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जब अंबेडकर की थीसिस और किताबें समंदर में डूब गईं... उनके जीवन के कुछ अनसुने किस्से!

अपनी किताब 'अम्बेडकर : एक जीवन' में शशि थरूर ने डॉ. भीमराव अंबेडकर की जिंदगी से जुड़े कई किस्से दर्ज किए हैं

14 अप्रैल, 1950 को अपने जन्मदिन के मौके पर अपनी पत्नी के साथ डॉ. भीमराव अंबेडकर (विकीमीडिया कॉमन्स)
14 अप्रैल, 1950 को अपने 59वें जन्मदिन के मौके पर अपनी पत्नी के साथ डॉ. भीमराव अंबेडकर (विकीमीडिया कॉमन्स)
अपडेटेड 12 अप्रैल , 2025

साल 1900, तब भीम सिर्फ 9 साल के थे. उनके पिता रामजी मालोजी सकपाल ब्रिटिश सेना में सूबेदार पद से रिटायर हो चुके थे और महाराष्ट्र के कोरेगांव में कोई नौकरी कर रहे थे. रामजी ने भीम और दो अन्य लड़कों को गर्मी की छुट्टियां साथ बिताने के लिए कोरेगांव बुलाया. तीनों लड़के इस बात से बेहद खुश हुए.

जाने के वक्त उन्होंने दर्जी के सिले अपने सबसे अच्छे कपड़े पहने हुए थे, सिर पर जरीदार टोपियां भी थीं. पहली बार वे ट्रेन से सफर करेंगे, इस एहसास से काफी रोमांचित थे. लड़कों ने रामजी सकपाल को लिखा कि उनकी ट्रेन शाम पांच बजे तक पहुंच जाएगी.

लेकिन इससे पहले कि वो चिट्ठी सूबेदार पिता के पास पहुंचती, ये तीनों लड़के ट्रेन से अपने गंतव्य तक पहुंच चुके थे. वहां पहुंचकर देखा तो कोई उनका इंतजार नहीं कर रहा था, क्योंकि पिता को उनके आने का पता ही कहां चला था! फिर लड़कों ने वहां प्लेटफॉर्म पर मौजूद लोगों से मदद मांगी. लोग बातें करने लगे कि ये लड़के आखिर कौन हैं? लेकिन थोड़ी देर बाद जब उन्होंने बताया कि वे महार हैं, एक अछूत समुदाय के सदस्य, तो अचानक सबका मन और बर्ताव बदल गया. अब कोई उनकी मदद नहीं करना चाहता था.

वे तीनों लड़के करीब डेढ़ घंटे तक मदद की गुहार लगाते रहे. वहां कई गाड़ियां (तांगा और बैलगाड़ी) खाली खड़ी थीं, लेकिन किराया देने पर भी वह उन लड़कों के लिए उपलब्ध नहीं थीं. आखिरकार बहुत मनाने पर एक गाड़ी वाला तैयार हुआ, लेकिन वह खुद गाड़ी नहीं चलाना चाहता था. उसे डर था कि वह जातिभ्रष्ट हो जाएगा.

फिर लड़कों को दोगुना किराया देने के लिए तैयार होना पड़ा और गाड़ी भी उन्हें खुद ही चलानी थी. पूरी यात्रा के दौरान गाड़ीवान थोड़ी दूरी बना कर उनके साथ-साथ चलने वाला था. लेकिन लोगों का अपमानजनक व्यवहार इतने भर से पीछा छोड़े तब तो! सफर में लोगों ने उनकी जाति की वजह से उन्हें पानी तक देने से इनकार कर दिया.

अपनी किताब 'अम्बेडकर: एक जीवन' में शशि थरूर इस ट्रेजिक किस्से का जिक्र करते हुए लिखते हैं, इस तरह जो बच्चे अपनी छुट्टियों पर हो रही यात्रा को लेकर बेहद उत्साहित थे, उनके साथ हुए अमानवीय व्यवहार ने उन्हें इस कदर अपमान की पीड़ा से भर दिया, जिसका सामना हजारों वर्षों से इस देश में लाखों-करोड़ों लोग करते आए हैं.

