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आरएसएस के सहयोगी संगठन केंद्र सरकार को झकझोरने की पूरी तैयारी में

आरएसएस के सहयोगी संगठन नरेंद्र मोदी नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को झकझोरने की पूरी तैयारी में हैं. वे आक्रामक एजेंडे पर काम कर रहे हैं. बीमा, जीएम फसल, श्रम सुधार से लेकर शिक्षा के श्रेत्र में भी उनका यह रवैया हाल में स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है. क्या मोदी आरएसएस के इन स्वदेशी सूरमाओं से टक्कर लेंगे?

अपडेटेड 18 अगस्त , 2014
जब जून के अंतिम दिनों में दिल्ली विश्वविद्यालय विवादास्पद चार वर्षीय स्नातक कोर्स पर छात्रों के विरोध से जूझ रहा था तभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बड़े नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले. मीडिया के कैमरों की चकाचौंध से दूर इस मुलाकात में इन नेताओं ने चार वर्षीय पाठ्यक्रम की खूब बखिया उधेड़ी जबकि इसे लंबे समय बाद देश के शिक्षा जगत में नई सोच माना जा रहा था. यह दबाव काम कर गया. दो दिन बाद दिल्ली विश्वविद्यालय ने चार वर्षीय पाठ्यक्रम वापस लेने की घोषणा कर दी. इस कामयाबी से उत्साहित छात्र संघ के कार्यकर्ताओं ने अगला विवादित मुद्दा उठा लियाः संघ लोक सेवा आयोग की प्रशासनिक सेवा परीक्षा में अंग्रेजी को मिली प्रधानता.

कुछ सप्ताह पहले ही शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति के संस्थापक अध्यक्ष दीनानाथ बत्रा ने मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के साथ उनके कार्यालय में एक घंटे तक बात की. इस वर्ष के शुरू में बत्रा अपने दीवानी मुकदमे के जरिए वेंडी डोनिगर की पुस्तक द हिंदूजः एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री  पर रोक लगवाकर सुर्खियों में छा गए थे. 3 जून को हुई इस मुलाकात में स्मृति ईरानी और बत्रा ने शिक्षा संबंधी कई मुद्दों पर बात की और अंत में ईरानी ने उनसे वादा किया कि सरकार उनकी मांग पर जल्दी ही राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन करेगी. संघ परिवार के अन्य आनुषंगिक संगठनों के नेता भी नई सरकार को आंख दिखाने और जीएम फसलों के परीक्षण, श्रम कानून सुधार तथा विश्व व्यापार संगठन वार्ताओं जैसे अहम क्षेत्रों में अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में जुटे हैं.

ऐसा लगता है कि मोदी का विरोध लोकसभा में विपक्ष या उनकी अपनी सरकार के भीतर नहीं बल्कि उनके संघ परिवार के भीतर होता है. संघ के प्रचारक और उसके आनुषंगिक संगठनों या अन्य सहयोगी संगठनों के नेता अचानक अंधेरों से निकल आए हैं और शिक्षा, खेती, उद्योग और व्यापार जैसे क्षेत्रों में अपनी पसंद के नियम तय कराना चाहते हैं. इस बात की दाद देनी पड़ेगी कि इन भगवा योद्धाओं की चीख-पुकार को सफलता मिलने लगी है.
यूपीएसएसी के परीक्षा फॉर्मेट में बदलाव के लिए प्रदर्शन करते छात्र
(दिल्ली में यूपीएसएसी परीक्षा के फॉर्मेट में बदलाव को लेकर प्रदर्शन कर रहे छात्रों की पुलिस से झड़प)
नए सबक सिखाना
आरएसएस के प्रचारक तथा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय संगठन सचिव सुनील आंबेकर का कहना है, ‘‘हमने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पारित 11 प्रस्तावों की प्रति प्रधानमंत्री को दी. इस बैठक में चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के विरोध में पारित हमारे प्रस्ताव पर भी चर्चा हुई जो इन 11 प्रस्तावों में शामिल था.’’ मोदी से मिलने वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रतिनिधिमंडल में आंबेकर शामिल थे और ज्यादातर दलीलें उन्होंने ही रखी थीं.

