
इस साल सावन दो महीने का था. एक असली सावन, दूसरा अधिक मास. इस लंबे चौड़े सावन में शाकाहार और मांसाहार की बहस के बीच दो ऐसी घटनाएं हुईं, जिसने मीडिया का ध्यान बरबस चंपारण मटन की तरफ खींचा. पहली घटना जो कम चर्चा में आई वह थी इसी 'चंपारण मटन' के नाम से बनी एक शॉर्ट फिल्म की. जो ऑस्कर के स्टूडेंट एकेडमी अवॉर्ड के सेमीफाइनल में पहुंच गयी.
दूसरी घटना जो राजनीतिक अधिक थी, वह प्रसंग था कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का अचानक राजद नेता लालू यादव के घर पहुंचना और वहां बिहारी मटन पकाना और खाना. वैसे तो इन दोनों प्रसंगों का पिछले एक दशक में देश के कोने-कोने में खुल गये चंपारण मीट हाउस से कोई सीधा लेना-देना नहीं था. मगर जैसे ही ये खबरें आयीं बिहार ही नहीं देश के कई पत्रकारों ने गोपाल कुशवाहा से संपर्क किया.
पटना के ओल्ड चंपारण मीट हाउस के ओनर गोपाल कुशवाहा का दावा है कि उन्होंने ही सबसे पहले चंपारण मीट हाउस के नाम से दुकान खोली और बाद में चंपारण मीट हाउस का नाम बिहार ही नहीं देश के कई शहरों में फैल गया. कई दूसरे मुल्कों में भी चंपारण मीट हाउस या अहुना मटन के नाम से रेसिपी बिकने लगी. गोपाल कुशवाहा से यह मेरी दूसरी मुलाकात थी. पहली दफा मैं उनसे 2016 में मिला था, जब पटना में चंपारण मीट हाउस नाम पॉपुलर हो रहा था और तकरीबन एक दर्जन ऐसी दुकानें खुल गयी थीं. पटना के विद्यापति मार्ग में ओल्ड चंपारण मीट हाउस के नाम से दुकान चला रहे गोपाल कुशवाहा कहते हैं, "2014 में मैंने इस दुकान की शुरुआत की थी. पहले मैं केटरर का काम करता था. इस दुकान के खुलने की कहानी बड़ी दिलचस्प है. 2013 की बात होगी, पटना क्लब में एक शादी होने वाली थी. आयोजक पार्टी ने खाने का जिम्मा मुझे दिया, मगर एक शर्त रख दी कि उन्हें शादी में मिट्टी के बरतन में बना मटन ही चाहिए. ऐसा मटन उन्होंने चंपारण के घोड़ासहन के किसी होटल में खाया था."

गोपाल कुशवाहा उस काम को छोड़ना नहीं चाहते थे. इसलिए वे उस रेसिपी की तलाश में घोड़ासहन गये. वहां उनकी मुलाकात पप्पू सर्राफ नामक व्यक्ति से हुई जिन्होंने काफी पहले मिट्टी के बरतन में मटन पकाना शुरू किया था. वे नेपाल के कटहड़िया से इस रेसिपी को सीखकर आये थे. इस तरह गोपाल कुशवाहा और पप्पू सर्राफ की जुगलबंदी से उस शादी में पटना में पहली दफा अहुना मटन बना. बाद में 2014 में गोपाल कुशवाहा ने चंपारण मीट हाउस के नाम से पटना में पहला आउटलेट खोला, जो बाद में बिहार, देश और दुनिया के कई हिस्सों में महज एक दशक से भी कम वक्त में फैल गया.
क्या है चंपारण मीट?
चंपारण मीट, अहुना मटन या हांडी मटन, आप चाहे जो कुछ भी कहें, यह मिट्टी और मटन की जुगलबंदी है. मिट्टी के छोटे से घड़े में जिसमें बमुश्किल एक सवा किलो मटन पक जाये, मटन, प्याज, लहसुन, मसाले और तेल एक साथ डाल दिये जाते हैं. फिर उसे मिट्टी के ही सकोरे (ढक्कन) से ढक दिया जाता है और उसे गीले आटे से पैक कर दिया जाता था. फिर वह कोयले की धीमी आंच पर देर तक पकता रहता है. कोई सवा घंटे पकाता है, तो कोई दो घंटे भी.
पकने से पहले उसका ढक्कन नहीं खोला जाता है. बस बीच-बीच बरतन को आग से हटा कर हिलकोर दिया जाता है, ताकि अंदर का सामान ऊपर-नीचे हो जाये. कुछ पकाने वाले कहते हैं कि वे बस मटन के वजन से समझ जाते हैं कि मटन पक गया है. कुछ लोग बरतन में छेद कर देते हैं. ताकि मटन की खुशबू आती रहे और अंदाजा लग जाये कि मटन सींझा (पका) या नहीं.
