बीते कुछ दिनों से मीडिया में इलेक्टोरल बॉन्ड, सीएए, आगामी लोकसभा चुनाव जैसे मुद्दों के अलावा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ का नाम छाया हुआ है. सोशल मीडिया पर भी सुप्रीम कोर्ट और उसके हालिया निर्देशों पर खूब चर्चा हो रही है.
करीब 49 साल पहले, 12 जून, 1975 का दिन भी तब सुर्खियों में था जब इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने एक अभूतपूर्व फैसला सुनाते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चुनाव को अयोग्य घोषित कर दिया था. क्या था पूरा मामला और जस्टिस सिन्हा कौन थे? आइए जानते हैं.
साल 1971. देश में निर्धारित समय से एक साल पहले ही पांचवीं लोकसभा के लिए चुनाव संपन्न हुए. इंदिरा गांधी की कांग्रेस को दो तिहाई से भी ज्यादा 352 सीटों पर जीत मिली. इस बार भी इंदिरा उत्तर प्रदेश के रायबरेली से चुनाव लड़ीं और जीतीं. उन्होंने मशहूर समाजवादी नेता राजनारायण को भारी अंतर से हराया. लेकिन इंदिरा की यही जीत अदालत में उनकी हार का कारण बन गई.
राजनारायण ने इंदिरा के निर्वाचन की वैधता को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी. उनका आरोप था कि इंदिरा ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया. हाई कोर्ट में ये मामला करीब चार साल तक चला. इस मामले की सुनवाई जिस न्यायाधीश के जिम्मे थी, वो थे- जस्टिस जगमोहन सिन्हा. एक सख्त और साहसी न्यायाधीश.
जस्टिस सिन्हा के व्यक्तित्व को मशहूर लेखक थॉमस पेन की उस उक्ति से समझा जा सकता है कि "वह उस मरती हुई चिड़िया के पंखों को देख उदास हो जाता है लेकिन चिड़िया को भूल जाता है." मतलब ये कि जस्टिस सिन्हा एक संवेदनशील इनसान थे पर अपने उसूलों के बहुत पक्के थे. बहरहाल, जस्टिस सिन्हा ने मामले की लंबी सुनवाई के बाद 23 मई, 1975 को फैसला सुरक्षित रख लिया. और शायद यही से इमरजेंसी का बीज था.
12 जून, 1975. इंदिरा गांधी के दु:स्वपन का दिन. नौ बजकर 25 मिनट पर जस्टिस सिन्हा कोर्ट नं. 24 में दाखिल हुए. उनके पास 258 पृष्ठों का पुलिंदा था जिसमें इंदिरा गांधी सहित भारत का भावी भविष्य छिपा था. जस्टिस आर बी मेहरोत्रा (जो उस समय एक युवा वकील थे) के मुताबिक, जिस दिन इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाई कोर्ट में पेश होना था. उससे एक दिन पहले जस्टिस सिन्हा ने आदेश जारी किया कि किसी भी पुलिसकर्मी, यहां तक कि सुरक्षा कर्मी को भी अदालत में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जाएगी. उन्होंने ऐसा अदालती कार्यवाही की गरिमा को ध्यान में रखते हुए किया.
वेंडी स्प्रिंगर अपनी किताब इंडिपेंडेंट इंडिया में लिखते हैं कि भारत के कानूनी इतिहास में शायद यह पहला मौका था जब प्रधानमंत्री की सुरक्षा का प्रबंधन हाई कोर्ट के वकीलों ने किया. इंदिरा गांधी जैसे ही कोर्ट में दाखिल हुईं, वकीलों ने एक मानव शृंखला बना ली. एक गवाह के रूप में अदालत में उपस्थित हुईं इंदिरा गांधी को कठघरे में बैठने के लिए वकीलों की तुलना में जरूर ऊंची कुर्सी दी गई लेकिन उसकी ऊंचाई न्यायाधीश की कुर्सी से कम थी.
