पहले मुझे इस अवधारणा को सही वैचारिक संदर्भ में रखने दीजिए. दरअसल 'हिंदू' के लिए 'हिंदुत्व' का अर्थ वही है जो 'ईसाई' के लिए 'ईसाइयत' होता है. यह बुनियादी व्याकरण का मामला है कि यह भाववाचक संज्ञा है, जो विशेषण या संज्ञा में व्युत्पत्ति त्व, या यत को जोड़कर बनाई गई है. इस रूप में यह 'उसके मर्म या सिद्धांत' को बताती है. मतलब यही है तो फिर दिक्कत क्या है?
दिक्कत यह है कि हिंदुस्तान, खासकर राजनैतिक संदर्भों में अमूमन हिंदू धर्म को खारिज करके और हिंदू समाज को 'अच्छे' और 'बुरे' में बांटकर सियासी ताकत हासिल की जाती रही है. उस हिंदू को अच्छा कहा जाता है, जो वह घनघोर बुरे बर्ताव के बावजूद विनम्र और दब्बू बना रहता है, केवल इसलिए कि उसकी सदाबहार खूबी उसकी 'सहिष्णुता' है. मगर जब वह अपने मूल्यों पर जोर देता है या उसके लिए लड़ता-झगड़ता है, तब वह 'बुरा' हो जाता है यानी 'हिंदुत्व' वाला या 'दूसरों के प्रति असहिष्णु' हिंदू हो जाता है.
बड़े अहंकार के साथ कहा जाता है कि हिंदू को तो हम स्वीकार करते हैं, पर हिंदुत्व को खारिज करते हैं, मतलब यह कि 'हिंदू होने' की कोशिश को अस्वीकार कर दिया जाता है. इस पेचीदा दलील का कुल मतलब यह निकलता है कि ''तुम हमें अपनी बेइज्जती और अवमानना करने दो तो तुम हमें स्वीकार हो. अलबत्ता अगर तुम अपनी बुनियादी बातों (मूल्यों, विश्वासों, प्रतीकों, नायकों) पर हमारे हमले का पलटकर जवाब देते हो तो हम तुम्हें 'कट्टरपंथी', 'फासीवादी' और इसलिए पतित या प्रतिगामी कहेंगे.''
'हिंदुत्व' शब्द को बेरहमी से शब्द शास्त्र या जड़ों से और अन्य धर्मों के उसके पर्यायों से, जिनकी हिंदू के विपर्याय के तौर पर व्याख्या की जाती है, काटने की चेष्टा की जाती है. साथ ही इसे हिंदू सभ्यता की 'विचारधारा' के तौर पर प्रचारित किया जाता है, न कि हिंदू 'सभ्यता के सार' के तौर पर, बल्कि उसकी विकृत निर्मिति या रचना के तौर पर. मगर सचाई यह है कि हिंदुत्व का सीधा-सादा मतलब 'हिंदू होना' है.
ऐसे भी हिंदू हैं जो इस धर्म में पैदा होने के इत्तेफाक की वजह से अपने को हिंदू मानते हैं, क्योंकि उनके लिए इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वे हिंदू हैं या गैर-हिंदू. वे हिंदू धर्म को नीचा दिखाने के विशेषाधिकार का दावा करते हैं, इस बिना पर कि वे भी आखिरकार 'हिंदू' हैं: पर असल में उनकी केवल पैदाइश ही हिंदू परिवारों में हुई है. ऐसे फैशनपरस्त सेकुलरवादियों ने अपने 'हिंदू-पन' को करीब-करीब तज ही दिया है.
हिंदूपन के बारे में उसके विरोधी और हिमायती दोनों पहले से ही काफी कुछ कहते आ रहे हैं और लगातार कह रहे हैं. हिंदूपन की अवधारणा के इर्दगिर्द जुड़ी गड़बडिय़ों ने इस काम की पेचीदगियों में और इजाफा कर दिया है जो मुख्य तौर पर हिंदुस्तान में हासिल तकरीबन गैर-जिम्मेदारी की हद तक जाने वाली बौद्धिक आजादी की बदौलत हैं.
