लाल किला भारत की सैन्य शक्ति का शानदार प्रतीक भी है और बदलाव की तवारीख भी. यह मुगल और ब्रिटिश दो साम्राज्यों की ताकतवर राजगद्दी हुआ करता था और इसी किले की प्राचीर से भारत ने दुनिया के सामने ऐलान किया कि वह स्वतंत्र गणराज्य बन गया है. इसी किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 72 साल में भारत के सबसे अहम रक्षा सुधार का ऐलान किया. 72वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से देश को संबोधित करते हुए मोदी ने चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) या रक्षा प्रमुख के पद की घोषणा की.
उन्होंने कहा कि सीडीएस सरकार के एकल सैन्य सलाहकार होंगे, जो ''रक्षा बलों के बीच तालमेल को और तेज'' करेंगे और इसे ''और ज्यादा असरदार'' बनाएंगे. यहां तक कि जिस सरकार ने दुराव-छिपाव, गोपनीयता और अचंभे को अपनी पहचान बना लिया है, उस लिहाज से भी यह ऐलान निहायत हैरान करने वाला था. ब्रिटिश राज के दिनों से तकरीबन बगैर किसी बदलाव के काम करते आ रहे विशालकाय रक्षा मंत्रालय के भीतर भी बहुत कम लोगों को पता था कि ऐसा होने जा रहा है.
यहां तक कि सशस्त्र बल भी हैरान रह गए. इसी साल सेना के तीनों अंगों के बीच पहली बार चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी (सीओएससी) के स्थायी चेयरमैन की नियुक्ति पर व्यापक सहमति बनी थी. पीएमओ को मंजूरी के लिए प्रस्ताव भी भेज दिया गया था और वह तीन सेना प्रमुखों को मिलाकर बनी सीओएससी के प्रमुख के तौर पर एक चौथे चार सितारा अधिकारी की नियुक्ति के लिए था (फिलहाल सबसे वरिष्ठ सेना प्रमुख बारी-बारी से यह पद संभालते हैं). एक वरिष्ठ सैन्य अफसर कहते हैं, ''यह फैसला अनुच्छेद 370 जैसा ही था. हर कोई छोटी-मोटी मरम्मत की उम्मीद कर रहा था... सरकार ने आमूलचूल बदलाव कर डाला.''
सीडीएस का पद 1999 की करगिल लड़ाई के प्रमुख सबकों में से एक था और यह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का अधूरा एजेंडा भी था. मोदी ने दिसंबर 2015 में संयुक्त कमांडरों की कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए इसकी तरफ इशारा किया था. तब उन्होंने कहा था कि ''शीर्ष पर जुड़ाव की जरूरत बहुत लंबे वक्त से है.'' इस जरूरत को पूरा करने में उन्हें तकरीबन चार साल लगे.
प्रधानमंत्री ने यह ऐलान ऐसे वक्त किया है जब देश का राष्ट्रीय सुरक्षा फलक एक मोड़ से गुजर रहा है. राजनैतिक नेतृत्व के सेना को देखने के तरीके में जबरदस्त बदलाव आया है. इसे अब परमाणु शस्त्र संपन्न पाकिस्तान के खिलाफ कठोर शक्ति का ताकतवर औजार समझा जाता है. वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों ने पाकिस्तान के परमाणु असलहा के मद्देनजर 2001 में संसद पर हुए हमले और 26/ 11 के मुंबई आतंकी हमले का बदला लेने से परहेज किया था.
मोदी ने परमाणु छतरी के रहते भी सैन्य टकराव की गुंजाइश को हरी झंडी दिखाई है. उड़ी और पुलवामा के आतंकी हमलों के जवाब में सीमा पार कमांडो कार्रवाई और पाकिस्तान के भीतर आतंकी प्रशिक्षण शिविरों पर बमबारी की गई. इंडिया टुडे से बातचीत में बड़े सैन्य अफसरों ने तस्दीक की कि सशस्त्र बल पाकिस्तान के साथ जंग के लिए पहले किसी भी वक्त से ज्यादा तैयार हैं.