आरएसएस प्रचारकों की आम पोशाक कुर्त्ता-पाजामा में आंबेकर संसद से कुछ सौ मीटर दूर वि-लभाई पटेल हाउस में विद्यार्थी परिषद के कार्यालय में बैठते हैं. वे वहां परिषद के पदाधिकारियों उमेश दत्त शर्मा और रोहित चहल के साथ बैठे अपने संगठन की भूमिका पर खुलकर बात करने को तैयार दिखते हैं, लेकिन इस बारे में भनक नहीं लगने देते कि मोदी से क्या बात हुई या सीसैट विवाद पर परिषद की रणनीति क्या है.

लेकिन हुआ यह कि आंबेकर जब संगठन के काम से दिल्ली से बाहर थे, तभी शर्मा के नेतृत्व में विद्यार्थी परिषद के प्रतिनिधिमंडल ने सीसैट के मुद्दे पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह और प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह पर दबाव बनाया. ये लोग अलग से बीजेपी के महासचिव जे.पी. नड्डा और हाल ही में संघ से आए पार्टी नेता राम माधव से भी मिले और उनसे अपनी मांगों के बारे में सरकार पर दबाव डालने को कहा. दबाव फिर रंग लाया. एक बड़े मंत्री ने माना कि सीसैट में कुछ गलत नहीं था, लेकिन मोदी सरकार को ‘काडर के दबाव’ के आगे झुकना पड़ा.

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एजेंडे का अगला मुद्दा निजी शिक्षा के लिए एक केंद्रीय नियामक संस्था के गठन पर जोर देना है. 46 वर्षीय आंबेकर नागपुर से जीव विज्ञान में एमए हैं और आजकल उस पद पर विराजमान हैं जिस पर आचार्य गिरिराज किशोर, मदनदास देवी और दत्तात्रेय होसबले जैसे संघ के दिग्गज रह चुके हैं. आंबेकर को लगता है कि यह लक्ष्य हासिल करना आसान है.
 
बत्रा चाहते हैं कि अगले वर्ष राष्ट्रीय पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क (एनसीएफ) में बदलाव के समय स्मृति ईरानी हस्ताक्षेप करें.

सीसैट विवाद से भी जुड़े बत्रा का कहना है, ‘‘2015 के लिए एनसीएफ तैयार करने की जिम्मेदारी विद्वानों और विशेषज्ञों की समिति को सौंपी जानी चाहिए और फिर उसका प्रारूप केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सामने रखना चाहिए. अगर सरकार ने हस्तक्षेप नहीं किया तो एनसीईआरटी खामियों से भरा पाठ्यक्रम चलाती रहेगी.’’ बत्रा और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के पूर्व महासचिव अतुल कोठारी ने संघ लोकसेवा आयोग परीक्षा में सीसैट के विरोध में 2011 में दिल्ली हाइकोर्ट में दायर जनहित याचिका में कहा था कि इसकी वजह से हिंदी और देश की दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं के उम्मीदवारों के साथ भेदभाव होता है.

स्मृति ईरानी को संघ के एक और पुराने स्वयंसेवक इंदर मोहन कपाही के दबाव का सामना भी करना पड़ा, जो राष्ट्रीय लोकतांत्रिक शिक्षक मोर्चा के संस्थापक सदस्य के नाते चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम पर चर्चा के सिलसिले में पिछले दो महीने में उनसे कई बार मिल चुके हैं.
बीटी बैंगन पर परिचर्चा के दौरान किसानों का प्रदर्शन
(अहमदाबाद में बीटी बैंगन पर परिचर्चा के दौरान किसानों का प्रदर्शन)
संशोधन वापस लो
मोदी सरकार आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों के खेतों में परीक्षण संबंधी विवाद पर फूंक-फूंककर कदम रखना चाह रही है. लेकिन संघ परिवार के स्वदेशी योद्धा इस बारे में अपने विरोध के सामने सरकार को झुकाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे. जुलाई के अंत में स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय किसान संघ के प्रतिनिधियों ने पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर से मिलकर परीक्षण रोकने को कहा. प्रतिनिधिमंडल में स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन और भारतीय किसान संघ के नेता तथा आरएसएस प्रचारक मोहिनी मोहन मिश्र भी थे.
 