युवा अंबेडकर, बाद में उनके नाम में 26 एकेडमिक उपाधियां जुड़ीं
युवा अंबेडकर, बाद में उनके नाम में 26 एकेडमिक उपाधियां जुड़ीं

जब सार्वजनिक नल से छुपकर पानी पीने के लिए भीम को पीटा गया

भीम को पांच साल की उम्र में रत्नागिरी जिले में दापोली के एक स्थानीय स्कूल में दाखिला कराया गया था. एक अछूत सैनिक के बच्चे का दाखिला कोई असामान्य बात नहीं थी क्योंकि सैनिकों के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य थी. न केवल भीम के पिता बल्कि उनके परिवार की महिलाएं भी शिक्षित थीं. लेकिन एक अस्पृश्य के रूप में भीम को स्कूल में दूसरे बच्चों से अलग रखा जाता था. उन्हें क्लास में कोने में टाट पर बिठाया जाता था जो उन्हें घर से ही लाना होता था. स्कूल खत्म होने के बाद टाट को उन्हें अपने साथ ले जाना होता था क्योंकि स्कूल का चपरासी जो कि 'ऊंची जाति' का था, वो उसे छूने से भी मना कर देता था.

अमानवीयता की यह कहानी तब हद पार कर देती जब प्यासे भीम को पानी पीने के लिए स्कूल के चपरासी का इंतजार करना पड़ता. ऐसा इसलिए क्योंकि भीम के छूने से नल दूषित हो सकता था! उन्हें नल को खोलने के लिए चपरासी का इंतजार करना होता था. अगर चपरासी उपलब्ध नहीं होता, तो उन्हें प्यासा ही रह जाना पड़ता था. यानी हिसाब सीधा था: 'अगर चपरासी नहीं, तो पानी भी नहीं.' लेकिन अगर जोरों की प्यास लगी हो तो फिर कितना इंतजार किया जा सकता है! थरूर ने अपनी किताब 'अम्बेडकर: एक जीवन' में लिखा है कि एक बार, जब यह पाया गया कि भीम सार्वजनिक नल से छुपकर पानी पी रहे हैं, तब उन्हें इस दुस्साहस के लिए पीटा गया. बाद में भीम ने इस घटना का काफी कड़वाहट के साथ जिक्र किया था.

भीमराव के नाम में कैसे जुड़ा 'अंबेडकर'

स्कूल की पढ़ाई के दौरान कई ऐसी अपमानजनक घटनाएं होती थीं जिनसे भीम को रोजाना दो-चार होना पड़ता था. लेकिन कभी-कभार स्कूल के दो ब्राह्मण शिक्षक उन पर दया भी दिखा दिया करते थे. इनमें एक का नाम श्रीमान पेंडसे था तो दूसरे कृष्ण केशव अंबेडकर थे.

एक बार पेंडसे ने भीम को बारिश में भीगने के बाद ठंड से ठिठुरते हुए देखा तो उन्हें अपने घर ले गए, ताकि वो खुद को और कपड़ों को सुखा सकें. उन्होंने भीम को पहनने के लिए धुले हुए कपड़े भी दिए. वहीं, कृष्ण केशव अंबेडकर चुपके से भीम के साथ अपना लंच हर दिन शेयर कर लिया करते थे.

स्कूल में भीम का नाम भीवा सकपाल के रूप में दर्ज था. भीवा उनके बचपन का उपनाम था और सकपाल उनके पिता का कुलनाम. लेकिन किसी की परवाह न करने वाले उदार हृदय शिक्षक कृष्ण केशव अंबेडकर ने स्कूल रजिस्टर में उनका नाम बदलकर अंबेडकर कर दिया. थरूर ने अपनी किताब 'अम्बेडकर: एक जीवन' लिखा, "ये एक ऐसा नाम था जो खुद कृष्ण केशव अंबेडकर और भीम के पुश्तैनी गांव अंबावाड़े से निकला था. ऊंची जाति के महाराष्ट्र के लोग अक्सर अपने उत्पत्ति स्थान से अपना कुलनाम ले लिया करते थे, पर अछूत ऐसा नहीं कर सकते थे."