2016 के उड़ी हमले के बाद सेना ने फौरन 'कोल्ड स्टार्ट' हमले—यानी पाकिस्तान के भीतर तेजी से हल्के हमलों—की तैयारी कर ली थी. मिसाइल और गोला-बारूद भर लिया गया था. पाकिस्तान के सामने पडऩे वाले वायु सेना, सेना और नौसेना कमांडो के कार्रवाई मुख्यालयों में तीन साल पहले बैठक हुई और उन्होंने एक साथ मिलकर अपनी जंग की योजना की बारीकियों को मुकम्मल शक्ल दे दी थी. 1971 की जंग के बाद पहली बार ऐसा किया गया था.
सेना ने तमाम किस्म की आकस्मिक संभावनाओं की पड़ताल की और इस बात की भी कि उनमें से हरेक पर उनका जवाब क्या होगा. इन योजनाओं को फिर सेना के तीनों अंगों के प्रमुखों ने अपने-अपने कार्रवाई स्टाफ के साथ बैठकें करके जांचा-परखा. इसका मतलब वह था जो सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने 19 अगस्त को रिटायर हो रहे कर्मियों की बंद कमरे की बैठक में कहा बताया जाता है—कि 14 फरवरी के पुलवामा फिदायीन हमले के बाद सेना पाकिस्तान के साथ जंग के लिए तैयार थी.
राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का पहला मसौदा जल्दी ही सरकार को सौंपा जाना है. इसे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल की अध्यक्षता में डिफेंस प्लानिंग कमेटी ने तैयार किया है. यह नीति पत्र (जिसे अंदरूनी लोग 'रक्षा मामलों पर श्वेत पत्र' कहते हैं) भारत के सैन्य आधुनिकीकरण की बुनियादी 'लक्ष्य रहित शस्त्रीकरण' खामियों में से एक—अलग-अलग सेना की अलहदा जंग की योजनाएं बनाना—को दूर करेगा और बजट की सचाइयों से अलग करके हार्डवेयर की जरूरतें सामने रखेगा. सरकार ने रक्षा खर्च की ऊपरी सीमा को लेकर पहले ही इशारा कर दिया है और इस पर केंद्र सरकार के खर्चों के 16.6 फीसदी से ज्यादा खर्च किए जाने की कोई संभावना नहीं है.
इस साल के 4.31 लाख करोड़ रुपए (61.96 अरब डॉलर) का रक्षा बजट पिछले साल से बहुत थोड़ा ही 6.8 फीसदी ज्यादा है. सामाजिक-आर्थिक प्राथमिकताओं पर सरकार का जोर, राजकोषीय घाटे को साधना और सुस्त होती अर्थव्यवस्था को लेकर चिंताओं का मतलब यह है कि रक्षा खर्चों पर कड़ी लगाम रखी जाएगी. जब बजट सीमित और कम हो, तब प्रशिक्षण और सहयोग को तेज करने और रक्षा खर्चों की प्राथमिकताएं तय करने में सीडीएस की नियुक्ति और भी अहम हो जाती है. हालांकि यह स्वतंत्र भारत के पहले बड़े सैन्य पुनर्गठन की लंबी राह में महज पहला कदम ही होगा.
एक विवादास्पद नियुक्ति
भारत सीडीएस जैसे एकल सैन्य सलाहकार से विहीन दुनिया का आखिरी प्रमुख लोकतंत्र है. यह एकमात्र प्रमुख लोकतंत्र भी है, जहां सशस्त्र सेना मुख्यालय सरकार के एकीकृत विभाग होने के बजाय 'संलग्न कार्यालयों' के रूप में शीर्ष सरकारी ढांचे से बाहर है. यह मॉडल 1947 में भारत के अंतिम वायसराय, लॉर्ड माउंटबेटन के चीफ ऑफ स्टाफ लॉर्ड हेस्टिंग्स इस्माय ने तैयार किया था.