मोदी ने जीएम फसलों के खेतों में परीक्षण पर अभी तक अपनी राय स्पष्ट नहीं की है. इसलिए जावडेकर इन कार्यकर्ताओं को इनकार नहीं कर पाए. फिर भी स्वदेशी जागरण मंच ने प्रेस वक्तव्य में एक तरह से ऐलान कर दिया कि जावडेकर ने उन्हें भरोसा दिलाया है कि ‘‘जीएम फसलों पर फैसला अभी रोक दिया गया है.’’

इससे वैज्ञानिक बिरादरी के कान खड़े हो गए. उन्हें उम्मीद थी कि 2010 में यूपीए के मंत्री जयराम रमेश ने जिस तरह जीएम अनुसंधान के लिए दरवाजा बंद कर दिया था, उसके बाद मोदी सरकार खेतों में परीक्षण की अनुमति दे देगी. जावडेकर ने अपने हवाले से किए गए स्वदेशी जागरण मंच के दावों के खंडन की फुर्ती तो दिखाई लेकिन स्पष्ट नहीं कह सके कि जीएम फसलों का खेतों में परीक्षण जारी रहेगा.
महाजन का कहना है, ‘‘जीएम फसलें अप्राकृतिक हैं. हमारा रुख एकदम स्पष्ट है. जीएम फसलों का खेतों में परीक्षण उन्हें वाणिज्यिक स्तर पर अपनाने की कोशिश है. जीएम फसलों के साथ अवांछित खरपतवार होती है. उन्हें रोकने के लिए खरपतवार नाशक की जरूरत पड़ेगी. इनका इस्तेमाल अमेरिकी सेना ने वियतनाम युद्ध में वियतनामी लड़ाकों को छिपने के ठिकानों से बाहर निकालने के लिए किया था.’’ उनका मानना है कि ये खरपतवार नाशक भारत में कृषि की जैव-विविधता का नामोनिशान मिटा देंगे.

खेती के विशेषज्ञ इन दावों को सरासर गलत बताते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में फसल विज्ञान के उप-महानिदेशक स्वप्न कुमार दत्ता का कहना है, ‘‘भारत में वैसे भी किसान खेतों में अवांछित खरपतवार से छुटकारा पाने के लिए खरपतवार नाशक का प्रयोग करते हैं. इनका उपयोग गैर-जीएम फसलों में भी होता है.’’ दत्ता का यह भी कहना था कि खरपतवार नाशकों का इस्तेमाल नहीं होगा तो फसल की पैदावार पर भारी असर पड़ेगा.
केंद्र सरकार की श्रमिक विरोधी नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन
(दिल्ली में कीमतों में बढ़ोतरी और केंद्र सरकार की श्रमिक विरोधी नीतियों के खिलाफ ट्रेड यूनियनों का प्रदर्शन)

वैसे, महाजन कृषि वैज्ञानिक नहीं हैं. वे दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के एसोसिएट प्रोफेसर हैं और 1994 से स्वदेशी जागरण मंच से जुड़े हैं. उनका तथा आरएसएस के एक और पूर्णकालिक प्रचारक कश्मीरी लाल का कार्यालय राजधानी की आर.के. पुरम की सरकारी कॉलोनी में शिव शक्ति मंदिर से जुड़े भवन धर्मक्षेत्र में है. कश्मीरी लाल भी पुराने प्रचारक हैं और मोदी जब बीजेपी के हिमाचल प्रदेश प्रभारी महासचिव हुआ करते थे, तब वे सह-प्रांत प्रचारक थे.

