2024 लोकसभा चुनावों की प्रक्रिया अब कभी भी शुरू हो सकती है. ऐसे में हर पार्टी दलितों को लुभाने की भी कोशिश कर रही है. दलित समाज का वोट पाने के लिए केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी 'वंचितों को वरीयता' नाम से एक प्रचार अभियान भी चला रही है. कांग्रेस भी दलितों के उत्थान को लेकर लगातार कई वादे कर रही है.
यानी हर चुनाव की तरह इस बार के लोकसभा चुनाव में भी दलित राजनीति को साधने की कोशिश दलितों की राजनीति करने वाली पारंपरिक पार्टियां तो कर ही रही हैं लेकिन साथ ही साथ दूसरे दल भी कर रहे हैं. ऐसे में न सिर्फ दलित राजनीति बल्कि पूरी भारतीय राजनीति का व्याकरण बदल कर रख देने वाले कांशी राम को याद करना प्रासंगिक होगा.
कांशी राम को आज इसलिए भी याद करना जरूरी है क्योंकि उनके आंदोलन से जो राजनीति निकली उसकी सबसे बड़ी प्रयोगशाला उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 80 में से 80 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल करने का लक्ष्य रखा है और कांशी राम के आंदोलनों से निकली बहुजन समाज पार्टी के लिए खाता खोलना तक मुश्किल दिख रहा है.
15 मार्च, 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के एक गांव खवासपुर में कांशी राम का जन्म हुआ था. कांशी राम जिस परिवार में पैदा हुए थे, वह पहले हिंदू धर्म की चमार जाति का परिवार था. लेकिन बाद में इस परिवार ने सिख धर्म को अपना लिया. उस दौर में पंजाब में हिंदू धर्म की पिछड़ी जातियों के कई परिवारों ने सिख धर्म अपनाया था. इसकी मूल वजह यह बताई जाती है कि जितना भेदभाव हिंदू धर्म में पिछड़ी जातियों के लोगों के साथ होता था, उतना भेदभाव सिख धर्म में नहीं था.
कांशी राम जिस परिवार में पैदा हुए थे, उसे आर्थिक और सामाजिक तौर पर ठीक-ठाक कहा जा सकता है. कांशी राम के पिता हरि सिंह के सभी भाई सेना में थे. हरि सिंह सेना में सिर्फ इसलिए नहीं भरती हुए थे क्योंकि जो चार एकड़ की पैतृक जमीन परिवार के पास थी, उसकी देखभाल के लिए किसी पुरुष सदस्य का घर पर होना जरूरी था. इस पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से कांशी राम को बचपन में भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा. कांशी राम के दो भाई और चार बहनें थीं. इनमें से अकेले कांशी राम ने स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की. कांशी राम ने विज्ञान विषय के साथ रोपड़ के गवर्नमेंट काॅलेज से स्नातक किया.
22 साल की उम्र में यानी 1956 में कांशी राम को सरकारी नौकरी मिल गई. 1958 में उन्होंने डिफेंस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन, डीआरडीओ में काम करना शुरू कर दिया. वे महाराष्ट्र के पुणे के पास के डीआरडीओ के कार्यालय में काम करते थे. कांशी राम डीआरडीओ की एक प्रयोगशाला में सहायक के तौर पर काम करते थे. यहां आने के बाद उन्होंने देखा कि पिछड़ी जाति के लोगों के साथ किस तरह का भेदभाव या उनका किस तरह से शोषण हो रहा है. कांशी राम के लिए यह स्तब्ध और दुखी कर देने वाला अनुभव था. यहीं से कांशी राम में एक ऐसी चेतना की शुरुआत हुई जिसने उन्हें सिर्फ अपने और अपने परिवार के हित के लिए काम करने वाले एक सरकारी कर्मचारी के बजाए एक बड़े वर्ग के उत्थान के मकसद से काम करने वाले राजनेता बनने की दिशा में आगे बढ़ाया.
कांशी राम को आंबेडकर और उनके विचारों से परिचित कराने का काम डीके खपारडे ने किया. खपारडे भी डीआरडीओ में ही काम करते थे. वे जाति से महार थे लेकिन बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था. खपारडे ने ही कांशी राम को आंबेडकर की 'एनहिलेशन ऑफ कास्टट पढ़ने को दी. जिस रात कांशी राम को यह मिली, उस रात वे सोए नहीं और तीन बार इसे पढ़ डाला. इसके बाद उन्होंने आंबेडकर की वह किताब भी पढ़ी जिसमें उन्होंने यह विस्तार से बताया है कि महात्मा गांधी और कांग्रेस ने अछूतों का कितना बुरा किया है. कांशी राम ने बाद में माना भी इन दो किताबों का उन पर सबसे अधिक असर रहा.
यहां से कांशी राम जिस रास्ते पर चल पड़े, उसमें सरकारी नौकरी ज्यादा दिनों तक चलनी नहीं थी. हालांकि, उनकी नौकरी छोड़ने के सही समय को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है. कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने 1964 में नौकरी छोड़ दी. नौकरी छोड़ने की वजह के तौर पर यह बताया जाता है कि उन्होंने पिछड़ी जाति के सरकारी कर्मचारियों द्वारा आंबेडकर, वाल्मीकि और बुद्ध जयंती पर छुट्टी की मांग के लिए हुए प्रदर्शन में हिस्सा लिया था. वहीं कुछ लोग मानते हैं कि कांशी राम ने 1971 में सरकारी नौकरी तब छोड़ी जब एक पिछड़ी जाति की महिला द्वारा सभी पात्रता पूरा किए जाने के बावजूद उसे नौकरी पर नहीं रखा गया. कहा जाता है कि कांशी राम ने उस अधिकारी के साथ मारपीट की जिसने उस महिला को नौकरी देने से मना किया.
