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पाकिस्तान के पहले पीएम लियाकत अली खान ने विभाजन के दौरान दलितों को भारत आने से क्यों रोका था?

सिंध से भारत आना चाह रहे दलितों को रोकने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने लियाकत अली खान कानूनी प्रावधान तक कर दिए थे

नेहरू और लियाकत अली खान अपने-अपने देशों में अल्पसंख्यक समस्या से निपटने के लिए अपनाए जाने वाले उपायों के समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए
नेहरू और लियाकत अली खान अपने-अपने देशों में अल्पसंख्यक समस्या से निपटने के लिए अपनाए जाने वाले उपायों के समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए
अपडेटेड 14 अगस्त , 2024

साल 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान एक रोज़ एक भारतीय हाई कमिश्नर पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के पास पहुंचे और उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) के कुछ लोगों को भारत लौटाने की दुहाई मांगने लगे. लियाकत अली को यह भी याद दिलाया गया कि वे खुद उत्तर प्रदेश से ही पाकिस्तान आए हैं.

लियाकत नहीं माने और जवाब में समाज के एक तबके के बारे में ऐसी घिनौनी बात बोली कि भारतीय हाई कमिश्नर भी कुछ बोल नहीं पाए. वे लियाकत के पास एक कानून में रियायत मांगने गए थे जो दलितों को भारत आने से रोक रहा था. कानून का नाम था एसेंशियल सर्विसेज एक्ट और ये भारतीय हाई कमिश्नर थे श्री प्रकाश.

बनारस में जन्मे श्री प्रकाश पाकिस्तान में भारत के पहले हाई कमिश्नर थे और 1947 से 1949 तक वहीं पोस्टेड रहे. लौटकर वे असम, मद्रास और बॉम्बे के राज्यपाल भी रहे. अपने आखिरी वर्षों में उन्होंने एक किताब लिखी - पाकिस्तान : बर्थ एंड अर्ली डेज. 1965 में छपी इस किताब में ही श्री प्रकाश ने लियाकत अली खान के साथ इस वाकये का ज़िक्र किया है.

पाकिस्तान : बर्थ एंड अर्ली डेज - श्री प्रकाश/मीनाक्षी प्रकाशन
पाकिस्तान : बर्थ एंड अर्ली डेज - श्री प्रकाश/मीनाक्षी प्रकाशन

श्री प्रकाश विभाजन के दौरान सिंध से भारत लौट वाले हिन्दुओं के पलायन पर बताते हैं कि उत्तर प्रदेश से - खासकर पूर्वी जिलों से - बहुत समय से बहुत से लोग रोजगार की तलाश में पश्चिमी भारत की ओर जाते थे. सुल्तानपुर, जौनपुर, बनारस, गाजीपुर तथा अन्य पूर्वी जिलों से हजारों लोग अहमदाबाद, बम्बई और दूसरे शहरों में आजीविका के लिए कारखानों में काम करते थे. उन्हें साल में एक ही बार एक महीने की छुट्टी मिलती थी जिसमें वे अपने गांव जाकर परिवार से मिल पाते थे. ऐसे ही पाकिस्तान की स्थापना से पहले ऐसे बहुत से लोग कराची भी जाते थे.

विभाजन के दौरान जब उत्तर प्रदेश के ऐसे ही हिन्दू कामगार कराची से जाने लगे, तब लियाकत अली खान की सरकार ने एसेंशियल सर्विसेज एक्ट (आवश्यक सेवा अधिनियम) लागू कर दिया और आदेश जारी किया कि मजदूर, सरकारी अधिकारियों के घरेलू नौकर और ऐसे अन्य लोग वहां से न जाएं. श्री प्रकाश ने अपनी किताब में इन लोगों को 'हिन्दू वर्कमेन' (हिन्दू कामगार) कहकर सम्बोधित किया है. हालांकि आगे पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे दलितों की बात कर रहे थे.

वरिष्ठ पत्रकार एजाज़ अशरफ के एक लेख से भी इस बात की पुष्टि होती है जो उन्होंने स्क्रोल वेबसाइट के लिए लिखा था. इसमें उन्होंने बताया है कि सिंध में बड़ी संख्या में दलित पाकिस्तान छोड़कर भारत जाना चाहते थे. उन्हें ट्रांजिट कैंपों में रखा गया था, ताकि वे जहाजों में जगह पाने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार कर सकें. लेकिन जहाजों की संख्या कम थी सो पाकिस्तान सरकार ने दलितों का एक कोटा तय किया, और उसी तयशुदा संख्या में  वे प्रति दिन के हिसाब से भारत जा सकते थे.

