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जब राज कपूर से लोगों ने कहा, 'आग' में जो कुछ जलने से रह गया है वो 'बरसात' में बह जाएगा!

बॉलीवुड के 'शोमैन' कहे जाने वाले राज कपूर की 100वीं जयंती पर पेश है उनके जीवन और कामों से जुड़ी दिलचस्प कहानियां

बॉलीवुड के शोमैन राजकपूर (1924-1988)
बॉलीवुड के शोमैन राजकपूर (1924-1988)
अपडेटेड 14 दिसंबर , 2024

"बस यही तो हमारे समाज का कमाल है, जो चोर हो, दूसरों के जेब काटते हैं, पब्लिक की आंखों में धूल डालते हैं, मेरे जैसा पतला सूट-पैंट पहनते हैं, उन्हें हम शरीफ समझते हैं और जो ईमानदारी से, मेहनत मजदूरी करके पेट पालते हैं, फटे पुराने कपड़े पहनते हैं...उन्हें चोर, डाकू, आवारा समझकर धर लिया जाता है."

फिल्म आवारा (1951) का यह डायलॉग तब चार साल पहले ही आजाद हुए भारत की स्थिति पर उस कलाकार की टिप्पणी थी, जिसकी आने वाली कई फिल्मों में एक सामाजिक संदेश के साथ-साथ विशुद्ध प्रेम अपने श्रेष्ठतम रूप में जाहिर होने वाला था. नीली आंखों वाले ये कलाकार थे - राज कपूर.

पेशावर (अब पाकिस्तान) में 14 दिसंबर, 1924 को जन्मे इस महान कलाकार की आज 100वीं जयंती है. इस खास मौके पर आइए बॉलीवुड के 'शोमैन' कहे जाने वाले राज कपूर की फिल्मों और उनकी जिंदगी पर एक सरसरी निगाह डालते हैं.

मशहूर अभिनेता पृथ्वी राज कपूर के सबसे बड़े बेटे राज कपूर ने 10 साल की उम्र में एक बाल कलाकार के तौर पर इन्किलाब (1935) में काम किया था. उन्होंने 1940 तक प्रसिद्ध बॉम्बे टॉकीज में क्लैपर-बॉय (क्लैपबोर्ड की जिम्मेदारी संभालने वाला) के रूप में भी काम किया.

लेकिन राज को बड़ा ब्रेक मिला फिल्म नील कमल से. 1947 में आई इस फिल्म में उनके अपोजिट गुजरे जमाने की दिलकश अभिनेत्री मधुबाला थी, जो उस वक्त महज 16 साल की थीं और पहली बार लीड रोल में थीं. हालांकि, तब 23 वर्षीय राज कपूर या मधुबाला कोई स्थापित नाम नहीं थे. यही वजह है कि जब फिल्म के डायरेक्ट केदार शर्मा ने नीलकमल के स्टारकास्ट की घोषणा की, तो इंडस्ट्री के कई लोगों को ताज्जुब हुआ और इसकी आलोचना भी की.

फिल्म नीलकमल (1947) में राज और मधुबाला/IMDB
फिल्म नीलकमल (1947) में राज और मधुबाला/IMDB

मधुबाला की बायोग्राफी मैं जीना चाहती हूं की लेखिका खतीजा अकबर दर्ज करती हैं, "नीलकमल के लिए फाइनेंसर भी संशय में थे क्योंकि इसमें कोई भी बड़े नाम वाला कलाकार नहीं था. लेकिन केदार शर्मा ने इसे बनाने के लिए अपनी जमीन की एक प्लॉट बेच दी, और आखिरकार इसे अपने ढंग से बनाया भी." हालांकि यह फिल्म चली नहीं.