गोपाल कुशवाहा कहते हैं, "हमलोग अहुना में तेल-मसाला कम डालते हैं. बरतन पैक होने की वजह से अंदर भाप मिट्टी के ढक्कन की सतह पर जमता रहता है, वह बाद में मिट्टी में घुलकर फिर से मटन में ही घुल जाता है. मिट्टी और मटन की यह कैमिस्ट्री अहुना मटन को खास बनाती है."

मगर चंपारण मटन की कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं है. यह रेसिपी भले ही पूरी दुनिया में फैल गयी है, मगर इसकी जड़ें चंपारण के इलाके में है, ऐसा लोग बताते हैं. वही चंपारण जहां साल 1917 में महात्मा गांधी पहुंचे थे और उन्होंने अपने भीतर पहली दफा अहिंसक सत्याग्रह की ताकत को महसूस किया था. वह चंपारण जो बिहार के उत्तर पश्चिमी किनारे में हिमालय की तराई में बसा है. जहां कभी चंपा के अरण्य हुआ करते थे, जिसके नाम पर इस जगह का नाम चंपारण पड़ा. अभी यह चंपारण दो जिलों में बंटा है. पूर्वी चंपारण और पश्चिमी चंपारण.
जड़ की तलाश
सितंबर महीने का पहला हफ्ता था. सावन बीत चुका था और मांसाहार के सीजनल दीवाने मटन की दुकानों पर फिर से उमड़ने लगे थे. ऐसी ही एक सुबह यह संवाददाता चंपारण की तरफ जा रहा है. पूर्वी चंपारण के मुख्यालय मोतीहारी शहर के ठीक पहले जीवधारा के पास हाईवे के किनारे ढाबानुमा एक दुकान दिखी. जिसके लंबे से साइन बोर्ड पर मोटे अक्षरों में लिखा था, 'बंगाली दादा का बेशर्म मीट'. महज तीन महीने पहले खुला यह ढाबा सहज ही चंपारण पहुंचने वाले सैलानियों को अपने पास रोक लेने में सक्षम था.
हालांकि यह चंपारण की यात्रा का पहला ढाबा नहीं था. इससे पहले मोतीहारी शहर से 33 किमी पहले चकिया से ही मटन के ढाबे दिखने लगे थे. जीवधारा में तो ऐसे ढाबों की कतारें लगी थीं. दिलचस्प है कि इनमें से किसी ढाबे का नाम चंपारण मीट हाउस नहीं था. सबके अलग-अलग नाम थे. हालांकि ज्यादातर नाम में जायसवाल कहीं न कहीं जुड़ा था.
बंगाली ढाबे के मालिक सरजीत कुमार कुंडू ने बताया, "ऐसा इसलिए है, क्योंकि चंपारण में अहुना मटन और मीट की अलग-अलग रेसिपी को ईजाद करने और मटन ढाबों का कारोबार करने में यहां की कलवार और सुनार जाति की बड़ी भूमिका है. खासकर अहुना यानी मिट्टी के बरतन में जो मटन पकाया जाता है, उसको लेकर भी मोतिहारी का जायसवाल होटल काफी मशहूर है और वह ब्रांड भी बन गया है. इसलिए आपको यहां जायसवाल के नाम से कई मटन ढ़ाबे दिख जाएंगे."
जायसवाल होटल मोतिहारी शहर के बस अड्डे के ठीक सामने हाईवे पर है. वहां पहुंचते ही मटन की दीवानगी दिखने लगी. 14-15 टेबलों वाला होटल का डाइनिंग खचाखच भरा था. हर टेबल पर रोटी या चावल के साथ अहुना मटन या मटन स्टू सर्व किए जा रहे थे. इस होटल के इर्द-गिर्द आधा दर्जन से अधिक होटल सिर्फ मटन खिला रहे थे.
चंपारण जाने से पहले कई लोगों के मुंह से यह सुन लिया था जायसवाल होटल अब सिर्फ नाम का रह गया है. यहां के मटन में वह क्वालिटी नहीं है. क्वालिटी की फिक्र जायसवाल होटल के मालिक सुनील प्रकाश जायसवाल को भी थी. वे कहने लगे, "हमलोग ज्यादा मटन नहीं बनाते हैं, क्वालिटी खराब होने का खतरा रहता है." लोगों ने जायसवाल के बगल में खुले सोनी होटल के बारे में भी बताया था और कहा था कि उन लोगों ने एक नयी रेसिपी ईजाद की है. उसे नून पानी भी कहते हैं और वाटर फ्राय भी. उसे जरूर खा लीजिएगा.