भीम के शिक्षक कृष्ण केशव अंबेडकर ने फैसला किया कि बालक की योग्यता खुद अपना नाम रखने की है, ये एक ऐसा निर्णय था जिसे भीम ने बाद में खुशी से स्वीकार कर लिया.

जब एलफिंस्टन कॉलेज में 'अछूत' भीम को लेकर मची अफरातफरी

1906-07 की बात है, तब भीम का परिवार बम्बई (मुंबई) आ चुका था. यहां सब लोग चॉल में एक कमरे वाले घर में रह रहे थे. उनके पिता रामजी रिटायर हो चुके थे और उनकी मामूली पेंशन से सिर्फ एक बच्चे को शिक्षा दी जा सकती थी. इसलिए बच्चों में सबसे मेधावी भीम का दाखिला प्रतिष्ठित एलफिंस्टन कॉलेज के हाई स्कूल में कराया गया. उस संस्थान में अपनी बिरादरी के वे अकेले सदस्य थे. लेकिन वहां भी भीम अपनी जातिगत पहचान की वजह से बच नहीं सके. उन्हें याद दिला दिया जाता था कि वे अछूत हैं.

एक बार, जब शिक्षक ने उन्हें एक सवाल हल करने के लिए ब्लैकबोर्ड के पास बुलाया, तो क्लास में अफरातफरी मच गई और दूसरे छात्र भीम से पहले ब्लैकबोर्ड तक पहुंचने के लिए दौड़ पड़े. ऐसा इसलिए नहीं कि वे बच्चे ब्लैकबोर्ड तक पहले पहुंचकर सवाल हल करना चाहते थे, असल में उन्होंने अपना टिफिन बॉक्स ब्लैकबोर्ड के पीछे रखा हुआ था. वे इस बात से भयभीत हो गए कि अगर भीम वहां पहुंच गए तो उनका भोजन अशुद्ध हो जाएगा. उन्होंने अपने टिफिन बॉक्स भीम के पहुंचने से पहले निकालकर अलग कर लिए.

भीम वहां पढ़ने में बहुत अच्छे थे, लेकिन इसमें भी उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ा. थरूर ने अपनी किताब में लिखा, "भीम संस्कृत पढ़ना चाहते थे, लेकिन अधिकारियों ने अनुमति देने से इनकार कर दिया क्योंकि वे अछूत थे. ऐसे में उन्हें फारसी पढ़नी पड़ी."

लेकिन इन कड़वे अनुभवों के बावजूद उनकी सीखने की ललक कम नहीं हुई. साल 1907 में जब उन्होंने 16 साल की उम्र में मैट्रिकुलेशन (दसवीं) की परीक्षा पास की तो फारसी में पूरे स्कूल में उन्हें सबसे ज्यादा अंक मिले थे.

केलुस्कर ने कराई थी भीम की बड़ौदा के महाराजा से मुलाकात

यह तो हम जानते ही हैं कि डॉ. भीमराव अंबेडकर की जिंदगी में बड़ौदा के महाराजा सर सयाजी राव गायकवाड़ के सहयोग का कितना अहम योगदान रहा है. ये सयाजी राव गायकवाड़ ही थे जिन्होंने भीम की अमेरिका, लंदन में पढ़ाई का पूरा खर्च उठाया था और उन्हें वजीफा के साथ-साथ अपने यहां नौकरी भी दी थी. लेकिन भीमराव की सयाजी राव गायकवाड़ के साथ मुलाकात कैसे हुई थी?