नीलकमल में राज की कास्टिंग की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. राज तब केदार शर्मा की ही प्रोडक्शन में क्लैपरबॉय का काम करते थे. बीबीसी की एक रिपोर्ट में लाहौर के पत्रकार ताहिर सुरूर मीर ने लिखा, "बहुत कम लोग यह जानते हैं कि राज कपूर की किस्मत एक थप्पड़ ने बदली जो उन्हें डायरेक्टर केदार शर्मा ने तब मारा था, जब फिल्म के सेट पर राज कपूर क्लैप मारते हुए अपने बाल संवारने लग जाते और क्लैप ठीक से नहीं दे पा रहे थे, इससे डायरेक्टर का पारा हाई हो गया."

मीर लिखते हैं कि केदार शर्मा ने राज कपूर को मारे हुए थप्पड़ की भरपाई उन्हें अपनी अगली फिल्म नीलकमल में बतौर हीरो कास्ट करके किया जिसमें उनके हीरोइन मधुबाला थीं.

साल 1948 में प्रदर्शित आग वह पहली फिल्म थी जिसमें अभिनेता के साथ साथ सबसे युवा निर्माता-निर्देशक के रूप में राज कपूर सामने आए. इसमें दिग्गज अभिनेत्री नरगिस, कामिनी कौशल और चरित्र अभिनेता प्रेमनाथ ने अभिनय किया था.

नरगिस और राजकपूर की सदाबहार रोमांटिक जोड़ी पहली बार इसी फिल्म में नजर आई थी. इसके बाद दोनों ने कई फिल्मों में साथ काम किया. दोनों एक दूसरे से प्यार भी करते थे लेकिन ये रिश्ता शादी तक नहीं पहुंच पाया. साल 1951 से 1956 के बीच राज कपूर की जितनी भी फिल्में आयीं, उनमें नायिका नरगिस ही थीं.

राज और नरगिस ने कुल 16 फिल्मों में साथ काम किया/विकीमीडिया कॉमन्स
राज और नरगिस ने कुल 16 फिल्मों में साथ काम किया/विकीमीडिया कॉमन्स

बहरहाल, आग बॉक्स ऑफिस पर गर्मी पैदा करने में असफल रही, लेकिन इसने फिल्मी दीवानों को राज और नरगिस की एक मनभावन केमेस्ट्री का परिचय जरूर दे दिया.

आग असफल रही, लेकिन यह राज कपूर का जुनून ही था कि उन्होंने अगले नौ महीने के भीतर ही बरसात बनाकर रिलीज भी कर दी. 1949 में रिलीज हुई यह फिल्म खासी सफल रही थी.

बरसात पूरी तरह एक ऐसी फिल्म थी जिसकी नसों में पूरा का पूरा नया खून था. हालांकि इस फिल्म की रिलीज के समय लोगों ने इसकी नौसिखिया टीम को देखते हुए तीखी आलोचना की.

प्रगतिशील वसुधा पत्रिका के अप्रैल-जून, 2009 के अंक 'हिंदी सिनेमा : बीसवीं से इक्कीसवीं सदी तक' में प्रदीप चौबे ने लिखा, "फिल्म के लिए नई नवेली टीम को देखते हुए लोगों ने कहा - "आग में जो कुछ जलने से रह गया है वह 'बरसात' में बह जाएगा." लेकिन फिल्म की रिलीज के बाद आलोचकों की ये सारी हसरतें धराशाई हो गईं.

बरसात ने कई लोगों का करियर बनाया. यह राज कपूर के बैनर की पहली हिट फिल्म थी, जिसने राज-नरगिस-शंकर जयकिशन-हसरत-शैलेंद्र की कोर टीम की स्थापना की. शंकर-जयकिशन जहां संगीतकार थे, वहीं हसरत जयपुरी और शैलेंद्र गीतकार के रूप में राज की टीम में थे. इसका गाना जिया बेकरार है, छाई बहार है...या निम्मी पर फिल्माया हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का...आज भी लोग गुनगुना लेते हैं.

रेडिफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बरसात की जबरदस्त सफलता के बाद ही राज कपूर ने 1950 में आरके स्टूडियो खरीदने के लिए पैसे जुटाए. आरके स्टूडिया का वो आइकॉनिक लोगो, जिसमें राज कपूर एक हाथ में नरगिस और दूसरे हाथ में वायलिन पकड़े हुए हैं, असल में बरसात फिल्म का ही एक दृश्य था.