सोनी होटल के रसोइए गुड्डू जायसवाल ने बताया, "हम इसमें तेल की एक बूंद इस्तेमाल नहीं करते. मटन को मटन के तेल से ही पकाते हैं. मसाला भी गोटा डालते हैं. यह लजीज भी होता है और सेहत के ख्याल से बेहतर भी है." चंपारण की दो दिन की यात्रा में हमने देखा, नून पानी या वाटर फ्राय की रेसिपी चंपारण का नया क्रेज है. हर होटल इसे पका रहा है. हालांकि यह क्रेज अभी पटना नहीं पहुंचा है.
चंपारण में मांसाहार के शौकीन लोगों के बीच अहुना का क्रेज उतना नहीं है. वे मटन स्टू, तास, कबाब जैसे पारंपरिक मटन के डिश को ज्यादा पसंद करते हैं. जायसवाल होटल सैलानियों के बीच मशहूर है. मोतिहारी शहर के लोगों के लिए नॉन वेज का पसंदीदा ठिकाना शहर के अंदर बरसों से चल रहा बच्चन होटल है. चंपारण में मटन खाना और खिलाना अलग ही तरह का ट्रेंड है.

चंपारण में मटन का क्रेज
"उन्होंने हमारे रेसिपी ट्राय की है, हमारा सामान तो ट्राय किया नहीं है." मोतिहारी में एक लोकल न्यूज चैनल का संचालन करने वाले अंसारुल हक ने बातचीत में यह कह दिया, तो सहज ही उनकी बातों पर ध्यान चला गया. "मतलब यह कि दिल्ली और मुम्बई में आप भले ही चंपारण मीट हाउस खोल लें. खुलने को तो दुबई में भी चंपारण मीट हाउस खुल गया है. मगर वे सिर्फ मिट्टी के बरतन में मटन पका रहे हैं. मजा मिट्टी के बरतन में नहीं, असली मजा चंपारण के बकरों में है. जो स्वाद चंपारण के बकरों में है, वह दूसरे इलाके के बकरों में कहां."
इसी बात को दूसरे अंदाज में पत्रकार-इतिहास लेखक अरविंद मोहन बताते हैं, "चंपारण ही नहीं पूरे उत्तर बिहार के बकरों का मांस बहुत मुलायम होता है. वह न पकने में मुश्किल होता है, न उसे खाने में जोर लगाना पड़ता है. इस इलाके में घास और दूसरी तमाम चीजें खाकर यहां के बकरे बड़े होते हैं." जायसवाल होटल के मालिक सुनील कहते हैं, "हमलोग हमेशा आठ से दस किलो वजन वाले बकरों का मांस ही खरीदते हैं, उन्हें हम खस्सी कहते हैं. यहां हर गांव में लोग बकरी पालते हैं. उनसे खरीदकर मटन के कारोबारी हमारे पास आते हैं."
अंसारुल हक दूसरी बात बताते हैं, "चंपारण के लोग मटन खाने के शौकीन भी बहुत होते हैं. यहां के मुस्लिम ही नहीं, हिंदू भी मटन शौक से खाते हैं. हर पारिवारिक समारोह में मटन ज़रूर पकता है. हफ्ता गुजरा न गुजरा लोगों का मन मटन के लिए मचलने लगता है. आप इस शहर में कचहरी से लेकर जानपुल तक घूम आइए हर सौ कदम पर आपको मटन बिकता नजर आ जाएगा. जानपुल में तो मटन की दुकानों की कतारें हैं."

मोतिहारी शहर ही नहीं रक्सौल, ढाका, घोड़ासहन जैसे कई कस्बे हैं, जो मटन के शौकीनों के ठिकाने हैं. रामपुरवा ऐसी ही एक जगह है, जहां के बारे में बताया जाता है कि वहां का तास काफी मशहूर है. वहां दो दर्जन से अधिक ढाबे तास बेचते हैं और उन्हें खाने के लिए गाडियों की कतारें लगती हैं. इसी तरह पिपरा कोठी के पास भी मटन के कई ढाबे हैं.
