति उतनी कारगर साबित हुई. 

दावों और जवाबी दावों के बीच सच यही है कि नक्सल प्रभावित इन इलाकों में लड़ाई अभी लंबी चलने वाली है.

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