असल में, एलफिंस्टन कॉलेज में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करते ही भीम को पता चल गया था कि उनका परिवार अब उनकी पढ़ाई-लिखाई का खर्च नहीं उठा पाएगा, और वे अपनी डिग्री पूरी नहीं कर सकेंगे. उसी मुश्किल समय में उनकी जिन्दगी में एक ऐसे शुभचिंतक का प्रवेश हुआ जिनका नाम था - के.ए. केलुस्कर. वे एक मराठी विद्वान और समाज सुधारक थे.

हाई स्कूल के छात्र के रूप में भीम ने केलुस्कर को बहुत प्रभावित किया था. केलुस्कर जिस गार्डन में जाया करते थे, वहां उन्होंने भीम को पूरे मनोयोग से पढ़ाई करते देखा था. वह भीम को अपनी लाइब्रेरी से पढ़ने के लिए किताबें देने लगे. एक दिन उन्होंने भीम को गौतम बुद्ध की जीवनी पढ़ने को दी. इस किताब ने युवा भीम पर गहरा और स्थाई प्रभाव डाला.

केलुस्कर ने सुना था कि बड़ौदा के महाराजा सर सयाजी राव गायकवाड़ ने बम्बई की एक सार्वजनिक सभा में घोषणा की है कि वे किसी भी योग्य अछूत छात्र की उच्च शिक्षा हासिल करने में मदद करने को तैयार हैं. केलुस्कर ने महाराजा से मुलाकात की और भीम के लिए मदद मांगी. महाराजा ने युवा भीम को एक इंटरव्यू के लिए बुलाया. वे भीम से पूछे गए सवालों का जवाब सुनकर प्रभावित हो गए. उन्होंने भीम को 25 रुपये मासिक वजीफा देने का एलान किया जो उस जमाने में एक बड़ी रकम हुआ करती थी.

थरूर अपनी किताब में लिखते हैं, "इस तरह महाराजा की दरियादिली से मिले पैसे न सिर्फ भीम की शिक्षा के लिए पर्याप्त थे, बल्कि उससे उनका परिवार भी बेहतर जगह पर रहने लगा. एक साल बाद भीम ने ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल कर ली. ये उपलब्धि एक ऐसे देश में हासिल हुई थी जहां ऊंची जाति के तमाम हमवतन छात्र अपने नाम के आगे बीए 'फेल' लिखना सम्मान समझते थे कि वे वहां तक तो पहुंच सके." बाद में सर सयाजी राव गायकवाड़ ने अपनी सहृदयता से भीम को और भी वजीफे प्रदान किए जिससे भीम विदेशों में जाकर तमाम तरह की डिग्रियां हासिल कर पाएं.

जब बड़ौदा रियासत के दीवान ने आदेश दिया - भीम अब लौटकर रियासत की सेवा करें

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दिनों की अंबेडकर की तस्वीर (1913-16)
कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दिनों की अंबेडकर की तस्वीर (1913-16)

थरूर अपनी किताब 'अम्बेडकर: एक जीवन' में लिखते हैं कि साल 1913 में भीम कोलंबिया यूनिवर्सिटी से पढ़ाई के लिए अमेरिका के न्यूयॉर्क पहुंचे. वहां उन्होंने बंबई के एक पारसी नवल भथेना के साथ किराए पर कमरा लिया. आगे चलकर सफल कारोबारी बने भथेना जातिगत पूर्वाग्रहों से मुक्त थे और प्रतिभाशाली छात्र अंबेडकर को बेहद पसंद करते थे. साल 1915 में अंबेडकर ने एमए पूरा कर लिया और पीएचडी करने लगे. इसी दौरान उन्होंने समय निकालकर उस विषय पर पर्चा तैयार किया और उसे प्रस्तुत किया जिस पर उन्होंने गहराई से सोचना शुरू कर दिया था.