हिंदू चेतना के नए सिरे से उभार के बारे में 1980 और उसके बाद के दशकों में निष्पक्ष अनुसंधान भी नहीं किए जा सके और इसकी वजह थी हिंदुत्व को लेकर सियासी मंसूबों से प्रेरित बहुत ज्यादा बहस-मुबाहिसे और बीते जमाने की उस मानसिकता से उपजी इंतहाई बेरुखी, जिसमें किसी भी हिंदू चीज के बारे में खुलेआम बात करना अभिशाप माना जाता था. अकादमिक समुदाय की इस निष्क्रियता और इसके साथ ही सियासी तौर पर सही होने के पहले से मौजूद प्रलोभन ने कई तरीकों से राजनैतिक-विचारधारात्मक छुआछूत को बढ़ाने में योगदान दिया. इसकी वजह से हिंदुत्व को एक नाजायज विचारधारा सरीखी चीज के तौर पर पेश करने का हिंदुत्व-विरोधियों का काम और आसान हो गया.
हिंदुस्तान 1947 के बाद बाकायदा ईजाद किए गए विभाजनकारी सामाजिक-राजनैतिक आंदोलनों का गवाह रहा है. यह केवल राम जन्मभूमि आंदोलन ही था, जिसने हिंदू समाज को एक ऐसे मुद्दे पर एकजुट किया, जो उनके लिए अपने वजूद को बचाने का मुद्दा था. यह हिंदू एकता का संदेश इतने भारी असरदार ढंग से देने में कामयाब रहा कि सैकड़ों वामपंथी अध्येताओं के लिए यह समझाना मुश्किल हो गया कि हिंदू उस एक आंदोलन के बल पर आखिर कैसे एक साथ आ सकते हैं और आ गए हैं, जिसे वे फिरकापरस्त और सवर्ण जातियों के आंदोलन के तौर पर देखते थे. राम जन्मभूमि आंदोलन के चलते हिंदू कम से कम कुछ वक्त के लिए अपनी छोटी-छोटी जातिगत पहचानों को भूल गए और ज्यादा बड़ी सांस्कृतिक पहचान—यानी हिंदू—के बारे में सोचने को बाध्य हुए.
राम जन्मभूमि आंदोलन की कामयाबी के बावजूद, हिंदुपन को केवल जिद्दी गफलत के तौर पर ही समझाया गया. पूजा-अर्चना के लिए बहुत सारे देवी-देवताओं की मौजूदगी और पूजा के तौर-तरीकों सहित व्यावहारिक तौर पर जीवन के हरेक क्षेत्र में विविधता की वजह से उन्हें एक बाड़े में घेरना हिंदू धर्म प्रणाली में और उसके नतीजतन हिंदू विश्व नजरिए में न तो चाहा गया है और न ही मुमकिन है. बाड़बंदी का यह संपूर्ण इनकार ही है जिसमें आध्यात्मिक लोकतंत्र—जो अपनी गैर-भौतिक, नैतिक गूंजों के लिए अंग्रेजी की 'स्पिचुअल डेमोक्रेसी' से ज्यादा तरजीहयाक्रता भारतीय मुहावरा है.
आध्यात्मिक लोकतंत्र हिंदू आस्था और मान्यताओं की अकेली सबसे खास और सबसे अलहदा खूबी है. कई दूसरे धर्मों और मान्यताओं के उलट हिंदू धर्म कभी खुद को मुक्ति या मोक्ष के एकमात्र तरीके के तौर पर पेश नहीं करता. इसके उलट, हिंदू धर्म मानता है कि सभी मार्ग एक ही सत्य, एक ही सर्वशक्तिमान की तरफ ले जाते हैं. यही सिद्धांत और विश्वास व्यापक तौर पर दोहराए जाने वाले इस कथन में हैः ''एकमड् सत, विप्र बहुधा वदंत्यिर' और यही हिंदू आध्यात्मिक विचार की बुनियाद है.