महाजन असल में कश्मीरी लाल से कुछ भिन्न हैं. वे टेलीविजन पर स्वदेशी जागरण मंच का परिचित चेहरा हैं, संघ के अखबार ऑर्गेनाइजर और पांचजन्य  में उनके लेख नियमित छपते हैं. वे ट्विटर और फेसबुक पर भी पूरी तरह सक्रिय हैं. फिर भी महाजन और कश्मीरी लाल की बुनियादी आस्थाएं समान हैं. कश्मीरी लाल का भी तर्क है कि बीजेपी सरकार जीएम फसलों के खेतों में परीक्षण की अनुमति नहीं दे सकती क्योंकि पार्टी घोषणा पत्र में साफ लिखा है कि वैज्ञानिक आकलन के बाद ही जीएम फसलों के बारे में सोचा जा सकता है.
महाजन और लाल को मोहिनी मिश्र के साथ-साथ संघ के एक और प्रचारक प्रभाकर केलकर का समर्थन भी हासिल है. मिश्र और केलकर भारतीय किसान संघ चलाते हैं और उनका कहना है कि उन्होंने जीएम फसलों के विरोध में प्रदर्शन किया था और पिछले वर्ष सभी दलों के सांसदों से भी मिले थे. जीएम फसलों के परीक्षण का विरोध करने के साथ-साथ वे रक्षा और बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ाने के बीजेपी सरकार के फैसले से भी खुश नहीं हैं.

उनका यह भी कहना है कि यूपीए सरकार ने जो भूमि अधिग्रहण कानून पास किया था उससे छेड़छाड़ की सरकार की किसी भी कोशिश पर उनकी पैनी नजर है. इस कानून के बाद उद्योगों के लिए जमीन पाना कठिन हो गया है. केलकर ने उद्योग लगाने में मदद दिलाने के लिए कानून में ढील के बारे में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के कथित सुझाव की तरफ  इशारा करते हुए कहा, ‘‘हम भूमि अधिग्रहण कानून में 80 प्रतिशत किसानों/जमीन मालिकों की सहमति की शर्त में ढील के विरुद्ध हैं.’’

केलकर दो दशक से भारतीय किसान संघ से जुड़े हैं और राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त होने से पहले अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश में काम कर चुके हैं. सर संघचालक मोहन भागवत की अध्यक्षता में भोपाल में संघ के नेताओं की बैठक से लौटने के बाद केलकर ने यह भी संकेत दिया कि उद्योग लगाने के लिए खेतिहर जमीन के अधिग्रहण पर रोक लगाई जाएगी. दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर उनके कार्यालय की दीवारों पर संघ परिवार में आर्थिक मामलों में स्वदेशी के मूल योद्धा दिवंगत दत्तोपंत ठेंगड़ी के चित्र लगे हैं.
अहमदाबाद में भारतीय किसान संघ का प्रदर्शन
(अहमदाबाद में भारतीय किसान संघ के प्रदर्शन में किसानों का बड़ा मजमा जुटा)
श्रमिकों का दर्द
सरकार के लिए सिरदर्द तीन-चार मुद्दों तक ही सीमित नहीं है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चुनौती देने वाले ठेंगड़ी द्वारा स्थापित भारतीय मजदूर संघ श्रम कानूनों में ढील देने के मोदी मंत्रिमंडल से स्वीकृत अनेक संशोधनों से खफा है. वह, मोदी सरकार को अप्रैंटिस कानून 1961, फैक्ट्री कानून 1948 और श्रम कानून (कुछ प्रतिष्ठानों को रिटर्न और मेंटेनेंस रजिस्टर जमा कराने से छूट) अधिनियम 1988 में संशोधन करने से रोकने के लिए अन्य मजदूर संघों से हाथ मिलाने की सोच रहा है.

दिल्ली में दत्तोपंत ठेंगड़ी भवन में अपने कार्यालय में बैठे भारतीय मजदूर संघ के महासचिव विरजेश उपाध्याय कहते हैं, ‘‘भारतीय मजदूर संघ प्रस्तावित संशोधनों के 101 प्रतिशत खिलाफ है. हम पूरी ताकत से इन्हें रोकने की कोशश करेंगे.’’ इस भवन के लिए जमीन वाजपेयी सरकार ने दी थी.

