मार्च की 14 तारीख को दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के बंगले से बंडल के बंडल अधजले नोट मिलने की खबर सामने आने के बाद न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर बहस तेज हो गई है. इस बीच उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ दो बार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी NJAC की चर्चा कर चुके हैं.
21 मार्च को उपराष्ट्रपति धनखड़ ने 2014 में संसद द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून का जिक्र करते हुए कहा, “अगर न्यायिक नियुक्तियों की व्यवस्था को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द नहीं किया होता तो चीजें अलग होतीं.” 25 मार्च को दोबारा उन्होंने कहा, “NJAC कानून लागू होता तो चीजें अलग होतीं.”
इसके बाद ही जजों की नियुक्ति को लेकर NJAC कानून पर दोबारा से चर्चा होने लगी है, लेकिन इससे क्या बदल जाएगा?
NJAC क्या है और उपराष्ट्रपति धनखड़ इसकी हिमायत क्यों कर रहे हैं?
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक, जजों की नियुक्ति, ट्रांसफर और प्रमोशन से जुड़े मामलों के लिए मोदी सरकार ने पहले कार्यकाल में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग बनाया था, जिसे NJAC कहते हैं.
इस कानून को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 4/1 के बहुमत से अवैध और असंवैधानिक करार दिया था. सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज चेल्मेश्वर एकलौते जज थे, जिन्होंने NJAC कानून को रद्द करने के खिलाफ अल्पमत में वोट किया था.
जस्टिस चेल्मेश्वर ने कॉलेजिम के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज रूमापाल के बयान के आधार पर कहा था, “कॉलेजियम से जजों की नियुक्ति व्यवस्था देश का सबसे बड़ा सीक्रेट तंत्र है. चीफ जस्टिस के अलावा अन्य जजों को भी इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती.”
संविधान पीठ में शामिल एक अन्य जज कुरियन जोसेफ ने भी NJAC कानून को रद्द करने को दुर्भाग्यपूर्ण बताया था. जोसेफ ने अपने फैसले में यह कहा था कि अपारदर्शी तरीके से जजों की नियुक्ति में जवाबदेही नहीं होने से भरोसे का बड़ा संकट है.
इसी महीने दिल्ली हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के बंगले से अधजले नोट मिलने के बाद कॉलेजियम से जजों की नियुक्ति में बदलाव की बात शुरू हो गई है. यही वजह है कि अब उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी नए सिरे से NJAC यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की मांग को आगे बढ़ा रहे हैं.
वर्तमान में जजों की नियुक्ति से जुड़ा कॉलेजियम सिस्टम क्या है?
वकील विराग गुप्ता बताते हैं कि संविधान पीठ में बहस के बाद अनुच्छेद- 124 के तहत सुप्रीम कोर्ट जजों और अनुच्छेद- 214 में हाईकोर्ट के जजों की नियुक्तियों के नियम बनाए गए.
इन कानूनों के मुताबिक जजों की नियुक्तियों में सरकार और न्यायपालिका के बीच में संतुलन बनाने का प्रयास हुआ, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 3 फैसलों से जजों की नियुक्ति के लिए वर्तमान कानून यानी कॉलेजियम सिस्टम बनकर तैयार हुआ.
1. 1981 का फर्स्ट जज केस 2. 1993 का सेकेंड जज केस 3. 1998 का थर्ड जज केस. हालांकि, कॉलेजियम को लेकर संविधान या संसद से पारित कानून में कोई व्यवस्था नहीं है.
इस कानून के तहत ही सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस और 4 अन्य सीनियर जज, सुप्रीम कोर्ट या किसी हाई कोर्ट में जजों की नियुक्तियों और ट्रांसफर के बारे में फैसला लेते हैं. उन सिफारिशों के अनुसार केंद्र सरकार की अनुशंसा के बाद राष्ट्रपति आदेश जारी करते हैं.
राज्यों में हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ दो सीनियर जजों का कॉलेजियम नियुक्तियों के लिए सुप्रीम कोर्ट में प्रस्ताव भेजते हैं. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम नाम तय कर राष्ट्रपति से अनुशंसा के लिए सरकार के पास भेजती है.
वकील विराग गुप्ता के मुताबिक, जजों द्वारा ही जजों की नियुक्ति किए जाने से पूरी प्रोसेस में अपारदर्शिता, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार जैसे आरोपों की वजह से कई सालों से कॉलेजियम में बदलाव की मांग हो रही है.
NJAC कानून बनाए जाने से क्या बड़ा बदलाव होगा?
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता इस सवाल के जवाब में कहते हैं कि देश में 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं. ऐसा माना जाता है कि जजों की नियुक्ति में उच्च वर्ग की प्रधानता होने की वजह से वंचित वर्ग और महिलाओं का न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व बहुत कम है.
जजों की नियुक्ति में परिवारवाद के भी गंभीर आरोप हैं, जिसकी वजह से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद बढ़ता है. कॉलेजियम में जजों के दबदबे के बावजूद नियुक्तियों का आदेश केंद्र सरकार जारी करती है, इसलिए कॉलेजियम की सिफारिशों के बावजूद जजों की नियुक्तियों में काफी लेट-लतीफी होती है.
विराग इसके आगे कॉलेजियम पर कहते हैं कि देश में 25 लाख से ज्यादा वकील होने के बावजूद हाईकोर्टों में एक तिहाई से ज्यादा पद रिक्त हैं. कॉलेजियम की व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बनी है. उसके बजाय NJAC कानून को संसद से मंजूरी मिलने के बाद नियुक्ति, ट्रांसफर और प्रमोशन के बारे में स्पष्ट कानूनी प्रावधान बनेंगे.
