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तबला वादक तो बहुत हुए लेकिन 'उस्ताद' ज़ाकिर हुसैन ही क्यों?

मशहूर तबला वादक उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का 73 साल की उम्र में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में 15 दिसंबर की शाम निधन हो गया. 6 दशक से ज्यादा समय तक तबले पर हथेली से थाप और उंगलियों से रक़्स का सिलसिला ऐसा चला कि उनसे जुड़ी दर्जनों कहानियां लोगों को उस्ताद की याद दिलाती रहेंगी

उस्ताद ज़ाकिर हुसैन/फाइल फोटो
उस्ताद ज़ाकिर हुसैन/फाइल फोटो
अपडेटेड 17 दिसंबर , 2024

तबले पर लगी चमड़े की परत पर जब हथेली से थाप और उंगलियों से रक़्स हो रहा हो, लोग सांसारिक स्मृतियां भुला बैठें और एक धुन में खो जाएं, तबले से शिव के डमरू और कृष्ण के पांचजन्य की नाद जुगलबंदी तिरोहित करने लगे, हाथ से तबला बजे तो चेहरा भी थाप की तर्जुमानी करे, लंबे-घुंघराले बालों के साथ गर्दन का झटकना और तिहाई पर दुनिया का थम जाना, जब ये सब हो रहा हो तो जादूगर का नाम बड़े अदब के साथ उस्ताद ज़ाकिर हुसैन सुनाई पड़ता है.

जिनके तबले की थाप से निकली धुन पूरी दुनिया में गूंजी, वो ज़ाकिर हुसैन अब इस दुनिया में नहीं रहे. 73 साल की उम्र में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया. ज़ाकिर हुसैन लंबे समय से अपने फेफड़े की बीमारी और ब्लड प्रेशर की समस्याओं से जूझ रहे थे. वे अमेरिका में ही रहते थे. 15 दिसंबर की शाम भारत में सूरज ढलने के साथ उनके निधन की खबरें आने लगीं. रात हुई तो कुछ और रिपोर्ट्स आईं जिनमें कहा गया कि अभी सांसें चल रही हैं, लेकिन जब भोर हुआ तो सच का मनहूस सूरज भी सामने आ गया.

 

उस्ताद की उंगलियां 6 दशक से भी ज्यादा समय तक तबले पर थिरकती रहीं. 9 मार्च 1951 को मुंबई में जन्मे ज़ाकिर हुसैन सिर्फ 2 दिन के थे, इस्लामिक रिवायत के मुताबिक कान में अजान पढ़ा जाना था, लेकिन पिता ने हाथ में लेते ही ज़ाकिर के कान में ‘रिदम’ सुनाई. यहीं से तालीम शुरू हो गई. जाकिर के पिता अल्लारक्खा भी मशहूर तबला वादक थे. पहले से उनकी तीन बेटियां थीं, इसलिए चाहते थे कि कोई बेटा पैदा हो तो उसके हाथ तबले पर जमा दिए जाएं.

ज़ाकिर हुसैन अपने पिता अल्लारक्खा के साथ

1988 में इंडिया टुडे मैगज़ीन में रघु राय का एक छाया लेख मिलता है जिसमें अल्लारक्खा कहते हैं, "ज़ाकिर ने अपने मां के गर्भ में ही तबला सुन लिया था और समझ लिया था कि वो क्या चीज है."जब ज़ाकिर छोटे थे तो पिता खिलौने जैसा छोटा तबला उनके पालने से बांध देते थे. जाकिर बाद के दिनों में अपने बचपन को याद करते हुए कहते हैं, "मैं 2 या तीन साल की उम्र में स्टेज पर पिता के पीछे बैठकर उन्हें तबला बजाते सुना करता था और साथ नहीं ले जाने पर झुंझला जाता था. जब वे चले जाते थे तो मैं रात तक उनका इंतजार करता रहता. वे देर रात को वापस आते, खाना खाते, फिर हम तब तक तबला बजाते जब तक कि एक साथ ऊंघने न लग जाएं. सात साल का होने तक मैं अपने पिता के साथ ही सोता था. तबला छूने से पहले ही मैं उसकी भाषा समझने लगा था. मुझे तो उसमें से बोल भर निकालने थे."

अपने पिता के बारे में याद करते हुए वे कहते हैं कि उन्होंने 5 सालों तक हर रोज 8 से 12 घंटे तक रियाज करके तबला वादन सीखा. ज़ाकिर कहते हैं कि ये जानने से भी पहले कि मैं कॉन्सर्ट कर सकता हूं या नहीं, मैं कॉन्सर्ट करने लगा था.