नौकरी छोड़ने पर उन्होंने 24 पन्ने का एक पत्र अपने परिवार को लिखा. इसमें उन्होंने बताया कि अब वे संन्यास ले रहे हैं और परिवार के साथ उनका कोई रिश्ता नहीं है. वे अब परिवार के किसी भी आयोजन में नहीं आ पाएंगे. उन्होंने इस पत्र में यह भी बताया कि वे ताजिंदगी शादी नहीं करेंगे और उनका पूरा जीवन पिछड़ों के उत्थान को समर्पित है.
जिस दौर में कांशी राम दलितों के उत्थान के मकसद के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रहे थे, उस दौर में देश का प्रमुख दलित संगठन रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया थी. कांशी राम इससे जुड़े भी और जल्दी ही उनका इससे मोहभंग भी हुआ. 14 अक्टूबर, 1971 कांशीराम ने अपना पहला संगठन बनाया. इसका नाम था- शिड्यूल कास्ट, शिड्यूल ट्राइब, अदर बैकवर्ड क्लासेज ऐंड माइनाॅरिटी इंप्लाइज वेल्फेयर एसोसिएशन. संगठन के नाम से साफ है कि कांशी राम इसके जरिए सरकारी कर्मचारियों को जोड़ना चाहते थे. लेकिन सचाई यह भी है कि उनका लक्ष्य ज्यादा व्यापक था और वे शुरुआत में कोई ऐसा संगठन नहीं बनाना चाहते थे जिससे उसे सरकार के कोपभाजन का शिकार होना पड़े.
1973 आते-आते कांशीराम और उनके सहयोगियों के मेहनत के बूते यह संगठन महाराष्ट्र से फैलता हुआ दूसरे राज्यों तक भी पहुंचा. इसी साल कांशी राम ने इस संगठन को एक राष्ट्रीय चरित्र देने का काम किया और इसका नाम हो गया ऑल इंडिया बैकवर्ड ऐंड माइनाॅरिटी कम्युनिटिज इंप्लाइज फेडरेशन. यह संगठन बामसेफ के नाम से मशहूर हुआ. यह घोषणा देश की राजधानी दिल्ली में की गई. 80 के दशक की शुरुआत आते-आते यह संगठन काफी बढ़ा. उस वक्त बामसेफ ने दावा किया कि उसके 92 लाख सदस्य हो गए हैं. इनमें बड़ी संख्या में वैज्ञानिक और डाॅक्टर भी शामिल हैं.
कांशी राम ने 1981 में डीएस - 4 की स्थापना की. डीएस - 4 का मतलब है दलित शोषित समाज संघर्ष समिति. इसका मुख्य नारा था: ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस - 4. यह एक राजनीतिक मंच नहीं था लेकिन इसके जरिए कांशी राम न सिर्फ दलितों को बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच भी एक तरह की गोलबंदी करना चाह रहे थे.
डीएस - 4 के तहत कांशीराम ने सघन जनसंपर्क अभियान चलाया. उन्होंने एक साइकिल मार्च निकाला, जिसने सात राज्यों में तकरीबन 3,000 किलोमीटर की यात्रा की. अगड़ी जाति के खिलाफ विष वमन करने वाले नारों के जरिए जो जनसंपर्क अभियान कांशी राम चला रहे थे, उससे वह वर्ग उनके पीछे गोलबंद होने लगा जिसे साथ लाने के लिए कांशीराम ने डीएस - 4 बनाया था.
इसी सामाजिक पूंजी से उत्साहित होकर कांशीराम ने 14 अप्रैल, 1984 को एक राजनीतिक संगठन बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की. बसपा ने सियासत में जो भी हासिल किया, उसमें उस मजबूत बुनियाद की सबसे अहम भूमिका रही जिसे कांशीराम ने डीएस - 4 के जरिए रखा था. कांशी राम को यह मालूम था कि उत्तर प्रदेश में अगर वे खुद आगे आते हैं तो उनकी स्वीकार्यता बेहद व्यापक नहीं होगी. क्योंकि उन्हें इस सूबे में बाहरी यानी पंजाबी के तौर पर देखा जाएगा. उन्हें उत्तर प्रदेश के लिए वहीं का कोई दलित चेहरा चाहिए था. ऐसे में उन्होंने मायावती को चुना. मायावती 3 जून, 1995 को मुख्यमंत्री बनीं.
भले ही बसपा की स्थापना को उस वक्त मीडिया ने कोई तवज्जो नहीं दी हो लेकिन देश के सियासी पटल पर कांशी राम के विचारों वाली बहुजन समाज पार्टी के उभार से राजनीति कभी वैसी नहीं रही जैसी पहले थी. 9 अक्टूबर, 2006 को लंबी बीमारी के बाद कांशी राम का नई दिल्ली में निधन हो गया. लेकिन कांशी राम ने राजनीति का जो ककहरा बदला, वह आज भी कायम है और हाल ही में जब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित किया गया तो एक मांग यह भी उठी कि कांशी राम को भी भारत रत्न मिलना चाहिए.