'भारत में जातियां, उनकी उत्पत्ति, संरचना और विकास' नामक विषय पर उन्होंने मई 1916 में मानवशास्त्र की एक संगोष्ठी को संबोधित करते हुए उन्होंने जाति की बुराइयों की समीक्षा की. अमेरिकी श्रोताओं को समझाने के लिए उन्होंने एक रूपक भी तैयार कर लिया था, "हिंदुत्व एक बहुमंजिली इमारत की तरह है जिसकी हर मंजिल पर एक जाति ने कब्जा किया हुआ है, लेकिन इन विभिन्न मंजिलों को जोड़नेवाली कोई सीढ़ी नहीं है. इस व्यवस्था में एक व्यक्ति उसी मंजिल पर जीवन व्यतीत करता है और मर जाता है जिस पर वह पैदा हुआ है."

जून 1916 में अंबेडकर ने डॉक्टरेट (पीएचडी) की अपनी थीसिस खत्म की और उसे जमा कर दिया. कोलंबिया यूनिवर्सिटी को उनके शोध ने प्रभावित किया और काफी प्रशंसा के साथ उन्हें पीएचडी की डिग्री दी गई. लेकिन इधर बड़ौदा रियासत के साथ जो अनुबंध था जिसमें कहा गया था कि पढ़ाई खत्म करने के बाद अंबेडकर को लौट कर रियासत की सेवा करनी पड़ेगी, अंबेडकर ने एक बार फिर महाराजा से आग्रह किया और उनके आशीर्वाद से लंदन में एक साल और पढ़ाई करने का वजीफा हासिल कर लिया. अक्टूबर 1916 में लंदन पहुंचकर अंबेडकर ने पोस्ट डॉक्टरेट की पढ़ाई के लिए बैरिस्टरों की एक्सक्लूसिव जमात 'ग्रेज इन' में एडमिशन ले लिया.

लेकिन इस बार अंबेडकर के सामने एक अड़चन आई. थरूर ने लिखा है, "बड़ौदा रियासत के दीवान अपने महाराजा के मुकाबले इस मेधावी छात्र को लेकर कम सहृदय थे. उन्होंने अंबेडकर को आदेश दिया कि वे लौटकर दस साल तक रियासत की सेवा करने का अपना अनुबंध पूरा करें. जब यह आदेश अंबेडकर तक पहुंचा तो लंदन में उनके प्रवास में केवल छह महीने ही पूरे हुए थे और प्रथम विश्वयुद्ध तेज हो रहा था."

बहरहाल, ऐसे में अंबेडकर के सामने शर्त को मान लेने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था. उन्होंने अपना सामान एक मालवाहक स्टीमर में बुक करा दिया और भारत के लिए रवाना हो गए.

जब अंबेडकर की थीसिस और कई अहम किताबें समुद्र में डूब गईं

यह सच है कि अंबेडकर की लिखी थीसिस की मूल पाण्डुलिपि समुद्र में डूब गई थी. दरअसल, बड़ौदा रियासत की शर्त पूरी करने के लिए जब अंबेडकर भारत के लिए रवाना हुए तो उन्होंने अपना सारा सामान एक मालवाहक स्टीमर में बुक करा दिया और खुद दूसरे जहाज से रवाना हुए. तब पहला विश्वयुद्ध अपनी गति पकड़ रहा था.

थरूर ने अपनी किताब में लिखा है कि अंबेडकर के जहाज ने खतरनाक समुद्री यात्रा को सुरक्षित पूरा कर लिया, लेकिन उनका सामान लेकर आ रहा स्टीमर रास्ते में जर्मनी की बमबारी का शिकार हो गया और बिना कोई निशान छोड़े समुद्र में डूब गया. इन सामानों में अंबेडकर की सारी बहुमूल्य किताबों का संग्रह और उनकी थीसिस की पाण्डुलिपि भी शामिल थी.

थरूर लिखते हैं, "अंबेडकर को किताबों में हमेशा संबल प्रदान करने वाली स्वीकार्यता हासिल हुई थी. उनके अपने जीवन में जो बराबरी उन्हें कभी नहीं मिली थी, उस समानता का भाव उन्हें पुस्तकों के जरिए ज्ञान तक पहुंच में हासिल हुआ था. पुस्तकों और पाण्डुलिपियों के खोने पर वह गहरे शोक में डूब गए."