अपनी-अपनी सेवाओं की अगुआई करने वाले तीन कमांडर-इन-चीफ वाले रक्षा मंत्रालय का ढांचा, जिसके समन्वय के लिए एक केंद्रीय समिति भी होती है, एक अस्थायी व्यवस्था की तरह प्रस्तावित था जिसे केवल तब तक के लिए बनाए रखना था जब तक भारत अपनी परिस्थितियों के अनुरूप इससे बेहतर व्यवस्था विकसित नहीं कर लेता.
लेकिन यह व्यवस्था 70 से अधिक वर्षों तक बनी रही और एक विचित्र तरीके से काम करती रही, जिसमें प्रत्येक सेवा अपने बल का खुद प्रबंधन करती और युद्ध की अपनी अलग योजना बनाती रही है. सशस्त्र बलों के मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय के बीच बहुत कम या कोई एकीकरण ही नहीं है. भय और अविश्वास से भरे इस शून्य में, सीडीएस का पद सबसे विवादास्पद, अधिकारों के लिए खींचतान की पृष्ठभूमि तैयार करने वाली नियुक्तियों में से एक बन गया है.
समस्या इस बात में निहित है कि रक्षा मंत्रालय के विभिन्न हलके सीडीएस को आखिर किस प्रकार लेते हैं. नौकरशाही के लिए, यह पद सेना के प्रभुत्व को स्थापित करता है. माना जाता है कि एक रक्षा सचिव ने कुछ साल पहले नए पद के सृजन पर चर्चा के दौरान सेना प्रमुखों से कटाक्ष के लहजे में पूछा था ''फिर मेरा क्या होगा?'' एक अन्य रक्षा सचिव ने कुछ साल पहले एक बातचीत के दौरान खुलकर कहा था कि वास्तव में वे ही सीडीएस हैं. नेहरू के दौर में कांग्रेस ताकतवर सीडीएस को तख्तापलट की आशंकाओं के साथ जोड़कर देखती थी.
कहा जाता है कि भारतीय सैन्य सुधारों के शिल्पकार लॉर्ड माउंटबेटन ने 1950 और 60 के दशक की शुरुआत में नेहरू को सीडीएस बनाने के सुझाव कई बार दिए थे, जिसे नेहरू ने सिरे से खारिज कर दिया था. श्रीलंका में भारतीय शांति-सेना (आइपीकेएफ) की तैनाती (1987-1991) के दौरान सैन्य सेवाओं के बीच जबरदस्त आंतरिक प्रतिद्वंद्विता देखी गई. नौसेना, वायु सेना और सेना, एकल सैन्य कमांडर के तहत एक समन्वित कमांड के लिए संसाधनों का पूल बनाने से जुड़ी कोई आम योजना बनाने में विफल रही.
1999 के करगिल युद्ध के दौरान इस अराजकता की पुनरावृत्ति देखी गई. थल सेना ने आरोप लगाया कि वायु सेना ने 20 दिनों बाद ही लड़ाई में प्रवेश किया. अगर वायु सेना जल्द आ गई होती तो खेल को निर्णायक रूप से बदला जा सकता था. वायु सेना का कहना था कि सेना ने उसकी सीमाओं को समझे बिना हेलिकॉप्टर गनशिप की असंभव जरूरतें बता दीं. संक्षेप में, जब दुश्मन को रौंदने की आवश्यकता थी तब कोई भी सेना एक-दूसरे के साथ निर्बाध रूप से संचालित नहीं हो सकी.
के. सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में 2000 में बनी करगिल रिव्यू कमेटी (केआरसी) के रणनीतिक विश्लेषकों से यह बात छुपी नहीं रही. केआरसी ने पूरी राष्ट्रीय सुरक्षा और सर्वोच्च निर्णय लेने वाले तंत्र पर कड़ी टिप्पणियां कीं और इसे ब्रिटिश राज का अवशेष करार दिया था. इसने पूरे राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र के सुधार और पुनर्गठन की सिफारिश की. समिति ने लिखा, 'पिछले 52 वर्षों का बारीकी से मूल्यांकन करें तो लगता है कि यह देश भाग्यशाली है कि इसकी राष्ट्रीय सुरक्षा पर जितने भी खतरे आए हैं, उनमें से 1962 को छोड़कर किसी अन्य में बहुत नुक्सान नहीं हुआ.'