इसके अलावा जस्टिस सिन्हा ने वकीलों को सख्त लहजे में निर्देश दिया था कि जब प्रधानमंत्री कमरे में दाखिल हों तो वे उनके सम्मान में खड़े न हों क्योंकि कोर्ट के रिवाज के मुताबिक ये सम्मान केवल न्यायाधीशों के लिए आरक्षित होता है. मामले में राजनारायण के वकील शांति भूषण के मुताबिक, वहां उपस्थित करीब सभी वकीलों ने जस्टिस सिन्हा का ये फरमान माना था. केवल इंदिरा गांधी के वकील एस सी खरे उनके सम्मान में उठे. लेकिन वो भी आधे ही उठ सके थे.
राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर सात मुख्य आरोप लगाए थे. जैसे - चुनाव में विमानों और हेलीकॉप्टरों से उड़ान भरने के लिए सशस्त्र बलों की मदद लेना, मतदाताओं में कपड़े और शराब बांटना, चुनाव में गाय और बछड़े जैसे धार्मिक प्रतीक का उपयोग, मतदाताओं को मतदान केन्द्रों तक मुफ्त में पहुंचाना और सीमा से अधिक खर्च करना.
लेकिन जस्टिस सिन्हा ने इन सात में पांच आरोपों को खारिज कर दिया. उन्होंने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123 (7) के तहत इंदिरा गांधी को दो भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया. पहला - इंदिरा ने चुनाव में बेहतर संभावना प्राप्त करने के लिए अपने निर्वाचन क्षेत्र रायबरेली में राज्य के गैजेटेड अधिकारियों जैसे डीएम, एसपी और इंजीनियरों की मदद ली. इन अधिकारियों ने उनकी रैलियों के लिए मंचों का निर्माण किया और लाउडस्पीकर के लिए बिजली आपूर्ति में मदद की.
दूसरा, उन्होंने अपनी चुनावी संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए एक गैजेटेड अधिकारी यशपाल कपूर की मदद ली. उन्होंने उनकी रैलियों के प्रबंधन का कार्यभार संभाला, जबकि वे प्रधान मंत्री सचिवालय में स्पेशल ड्यूटी पर तैनात अधिकारी थे. इंदिरा गांधी ने अपने बचाव में दलील दिया कि यशपाल कपूर ने 13 जनवरी, 1971 को पी एन हक्सर (इंदिरा गांधी के तत्कालीन मुख्य सचिव) से मुलाकात की और अपना इस्तीफा दे दिया था. हक्सर ने उसे मौखिक रूप से तुरंत स्वीकार भी कर लिया था. इसलिए जिस समय यशपाल इंदिरा को रायबरेली जीतने में मदद कर रहे थे, उस समय वह सरकारी कर्मचारी नहीं थे.
सरकारी अधिकारियों द्वारा नेताओं की रैलियों में मंचों का निर्माण और लाउडस्पीकर की व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए जस्टिस सिन्हा ने कहा कि क्या दुनिया में कोई और ऐसा लोकतंत्र है जहां सरकारी अधिकारी चुनावों में उम्मीदवारों के लिए मंच बनाते हैं? यह न तो मामूली बात है और न ही तकनीकी. अगर इसके लिए अनुमति दी जाती है तो यह गंभीर दुरुपयोग को बढ़ावा देगा.
इसके अलावा जस्टिस सिन्हा ने अपने निष्कर्षों में माना कि कपूर 25 जनवरी तक सरकारी कर्मचारी बने रहे थे. और इस बीच वे इंदिरा गांधी के लिए काम कर रहे थे. अकेले इन्हीं सबूतों के आधार पर धारा 123 (7) के उल्लंघन के एवज में उन्होंने इंदिरा गांधी के चुनाव को अयोग्य घोषित किया और उन पर अगले 6 सालों तक संसद और राज्य विधानमंडल के चुनावों को लड़ने पर रोक लगा दी.