ऐसे ही अपना एक पुराना किस्सा बताते हुए वे कहते हैं, "उम्र करीब 7 साल रही होगी. मेरी आदत थी कि मैं स्टेज पर पिता के पीछे बैठा रहता था. एक बार पिता अली अकबर खां साहब के साथ तबला बजा रहे थे. पीछे एक तबला पड़ा होता था. मैं इतना एक्साइटेड हुआ कि उसे बजाने लग गया. पिता ने पीछे मुड़कर देखा और फिर अली अकबर खां साहब की तरफ देखा. दोनों में कुछ रजामंदी हुई. उन्होंने मुझसे पूछा- बजाएगा? मैंने भी कह दिया- हां बजाऊंगा. पिता हट गए और मुझे स्टेज दे दिया. यहां मैंने अली अकबर खां साहब के साथ आधे घंटे तक तबला बजाया. जब बड़ा हुआ तो समझ आया कि मैंने कितना बड़ा दुस्साहस कर दिया था."

सिर्फ 12-13 साल की उम्र में ही उन्होंने पटना और बनारस जैसे शहरों में प्रोग्राम करने शुरू कर दिए थे. 1973 में 22 साल की उम्र में उनका पहला एल्बम आया- लिविंग इन द मेटेरियल वर्ल्ड. अंग्रेजी गिटार वादक जॉन मैकलॉघलिन, वायलिन वादक एल. शंकर और तालवादक टीएच विनायकराम के साथ उनके म्यूजिक प्रोजेक्ट ने खूब वाहवाही बटोरी. 

1973 में शक्ति बैंड की स्थापना होती है. इसने भारतीय शास्त्रीय संगीतकारों और पश्चिमी संगीतकारों को एकजुट किया. भारतीय शास्त्रीय संगीत को जैज़ और रॉक के साथ मिलाकर एक मंत्रमुग्ध कर देने वाला साउंडस्केप बनाया जो सांस्कृतिक सीमाओं को भी पार कर गया. 'शक्ति' बैंड में ज़ाकिर हुसैन के साथ जॉन मैकलॉघलिन, शंकर महादेवन, वी सेल्वगनेश, गणेश राजगोपालन जैसे प्रसिद्ध कलाकार शामिल थे.

शक्ति बैंड के साथ ज़ाकिर हुसैन

आने वाले सालों में ज़ाकिर हुसैन कई अंतरराष्ट्रीय समारोहों का हिस्सा रहे, कई एल्बम्स बनाईं और अपने तबले से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करते रहे. इसी दौरान 1988 का वो किस्सा हुआ जिसने उस्ताद को ‘वाह उस्ताद’ बना दिया. ब्रूक बॉन्ड के ‘ताज महल चाय’ का विज्ञापन शूट होना था. शूट आगरा के ताज महल के सामने ही था. विज्ञापन के बैकग्राउंड मे ताजमहल था, ज़ाकिर हुसैन तबला बजाने में रम चुके थे. घुंघराले बाल लहरा रहे थे और चेहरे की मुस्कान मन मोह रही थी. इसके बाद वो एड में एक कप ताज चाय पीते हैं, वॉयसओवर में कहा जाता है, "वाह उस्ताद, वाह!" इस पर उस्ताद कहते हैं, "अरे हुज़ूर, वाह ताज बोलिए!"

ऐसे समय में जब उस्ताद ज़ाकिर हुसैन की उपस्थिति काफी हद तक रेडियो या अखबार तक सीमित थी, इस विज्ञापन ने उन्हें हर घर तक पहुंचा दिया.

ताज चाय के एड शूट के दौरान ज़ाकिर हुसैन

ज़ाकिर हुसैन को 1988 में पद्मश्री, 2002 में पद्म भूषण और 2023 में पद्म विभूषण से नवाजा गया. 1922 और 2009 में उन्हें ग्रैमी अवॉर्ड भी मिले. इसके बाद 'शक्ति बैंड' के साथ तीन ग्रैमी एक साथ जीवन के आखिरी साल में उनकी झोली में आए.

उस्ताद के सालाना कैंलेंडर में कम से कम 100 कॉन्सर्ट होते थे. ये संख्या सबूत है कि दुनिया में शास्त्रीय संगीत की जगह कम नहीं हुई बल्कि बढ़ गई है. फरवरी 2020 में छपे एक लेख में श्रीवत्स नेवटिया कहते हैं, "आपको याद रखना चाहिए कि हिंदुस्तानी संगीत स्टेडियम के लिए नहीं है, ये कमरे का संगीत है, लिहाजा 100-150 लोगों की छोटी-छोटी बैठकों से 3 हजार लोगों से भरे हॉल तक पहुंचना एक बड़ी छलांग है. हिंदुस्तानी कलाकार जब नियमित तौर पर दुनिया भर में जा रहे हैं, हुसैन का मानना था कि अब उन्हें वैश्विक संगीतकारों के तौर पर देखने का वक्त आ गया है."

ज़ाकिर हुसैन अपने पिता अल्लारक्खा की बीसवीं बरसी के मौके पर मुंबई में थे. यहां उनके शब्द थे, "मुझे देखकर हैरत होती है कि मेरे दिग्गज पिता के लिए लोगों का प्यार कितने लंबे वक्त तक बना हुआ है." यकीनन उस्ताद के लिए भी ये प्यार बना रहेगा. अलविदा उस्ताद ज़ाकिर हुसैन.

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