समिति की रिपोर्ट पेश होने के बाद 2001 में गठित मंत्री-समूह (जीओएम) ने स्वतंत्र भारत की सबसे व्यापक राष्ट्रीय सुरक्षा समीक्षा की. रक्षा प्रबंधन पर जीओएम के विभिन्न टास्क फोर्स में से एक—अरुण सिंह के नेतृत्व में दिवंगत प्रधानमंत्री राजीव गांधी के एक पूर्व करीबी सहयोगी—ने सीडीएस का पद बनाने की सिफारिश की. सिंह को सेना की गहरी समझ थी, जो राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में रक्षा राज्यमंत्री भी रह चुके थे. उनके अनुसार, चार स्टार सीडीएस, बराबरी का दर्जा प्राप्त सभी सेना प्रमुख में प्रथम होगा और तीनों सेनाओं के बीच 'समन्वय' बढ़ाएगा, परमाणु बलों पर प्रशासनिक नियंत्रण रखेगा और 'निर्णय लेने की प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण' की निगरानी करेगा. सेना मुख्यालयों के बीच अधिकारों के विभाजन की परिकल्पना की गई थी और सीडीएस को रक्षा मंत्रालय का संबंधित दफ्तर होने के बजाए मंत्रालय का एकीकृत मुख्यालय बनाने का प्रस्ताव था. सीडीएस रक्षा मंत्री के प्रमुख सैन्य सलाहकार के रूप में भी काम करेगा.
इन सुझावों के बाद, एनडीए सरकार मई 2001 में नौसेना प्रमुख एडमिरल सुशील कुमार को पहला सीडीएस नियुक्त करने जा रही थी. इसके लिए तारीख भी निर्धारित की गई थी. नए प्रमुख के लिए कार्यालय और निवास की पहचान भी कर ली गई थी. लेकिन इस निर्णय से सेना के भीतर तुरंत गुस्सा फूट पड़ा. वायु सेना, जिसे यह डर सता रहा था कि यह संख्या बल में बहुत बड़ी थल सेना के आगे छुप जाएगी, ने अपना प्रतिरोध बढ़ा दिया. वरिष्ठ सेवानिवृत्त वायु सेना अधिकारियों ने परदे के पीछे से राजनैतिक पैरवी शुरू की और उन्होंने सरकार को चेताया कि उसके फैसले के गंभीर परिणाम हो सकते हैं. कुछ साल बाद रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस, जो इस पद के बड़े हिमयातियों में एक थे, ने सरकार के इस निर्णय से पीछे हटने का ठीकरा यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के सिर फोड़ा. उन्होंने दावा किया कि ऐलान से ऐन पहले सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को ऐसा करने से रोकने के लिए समझाने को, पूर्व राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन को दूत बनाकर भेजा था.
नौसेना के पूर्व प्रमुख एडमिरल अरुण प्रकाश कहते हैं, ''अंतिम क्षण में नियुक्ति पर अड़चन ने जीओएम की सिफारिशों की हवा निकाल दी.'' उस वर्ष सितंबर में सरकार ने आगे बढ़कर मुख्यालय इंटिग्रेटेड डिफेंस स्टॉफ (मुख्यालय-आइडीएस) बनाया. इस सीडीएस सचिवालय की अध्यक्षता की जिम्मेदारी एक तीन सितारा अधिकारी को दी गई. मुख्यालय-आइडीएस एक स्टॉपगैप व्यवस्था के रूप में कार्य करेगा, 'रक्षा मंत्रालय के साथ समन्वय के लिए एकल संगठन है जो नीति, सिद्धांत, युद्ध और खरीद को एकीकृत करेगा.' एकीकृत रक्षा स्टाफ के प्रमुख (सीआइडीएस) सीओएससी को रिपोर्ट करेंगे.