इस फिल्म से प्रेमनाथ के करियर को जहां काफी फायदा पहुंचा, वहीं इसके कथा और संवाद लेखक रामानंद सागर भी एक चर्चित नाम बन गए. अंदाज (1949) की सफलता के बाद 'स्वर कोकिला' लता मंगेशकर ने बरसात के साथ खुद को स्थापित किया. इसमें उन्होंने नरगिस और निम्मी दोनों के लिए स्वर दिए.

बरसात के बाद राज ने फिल्म बनाई - आवारा (1951). इस फिल्म ने न सिर्फ भारत बल्कि सोवियत रूस, अफ्रीका और खाड़ी के देशों में सफलता की झड़ी लगा दी, फिल्म के डायलॉग से लेकर गानों तक ने धूम मचा दी. उस समय सबकी जुबान पर इसका टाइटल गीत चढ़ा हुआ था - 'आवारा हूं.'

आवारा फिल्म के कुछ स्टील्स
आवारा फिल्म के कुछ स्टील्स

राज ने इसके बाद एक से बढ़कर एक फिल्में बनाई, जिनमें श्री 420 (1955), जिस देश में गंगा बहती है (1960), संगम (1964), मेरा नाम जोकर (1970), बॉबी (1973), सत्यम् शिवम् सुंदरम् (1978) प्रमुख फिल्में थी. राज कपूर के निर्देशन में बनी अंतिम फिल्म राम तेरी गंगा मैली थी, जो 1985 में रिलीज हुई.

राम तेरी...बनाने की पीछे की कहानी के बारे में राज कपूर की बेटी ऋतु नंदा ने अपने पिता की बायोग्राफी राज कपूर : द वन एंड ओनली शोमैन में विस्तार से लिखा है. उसके मुताबिक, राज जिस देश में गंगा बहती है के कुछ हिस्सों को फिल्माने के लिए कोलकाता गए थे. वे हुगली नदी के तट पर स्थित प्रसिद्ध दक्षिणेश्वर मंदिर में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के मठ में रुके थे.

इस दौरान वहां एक साधु ने राज को एक बड़ी ही मोहक घटना सुनाई, जो पच्चीस साल के बाद राम तेरी...का जन्म साबित हुई. घटना कुछ यूं है कि एक दिन ऋषिकेश के प्रसिद्ध नग्न साधु तोतापुरी महाराज श्री रामकृष्ण से उनकी आध्यात्मिक ज्ञान की परीक्षा लेने हुगली के तट पर आए. वे एक ऐसी जगह मिले जहां हुगली (गंगा की सहायक नदी) सबसे ज्यादा गंदी थी. तोतापुरी महाराज ने कहा, "राम, तेरी गंगा मैली है."

श्रीरामकृष्ण ने उनको स्थित नजर से देखते हुए उत्तर दिया, "महाराज, यह तो स्वाभाविक बात है. जैसे-जैसे वो (गंगा) ऋषिकेश से बहकर आती है, वह और कुछ नहीं करती, केवल लोगों के पापों को धोती है." यह घटना राज के दिमाग में घर कर गई और आखिर में इसने राज को फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया.

बहरहाल आवारा, श्री 420, चोरी-चोरी, बरसात, अंदाज और संगम जैसी फिल्मों ने राज कपूर को शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा दिया. कुछ सफल फिल्मों के बाद राज कपूर ने फार्मूला फिल्में बनाने के बजाय प्रयोग करने को प्राथमिकता दी और वे फिल्मों में नए विषय लेकर आये. फिल्म बूट पॉलिश (1954), जागते रहो (1956), जिस देश में गंगा बहती है जैसी फिल्में उन्हीं प्रयोगों की कड़ी में हैं.