अदालत में मिली हार और इधर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से शुरू हुआ संपूर्ण क्रांति आंदोलन. तिस पर विपक्षी नेताओं द्वारा इंदिरा गांधी लगातार इस्तीफे के लिए दबाव बनाना. ये कुछ ऐसे कारण रहें जिन्होंने इमरजेंसी के लिए न सिर्फ पिच तैयार की बल्कि आग में घी डालने का काम भी किया. इंदिरा इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला मानने के बजाय सुप्रीम कोर्ट जा पहुंची और इधर विपक्षी दलों पर अपनी सरकार को अस्थिर करने और देश में अराजकता फैलाने का आरोप लगाते हुए 25 जून, 1975 को आपातकाल लगा दिया.
कौन थे जस्टिस जगमोहन सिन्हा?
12 मई, 1920 को उत्तर प्रदेश के आगरा में जन्मे जस्टिस सिन्हा एक दुबले-पतले काया वाले व्यक्ति थे. उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की थी. आजादी मिलने के चार साल पहले यानी 1943 में एक छोटे से शहर बरेली से उन्होंने वकालत का पेशा शुरू किया. साल 1957 में जब वे उत्तर प्रदेश उच्च न्यायिक सेवा के लिए चुने गए तो उन्होंने जज बनने का विकल्प चुना.
1970 में उनकी पदोन्नति हुई और वे इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज बन गए. इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण मामले की सुनवाई उनके न्यायिक करियर का सबसे बड़ा मामला था. इसी सुनवाई से संबंधित एक सनसनीखेज खुलासा राजनारायण के वकील और वर्तमान में चर्चित वकील प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण ने किया था.
बकौल शांति भूषण, गोल्फ खेलने के दौरान जस्टिस सिन्हा ने उनसे खुलासा किया था कि जब वे इंदिरा गांधी मामले की सुनवाई कर रहे थे तब इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीएस माथुर ने उनसे मुलाकात की थी. जस्टिस माथुर ने उन्हें संकेत देते हुए कहा था कि जैसे ही वे मामले में अनुकूल फैसला सुनाएंगे उनका प्रमोशन सर्वोच्च न्यायालय में हो जाएगा. जस्टिस सिन्हा ने तब विवेकशीलता दिखाते हुए शांत रहना उचित समझा.
बाद में जब चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने जस्टिस माथुर को एक जांच आयोग का प्रमुख नियुक्त किया. उस समय शांति भूषण एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने विदेश गए हुए थे. वे जब लौटे तो उन्हें माथुर की नियुक्ति के बारे में पता चला. उन्होंने चौधरी चरण सिंह को गोल्फ कोर्स के खुलासे के बारे में बताया. चरण सिंह चाहते थे कि जस्टिस सिन्हा लिखित में इसकी पुष्टि करें, जो सिन्हा ने तुरंत कर दी. इसके बाद जस्टिस माथुर के पास सिवाए इस्तीफा देने के कोई चारा नहीं बचा.
जस्टिस सिन्हा के बारे में राय बनाने के लिए एक और उदाहरण सामने आता है. 23 मार्च, 2008 को (जस्टिस सिन्हा की मृत्यु के तीन दिनों बाद) शांति भूषण ने इंडियन एक्सप्रेस के हवाले से कहा था कि जब वे (शांति भूषण) 1977 में देश के कानून मंत्री बने थे. तो उन्होंने जस्टिस सिन्हा को हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट में स्थानांतरण के लिए प्रस्ताव दिया था कि रिक्ति होने पर वे वहां के मुख्य न्यायाधीश बन सकें. लेकिन जस्टिस सिन्हा ने इसे अस्वीकार कर दिया था. उन्होंने न तो खुद को प्रोजेक्ट किया और न ही इसके बारे में सोचा.
20 मार्च, 2008 को जब उनकी मृत्यु हुई तो उनकी बेटी ने पत्रकारों से कहा, जिस दिन वे इंदिरा गांधी के चुनाव को अयोग्य करने वाला फैसला सुनाकर लौटे. उस दिन भी उसी तरह सामान्य थे, जिस तरह दूसरे फैसलों के बाद आते थे. वो हमेशा साधारण तरीके से जिंदगी गुजारने वाले शख्स थे जिसे पढ़ने के अलावा गार्डेनिंग का बहुत शौक था. उनके बाद देश में इस तरह का साहसिक फैसला शायद ही किसी जज ने किया हो.