सीओएससी का पद तीनों सेना के वरिष्ठतम अधिकारी बारी-बारी से संभालेंगे. लेकिन, पूर्णकालिक प्रमुख की अनुपस्थिति में, मुख्यालय-आइडीएस साउथ ब्लॉक के गलियारों के चारों ओर भटकता रहा. केआरसी ने सेना प्रमुखों पर जुड़वा कार्यों के साथ सेना प्रमुखों पर अपनी-अपनी सेना के कार्यकारी प्रमुख के रूप में युद्ध लडऩे की जिम्मेदारी उठाने के साथ-साथ प्रशिक्षण और साजो-सामान से लैस करने के लिए जिम्मेदार योजनाकारों के रूप में दोहरा उत्तरदायित्व डालने के लिए भारत के पुरातन रक्षा ढांचे को जिम्मेदार ठहराया था. सीओएससी के पद को जोडऩे का मतलब था कि सेना प्रमुखों को तीनों सेना के एक समन्वय निकाय को चलाने की तीसरी जिम्मेदारी के लिए समय देना.
एक पूर्व सेना प्रमुख, जो सीओएससी थे, ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि दो जिम्मेदारियों वाले इस दृष्टिकोण में कितनी खामियां थीं. वे कहते हैं, ''मैं अपने समय का लगभग 30 प्रतिशत ही सीओएससी को समर्पित कर सकता था, शेष समय मुझे अपनी सेना को देना पड़ता था.'' इस वर्ष, इस पोस्ट की अल्पकालिक प्रकृति साफ दिख रही है. सात महीने में सीओएससी के चेयरमैन का पद तीन लोगों के हाथों में जाएगा. 30 मई को, रिटायर नौसेना प्रमुख एडमिरल सुनील लांबा ने इसे एयर चीफ मार्शल बी.एस.धनोआ को सौंपा. वायु सेना प्रमुख इस पद पर सिर्फ तीन महीने बने रह पाएंगे. 30 अगस्त को रिटायर होने से पहले इसे सेना प्रमुख जनरल रावत को सौंप देंगे. सेना प्रमुख 30 दिसंबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं इसलिए वे भी ठीक चार महीने ही इस पद पर काबिज रहेंगे.
सुरक्षा खतरों को तीन सेनाएं किस प्रकार लेती हैं, उस दृष्टिकोण में भारी अंतर ने बजट आवंटन के लिए सीओएससी को एक युद्ध के मैदान में बदल दिया. 2012 में, सेना ने एक नए माउंटेन स्ट्राइक कोर—जिसकी तीन डिवीजनों के लिए 90,000 सैनिकों की भर्ती करनी होगी और यह सेना के खर्चे में और वृद्धि करेगी—के गठन पर नौसेना और वायु सेना की आपत्तियों को खारिज कर दिया.
पिछले 17 वर्षों में, केवल एक त्रि-सेवा कमांड बन सकी है—अंडमान और निकोबार कमांड—जिसमें तीनों की भागीदारी है. इसकी कमान बारी-बारी से तीनों सेना में से प्रत्येक के एक तीन-स्टार अधिकारी को सौंपी जाती है और इसे भविष्य की तीनों सेनाओं के साझा कमान की रूपरेखा का प्रयोगस्थल होना चाहिए था. हालांकि, इस प्रयोग से स्पष्ट रूप से नाखुश नौसेना ने 2015 में इस कमांड को पुन: प्राप्त कर लिया. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में भी सीडीएस के गठन के प्रति इच्छाशक्ति दिखाई दी थी. 2015 के इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने कहा था, ''सैन्य सेवाओं का एकीकरण होना चाहिए और सीडीएस बहुत जरूरी है. यह होगा कैसे? मुझे कुछ समय दें और मैं इसे करूंगा क्योंकि मौजूदा संरचना में तीनों सैन्य सेवाओं का समन्वय मौजूद नहीं हैं.''