(बाएं से) यशवंत (पुत्र), अंबेडकर, रमाबाई (पत्नी), बड़े भाई की पत्नी, भतीजा और अंबेडकर का पसंदीदा कुत्ता टोबी (फरवरी 1934, राजगृह)
(बाएं से) यशवंत (पुत्र), अंबेडकर, रमाबाई (पत्नी), बड़े भाई की पत्नी, भतीजा और उनका पसंदीदा कुत्ता टोबी (फरवरी 1934, राजगृह)

डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के महू में हुआ था. तब कौन जानता था कि छोटे से शहर में जन्मा ये बच्चा एक दिन अमेरिका और लंदन जाकर पहला ऐसा भारतीय बनेगा जो इकोनॉमिक्स में दो-दो डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करेगा और एक दिन आधुनिक भारत का संविधान लिख देगा!

लेकिन अंबेडकर ने इन सब बातों को सही साबित किया. उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स (एलएसई) से पीएचडी तो की ही, इसके अलावा वे ब्रिटेन के हाईली-एक्सक्लूसिव क्लब ग्रेज इन से बैरिस्टर भी बने. बहरहाल, डॉ. अंबेडकर की कहानी सिर्फ इसलिए प्रेरणादायक नहीं है कि उन्होंने अपने दौर के सभी विद्वानों से ज्यादा औपचारिक शिक्षा हासिल की, बल्कि इसलिए भी है कि अंबेडकर ने ये सब एक लंबे संघर्ष से हासिल किया.

जैसा कि हम जानते हैं कि उनका जन्म महार समुदाय में हुआ. एक ऐसी कम्युनिटी जिसकी गिनती हिंदू सोशल सिस्टम की एक कुरूप व्यवस्था यानी कास्ट सिस्टम के तहत अनटचेबल्स या अछूतों में होती थी. देश के संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर एक ऐसी व्यवस्था के शिकार बने जिसने उनके जैसे लाखों-करोड़ों लोगों का भविष्य जन्म से ही तय करने की ठान ली थी.

डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर: राइटिंग एंड स्पीचेज में अंबेडकर लिखते हैं, "हिंदू लॉ गिवर मनु ने शूद्रों को वेद पढ़ने या सुनने से मनाही कर रखा था. गौतम धर्म सूत्र में तो शूद्र द्वारा वेदों को सुनने या रिसाइट करने पर कान में पिघला हुआ शीशा डालने या जीभ काटने जैसी अतिवादी बातें कही गई हैं."

ऐसी अतिवादी व्यवस्था से लड़ते हुए अंबेडकर ने न सिर्फ खुद को शिक्षित किया बल्कि उन्होंने लाखों वंचितों और पिछड़ों को एजुकेट करने जाति व्यवस्था को जड़ से उखाड़ने के लिए लंबा संघर्ष भी किया. आखिर में 13 अक्टूबर, 1935 को दलित वर्गों का एक प्रांतीय सम्मेलन नासिक जिले में येवला में आयोजित किया गया. इस सम्मेलन में उनकी घोषणा से हिंदुओं को गहरा सदमा लगा.

अंबेडकर ने कहा, "मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ लेकिन मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा" उनके हजारों अनुयायियों ने उनके इस फैसले का समर्थन किया. 1936 में उन्होंने बॉम्बे प्रेसीडेंसी महार सम्मेलन को संबोधित किया और हिंदू धर्म का त्याग करने की वकालत की.

आखिरकार 21 सालों के बाद उन्होंने उस बात को सच साबित कर दिया, जो उन्होंने 1935 में येओला में कहा था कि "मैं हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा." 14 अक्टूबर, 1956 को उन्होंने नागपुर में एक ऐतिहासिक समारोह में बौद्ध धर्म अपना लिया था और 06 दिसंबर 1956 को उनकी मृत्यु हो गई.

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