इस बारे में प्रशासनिक व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए पूर्णकालिक सचिवालय भी बनेगा. इससे जजों को न्यायिक कार्य करने का ज्यादा समय मिलेगा. जजों के खिलाफ शिकायतों के मामलों की बेहतर और समयबद्ध तरीके से जांच हो सकती है. पारदर्शिता, जवाबदेही और कुशलता बढ़ने से मुकदमों का बोझ कम होने के साथ न्यायिक व्यवस्था पर लोगों का भरोसा बढ़ेगा.
NJAC होता तो जस्टिस वर्मा कैश कांड में अब तक क्या कार्रवाई हुई होती?
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक, जस्टिस वर्मा से जुड़े वर्तमान घटना का कॉलेजियम से ज्यादा नाता नहीं है. सपा सरकार के दौरान उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का स्टैंडिंग काउंसिल बनाया गया था, लेकिन हाईकोर्ट जज के तौर पर उनकी नियुक्ति कॉलेजियम की सिफारिश के आधार पर बीजेपी सरकार के पहले कार्यकाल में हुई थी.
जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कॉलेजियम का निर्माण हुआ, उसी तरीके से कई अन्य फैसलों से जजों को विशेष सुरक्षा हासिल हो गई है. राष्ट्रपति और राज्यपाल को सभी प्रकार के आपराधिक मामलों के खिलाफ संवैधानिक संरक्षण मिला है.
IPC और नए BNS कानून के तहत जजों के खिलाफ न्यायिक मामलों में आपराधिक मुकदमे दर्ज नहीं हो सकते, लेकिन अन्य अपराधों और भ्रष्टाचार के मामलों में एफआईआर दर्ज करने पर कानून में कोई रोक नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने फैसले के अनुसार चीफ जस्टिस की अनुमति के बगैर जज के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो सकता. इससे जस्टिस वर्मा के खिलाफ पुलिस, सीबीआई और ईडी ने अभी तक कोई मामला दर्ज नहीं किया है.
लोकपाल के नए फैसले के अनुसार हाईकोर्ट के जजों को लोकसेवक माना जा सकता है, लेकिन उस फैसले पर भी सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है.
जजों को हटाने के लिए महाभियोग की कठिन प्रक्रिया है, जिसकी वजह से अभी तक किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया तार्किक अंत तक नहीं पहुंची. उसमें भी दखले देते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इनहाउस जांच की प्रक्रिया निर्धारित है.
विराग बताते हैं कि वर्तमान व्यवस्था में जज ही जज के अपराध की जांच करते हैं. कई मामलों में इनहाउस कमेटी ने जजों को दोषी माना था, उसके बावजूद उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू नहीं हुई.
सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों के अनुसार, जस्टिस वर्मा के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज नहीं हो रहा और उन्हें संवैधानिक संरक्षण मिलने के कारण इनहाउस जांच के बगैर महाभियोग की प्रक्रिया से बर्खास्त करना मुश्किल है.
2015 में सुप्रीम कोर्ट ने NJAC खारिज क्यों कर दिया था?
वकील विराग गु्प्ता बताते हैं कि NJAC कानून का मसौदा कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में बना था. लोकसभा में राम जेठमलानी के अलावा सभी दलों के सभी सांसदों ने पूर्ण बहुमत से उस कानून का समर्थन किया था.
संसद से पारित होने के बाद उस कानून को 16 राज्यों की विधानसभा का भी अनुमोदन मिला था. उसके बावजूद तकनीकी आधार पर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने उस कानून को अक्टूबर 2015 के एक फैसले से निरस्त किया था.
सुप्रीम कोर्ट के जजों ने इस कानून को निरस्त करते हुए कहा था, “NJAC से संविधान के बेसिक ढांचे का उल्लंघन होता है. कानून मंत्री और दो नॉन ज्यूडिशिल सदस्यों के पास वीटो पावर होने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है. NJAC में विधि मंत्री के होने से हितों के टकराव का मामला बनता है.”
विराग का कहना है कि कॉलेजियम प्रणाली में जज ही जज की नियुक्ति करते हैं, इसलिए कॉलेजियम और NJAC के बीच संतुलन बनाते हुए संसद से नए कानून बनाने की जरूरत है. ऐसा कानून, जिससे जजों को जवाबदेह बनाने के साथ ही लोगों को जल्द न्याय मिल सके.
NJAC के दोबारा लागू किए जाने की कितनी संभावना है?
सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता के मुताबिक, केंद्र सरकार को नए सिरे से NJAC कानून को संसद से पारित कराना होगा. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में सभी दलों में न्यायिक सुधारों के पूर्ण सहमति थी, लेकिन पिछले 10 सालों में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच राजनीतिक टकराव और विरोधाभास बड़े पैमाने पर बढ़ा है.
अब सरकार नया कानून बनाने की कोशिश करती है तो संसद में विरोध के साथ विपक्ष शासित राज्यों में भी नए कानून का विरोध हो सकता है. कानून बनने के बाद उसे नये सिरे से चुनौती मिली तो फिर नए कानून पर सुप्रीम कोर्ट से रोक भी लग सकती है.
विराग आगे बताते हैं कि लोकसभा में भाजपा को अपने दम पर पूर्ण बहुमत हासिल नहीं है. न्यायपालिका में हस्तक्षेप जैसे विवादों से बचने के लिए साल 2015 के पुराने फैसले पर पुर्नविचार के लिए केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाकर 5 जजों से बड़ी बेंच के गठन की मांग कर सकती है. बड़ी बेंच के न्यायिक फैसले से NJAC कानून को फिर से लागू किया जा सकता है.