2016 में, पर्रीकर की बनाई 11 सदस्यीय समिति ने सीडीएस के निर्माण को समय की जरूरत बताया था. लेफ्टिनेंट जनरल डी.बी. शेकतकर की अध्यक्षता वाली समिति ने 17 अलग-अलग एकल-सेवा कमांड को खत्म करने की भी सिफारिश की थी. केवल तीन संयुक्त थिएटर कमांड होंगे—उत्तर, दक्षिण और पश्चिम—प्रत्येक का नेतृत्व थियेटर कमांडर करेगा, जो सीधे सीडीएस को रिपोर्ट करेगा. सिफारिशों से केवल तीनों सैन्य सेवाओं में ही चिंता की स्थिति नहीं बनी, बल्कि रक्षा मंत्रालय भी इससे डर गया. सीडीएस और थिएटर कमांडों जैसे विवादास्पद हिस्सों को दरकिनार कर दिया गया. रक्षा मंत्रालय ने रिपोर्ट के केवल कम विवादास्पद खंडों को स्वीकार किया.
2017 में, सशस्त्र बलों ने संयुक्त सैन्य सेवा की ओर पहला कदम उठाना शुरू किया. सीओएससी अध्यक्ष और नौसेना प्रमुख लांबा, सेना प्रमुख जनरल रावत और वायु सेना प्रमुख धनोआ को एक मंच पर लेकर आए. यह पहली बार था जब तीन प्रमुखों ने एक साझा त्रि-सेवा प्रमुख पर सहमति व्यक्त की थी. सीओएससी ने सीओएससी के लिए एक स्थायी अध्यक्ष का प्रस्ताव रखा. यह 2012 में नरेश चंद्र समिति की एक सिफारिश थी, जिसे केआरसी और जीओएम रिपोर्टों के कार्यान्वयन के अध्ययन के लिए नियुक्त किया गया था.
सीओएससी ने थिएटर कमांड की सिफारिश नहीं की थी—जहां थल, वायु और नौसेना का नेतृत्व एक एकल सैन्य कमांडर करेगा. वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि इस बात को जानबूझकर हटा दिया गया था. ऐसा वायु सेना के भय को दूर करने के लिए किया गया था. सीओएससी का मत था कि स्थायी अध्यक्ष, ऑपरेशनल कमांड का प्रमुख नहीं होगा. इसके बजाए, वह अपना सारा ध्यान प्रशिक्षण, योजना और संयुक्त अभ्यास चलाने में लगाएगा. यह प्रस्ताव एक वर्ष से अधिक समय से सरकार के पास लंबित था.
बदलाव की पहल
सीडीएस की 15 अगस्त को की गई घोषणा के चलते सरकारी मशीनरी अब हरकत में आ जाएगी. सीडीएस का फैसला हमेशा राजनैतिक ही होना था. अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस में यह सेना पर ऊपर से नीचे थोपा गया था. कायापलट करने वाले इस सुधार को अमल में लाने के लिए मोदी को वैसा ही संकल्प दिखाना होगा जैसा उन्होंने नई दिल्ली में राष्ट्रीय युद्ध संग्रहालय बनवाने के मामले में दिखाया था. तकरीबन आधी सदी से धूल खा रहे इस प्रस्ताव को उन्होंने हेरिटेज एक्टिविस्टों की आपत्तियों को खारिज करके अमली जामा पहना दिया. सेना प्रमुख रावत और वायु सेना के धनोआ को इस पद का संभावित उम्मीदवार बताया जा रहा है. मगर उम्मीदवार से कहीं ज्यादा अहम होगी उसकी भूमिका और जिम्मेदारियां, जिनकी सैन्य और गैर-सैन्य हलकों में करीब से छानबीन की जाएगी.
