'लव जिहाद' और 'भगवा लव ट्रैप' जैसी बातें आए दिन सोशल मीडिया और न्यूज़ पोर्टल्स पर नजर आती रहती हैं. इनका इस्तेमाल करने वाले दावा करते हैं कि हिंदू और मुस्लिम पुरुषों की ओर से दूसरे समुदाय की महिलाओं को 'फंसाया' जाता है और एक बड़ी साजिश का हिस्सा है.
लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि 20वीं सदी की शुरुआत में जब एक शंकराचार्य को पता चला कि एक हिंदू कवि और एक मुगल राजकुमारी के बीच कभी प्रेम संबंध रहा था, तो वे हिंदू धर्म में धर्मांतरण की वकालत करने के लिए मराठी में एक नाटक लिखने के लिए प्रेरित हो गए थे.
इसके बाद इस विषय ने महाराष्ट्र में दूसरे नाटककारों और लेखकों का भी ध्यान अपनी ओर खींचा. मगर ये पंडित थे कौन? और कौन थीं वो मुगल राजकुमारी? 16वीं-17वीं सदी के दौरान जगन्नाथ पंडित उर्फ पंडितराज जगन्नाथ एक कवि, संगीतकार और साहित्यिक आलोचक थे, जिन्हें मुगल बादशाह शाहजहां के शाही दरबार में संरक्षण प्राप्त था. किंवदंतियों के अनुसार, 'ताजमहल' का नाम उन्होंने ही रखा था. जगन्नाथ को काव्य सिद्धांत पर उनके काम 'रसगाथा' के लिए जाना जाता है. 'रसगाथा' को समीक्षकों की ओर से 'नाट्य शास्त्र' लिखने वाले भरत मुनि की निर्धारित परंपरा का हिस्सा भी माना जाता है. इसके अलावा जगन्नाथ की कविता 'भामिनीविलास' भी एक उत्कृष्ट कृति है. उनका संस्कृत श्लोक 'स्थितिं नो रे दध्या: ...' लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की ओर से संचालित 'केसरी' अख़बार के मूल शीर्षक पर मौजूद था, जो खुद संस्कृत में बहुत प्रवीण थे.
पंडित जगन्नाथ और मुगल राजकुमारी अकबर की बेटी लावांगिका या लावंगी के बीच प्रेमकहानी कुछ ऐसी है कि पंडित जगन्नाथ शाहजहां और दारा शिकोह के साथ शतरंज खेला करते थे. एक बार उन्होंने शाहजहां से लावंगी का हाथ मांगा था. तब शाहजहां ने पंडित जगन्नाथ से लावंगी की सुंदरता पर एक कविता लिखने को कहा. कविता पढ़ने के बाद शाहजहां ने पंडित जगन्नाथ से कहा कि उन्हें लावंगी से शादी करनी चाहिए क्योंकि वे उसकी सुंदरता पर मोहित हैं. ऐसा कहा जाता है कि शायद शाहजहां पंडित जगन्नाथ को इस्लाम में धर्मांतरित करना चाहते थे. पंडित जगन्नाथ लावंगी से शादी करने के लिए राजी तो हो गए मगर अपनी शर्तों पर.
बादशाह शाहजहां की बात टालना मौत को दावत देना था. जगन्नाथ चतुर थे और ऐसे में उन्होंने कहा कि वे शाही इच्छा का पालन करेंगे, हालांकि, शादी उनके पारिवारिक अनुष्ठानों के अनुसार होगी. इस समझदारी भरे जवाब और दारा शिकोह जैसे उनके दोस्तों की मदद से, उन्होंने धर्म परिवर्तन को टाल दिया. शादी के बाद शाहजहां ने उन्हें शादी के उपहार के रूप में एक गांव दिया.
मुगल सम्राट अकबर की बेटी लावंगी के साथ जगन्नाथ पंडित की कथित प्रेमकहानी ने महाराष्ट्र के नाटककारों को प्रेरित किया जिन्होंने इस पर मराठी में तीन नाटक लिखे. इस मुद्दे के इर्द-गिर्द कहानी बुनने वाले पहले नाटककार शंकराचार्य डॉ. लिंगेश 'महाभागवत' कुर्ताकोटि थे. मगर उनके लिए, यह कोई आम प्रेम कहानी नहीं थी. एक हिंदू कवि और एक मुस्लिम राजकुमारी के बीच प्रेम के इर्द-गिर्द की कहानी, जो अंततः हिंदू धर्म अपना लेती है और उससे शादी कर लेती है. शंकराचार्य के लिए यह प्लॉट हिंदू धर्म में धर्मांतरण या आज की भाषा में कहें तो 'घर वापसी' की मांग करने वाले शुद्धि आंदोलन और हिंदुओं की घटती जनसंख्या को लेकर पैदा किए गए डर से गहराई से जुड़ी हुई थी.
