आरंभिक जीवन
20 जून, 1958 को ओडिशा के मयूरभंज जिले की रायरंगपुर तहसील में एक संथाल परिवार में कई बेटों के बीच इकलौती बेटी द्रौपदी को सभी प्यार करते थे.
उनके पिता, बिरंची नारायण टूडू, किसान थे और मां, सिंगो टुडू, गृहिणी थीं. केवल दूसरी कक्षा तक पढ़े द्रौपदी के पिता चाहते थे कि उनकी बेटी शिक्षा प्राप्त करे, खासकर इसलिए कि उनके बेटों, भगत और तारिणी, ने पढ़ाई में कोई रुचि नहीं दिखाई थी. मूल रूप से उनका नाम पुती था और उन्हें द्रौपदी नाम उनके शिक्षक ने दिया था.
शिक्षा
द्रौपदी ने सातवीं कक्षा तक गांव के स्कूल में पढ़ाई की. एक बार वे कक्षा में अपना कंपास भूल गईं तो उनके शिक्षकों ने उन्हें कंपास दिया. जब स्कूल में उनकी पढ़ाई पूरी हुई तो उन्होंने कंपास और जियोमेट्री बॉक्स लौटा दिया ताकि कोई दूसरा गरीब छात्र उसका उपयोग कर सके. अपनी पाठ्यपुस्तकें भी वे स्कूल में ही दे देती थीं.
बरसात के दौरान उन्हें तेज धार वाली नहर पार करके नंगे पांव स्कूल जाना होता था. अक्सर पूरी तरह से भीग जाने वाली द्रौपदी की कोशिश होती थी कि उनकी किताबें सूखी रहें. वे खेलों में भी अच्छी थीं और उन्होंने विभिन्न एथलेटिक स्पर्धाओं में प्रथम पुरस्कार जीता था.
भुवनेश्वर के कैपिटल गवर्नमेंट हाइस्कूल में उन्हें दाखिला दिलाने के लिए उनके पिता ने अपनी जमीन गिरवी रख दी थी. शायद अपनी पहचान के प्रति सचेत द्रौपदी वहां पांच अन्य आदिवासी लड़कियों के साथ पीछे की बेंच पर बैठती थीं.
जब उनकी सहेलियां स्कूल कैंटीन में घुगनी, आलू चॉप या मिठाइयां खा रही होती थीं, तब उन्हें आदिवासी छात्रावास में मिलने वाले मुफ्त भोजन से काम चलाना होता था, क्योंकि उनके पिता उन्हें हर महीने जो 10 रुपए भेजते थे उसमें बस इतना ही इंतजाम हो सकता था. उनके दोस्तों को याद है कि पूरी स्कूली पढ़ाई के दौरान वे सिर्फ एक बार सिनेमा देखने गई थीं.
1974 में कला वर्ग के विषयों के साथ इंटरमीडिएट करने के बाद जाति प्रमाण पत्र प्राप्त करने में काफी समय लग जाने के कारण कॉलेज में दाखिला के लिए उन्हें एक साल तक इंतजार करना पड़ा. उस दौरान वे अपने पिता के साथ खेतों में काम करतीं और कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया करती थीं. बाद में, उन्होंने रमादेवी महिला विश्वविद्यालय, भुवनेश्वर से बीए किया.
कामकाज और परिवार
1970 के दशक के अंत में उन्हें भुवनेश्वर में राज्य के सिंचाई विभाग में कनिष्ठ सहायक की नौकरी मिली. इसके बाद भारतीय स्टेट बैंक की रायरंगपुर शाखा में काम कर रहे श्याम चरण मुर्मू से उनकी शादी हुई. इस दंपती को एक बेटी हुई, लेकिन जब वह सात साल की थी तब उसकी मृत्यु हो गई.
इसके बाद द्रौपदी ने भुवनेश्वर की नौकरी छोड़ दी और वापस रायरंगपुर चली गईं, जहां उन्होंने श्री अरबिंदो स्कूल ऑफ इंटीग्रल एजुकेशन में मानदेय पर शिक्षक के रूप में आदिवासी बच्चों को शिक्षा में मदद देना शुरू किया. इस बीच, उन्होंने एक और बेटी तथा दो बेटों को जन्म दिया.
राजनीति
स्कूल में उनके काम और उनकी सामाजिक पहुंच से प्रभावित भाजपा नेता राजकिशोर दास ने 1997 में उन्हें पार्टी में शामिल होने के लिए राजी किया. उसी साल उन्होंने पार्षद का चुनाव जीता और रायरंगपुर नगरपालिका की उपाध्यक्ष बनीं. उन्हें अक्सर मारुति 800 में घूम-घूम कर पूरे नगर में स्वच्छता कार्यों की निगरानी करते हुए देखा जा सकता था.
उन्होंने 2000 में रायरंगपुर क्षेत्र से विधानसभा चुनाव जीता और नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली बीजद-भाजपा गठबंधन सरकार में परिवहन और वाणिज्य मंत्री बनीं. बाद में उन्हें मत्स्य पालन और पशु संसाधन विकास मंत्रालय दिया गया. उनके परिवहन मंत्री कार्यकाल में ही उनके गांव ऊपरबेड़ और ससुराल पहाड़पुर तक पक्की सड़कों का निर्माण हुआ. उसके पहले मुर्मू दंपती को किराये पर साइकिल लेनी होती थी जिसे दोनों बारी-बारी से चलाकर पहाड़पुर जाते थे.
भाजपा अनुसूचित जनजाति मोर्चा की अध्यक्ष और तीन बार मयूरभंज की जिला पार्टी अध्यक्ष बनीं. संथाली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने के अभियान में भी उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई.
दो बेटों और पति को खो देने के बाद उन्होंने खुद को आदिवासियों के हितों के प्रति समर्पित कर दिया. इसमें आदिवासियों के लिए अपने दिवंगत पति के नाम पर एक आवासीय स्कूल भी खोला.
वे 2015 में झारखंड की पहली महिला राज्यपाल बनीं. उनके स्कूली दोस्तों को राजभवन में आमंत्रित किया जाना याद है. एक दोस्त की टिप्पणी थी कि, ''वे बिल्कुल पहले जैसी ही थीं, केवल तेल लगे बालों की चोटी और स्कूल की वर्दी की जगह चश्मे और साड़ियों ने ले ली थी.’’
द्रौपदी ने बतौर राज्यपाल 2015 में छोटानागपुर टेनेंसी ऐक्ट और संथाल परगना टेनेंसी ऐक्ट में विवादास्पद संशोधनों को सरकार को वापस कर दिया था. 2018 में पत्थलगड़ी प्रथा को लागू करके आदिवासी गांवों में पुलिस और प्रशासन के प्रवेश को रोक देने वाली ग्राम सभाओं को शांत करने में उन्होंने अपने वार्ता कौशल का इस्तेमाल किया.
प्रधानमंत्री नेहरू की पसंदीदा कविता, रॉबर्ट फ्रॉस्ट की 'स्टॉपिंग बाइ द वुड्स’ का ओडिया अनुवाद उनका भी पसंदीदा था. दोस्त उनकी खिंचाई करते हुए पूछते कि क्या वे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने की योजना बना रही हैं, तो उनका बेबाक जवाब होता था, ''क्यों नहीं?’’