सरकार के औपचारिक अधिसूचना जारी करने से पहले रक्षा मंत्रालय सीडीएस के अधिकार और दायित्व को परिभाषित करने के लिए एक कमेटी का गठन करेगा. यह देखना अहम होगा कि नए सीडीएस को क्या वित्तीय अधिकार मिलते हैं. अगर बजट और संसाधनों का आवंटन उसके हाथों में दे दिए जाता है, तो वह किसी भी अन्य सैन्य प्रमुख से बहुत ज्यादा ताकतवर होगा. एक अहम और विवादास्पद मुद्दा यह होगा कि क्या जमीन पर सैन्य टुकडिय़ों पर सीडीएस का हुक्म चलेगा, यानी क्या थिएटर कमान उसके पास होगी, जैसा शेकतकर समिति ने सिफारिश की थी. सेना का दबदबा होने के डर से नौसेना और वायु सेना ऐसी एकीकृत कमान का विरोध कर रही हैं. मगर थिएटर कमान के बगैर सीडीएस के सीआइएससी बन जाने का खतरा है.
सीडीएस की नियुक्ति को लेकर सरकार को अभी अपनी सोच स्पष्ट करनी है. यह मानकर चला जा सकता है कि पिछले साल तीनों प्रमुखों के कॉलेजियम ने सीओएस के स्थायी चेयरमैन की नियुक्ति की जो सिफारिश की थी, उसी के निर्देशक सिद्धांतों के आधार पर इसे बनाया जा सकता है. चेयरमैन सरकार का एकल सैन्य सलाहकार होगा और प्रशिक्षण, बजट तथा खरीद की देखरेख करेगा. वह स्ट्रैटजिक फोर्सेज कमान का प्रमुख भी होगा, जो परमाणु हथियारों और उन्हें दागने की प्रणालियों को संभालती है. वह बजट और रक्षा खरीदों का काम भी देखेगा और साथ ही तीनों सेना की तीन साझा नई संस्थाओं-साइबर और अंतरिक्ष के लिए नवजात कमान और स्पेशल फोर्सेज कमान का भी प्रमुख होगा.
सिंगापुर में एस. राजाराम स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज (आरएसआइएस) में साउथ एशिया प्रोग्राम के असिस्टेंट प्रोफेसर और लंबे समय से भारत के रक्षा सुधारों पर नजर रखने वाले अनित मुखर्जी को लगता है कि सरकार सीडीएस को आइडीएस का प्रमुख बनाएगी और रक्षा नीति के आधार के तौर पर उनका इस्तेमाल करेगी. वे कहते हैं, ''अगर ऐसा होता है, तो यह उतनी बुरी बात नहीं होगी. सिवाय इसके कि हो सकता है, ऊपर की तरफ आगे बढऩे की खातिर तीनों सेना के लिए मिले-जुले स्टाफ का तजुर्बा जरूरी हो जाए, उसी तरह जैसे गोल्डवाटर-निकोलस कानून की वजह से अमेरिकी सेना के लिए हो गया था. इस फैसले के अमल को पूरी तरह सेना के हाथों में छोड़ देने के बजाय रक्षा नीति की रूपरेखा को लेकर ज्यादा सक्रिय होना होगा.ÓÓ
2001 के मंत्री-समूह ने सीडीएस को खरीद और परियोजनाओं के मामले में तीनों सेना की अंदरूनी और आपसी प्राथमिकताएं तय करने के जरिए योजना बनाने की प्रक्रिया की दक्षता और प्रभाव बढ़ाने का काम सौंपा था. 2017 में तब रक्षा राज्यमंत्री सुभाष भामरे ने एक अध्ययन करवाया था, जिसमें पाया गया था कि उससे पहले के तीन साल में रक्षा उपकरणों की खरीद के जो ठेके दे दिए गए थे, उनकी 144 योजनाओं में से मुश्किल से 10 फीसदी 18-25 महीनों की तय मियाद में पूरी हुई थीं.
इनमें से 133 योजनाओं ने जो औसत समय लिया था 52 महीने, वह तय समय से दोगुने से भी ज्यादा था. अध्ययन ने पाया कि इस देरी की कुछ वजह तीनों सेना में आपसी तालमेल की कमी थी. इसने पाया कि अलग-अलग सेना ने अपनी जरूरतों को सरल और कारगर बनाने के लिए उतना नहीं किया, जितना जरूरी था. सेना की भविष्य की योजनाएं अलग-थलग बनाई गई थीं और उनमें आपसी जुड़ाव भी उतना नहीं था, जितना होना चाहिए था. इस सेना केंद्रित नजरिए की वजह से सीमित रक्षा बजट पर दबाव आ गया और नतीजा यह हुआ कि अहम जरूरतों को पूरा नहीं किया जा सका.