आज जब समूची दुनिया दहशतगर्दी के रुझानों के तीव्र खतरे से दो-चार है और जब दहशतगर्दी की बुनियादी जड़ अनिवार्य तौर पर धर्म प्रणाली की श्रेष्ठता से प्रेरित नजरिए से जुड़ी हो, तब हैरानी ही जाहिर की जा सकती है कि आध्यात्मिक लोकतंत्र को स्वीकार किए बगैर मानवता आखिर कैसे कायम रह सकेगी? यह हकीकत है कि जातिवाद सरीखी विकृतियों ने हिंदू नजरिए की जड़ों को खोखला कर दिया है, बल्कि आदर्श तो यही होगा कि हिंदूपन की मान्यता में जाति के आधार पर किसी भी भेदभाव की बिल्कुल कोई गुंजाइश न हो.
आर्यों के हमले, देशज और गैर-देशज लोगों के बीच टकराव, मूल बाशिंदों या आदिवासियों और दूसरों के बीच मतभेदों, कुछ निश्चित सामाजिक धड़ों या समुदायों को जन्मजात आपराधिक करार देना या विजेता और पराजितों के बीच टकराव सरीखे सिद्धांतों और ऐसी ही अन्य बातों की हिंदूपन की अवधारणा में कोई जगह नहीं हो सकती. याद रखें कि आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत को किसी और ने नहीं बल्कि डॉ. भीमराव आंबेडकर सरीखी शख्सियत ने ही खारिज कर दिया था.
हिंदू समाज की चिर एकता के लिए सामाजिक और आर्थिक इंसाफ नितांत जरूरी है. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि समाज के विशेषाधिकार संपन्न और अपेक्षाकृत कम बदकिस्मत तबकों को ही यह तय करना होगा कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर कमजोर तबकों को बराबरी की हिफाजत, इज्जत और मौके भी हासिल हों.
हिंदू हर स्थिति में खुद को ढालने के लिए जाने जाते हैं. दुनिया के बारे में हिंदू नजरिए की एक खूबी उसका लगातार विकसित होते रहना है. नित नूतन, चिर-पुरातन हमारी सोच की बुनियाद है. फिर हिंदू आधुनिकता-विरोधी भला कैसे हो सकते हैं? बुद्ध ने ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हिंदू मानस को रूढ़ि से तर्क की तरफ मोड़ दिया था, जो नवजागरण आधुनिकता का ऊंचा निकष था.
हिंदुओं को इस हकीकत को स्वीकार करने की चुनौती का भी सामना करना होगा कि तकनीकी तौर पर हिंदू धर्म भी दूसरी विश्वास प्रणालियों या मान्यताओं की तरह ही है. मगर व्यावहारिक तौर पर यह मान्यताओं भर से कहीं ज्यादा है, क्योंकि यह केवल एक पैगंबर, केवल एक पवित्र पुस्तक, या केवल एक ईश्वर को मानने की फितरत नहीं रखता है, जैसा ज्यादातर सामी या सेमेटिक धर्मों में माना जाता है. इससे भ्रम की भारी गुंजाइश पैदा हो जाती है, जो ज्यादातर बेरहमी से पैदा भी की जाती है. तमाम समूहों की अल्पसंख्यक का तमगा हासिल करने की अंधाधुंध होड़ में शामिल होना एक संक्रामक बीमारी के लक्षण हैं.
छोटी-छोटी पहचानों को बढ़ावा देने वाली वोट बैंक की सियासत ने हिंदुओं को एकजुट करने वाली ताकतों के सामने मौजूद चुनौती को और भी मुश्किल बना दिया है. इसे तीव्र खंडित चुनाव प्रणाली ने आसान बनाया है. मगर इस सबसे एक सच्चे हिंदू को भयभीत नहीं होना चाहिए, क्योंकि अगर वही आध्यात्मिक लोकतंत्र से घृणा करेगा, तो उसकी हिफाजत फिर भला कौन करेगा?
—डॉ. विनय सहस्रबुद्धे
लेखक भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं.