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आवरण कथाः गुजरात गौरव की जंग

भाजपा की शीर्षस्थ जोड़ी नरेंद्र मोदी और अमित शाह अपनी सबसे मुश्किल चुनावी लड़ाइयों में से एक से मुकाबिल, अपने गृह प्रदेश को नए जोशो-खरोश से भरे विपक्ष से बचाने की चुनौती मुंहबाए खड़ी.

ताकत की मालाः 16 अक्तूबर को गुजरात गौरव सम्मेलन में प्रधानमंत्री के साथ अमित शाह और विजय रूपाणी
ताकत की मालाः 16 अक्तूबर को गुजरात गौरव सम्मेलन में प्रधानमंत्री के साथ अमित शाह और विजय रूपाणी
अपडेटेड 30 अक्टूबर , 2017

डिवाइन लाइफ मिशन नाम के एक आध्यात्मिक आंदोलन के सदस्य 16 अक्तूबर को ईरल गांव में सत्संग के लिए इकट्ठा हुए थे. सत्संग गांव के तत्कालीन ठाकुर हरवर्धन सिंह चौहान की हवेली में था. सत्संग के बाद बातचीत घूम-फिरकर सियासत पर आ गई. यह गांव मध्य गुजरात में है जो भाजपा का गढ़ है. इसलिए जब चैहान ने 15 गांववासियों के जत्थे से, जिसमें किसान भी थे, आने वाले विधानसभा चुनाव के संभावित नतीजों के बारे में पूछा तो वे किसी हैरतअंगेज जवाब की उम्मीद नहीं कर रहे थे. मगर गांववासियों के ढुलमुल जवाब ने उन्हें चौंका दिया. टोली के एक सदस्य ने कहा, ''देखते हैं इस बार क्या होता है?"

जब चौहान ने जोर देकर कहा कि भाजपा की ताकतवर चुनाव मशीनरी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसकी नैया पार लगा ही देंगे, तब एक किसान ने तुर्शी-ब-तुर्शी पलटकर कहा, ''मगर वे गुजरात सरकार की अगुआई तो नहीं न करने जा रहे हैं." टोली के बाकी सदस्यों ने भी खामोश स्वीकृति में अपना सिर हिलाया. चौहान कहते हैं, ''यही वह खामोशी है जो भाजपा के लिए चिंता की बात है."

यही चिंता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बारंबार गुजरात यात्राओं में भी झलकती है. वे पिछले पांच महीनों में आठ बार गुजरात का सफर कर चुके हैं. अपनी गैर-मौजूदगी की भरपाई कर रहे बहुत ज्यादा लाड़ करने वाले अभिभावक की तरह मोदी ने तोहफों की झड़ी लगा दी. उन्होंने 15,000 करोड़ रु. से ज्यादा की परियोजनाओं का उद्घाटन या शिलान्यास किया. इसमें 1.1 लाख करोड़ रु. की अहमदाबाद-मुंबई हाइ स्पीड रेल शामिल नहीं है जिसकी आधारशिला उन्होंने 14 सितंबर को रखी थी. यह सिलसिला यहीं नहीं रुका. उन्होंने सरदार सरोवर बांध परियोजना राष्ट्र को समर्पित की और घोघा तथा दाहेज के बीच 615 करोड़ रु. की रोल-ऑन रोल-ऑफ फेरी सेवा के पहले चरण का उद्घाटन भी किया.

गुजरात को भाजपा और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी लड़ाई कहना थोड़ा गलत होगा. मोदी और भाजपा प्रमुख अमित शाह अगले कुछ हफ्तों में अपना सबसे बड़ा इम्तिहान देने जा रहे हैं, जो 9 और 14 दिसंबर को दो चरणों में मतदान के साथ खत्म होगा. सत्ता-विरोधी भावना अपना रंग दिखाएगी और क्यों न दिखाए, भाजपा आखिरकार बीते 22 साल से (1995 से ही) लगातार सत्ता में जो है. और अब तो केंद्र के जुड़वां आर्थिक कदमों—नोटबंदी और माल व सेवा कर (जीएसटी)—को लेकर असंतोष और बेचैनी भी है.

भाजपा के लिए ऊपर से चीजें अब भी अच्छी-भली दिखाई देती हैं. राज्य की सभी 182 सीटों पर 25 सितंबर से 15 अक्तूबर के बीच किया गया इंडिया टुडे-एक्सिस माइ इंडिया जनमत सर्वेक्षण बताता है कि भाजपा को 115-125 सीटें मिल सकती हैं. ये तकरीबन उतनी ही सीटें हैं जितनी पार्टी को 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में मिली थीं. कांग्रेस को 57-65 के बीच सीट मिलने का अनुमान लगाया गया है. 2012 में 60 सीटें उसकी झोली में आई थीं.

मगर हकीकत की जमीन पर चीजें इतनी पुरसुकून नजर नहीं आतीं. भाजपा की जद्दोजहद केवल सत्ता विरोधी भावना या राज्य की सियासत से मोदी की गैर-मौजूदगी को लेकर ही नहीं, उससे कहीं ज्यादा है. जातियों से जुड़े तीन नेताओं—हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी—के नए विपक्षी मोर्चे ने राज्य भाजपा के नेताओं की रातों की नींद उड़ा दी है. राज्य के कुल 4.32 करोड़ मतदाताओं में से 65 फीसदी 35 साल से कम उम्र के हैं और पाटीदार, ओबीसी क्षत्रिय और दलित समुदायों के नेताओं की इस तिकड़ी ने अपने युवाओं के मन को छुआ है और अपनी ताकत कांग्रेस के साथ झोंक दी है. इस मेल के साथ खुद कांग्रेस भी नए जोश के साथ करवट लेती दिखाई दे रही है जिसकी अगुआई अगली कतार से पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी कर रहे हैं और गद्दीनशीन पार्टी पर एक के बाद एक तंज के गोले दाग रहे हैं.

राहुल गांधी ने मध्य गुजरात और सौराष्ट्र की अपनी रैलियों में जोरदार भीड़ जुटते देखी. वे जीएसटी सरीखे सरकार के बड़े सुधारों के प्रति लोगों के मोहभंग का फायदा उठाने में भी कामयाबी रहे. भाजपा की रणनीति यह रही है कि मतदाताओं पर विकास की लफ्फाजी की जमकर झड़ी लगा दो. बीते 22 साल में उसकी हुकूमत में राज्य के कायापलट का यह अफसाना अब काफी जाना-पहचाना है. मुश्किल केवल यह है कि यह लफ्फाजी पहली बार वोट देने वाले उन तकरीबन 50 लाख मतदाताओं के सिर के ऊपर से गुजर जाएगी, जिनकी पैदाइश 1995 के बाद की है और जिन्हें उस वक्त का कोई अंदाजा ही नहीं है, जब सूबे में कांग्रेस की हुकूमत हुआ करती थी.

कांग्रेस के लिए गुजरात में लगातार चौथा चुनाव हारना उसकी डूबती हुई तकदीर को और डुबो देगा. अलबत्ता जीत पार्टी को नए जोश और ताकत के साथ खड़ा कर सकती है, वह भी 2018 में बहुत-से राज्यों के चुनावों और 2019 में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले. यही वजह है कि पार्टी ने तानाशाही का हौवा खड़ा करके, जाति समीकरणों को अचानक फिर जिंदा करके और यहां तक कि नरम हिंदुत्व का कार्ड खेलकर भाजपा को बचाव की मुद्रा में ला दिया है. भाजपा के पाले में जहां 48 फीसदी और कांग्रेस की झोली में 38 फीसदी वोट हैं, वहीं तीन नए नेताओं की तिकड़ी वोटों के पालाबदल में अहम भूमिका अदा कर सकती है. 2002 से ही पिछले तीन विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस को मिले वोटों में 10-11 फीसदी का फर्क रहा है. महज छह फीसदी वोटों का कांग्रेस की तरफ झुकना भाजपा के सुहाने सपनों को चकनाचूर कर सकता है.

गुजराती पत्रिका चित्रलेखा से जुड़े राजनैतिक विश्लेषक केतन त्रिवेदी कहते हैं, ''साफ है कि इस बार गुजरात भाजपा को तश्तरी में सजाकर नहीं मिल रहा है. इस बार लगता है कि वह चौतरफा घिरी हुई है." चुनावी फलक किस कदर तेजी से बदल रहा है, यह दीवाली के बाद अगले दो दिनों के घटनाक्रमों से जाहिर था. गुजराती नववर्ष की शुरुआत के साथ 20 अक्तूबर को कांग्रेस ने तीन युवा तुर्कों—पाटीदार आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल, उभरते दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर—को टिकट की पेशकश कर दी. केवल ठाकोर ने यह पेशकश स्वीकार की, जो ताकतवर ओबीसी क्षत्रिय जाति के सामाजिक कार्यकर्ता हैं और गुजरात के मतदाताओं में इस जाति के 26 फीसदी वोट हैं. गुजरात ठाकोर सेना के बैनर तले शराब विरोधी सुधार आंदोलन चलाकर ठाकोर अपने समुदाय के हीरो बन गए थे. दिल्ली में राहुल गांधी के साथ मुलाकात के बाद उनका मन बदल गया.

विपक्ष ने दबा-कुचला और अभागा होने की चाल खेली है जिसका मुकाबला भाजपा की धन की थैलियों से है. हार्दिक की पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पीएएएस) के नेताओं ने आरोप लगाया है कि उन्हें भाजपा में शामिल होने के लिए 1-10 करोड़ रुपए की पेशकश की गई हैं. ये आरोप अगस्त में अहमद पटेल के राज्यसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के विधायकों को फुसलाने की पार्टी की कोशिश की रोशनी में भरोसे के लायक मालूम देते हैं. हार्दिक ने इन्हें तूल देने में जरा वक्त नहीं गंवाया. वे कहते हैं, ''हम एक सामाजिक आंदोलन हैं. हम भाजपा की तरह रकम अदा नहीं कर सकते. हमारी लड़ाई न्याय की खातिर, पटेल समुदाय के लिए आरक्षण की खातिर और भाजपा की सियासी मगरूरियत के खिलाफ है."

भाजपा की मोदी रणनीति

वोट पडऩे में अभी डेढ़ महीना बाकी है और भाजपा के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी अभी चुनाव प्रचार के अखाड़े में उतरे ही हैं. पार्टी मानती है कि मोदी का असर उन्हें वोटों की दौड़ में आगे निकाल देगा. शुरुआती रिपोर्टों ने उनका उत्साह बढ़ाया है. वडोदरा में 22 अक्तूबर को मोदी के रोडशो और अहमदाबाद में उनके गुजरात गौरव सम्मेलन को उत्साह से भरी प्रतिक्रिया मिली.

वाकई कई विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा भले ही चौतरफा घिरी हो पर वह हारेगी नहीं. मुख्यमंत्री विजय रूपाणी कांग्रेस को खारिज करते हुए कहते हैं, ''बह हर चुनाव से पहले भाजपा के खिलाफ भावनाएं भड़काने की कोशिश करती है और फिर धूल चाटती है." कुछ आंकड़े दोहराते हुए वे बताते हैं कि भाजपा और अमित शाह का 150 सीटों का लक्ष्य ठोस तर्क पर टिका है. 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को 182 विधानसभा क्षेत्रों में से 165 में बढ़त मिली थी और उसने राज्य की सभी 26 सीटें अपनी झोली में डाल ली थीं.

वे कहते हैं, ''यह प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्रभाई का असर था. और आज वह प्रधानमंत्री हैं, बेदाग प्रधानमंत्री, जिन्होंने कई साल बाद हिंदुस्तान की सबसे साफ-सुथरी सरकार दी है." जादू जगाने के लिए पार्टी मोदी के अलावा अमित शाह की रणनीति, पार्टी की संगठन क्षमता, और गौरव यात्राओं पर भरोसा कर रही है. इन गौरव यात्राओं की अगुआई राज्य भाजपा अध्यक्ष जीतू वाघानी और उप-मुख्यमंत्री नितिन पटेल ने की और इनमें 5,000 किमी का फासला तय किया गया. इन यात्राओं में नारा थाकृहूं छूं विकास, हूं छूं गुजरात (मैं विकास हूं, मैं गुजरात हूं).

पार्टी का बूथ प्रबंधन ढांचा उसकी सबसे बड़ी ताकत है और यही वह क्षेत्र है जिसमें कांग्रेस सबसे कमजोर है. राज्य के 48,000 चुनाव बूथों में से हरेक को विस्तारकों का एक नेटवर्क संभालता है. भाजपा की आस्तीन में एक और तुरुप का इक्का है. बताया जाता है कि वह मुठभेड़ों के लिए जाने जाने वाले गुजरात के पूर्व पुलिस अफसर डी.जी. वंजारा को टिकट की पेशकश करने का मंसूबा बना रही है.

राज्य के सेवानिवृत्त उप पुलिस महानिरीक्षक एक के बाद एक कथित ''मुठभेड़ों" में कानून से बाहर जाकर की गई हत्याओं के मामलों में मुख्य आरोपी हैं और 2015 तक सात साल जेल में थे. वंजारा का चुनावी अखाड़े में उतरना गेम चेंजर साबित हो सकता है क्योंकि यह राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रवाद-विरोध की बहस को चर्चा के बीच ले आएगा. गुजरात के हिंदू मतदाताओं में वंजारा को खासी इज्जत हासिल है. वे उन्हें ''राष्ट्रवादी मकसद" की खातिर जेल में डाल दिए गए ''देशभक्त" के तौर पर देखते हैं. भाजपा के एक नेता कहते हैं, ''सियासी नेता के तौर पर कदम रखते ही वंजारा भी उतनी ही भीड़ जुटा सकते हैं, जितनी हार्दिक."

भाजपा के राज्य प्रवक्ता भरत पंड्या इस नई तिकड़ी से किसी भी खतरे की बात को खारिज कर देते हैं. वे कहते हैं, ''ये तीनों अपने मकसद में उतने ही अलग-अलग हैं जितने जमीन और आसमान. यह गठबंधन केवल एक चीज पर टिका है—भाजपा के प्रति नफरत—और इसलिए यह कभी कामयाब नहीं होगा." अलबत्ता बढ़ती कीमतें और जीएसटी की वजह से पैदा हुई दिक्कतें कई इलाकों में भाजपा के गले की फांस बन गई हैं, खासकर तब जब पार्टी छोटे व्यापारियों की उलझनों को दूर करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर रही है. पार्टी उस सुस्ती और लचरता को भी पूरी तरह नहीं रोक पाई जिसने मोदी के गुजरात से जाने के बाद जल्दी ही उसे अपनी जकड़ में ले लिया था.

यह लचरता 2015 में पटेलों के आरक्षण समर्थक आंदोलन से निपटने के दौरान गफलत में और फिर जिला और तालुका पंचायतों के चुनाव में कांग्रेस के हाथों भाजपा की हार में भी सामने आई थी. हालांकि पार्टी ने 2015 के बाद हुए सभी सातों बड़े और छोटे चुनाव जीते हैं. पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह ''भीड़ खींचने वाले" हार्दिक और अल्पेश से कैसे निपटती है. हार्दिक ने पटेल नौजवानों की भावनाओं का फायदा उठाकर और उन्हें 2015 के आंदोलन की हिंसा में मारे गए 10 पटेल युवाओं की याद दिलाकर दिलचस्पी जगाई है.

बहुत कुछ टिकट बंटवारे पर भी निर्भर करेगा. भाजपा को जीतने के लिए अपने 120 विधायकों में से कम से कम एक-तिहाई का पत्ता काटना पड़ेगा, खासकर उन पटेल विधायकों का, जिन्हें हार्दिक ने निशाना बनाया है. हालांकि मतदाताओं में पटेलों की तादाद 12-15 फीसदी के बीच ही है, पर भाजपा के 44 विधायक इसी समुदाय के हैं. रूपाणी के मंत्रिमंडल में 10 पटेल मंत्री हैं. भाजपा के लिए एक रणनीति यह है कि जिन निर्वाचन क्षेत्रों में पटेलों पर हार्दिक का असर है, वहां वह ओबीसी क्षत्रियों और अन्य पिछड़े समुदायों पर मुनहसर करे. वहां भाजपा को गैर-पटेलों को टिकट देना पड़ सकता है.

दिग्गज सियासी विश्लेषक विद्युत ठाकर तीन बातों का जिक्र करते हैं जो प्रतिकूल सियासी माहौल के बावजूद भाजपा के हक में हैं, ''प्रधानमंत्री मोदी, भाजपा की बेजोड़ चुनाव मशीनरी और प्रतिबद्ध 25 फीसदी वोट आधार. भाजपा को 125 सीटें मिलनी चाहिए." शाह कहते हैं, ''हमारी सरकार ने पानी, 24 घंटे बिजली तथा कानून और व्यवस्था मुहैया करने के लिए जो काम किया है, वह ऐसा है कि उसे जनता की याददाश्त से मिटाया नहीं जा सकता. हम बहुत मजबूत विकेट पर हैं. अगर कांग्रेस हमारे खिलाफ जाति का कार्ड खेलती है, तो वह खुद को रेत में धंसता हुआ देखेगी."

नए जोश से लबालब कांग्रेस

राहुल गांधी ने 9 अक्तूबर को वडोदरा में बुद्धिजीवियों, कारोबारियों और पेशेवरों के एक जमावड़े में दिल को छूने वाला भाषण दिया. गांधी परिवार के वारिस ने भाजपा के उस घमंड के बारे में बोला जो ''कांग्रेस मुक्त भारत" सरीखे नारों से जाहिर होता है. गांधी ने कहा, ''हरेक को सियासत में होने का हक है. किसी को भी दूसरों को सियासत से मिटाने के बारे में क्यों सोचना चाहिए. कांग्रेस में हम कभी ऐसे नकार के लफ्जों से नहीं सोचते."

अहम बात यह है कि अक्तूबर के दूसरे हफ्ते में राहुल गांधी की मध्य गुजरात की यात्रा के दौरान उनकी जनसभाओं ने अच्छी भीड़ खींची. बोरसाड, पेटलाद, फगवेल और यहां तक कि भाजपा के गढ़ नडियाड के संतराम मंदिर में भी उनकी सभाओं में बाज दफे बहुत भारी भीड़ जुटी. फगवेल की रैली खास तौर पर ध्यान देने लायक थी. तीर्थयात्रियों का यह केंद्र उन 14 कांग्रेस विधायकों में से तीन के निर्वाचन क्षेत्रों से घिरा है जो जुलाई में भाजपा के उकसावे पर पार्टी छोड़कर चले गए थे—शंकरसिंह वाघेला, राम सिंह परमार और मान सिंह चौहान. परमार और चौहान उसके बाद भगवा पार्टी में शामिल हो गए. राहुल की सभाओं में जुटी भीड़ लोगों के मिजाज का इशारा हो सकती है, जो शायद दर्शाती हो कि भाजपा की दलबदल की सियासत को लोगों ने नामंजूर कर दिया है.

2007 और 2012 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी के पास मोदी के आभामंडल का मुकाबला करने के लिए कोई तगड़ा सूबाई नेता नहीं था. पांच साल बाद आज भी उसके पास ऐसा कोई नेता नहीं है, पर कुछ सिलसिलेवार घटनाओं में उसे उक्वमीद की एक किरण दिखाई देती है—राज्य में प्रधानमंत्री मोदी की गैर-मौजूदगी और भाजपा के प्रति बढ़ता असंतोष.

पहली बार पार्टी पूरी तरह बेझिझक होकर नरम हिंदुत्व का कार्ड भी खेल रही है. कांग्रेस ने मोदी और भाजपा के हाथों मुसलमानों के साथ हुई नाइंसाफी का मुद्दा नहीं उठाया है. राहुल अपनी पिछली दो यात्राओं के दौरान एक के बाद एक मंदिरों में भी गए—पहले द्वारका और फिर पहाड़ी रास्ता चढ़कर उन्होंने चोटी पर बने चोटिला मंदिर के दर्शन किए. राज्य कांग्रेस प्रमुख भरत सोलंकी ने तो गोवध पर देश भर में पाबंदी की भी मांग कर दी. संदेश साफ और दोटूक है—कांग्रेस अब केवल अल्पसंख्यकों की पार्टी नहीं है. हालांकि मतदाताओं को भरोसा दिलाना खासी चुनौती है.

कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ तानाशाही के आरोप को भी काफी तूल दिया है. हार्दिक पटेल को 2015 में  ''राज्यसत्ता के खिलाफ जंग छेडऩे" के लिए जेल के सीखचों के पीछे डाल दिया गया था और गुजरात से राज्यबदर कर दिया गया था. भरतसिंह सोलंकी एक कारोबारी और वडोदरा से पार्टी टिकट के दावेदार की कहानी बताते  हैं जिन्होंने धमकाए जाने के बाद राहुल गांधी के साथ मुलाकात टाल दी. वे कहते हैं, ''इस किस्म की मगरूरियत भाजपा को निकाल फेंकने के लोगों के जज्बे को ही मजबूत करेगी." राज्यसभा चुनाव में अहमद पटेल की हैरतअंगेज जीत में अहम भूमिका अदा करने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शक्तिसिंह गोहिल कहते हैं, ''22 साल से सत्ता में होने का घमंड साफ दिखाई दे रहा है. राज्य सरकार असंवेदनशील और मगरूर है. भाजपा इस बार सरकार बनाने की हालत में कतई नहीं है."

गुजरात में अपना चुनाव अभियान शुरू करने के बाद इन छह महीनों में कांग्रेस की रणनीति का पूरा जोर केवल चुनाव जीतने पर ही है. सितंबर में पार्टी ने तय किया कि उम्मीदवार की जीतने की लियाकत ही टिकट देने में सबसे अव्वल कसौटी होगी, फिर चाहे इसके लिए दाएं-बाएं से बाहरी लोगों को ही क्यों न लाना पड़े—यह सीधे भाजपा की खेल की किताब से उठाई गई रणनीति है. मई में राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को गुजरात का प्रभारी महासचिव बना दिया गया. असंतुष्ट दिग्गज नेता शंकरसिंह वाघेला की भाजपा में शामिल होने की दबी-छिपी धमकियों को भी नजरअंदाज कर दिया गया (आखिरकार वे पार्टी छोड़कर चले गए).

हार्दिक, जिग्नेश और अल्पेश को सीटों की पेशकश भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने की उसकी रणनीति का हिस्सा है. अलबत्ता अल्पेश और हार्दिक को एक ही मंच पर खड़ा कर पाना पार्टी के लिए खासी चुनौती है—गांवों में अल्पेश का ओबीसी क्षत्रिय धड़ा पटेलों के खिलाफ है. खेती-किसानी की मुश्किलें और हार्दिक की अगुआई में लोकप्रिय आंदोलन, दोनों मिलकर भाजपा के उस पटेल वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं जो उसे 1995 में सत्ता में लाया था. कांग्रेस ने क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुसलमानों को रिझाने की अपनी 1980 के दशक की रणनीति—यानी तथाकथित ''खाम" फॉर्मूल—को तिलांजलि दे दी है. उसने भरतसिंह सोलंकी को मुख्यमंत्री पद उम्मीदवार के तौर पर पेश करने से परहेज बरता है क्योंकि उनके पिता माधवसिंह सोलंकी ही इस खाम फॉर्मूले के वास्तुकार थे जिसने पार्टी मानती है कि उसे पाटीदार से अलग-थलग कर दिया था.

मोदी ने ज्यादातर समुदायों के भीतर पैठ बनाते हुए भाजपा को ज्यादा समावेशी पार्टी बनाया है. इनमें मुसलमान भी हैं जिनके 22 फीसदी वोट 2012 में भाजपा को मिले थे. कांग्रेस पटेल समुदाय के नेताओं को रिझाकर पटेल-भाजपा अनबन का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है. इस दिशा में जमीनी काम करने के लिए उसने पूर्व मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल के बेटे सिद्धार्थभाई पटेल को लगाया है.

अल्पेश के औपचारिक तौर पर कांग्रेस में शामिल होने के साथ पार्टी राज्य के 26 फीसदी से ज्यादा ओबीसी क्षत्रिय वोटों पर भरोसा करके चलेगी. कांग्रेस को राज्य की 7 फीसदी दलित आबादी का समर्थन हासिल करने की भी उम्मीद है. दलितों के लिए आरक्षित 13 निर्वाचन क्षेत्रों में पिछले तीन चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया था. मगर पिछले साल ऊना की घटना से, जिसमें मरी हुई गाय की खाल उतरने के लिए सात दलितों को कोड़े लगाए गए थे, वह सब बदल सकता है. दिलचस्प बात यह है कि ऊना पिछले 15 साल से कांग्रेस की सीट रही है. सीएसडीएस का सर्वे कहता है कि पार्टी ने अनुसूचित जनजातियों में अपनी वोट हिस्सेदारी 2007 के 56 फीसदी से 2012 में 65 फीसदी तक बढ़ा ली.

गुजरात में कांग्रेस के अभियान को मई में उस वक्त खासा बढ़ावा मिला, जब राज्य के लोकप्रिय नाम से जानी जाने वाली कन्नड अदाकारा दिव्या स्पंदना को उसने अपनी सोशल मीडिया टीम का प्रमुख बना दिया. इस टीम ने भाजपा के खिलाफ कुछ जोरदार कामयाबियां हासिल कीं—विकास के नारे का मजाक उड़ाने वाले ''विकास पागल हो गया है" अभियान ने प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री अरुण जेटली को जवाबी हमला करने के लिए उकसाया. इसकी वजह से भगवा पार्टी को एक नए जवाबी अभियान ''मैं विकास हूं, मैं गुजरात हूं" का तानाबाना भी बुनना पड़ा.

पार्टी ने स्थानीय नेताओं को टिकट बंटवारे में मदद करने की ताकत सौंपी है. सिद्धार्थभाई चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष हैं और मधुसूदन मिस्त्री को घोषणापत्र समिति का प्रमुख बनाया गया है. शक्तिसिंह गोहिल चुनाव मीडिया समिति के अध्यक्ष हैं. उसने समर्पित मतदाताओं को बाहर निकालने में मदद की खातिर बूथ स्वयंसेवकों को लामबंद करने के लिए अमित शाह की तरकीब भी उधार ले ली है.

कांग्रेस के लिए असली चुनौती शहरी मतदाताओं को रिझाना है. गुजरात सरीखे सूबे में, जहां 42 फीसदी शहरी आबादी है, 110 शहरी और अर्द्ध-शहरी सीटों पर भाजपा का तगड़ा शिकंजा है. पानी, बिजली और किसानों या आदिवासियों के संघर्ष सरीखे मुद्दों का शहरों में कोई वजूद नहीं है. 2012 में भाजपा ने इन सीटों पर तकरीबन क्लीन स्वीप किया था और सूरत, भावनगर, राजकोट, वडोदरा, अहमदाबाद और गांधीनगर की 46 में 42 सीटों पर जीत हासिल की थी.

एक शहरी रणनीति छात्रों/युवा मतदाताओं को पकडऩा है जो इस चुनाव में अहम भूमिकाएं अदा कर सकते हैं. कांग्रेस कॉलेजों और पेशेवर संस्थानों में अभियान चला रही है और शहरी तथा अर्द्ध-शहरी विधानसभा क्षेत्रों में वार्ड स्तर की बैठकें कर रही हैं. इसके पीछे मंसूबा कैंपस में हिंसा, निजी शिक्षा की ऊंची लागत और सरकारी संस्थाओं के गिरते स्तर सरीखे मुद्दों पर रूपानी सरकार और प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा करने का है.

ये सब बहु-स्तरीय रणनीति के हिस्से हैं. पार्टी के चुनाव घोषणापत्र में कृषि क्षेत्र को फिलहाल मिलने वाली आठ घंटे बिजली के बजाय 16 घंटे बिजली का और किसानों की कर्ज माफी का भी वादा किया गया है. भरतसिंह कहते हैं, ''भाजपा की तानाशाही और बदइंतजामी को लेकर समाज के सभी तबकों में बेचैनी है. वे जीडीपी की बात करते हैं, हम खुशी के सूचकांक की बात करते हैं जिसकी असल में जरूरत है." फिर ताज्जुब क्या कि कांग्रेस का नारा है, ''कांग्रेस आवे छे, नवसर्जन लावे छे (कांग्रेस आ रही है, नई व्यवस्था ला रही है)" और ''खुश रहे गुजरात".

मगर जैसा भाजपा के मामले में है, कांग्रेस में भी बहुत कुछ टिकट बंटवारे पर निर्भर करेगा. पिछले चुनावों में टिकट बेचने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन इस बार ऐसी कोई संभावना नहीं है क्योंकि दो साफ-सुथरे शख्स सोलंकी और गोहिल पार्टी के कर्ताधर्ता हैं. टिकट बांटते हुए जाति समीकरण को ध्यान में रखना चुनौती होगी क्योंकि जिन पटेलों को अब पार्टी रिझा रही है, पारंपरिक तौर पर उन्हें पार्टी से दूर रखा गया था. कांग्रेस के साथ हार्दिक की कथित ''सहमति" के चलते वह इस बार पटेलों को ज्यादा टिकट दे सकती है, इस वायदे पर कि वे उन्हें जिताने में मदद करेंगे. मगर यहीं एक कांटा अटका हैः ऐसा करने से ओबीसी क्षत्रिय सरीखे उसके पारंपरिक वोटर बिदक सकते हैं. ठाकर कहते हैं, ''कांग्रेस की रणनीति मं  बड़ी चुनौती पटेलों और ठाकोरों दोनों को रिझाना है, जो एक दूसरे के खिलाफ हैं."

फिर दूसरों से अपने को बेहतर दिखाने की समस्या भी है. वाघेला के रुखसत होने से पार्टी को मदद ही मिली है क्योंकि उनके जाने से पार्टी में थोड़ी समझदारी आई और उनके पार्टी में रहते वक्त जारी सिर-फुटोव्वल से मोहलत मिली. मगर दूसरों से अपना छप्पर ऊपर रखने की बीमारी कायम है. गुजरात कांग्रेस के बारे में कहा जाता है कि इस पार्टी में कार्यकर्ताओं से कहीं ज्यादा नेता हैं. पीसीसी में एक एक्जीक्यूटिव प्रेसीडेंट भरत सोलंकी और चार दूसरे वर्किंग प्रेसीडेंट हैं. इसमें 47 सचिव, 24 महासचिव और 17 उपाध्यक्ष भी हैं.

खेल बिगाडऩे वाले

नए सियासी नेताओं की एक पूरी जमात और एक पुराने दिग्गज नेता ने कांग्रेस और भाजपा के बीच पारंपरिक सीधी लड़ाई को उलट दिया है. इनमें वाघेला तो बेशक हैं ही, जिन्होंने जुलाई में कांग्रेस छोड़ दी थी और फिर 13 और पार्टी विधायकों को भी अपने साथ ले गए थे और उसके बाद हुए राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ वोट दिया था. माना जा रहा है कि वाघेला की नई जनविकल्प पार्टी को भाजपा का अघोषित समर्थन हासिल है और वह पूरी 182 सीटों पर उम्मीदवार खड़े करेगी. यह कांग्रेस के ओबीसी क्षत्रिय वोट काट सकती है.

मगर जहां कांग्रेस को केवल एक ही खेल बिगाडऩे वाले का ख्याल रखना है, वहीं भाजपा के सामने ऐसे तीन खेल बिगाडऩे वाले हैं. वह कांग्रेस से उतनी भयभीत नहीं है जितनी हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की तिकड़ी से भयभीत है. मगर यह पार्टी को कमजोर ही सही, पर एक मौका भी देता है कि वह खुद को पीड़ित के तौर पर और इनके एक साथ आने को अनैतिक गठबंधन के तौर पर पेश कर सके. पिछले चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी खुद को हिंदुत्व विरोधी ताकतों के शिकार के तौर पर पेश किया करते थे. यह तिकड़ी धूमकेतु की तरह ऐसे वक्त पर उभरी है जब मोदी गुजरात से रुखसत हो चुके हैं.

भाजपा के नेताओं का कहना है कि अगर मोदी राज्य में होते, तो ऐसी शख्सियतें कतई नहीं उभरतीं. 23 बरस के हार्दिक और 42 वर्षीय अल्पेश, दोनों विरमगाम के हैं जो अहमदाबाद से पश्चिम में 60 किमी दूर बसा ऐतिहासिक कस्बा है और मध्यकाल से ही सोलंकी युग के तालाब की वजह से मशहूर रहा है. दिलचस्प बात यह है कि दोनों एक दूसरे को बखूबी जानते हैं. अल्पेश के पिता खोडाजी ठाकोर ने 1995 में अपने नेता शंकरसिंह वाघेला के साथ भाजपा छोड़ दी थी और कांग्रेस में शामिल हो गए थे. 2014 में गुजरात ठाकोर सेना के साथ शराब विरोधी आंदोलन की कामयाबी के बाद अल्पेश ने पिछले हक्रते कांग्रेस में शामिल होने से पहले किसानों और बेरोजगारों की समस्याओं के लिए ओएसएस (ओबीसी-एससी-एसटी) एकता मंच बनाया था. उनके आंदोलन ने 2016 में गुजरात सरकार को राज्य के शराब विरोधी कानून को मजबूत बनाने के लिए मजबूर कर दिया था.

कांग्रेस अगर टिकटों के अपने बंटवारे को हुनर के साथ नहीं संभालती है, तो वह अल्पेश का फायदा नहीं उठा पाएगी. विश्लेषकों को लगता है कि अल्पेश की बनिस्बत हार्दिक कहीं ज्यादा मजबूत सियासी ताकत बन सकते हैं क्योंकि ज्यादा छोटे समुदाय से आने के बावजूद अपने समुदाय के नौजवानों में उनके प्रतिबद्ध अनुयायी हैं. हार्दिक का उदय परीकथा की तरह हुआ है. यह सब तब शुरू हुआ जब उनकी बहन को परीक्षा में अच्छे नंबर लाने के बावजूद अहमदाबाद में दाखिला लेने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा. तभी उन्होंने कसम खाई कि वे पटेल समुदाय के लिए ओबीसी आरक्षण का दर्जा हासिल करके रहेंगे. जुलाई 2015 में उत्तर गुजरात के विसनगर में अपनी पहली रैली के बाद उन्होंने जल्दी ही अपना स्वतंत्र संगठन पीएएएस बनाया.

पटेल अपने उभार के लिए अगस्त 2015 में एक विशाल रैली के बाद पीएएएस के सदस्यों पर बगैर किसी उकसावे के पुलिस की लाठियां बरसाए जाने के अहसानमंद हैं. उसके बाद हुई हिंसा में 10 पटेल लड़के और दो पुलिसवाले मारे गए थे. राष्ट्र के खिलाफ जंग छेडऩे के आरोप में उन्हें गुजरात से बाहर निकाल दिया गया और नौ महीनों के लिए कैद में डाल दिया गया. इस बीच राज्य सरकार ने आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के लिए 10 फीसदी आरक्षण का ऐलान कर दिया. यह ऐसा फैसला था जिसे सुप्रीम कोर्ट की 49 फीसदी आरक्षण की ऊपरी सीमा की रोशनी में अदालत में चुनौती दी गई. हार्दिक अपनी जिद पर अड़े रहे जिसका नतीजा मुख्यमंत्री की गद्दी से आनंदीबेन पटेल की विदाई में और उसके बाद 2015 के जिला और तालुका पंचायतों के चुनावों में भाजपा की हार की शक्ल में सामने आया. पिछले महीने सरकार ने पीएएएस के सदस्यों के खिलाफ पुलिस थानों में दर्ज मामले वापस ले लिए.

इस तिकड़ी में उत्तर गुजरात में मेहसाणा के एक नजदीकी गांव के वकील, दलित एक्टिविस्ट 34 वर्षीय जिग्नेश मेवाणी बेहद वाकपटु होने के बावजूद हाशिए के खिलाड़ी ही हो सकते हैं क्योंकि गुजरात की आबादी में दलित महज 7 फीसदी ही हैं और उनकी एक अच्छी-खासी तादाद पहले से ही कांग्रेस के साथ है. उनकी ताकत अलबत्ता एक भाजपा विरोधी गठबंधन खड़ा करने में है. भाजपा के लिए चिंता की बात यह है कि खेल बिगाडऩे वाले ये खिलाड़ी गुजरात में गेम चेंजर साबित हो सकते हैं.

—साथ में, कौशिक डेका

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