रिपोर्ट कहती है कि इस गतिरोध को बिल्कुल शुरुआत में ही यानी उस चरण में जिसे जरूरत की पूर्व-स्वीकृति (एओएन) कहा जाता है, हल किया जा सकता था, बशर्ते एचक्यू-आइडीएस को अधिकार दिए गए होते. आइडीएस, यानी वह जिसकी अगुआई सीडीएस करेगा, तब एक एकीकृत योजना विकसित कर सकता था और बजट अनुमानों के आधार पर सेना की आपसी प्राथमिकताएं तय कर सकता था. मसलन, आइडीएस तय कर सकता था कि क्या ज्यादा अहम और जरूरी है-नौसेना के लिए एक तीसरा विमानवाहक या वायु सेना के लिए 110 लड़ाकू विमान. इसी के हिसाब से वह बजट आवंटित कर सकता था.
सीडीएस के लिए 2001 के जीओएम की एक अहम सिफारिश यह थी कि वह 'जॉइंटनेस' या जुड़ाव पक्का करेगा. तीनों सेना के एकीकरण के अलावा सीडीएस को असैन्य अफसरशाही के साथ सशस्त्र बलों के एकीकरण को बढ़ावा देना होगा. शेकतकर कहते हैं कि सशस्त्र बलों के मुख्यालय को रक्षा मंत्रालय में लाना या उसके साथ जोडऩा प्रमुख प्राथमिकता होनी चाहिए. वे कहते हैं, ''शुरुआत में लेफ्टिनेंट जनरलों को एडिशनल सेक्रेटरी और मेजर जनरलों को जॉइंट सेक्रेटरी के समकक्ष के तौर पर नियुक्त करना होगा.''
इस सबको पूरा होने में अलबत्ता कई साल लगेंगे. रक्षा मंत्रालय के तीनों सेना के थिंक टैंक सेंटर फॉर जॉइंट वारफेयर स्टडीज (सेनजोस) के प्रमुख लेफ्टि. जनरल विनोद भाटिया कहते हैं, ''सीडीएस जादूगर नहीं है जिसके पास कोई जादू की छड़ी हो. इस पद की स्वीकार्यता और विकास में वक्त लगेगा, संक्रमण की एक अवधि होगी.''
वरिष्ठ रक्षा अधिकारियों का कहना है कि सीडीएस को ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए कमान को थिएटर में बदलना अगला तार्किक कदम है. सैन्य विश्लेषक ब्रिगेडियर जर्क्सेस एड्रियनवाला (सेवानिवृत्त) कहते हैं, ''एकीकृत प्रणाली और सीडीएस के बगैर अलग-अलग सेनाओं की लड़ाई की ताकत में बढ़ोतरी अलहदा जागीरें ही बनी रहती हैं और उनमें जंग लडऩे की एकजुट मशीन के तौर पर अपनी गजब की ताकत का इस्तेमाल करने क्षमता नहीं होती.''
मगर तीनों सेना को एक साझा युद्ध 'थिएटर' में एकजुट करने की प्रक्रिया अभी कई साल लेगी. इसके लिए मौजूदा कमान ढांचे में भारी बदलाव करने होंगे. दक्षिणी कमांड में तीनों सेनाएं अच्छी तादाद में मौजूद हैं और इसे सबसे पहले थिएटर में बदला जा सकता है. इसके लिए एक संयुक्त मुख्यालय बनाना होगा जिसमें साझा खुफिया, संचार, जासूसी, निगरानी तथा वायु रक्षा प्रणालियां होंगी. तब अधिकार संपन्न सीडीएस चांदी की वह सर्वशक्तिमान गोली होगा, जिसकी भारत के गड़बड़ रक्षा ढांचे को वाकई जरूरत है.
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