एजाज़ लिखते हैं, "लेकिन दलितों के पलायन को नियंत्रित करने के पीछे एक दूसरा उद्देश्य भी था - पाकिस्तान को डर था कि दलितों की अनुपस्थिति में कराची की सफाई व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है. आखिरकार, यह दलित ही थे जिन्होंने सुनिश्चित किया कि शहर साफ रहे. जब शहर में गंदगी बढ़ने लगी, तो पाकिस्तान ने एसेंशियल सर्विसेज एक्ट लागू किया, जिसमें दलितों के पाकिस्तान छोड़ने पर रोक लगा दी गई. इसने भारतीय नेताओं को नाराज़ किया, लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ.

श्री प्रकाश अपनी किताब 'पाकिस्तान : बर्थ एंड अर्ली डेज' में लिखते हैं कि इस कानून से उन्हें काफी दुख हुआ. वे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से मिले और कहा कि ऐसे लोगों का पुराना रिवाज है कि वे अपनी छुट्टी का महीना अपने गांव के घर पर बिताते हैं. उन्हें जाने से रोकना अनुचित है. इस पर लियाकत ने उन्हें जवाब दिया कि पिछले सालों में वे अपनी छुट्टी की अवधि के बाद वापस आ जाते थे, लेकिन इस बार वे वापस नहीं आएंगे. इसलिए उन्हें जाने से रोकना जरूरी था.

श्री प्रकाश उनकी दलील नहीं समझ पाए क्योंकि अगर कोई व्यक्ति घर वापस जाना चाहता है, तो उसे ऐसा करने से नहीं रोका जाना चाहिए. उन्हें वहां काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए. अबकी बार भारतीय हाई कमिश्नर ने राज्य का कार्ड खेला. दरअसल लियाकत अली खान का परिवार मूलतः यूपी के मुजफ्फरनगर इलाके का है. उन्होंने कहा कि वे खुद उत्तर प्रदेश के हैं और उन्हें कम से कम अपने राज्य के लोगों से सहानुभूति तो होनी चाहिए.

इस पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने श्री प्रकाश से पूछा, "अगर वे वापस नहीं आए तो कराची की सड़कें और शौचालय कौन साफ ​​करेगा?"

वे लिखते हैं, "मैं यह कहे बिना नहीं रह सका कि भगवान ने उत्तर प्रदेश के हिंदुओं को कराची की सड़कें और शौचालय साफ करने के लिए तो नहीं ही बनाया है! उन्हें निश्चित रूप से ऐसी घोर क्रूरता और अन्याय का हिस्सा नहीं होना चाहिए; लेकिन मेरी बात कौन सुनेगा? मैंने यह मामला हमारे प्रधानमंत्री (जवाहरलाल नेहरू) के ध्यान में लाया, जिन्होंने कराची में अपने समकक्ष के साथ इस मामले को उठाया: लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. इन बदकिस्मत लोगों को जबरन हिरासत में रखा गया. मैं इनमें से जिन्हें भी निकाल पाया, उन्हें भेज दिया; लेकिन बाकी लोगों का क्या हुआ, मैं नहीं बता सकता."

लियाकत अली खान उसी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे जिस देश के संस्थापकों में से एक जोगेंद्र नाथ मंडल दलित थे. वे पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री भी थे. जोगेंद्र नाथ मंडल ने बंगाल में रह रहे दलितों के उत्पीड़न के डर से 1947 में बंगाल के विभाजन का विरोध किया था. विभाजन के बाद, उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में रहना चुना और पाकिस्तान की पहली कैबिनेट में शामिल हुए.

ऐसा भी नहीं था कि भारतीयों ने पाकिस्तान से पूर्वी पंजाब में आने वाले दलितों के साथ कोई बेहतर व्यवहार किया. डॉ. बीआर आंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू को चिट्ठी लिखकर जातिवादी हिंदू अधिकारियों के खिलाफ शिकायत की थी, जो दलितों को शरणार्थी शिविरों में शरण लेने की अनुमति नहीं देते थे. चूंकि दलित शिविरों में नहीं थे, इसलिए उन्हें भोजन, राशन और कपड़े नहीं दिए गए. इतना ही नहीं, उन्हें जमीन भी नहीं दी गई क्योंकि उन्हें पाकिस्तान में खेतिहर मजदूर माना जाता था और इसलिए वे भारत में मुसलमानों की छोड़ी गई संपत्ति के हकदार नहीं थे.

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