यह सच है कि चंपारण के लोग मटन खाने के शौकीन हैं. जानकार बताते हैं कि ऐसा वहां के मुगलों और देसी घरानों के लोगों के मेल-मिलाप की वजह से हुआ. वहां ढाका के इलाके में शेख और पठान बिरादरी के मुसलमान काफी हैं और वे मटन की अलग-अलग रेसिपी बरसों से पकाते रहे हैं. अरविंद मोहन जो खुद चंपारण के रहने वाले हैं, वे कहते हैं, "चंपारण ही शायद देश का ऐसा एकमात्र इलाका है, जहां 98 फीसदी लोग मांसाहारी हैं. इनमें ब्राह्मण समेत सभी जातियों के लोग हैं."
क्या यह कारोबारियों का फरेब है?
हालांकि चंपारण के कई लोग यह नहीं मानते कि यहां मटन को लेकर कोई क्रेज है. वे कहते हैं, यहां भी लोग उतना ही मांसाहार करते हैं, जितना देश के दूसरे इलाकों में. दरअसल चंपारण मटन का जाल पिछले एक दशक में मटन के कारोबारियों ने फैलाया है. मोतिहारी में लंबे समय से अंग्रेजी पत्रकारिता कर रहे चंद्रभूषण पांडेय कहते हैं, "चंपारण नदियों और तालाबों का इलाका है. दोनों जिलों को मिला दें तो यहां 36 झीलें हैं. इसलिए यहां के खानपान में मछलियां अधिक शामिल हैं. मटन का शोर तो बहुत नया है. बमुश्किल एक दो दशक का. अपने कारोबारी फायदे के लिए लोगों ने यह शोर फैलाया है."
वहीं चंपारण के खान-पान पर शोध करने वाले प्रभात कहते हैं, "यहां के लोगों का पसंदीदा भोजन मिरचा चूड़ा और साटा दही रहा है. मांसाहार के नाम पर लोग मछली खाते थे. मगर जब यहां के युवक रोजगार के लिए बाहर जाने लगे तो वे अपने साथ मटन का कल्चर लेकर आए." कनछेदवा गांव में उनके दरवाजे पर बैठे स्थानीय शिक्षक श्रीकांत सौरभ कहते हैं, "चंपारण में जगह-जगह मटन फ्राइ की दुकानें ज़रूर रही हैं. मगर वहां शाम को शराब के शौकीन ही जुटते रहे हैं. अगर हमारे परिवार का कोई युवक वहां दिख जाता तो कहा जाता कि देखो लड़का बिगड़ गया है, गलत संगत में पड़ गया है."
हालांकि कई लोगों को इस बात को लेकर भी आपत्ति है कि जिस चंपारण का नाम कभी गांधी से जुड़ा था, वह आज मटन के नाम से जाना जा रहा है. पंडित राजकुमार शुक्ल स्मृति संस्थान के केंद्रीय अध्यक्ष राजेश भट्ट कहते हैं, "चंपारण बापू की कर्मभूमि रही है. पंडित राजकुमार शुक्ल के बुलावे पर पहुंचे महात्मा गांधी ने यहां सत्य और अहिंसा का पहला प्रयोग किया था. ऐसी अहिंसा की भूमि चंपारण को हिंसक कार्यों से जोड़ना गलत है. चंपारण के नाम में मटन जोड़ना ठीक नहीं. हम इस बात को लेकर अभियान चलाएंगे और ज़रूरत पड़ी तो अदालत की शरण में भी जाएंगे, ताकि चंपारण मटन नाम पर पाबंदी लगे."
इन सबके बीच चंद्रभूषण पांडेय एक नयी जानकारी यह देते हैं कि चंपारण में इन दिनों पोर्क का क्रेज तेजी से बढ़ा है. मोतिहारी शहर में भी कई जगह सूअर काट कर बेचा जाता है. इस बात की तस्दीक श्रीकांत सौरभ भी करते हैं और वे कहते हैं कि ऐसा एक खास धर्म के लोगों को चिढ़ाने के लिए भी किया जा रहा है. हालांकि इन बहसों से इतर यह कहानी स्वाद की है. और यह स्वाद की यात्रा तब तक अधूरी है, जब तक हम भारत में इसकी जन्मभूमि घोड़ासहन कस्बे तक नहीं पहुंच जाते.
घोड़ासहन और पप्पू सर्राफ
घोड़ासहन नेपाल की सीमा से सटा पूर्वी चंपारण जिले का एक कस्बा है. यह कस्बा चंपारण मटन के अलावा एक और वजह से भी मशहूर या दूसरे शब्दों में कहें तो बदनाम है. वह है यहां का शटर कटवा गैंग. यहां के अपराधी देश भर में दुकानों के शटर काटकर चोरी करने के आरोपी हैं. करीने से शटर काटकर चोरी करना यहां के लोगों का हुनर है. इसलिए कई राज्यों की पुलिस यहां आकर दबिश देती है और अपराधियों को पकड़कर ले जाती है. मगर अभी कहानी चंपारण के अहुना मटन की.