उपाध्याय ने बताया कि भारतीय मजदूर संघ ने उद्योगों को लुभाने के लिए श्रम कानूनों में इसी तरह के संशोधनों के प्रस्ताव पर 25 जुलाई को राजस्थान में वसुधंरा राजे की बीजेपी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया था. भारतीय मजदूर संघ के नेताओं ने राजस्थान सरकार के प्रस्ताव की केंद्रीय श्रम मंत्री नरेंद्र तोमर से शिकायत करने के लिए अन्य मजदूर संघों के नेताओं की मदद ली. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता रहे और मजदूर संघों से उभरकर आए उपाध्याय ने कहा, ‘‘श्रम मंत्री ने हमें भरोसा दिया था कि किसी बदलाव के लिए श्रमिक संगठनों को विश्वास में लिया जाएगा. उन्होंने वादा तोड़ा है और हमें धोखा दिया है.’’

भारतीय मजदूर संघ ने 30-31 जुलाई को राजस्थान राज्य सड़क परिवहन निगम के श्रमिकों की दो दिन की हड़ताल का भी खुलकर समर्थन किया था. ये कर्मचारी सार्वजनिक परिवहन, बिजली और पानी वितरण व्यवस्था के निजीकरण की राज्य सरकार की कथित कोशिश का विरोध कर रहे थे. मजदूर संघ श्रमिकों का लगातार समर्थन और उत्साहवर्धन कर रहा है.
डीयू के चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के खिलाफ एबीवीपी
(दिल्ली विश्वविद्यालय के चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम के खिलाफ एबीवीपी का प्रदर्शन)
व्यापार पर एका
संघ के योद्धाओं के अनेक मुद्दों पर भले ही केंद्र सरकार से मतभेद हों, लेकिन भारत में खाद्य सब्सिडी को बचाते हुए व्यापार सुविधा समझौते  में रुकावट डालने के उसके फैसले का वे खुले दिल से समर्थन करते हैं. स्वदेशी जागरण मंच के महाजन ने जिनेवा में विश्व व्यापार वार्ता में रोड़े अटकाने के भारत के फैसले की सराहना ही नहीं की है बल्कि उनके नेतृत्व में मंच का एक प्रतिनिधिमंडल पिछले साल दिसंबर में बाली गया था. वहां उन्होंने विश्व व्यापार संगठन वार्ता में बाली पैकेज पर सहमत होने के वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा के फैसले का विरोध भी किया था. उन्होंने बीजेपी नेताओं सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और मुरली मनोहर जोशी को उस समझौते की जानकारी भी दी थी जिसे वे भारतीय हितों के विरुद्ध मानते हैं. उस समय जेटली ने खुलेआम बाली पैकेज की आलोचना की थी.
 
महाजन खुशी-खुशी बताते हैं, ‘‘मैंने अपने लेखों में लिखा था-बाली में जीत नहीं हार. अरुण जेटली ने भी बाली पैकेज के विरुद्ध राय दी थी. वही राय अब अपनाई गई है.’’

बाली पैकेज में व्यापार सुविधा समझौते के अलावा अन्य देशों के साथ-साथ भारत के लिए एक शांति अनुच्छेद जोड़ा गया था जिससे सरकार अगले चार वर्ष तक व्यापार विवादों में घिरे बिना अनाज खरीद कर रियायती दर पर बांट सकती थी. यूपीए ने सहमति दे दी थी कि विश्व व्यापार संगठन 31 जुलाई, 2014 तक व्यापार सुविधा समझौते का अनुमोदन कर सकता है. उसे यह भरोसा दिया गया था कि खाद्य सब्सिडी तंत्र पर फैसला 2017 तक कर लिया जाएगा. इसे मोदी सरकार के लिए भारत के बढ़ते कृषि और खाद्य सब्सिडी कार्यक्रमों में सुधार करने का ऐसा अवसर माना गया था जो विश्व व्यापार संगठन के तहत देश का दायित्व है. लेकिन बीजेपी सरकार इस वादे से पीछे हट गई. उसने जिद की कि व्यापार सुविधा समझौते पर हस्ताक्षर तभी होंगे जब उसे हमेशा अपने हिसाब से कृषि सब्सिडी जारी रखने की अनुमति मिलेगी.