साठ के दशक में राज अपने करियर के चरम पर थे, और बहुत सी सफलताएं हासिल कर चुके थे. इसी समय उनके मन में एक ऐसी फिल्म बनाने का आइडिया आया जो उनके जीवन की कहानी कहे और वह फिल्म थी - मेरा नाम जोकर.

बीबीसी की एक रिपोर्ट में लिखा है, "मेरा नाम जोकर सिर्फ एक फिल्म नहीं एक बहुत बड़ा रिस्क था जो राज कपूर के टाइटेनिक को डुबो सकता था. उन्होंने खतरों से डरे बगैर इस हाई बजट प्रोजेक्ट को शुरू किया. अपने संबंधों का लाभ उठाते हुए चीन और रूस से सर्कस टीमों को बुलाया और एक बड़े कैनवास पर रंग बिखेरने शुरू किये."

इस फिल्म में उस समय के सभी सुपरस्टार नजर आए. यह एक ऐसा प्रोजेक्ट था जो सिमटने के बजाय फैलता गया, यहां तक कि फिल्म का बजट और समय दोनों बढ़ गए. और फिर वही हुआ जिसका डर था. यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट होने के बजाय फ्लॉप साबित हुई. आरके प्रोडक्शन को भारी नुकसान उठाना पड़ा.

इस भारी असफलता के बाद आलोचकों और फिल्म विशेषज्ञों को यह लगने लगा था कि राज कपूर अब दोबारा अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पाएंगे. लेकिन यह नाकामयाबी जैसे राज के असली क्षमता को परखने की कोई दैवीय साजिश थी. हमेशा टीम बनाकर काम करने में यकीन रखने वाले राज ने मेरा नाम जोकर की विफलता के फौरन बाद अपनी टीम को इकट्ठा किया और अगली फिल्म का टास्क दिया. राज इस फिल्म के लिए ऐसे तैयार थे, जैसे कि यह उनका बैक-अप प्लान हो.

यह फिल्म एक युवा प्रेम की कहानी थी जिसमें वे अपने बेटे ऋषि कपूर को लॉन्च करने वाले थे. फिल्म का नाम था 'बॉबी'. इसी फिल्म से अभिनेत्री डिम्पल कपाड़िया के करियर की भी शुरुआत हुई. यह फिल्म 1973 में रिलीज हुई. इस फिल्म ने इतना बिजनेज किया कि कंपनी के सभी घाटे पूरे हो गये. यह फिल्म न सिर्फ ब्लॉकबस्टर बल्कि ट्रेंड सेटर साबित हुई जिसने रोमांस आधारित फिल्मों का नक्शा ही बदल दिया.

राज अपनी फिल्मों में पटकथा से लेकर, सिनेमैटोग्राफी और खासकर संगीत पर बहुत ध्यान देते थे. एक बार की बात है. शंकर-जयकिशन और लता मंगेश्कर एक गाने की रिकार्डिंग कर रहे थे. रिकार्डिंग जब पूरी होने ही वाली थी कि राज कपूर आए. उन्हें गाना पसंद नहीं आया और फिर गाने को पूरा बदलना पड़ा.

तीसरी कसम (1966) में वहीदा रहमान के साथ राज कपूर
तीसरी कसम (1966) में वहीदा रहमान के साथ राज कपूर

अपनी एक्टिंग से करीब चार दशकों तक भारतीय सिनेमाई पटल पर छाए रहने वाले राज की बेपरवाह अदा लोगों के दिलों में बस गई थी. वे एक ऐसे आम, गंवई हिन्दुस्तानी का प्रतिरूप बन गए थे जो कभी भी बुरे ख्यालों को अपने पास फटकने नहीं देता था. फिल्म तीसरी कसम (1966) में उनका 'इस्स' कहने का अंदाज कौन भूला होगा. राज अपनी नायिकाओं का खूब ख्याल रखते थे. उनकी फिल्मों में नारी-चरित्र काफी प्रमुखता से उभरा है. खालिस राज कपूर मार्का फिल्मों में एक छद्म समाजवादी संदेश भी होता था.