डॉ. लिंगेश 'महाभागवत' कुर्ताकोटि का जन्म 20 मई, 1879 को कर्नाटक के धारवाड़ में लिंगेश मेलगिरिगौड़ा पाटिल के नाम से हुआ था. संस्कृत और वेदों में उनकी गहरी रुचि थी. काशी में 'विद्याभूषण' की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने शंकराचार्य के श्रृंगेरी मठ में वेदांत पर धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया और बाद में महाराष्ट्र के सतारा जिले के गोंडवले के संत ब्रह्मचैतन्य ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया, जिन्होंने उन्हें 'महाभागवत' की उपाधि दी.
3 जुलाई, 1917 को कोल्हापुर के छत्रपति शाहू महाराज की मौजूदगी में कुर्ताकोटि करवीर पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य बने. कई मुद्दों पर दोनों के बीच मतभेद हो गए और कोल्हापुर दरबार ने 5 फरवरी, 1919 को एक आदेश जारी कर उन्हें पद से हटा दिया. हालांकि, कुर्ताकोटी ने यह कहना जारी रखा कि वे मठ के शंकराचार्य हैं.
कुर्ताकोटी शुद्धि आंदोलन के अग्रणी व्यक्तियों में से एक थे. वे मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू धर्म में वापस लाने कोशिश करते थे, हालांकि दूसरी तरफ वे हिंदू समाज में जातिगत विभाजन और भेदभाव का समर्थन भी करते थे. 1930 के दशक में, केरल के गुरुवायूर में अछूतों के लिए मंदिर में प्रवेश की मांग को लेकर एक आंदोलन हुआ, जिसके कारण धार्मिक रूढ़िवादियों ने इसका विरोध किया.
जैसा कि सदानंद मोरे ने अपने 'लोकमान्य ते महात्मा-खंड 1' (लोकमान्य से महात्मा, खंड 1) में लिखा है, कुर्ताकोटी का मानना था कि अछूतों के प्रवेश से मंदिर 'अपवित्र' हो जाएंगे, लेकिन उनकी आकांक्षाओं को देखते हुए उन्हें इन मंदिरों में प्रवेश की अनुमति देना जरूरी था. छत्रपति शाहू की जीवनी में धनंजय कीर कहते हैं कि करवीर पीठ के शंकराचार्य के रूप में, कुर्ताकोटि ने एक बार मठ की ओर से प्रकाशित साप्ताहिक अखबार में घोषणा की थी कि हिंदी शब्दकोष से 'अछूत' शब्द को हटा दिया जाना चाहिए. लेकिन जब तत्कालीन अछूत जातियों के कुछ कार्यकर्ता इस कथन पर चर्चा करने के लिए उनसे मिलने गए, तो उन्होंने उन्हें मठ के परिसर में प्रवेश करने से मना कर दिया.
जैसा कि भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार के गुप्त अभिलेखों में जिक्र है, जनवरी 1925 में बरार में बोलते हुए, हिंदू संगठन आंदोलन की ओर से दौरे पर आए कुर्ताकोटि ने कथित तौर पर कहा था कि भारत मुख्य रूप से हिंदुओं के लिए है और मुसलमान और ईसाई मेहमान के रूप में ठहर सकते हैं. 1935 के इन अभिलेखों में यह भी मिलता है कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने हिंदू धर्म में एक नया संप्रदाय शुरू करने के कुर्ताकोटि के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था जिसमें "अछूतों" को समान दर्जा देने की बात की गई थी.
हालांकि, कुर्ताकोटी शुद्धि आंदोलन में एक उत्साही प्रतिभागी थे और उन्होंने अन्य लोगों के अलावा अमेरिकी उत्तराधिकारी नैन्सी मिलर को भी धर्मांतरित किया था. नैन्सी ने आगे चलकर इंदौर के शासक तुकोजीराव होलकर-तृतीय से विवाह किया था, जिन्होंने 1926 में अपने बेटे यशवंतराव-द्वितीय के पक्ष में अपना सिंहासन त्याग दिया था.
मोरे कहते हैं कि कुर्ताकोटी नासिक में रहते थे, जहां उन्हें बालमोहन नाटक कंपनी की ओर से मंचित मराठी नाटक 'स्वर्गवार स्वारी' देखने के लिए आमंत्रित किया गया था. कुर्ताकोटी के मन में हिंदू धर्म में पुनः धर्मांतरण का विचार घर कर गया था. इससे कुर्ताकोटी को एक विचार आया- क्यों न एक ऐसा नाटक लिखा जाए जो हिंदुओं की घटती संख्या या कम से कम उनकी जनसांख्यिकीय चिंताओं के समाधान के रूप में 'हिंदूकरण' या हिंदूकरण को बढ़ावा दे?
बालमोहन नाटक कंपनी के दामुन्ना जोशी ने इस नाटक को मंच पर प्रस्तुत करने के लिए सहमति जताई थी. प्रसिद्ध रामभाऊ कुंदगोलकर उर्फ सवाई गंधर्व (हिंदुस्तानी गायक और भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी के गुरु) की 'नूतन संगीत नाटक कंपनी' ने भी नाटकीय अधिकारों में रुचि दिखाई और कुर्ताकोटी इस शर्त पर नाटक किया था कि वे 'बालमोहन' के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं करेंगे.