मोदी के एजेंडे पर फूटते विरोध के अंकुर सत्ता प्रतिष्ठान को फूंक-फूंकर कदम रखने पर मजबूर कर रहे हैं. इसने सुधारों के भविष्य और अधिकतम प्रशासन के वादे पर भी सवालिया निशान लगा दिए हैं. आइआइएम-बंगलुरू में लोकनीति के शिक्षक, कांग्रेस के राज्यसभा सांसद राजीव गौड़ा को आशंका है कि संघ के ये योद्धा मोदी की योजनाओं पर पानी फेर सकते हैं.

गौड़ा का कहना था, ‘‘आरएसएस की यही कमजोरी है. एक तरफ  वह अपने को आधुनिक दिखाता है लेकिन दूसरी तरफ विरोधाभासों में उलझा है. असल में कट्टरपंथी तत्व देश को आगे ले जाने की कोशिश में रुकावट बन सकते हैं. उनका असली चेहरा आने वाले दिनों में उजागर होगा. मोदी बुलेट ट्रेन जैसी योजनाओं से खुद को आधुनिकता का चेहरा बताने की कोशिश कर रहे हैं पर वे भी संघ की इसी परंपरा में पले-बढ़े हैं. दबाव डालने वाले ये गुट उनकी परीक्षा लेंगे और उनकी असलियत भी उजागर करेंगे.’’
शिक्षा में बदलाव के लिए दीनानाश बत्रा की टीम
1998 से 2004 तक एनडीए के पहले राज में प्रधानमंत्री वाजपेयी अपने सुधारवादी एजेंडे और पार्टी के भीतर, खासकर आरएसएस से विरोध के बीच तलवार की धार पर चलते रहे. पोकरण परमाणु विस्फोट और करगिल विजय ने उन्हें लंबे समय तक संघ का प्रिय पात्र बनाए रखा और अकसर आरएसएस के हमलों से बचने के लिए वे गठबंधन की मजबूरी को ढाल बना लेते थे. प्रशासन पर पकड़ मजबूत करने के बाद उन्होंने उदारवादी आर्थिक एजेंडे को आगे बढ़ाया जिससे संघ के नेताओं में अकसर कसमसाहट होती थी. इस तरह वाजपेयी का कार्यकाल पूरा हो गया.

इस बार संघ इन संकेतों को टालने की कोशिश कर रहा है कि संघ परिवार के सदस्य मोदी के प्रशासनिक एजेंडे को प्रभावित कर रहे हैं. और बीजेपी भी बहुत अधिक बेचैन नहीं दिख रही है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने बताया, ‘‘ये संगठन विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे हैं. उन्हें इन क्षेत्रों की व्यापक समझ और अनुभव है. अपने क्षेत्र के मसलों पर सरकार के सामने अपनी राय रखना इनका लोकतांत्रिक अधिकार है. सरकार को सबके विचार सुनने चाहिए.’’

बीजेपी का मानना है कि वह एक राजनैतिक दल है और देश को चलाने के लिए उसका एक राजनैतिक एजेंडा है जबकि आरएसएस का वृहत सांस्कृतिक और सभ्यतागत एजेंडा है और कभी-कभी दोनों में टकराव हो सकता है.

बीजेपी के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी का कहना है, ‘‘आरएसएस विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन है जिसका भारतीय समाज के विभिन्न हिस्सों पर गहरा प्रभाव है. बीजेपी के अधिकतर नेताओं की जड़ें संघ में हैं. भारत का स्वरूप बदलने की इच्छुक किसी भी सरकार को ऐसे महत्वपूर्ण संगठनों पर उचित ध्यान देना चाहिए. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सरकार के कामकाज में किसी भी स्तर पर दखल देने की कोशिश कभी नहीं करता.’’

बहरहाल, मोदी के समर्थक फिलहाल तो यही उम्मीद कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री ने संघ परिवार के स्वदेशी योद्धाओं के बाहुबल और लोकप्रियता की नाप-तौल कर ली है और वे उनसे टक्कर लेने के लिए राजनैतिक संकल्प जुटा सकते हैं.
दत्तोपंत ठेंगड़ी

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