इस छोटे से कस्बे में अहुना मटन खिलाने वाले बमुश्किल चार-पांच दुकानदार ही हैं. मगर दिलचस्प है कि उनमें से हर कोई यही दावा करता है कि उनकी दुकान ही अहुना मटन की सबसे पुरानी दुकान है. यह संवाददाता दो दुकानों में गया, चाहत स्टू सेंटर और बिगु जायसवाल अहुना मटन. दोनों के एक जैसे दावे थे. हां, बिगु जायसवाल ने तो ताल ठोक कर कहा कि वही अहुना मटन का जनक है. उन्होंने बिहार सरकार के जंतु विज्ञान विभाग की एक ट्रेनिंग ली थी, जिसका उन्हें प्रमाणपत्र मिला था. इस प्रमाणपत्र के आधार पर उन्होंने अपनी दुकान के साइनबोर्ड पर बिहार सरकार से प्रमाणित लिख डाला था.
हालांकि ऐसे दावे सिर्फ घोड़ासहन में नहीं मोतिहारी से पटना तक के मटन खिलाने वाले करते हैं. उनके होटलों और ढाबों में खूब सारे पोस्टर लगे रहते हैं. पटना में तो दो दुकानदारों के बीच इस मसले पर अदालती मुकदमा तक चल रहा है. खैर, जब इस संवाददाता ने घोड़ासहन के दोनों दुकानदारों के सामने पप्पू सर्राफ का नाम लिया तो दोनों ने स्वीकार कर लिया कि अपने देश में अहुना मटन का कारोबार सबसे पहले उन्हीं ने शुरू किया था. मगर उनका कारोबार चला नहीं, दुकान बंद हो गई. हालांकि दोनों में से किसी ने पप्पू सर्राफ का पता नहीं बताया.
पप्पू सराफ का पता मिला पटना के ओल्ड चंपारण मीट हाउस के मालिक गोपाल कुशवाहा से. उन्होंने फोन पर बताया, "2002 की बात है. उन दिनों मेरा काम धंधा ठीक नहीं चल रहा था. मैं नेपाल के कटहड़िया गया था तो वहां मैंने देखा मिट्टी के छोटे-छोटे बरतन में होटल वाले मटन पकाते थे. एक बरतन में मुश्किल से दो से ढाई सौ ग्राम मटन पकता था. उसे वहां कटिया कहा जाता था. लोग खूब पसंद करते थे. फिर मैंने सोचा कि क्यों न मैं भी यह कारोबार शुरू करूं. उसी साल मैंने घोड़ासहन में छोटा सा झोपड़ीनुमा ढाबा खोला. मैंने बस मिट्टी का बरतन थोड़ा बड़ा कर दिया. एक किलो का. उसे पैक करना शुरू किया. वह ढाबा खूब चला. लोगों ने भी खूब पसंद किया."
पप्पू सर्राफ ने एक साल घोड़ासहन में होटल चलाया, उसके बाद एक मित्र ने उन्हें सलाह दी कि यह होटल मोतिहारी शहर में अच्छा चलेगा. उसी के साथ साझेदारी में पप्पू सर्राफ ने तृप्ति अहुना मीट हाउस खोला, साल 2004 में. मगर साझेदारी चली नहीं. एक साल में ही आपसी विवाद में वह दुकान बंद हो गई. दुकान बंद होने पर दुकान के रसोइए मोतिहारी के अलग-अलग होटलों में काम करने चले गए. इन्हीं रसोइयों के सहारे जायसवाल होटल और दूसरे होटलों में 2005 से अहुना मटन बनना शुरू हुआ. उसके बाद पप्पू सर्राफ फिर गोपाल कुशवाहा के संपर्क में आए. पटना में चंपारण मीट हाउस खुला तो पप्पू वहां रसोइए की भूमिका निभाने लगे.
उनका शुरु किया हुआ अहुना मटन का कारोबार ब्रांड बन गया, मगर पप्पू सर्राफ रसोइए के रसोइए रह गए. अभी भी वे झारखंड के झुमरी तिलैया के एक चंपारण मीट हाउस में रसोइए का काम करते हैं. चंपारण मीट की जब भी चर्चा होती है, लोग पटना के ओल्ड चंपारण मीट हाउस, मोतिहारी के जायवाल होटल और घोड़ासहन के होटलों तक तो पहुंच जाते. विरले लोगों को ही यह पता चल पाता है कि इस अनोखी रेसिपी को भारत में लाने वाला कौन है और आज क्या कर रहा है?