फिल्म श्री 420 देखिए, इसमें गरीबी, बेरोजगारी और राष्ट्र प्रेम का संदेश कूट-कूट कर भरा है. बीबीसी की एक रिपोर्ट में लिखा है कि आवारा फिल्म के बारे में एक बार सोवियत नेता निकिता खुश्चेव ने कहा था कि द्वितीय विश्व युद्ध में रूस को काफी पीड़ा झेलनी पड़ी थी, और रूसी फिल्मकारों ने जब फिल्में बनाईं तो उन्होंने भी एक तरह से अपने लोगों के दुखों को कुरेदने का काम ही किया. लेकिन राज कपूर जब आवारा फिल्म में गाते हैं, 'जख्मों से भरा सीना है मेरा, हस्ती है मगर ये मस्त नजर' तो रूसी लोगों में उम्मीद की नई किरण जगी. आवारा रूस में जबरदस्त सफल हुई थी.

राज कपूर की टीम में फिल्म जगत के कोहिनूर भरे पड़े थे. एक तरफ जहां उपन्यासकार ख्वाजा अहमद अब्बास थे, तो संगीतकार जोड़ी के रूप में शंकर-जयकिशन थे. गायक मुकेश तो राज कपूर की ही आवाज थे. इन सभी में गीतकार शैलेन्द्र, राज कपूर के सबसे करीबी दोस्तों में थे जिन्होंने राज कपूर को हीरो लेकर फिल्म तीसरी कसम बनाई थी. यह फिल्म 1966 में रिलीज हुई, लेकिन बुरी तरह असफल रही.

ऋतु नंदा ने राज की बायोग्राफी में लिखा कि शैलेंद्र इस फिल्म को हर हाल में बनाना चाहते थे, लेकिन राज कपूर इसकी व्यावसायिक सफलता को लेकर आशंकित थे. ऐसे में शुरू-शुरू में राज ने शैलेंद्र को समझाने की काफी कोशिश की, लेकिन शैलेंद्र अपनी बात पर अड़े रहे. आखिरकार राज कपूर और वहीदा रहमान की मुख्य भूमिका वाली यह फिल्म टिकट खिड़की तक पहुंची, लेकिन बिजनेस करने में असफल रही.

इस फिल्म की असफलता से शैलेन्द्र को काफी धक्का लगा. वे कर्ज में डूब चुके थे और खूब शराब का सेवन करने लगे थे. ज्यादा शराब पीने के कारण लिवर सिरोसिस से शैलेंद्र का 14 दिसंबर, 1966 को निधन हो गया. महज 43 साल की उम्र में वो इस दुनिया को छोड़ गए.

ये एक अजीब संयोग है कि शैलेंद्र का निधन उसी दिन हुआ जिस दिन राजकपूर का जन्मदिन पड़ता है. राज ने तब नार्थकोट नर्सिंग होम में अपने दोस्त और इस महान जनवादी गीतकार के निधन पर कहा था, "मेरे दोस्त ने जाने के लिए कौन सा दिन चुना, किसी का जन्म, किसी का मरण. कवि था न, इस बात को खूब समझता था."

बहरहाल, राज कपूर के निर्देशन में बनी उनकी आखिरी फिल्म राम तेरी गंगा मैली के शानदार प्रदर्शन के बाद वे हिना (1991) के निर्माण में लग गए थे. इस फिल्म की कहानी एक भारतीय युवक और पाकिस्तानी युवती के प्रेम-सम्बन्ध पर आधारित थी. हालांकि, इस फिल्म के निर्माण के दौरान राज का स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित होने लगा था.

आखिरकार, 02 जून 1988 वो मनहूस दिन साबित हुआ, जब 63 साल की उम्र में राज ने अपनी आखिरी सांस ली. लेकिन दुनिया को रुखसत करने से पहले यह 'शोमैन' संसार के लाखों लोगों के दिलों में अपना तंबू गाड़ चुका था.

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