
साल था 1983. विश्व-सिनेमा बनाने वाला 62 साल का एक फिल्म निर्देशक, जिसको देखकर कतई नहीं कहा जा सकता था कि इस पर छह दशक पार की उम्र हावी हो रही है. इस समय वह अपनी अगली फिल्म 'घरे-बाइरे' की शूटिंग में व्यस्त था. आर्थिक उदारीकरण नहीं हुआ था न, इसलिए 100 करोड़ी फिल्मों का चलन भी तब नहीं था. लेकिन हां, फ़िल्में कमाई तो अच्छी-खासी कर ही लेती थीं.
मगर इस डायरेक्टर की ख्याति बॉक्स-ऑफिस कलेक्शन से नहीं बल्कि इस बात से तय होती थी कि फलां फिल्म न्यूयॉर्क के फिफ्थ एवेन्यू प्लेहाउस में 8 महीने चली तो दूसरी पेरिस के किसी थिएटर में 9 महीने चल चुकी है, मगर दर्शक हैं कि फिल्म बंद ही नहीं होने दे रहे. सारी विदेश नीति को धता बताते हुए यह फिल्म निर्देशक अनकहे तौर पर हिंदुस्तान का सांस्कृतिक राजदूत बन चुका था. नाम था - सत्यजीत रे.

1983 में इंडिया टुडे मैगजीन ने रे पर एक कवर स्टोरी प्रकाशित की थी. इसमें इंडिया टुडे के पत्रकार सुमित मित्रा लिखते हैं, "24 फीचर फिल्मों और छह लघु फिल्मों बनाने वाले (तब तक) रे को अपनी पहली फिल्म पथेर पांचाली की रिलीज के बाद कभी भी फाइनेंसरों की तलाश नहीं करनी पड़ी: फाइनेंसरों ने उन्हें खोजा. उन्होंने अपनी कला की समृद्धि को कायम रखते हुए और पॉपुलर इंट्रेस्ट्स को कोई रियायत दिए बिना अपना काम जारी रखा."

सत्यजीत रे को उनकी फिल्मी तकनीक से जोड़कर परिभाषित करते हुए मित्रा ने लिखा था, "उनका माध्यम सिनेमा है, उनकी भाषा रोशनी, लेंस और अभिनय और कटिंग की लय की है; उनके दर्शक, हालांकि व्यावसायिक फिल्मों के निर्माताओं जितने बड़े नहीं, फिर भी बड़े हैं - कम से कम अच्छी कविता, अच्छी पेंटिंग, अच्छे उपन्यास या अच्छे शास्त्रीय संगीत के पारखी लोगों की तुलना में तो बहुत बड़े."
1983 की ये कवर स्टोरी लिखे जाने तक रे उस ओहदे पर पहुंच चुके थे जहां केवल मुट्ठी भर फिल्म निर्माता ही अपनी जगह सुनिश्चित पाए थे. ब्रिटिश फिल्मकार और फिल्म क्रिटिक लिंडसे एंडरसन ने अस्सी के दौर में कहा था, "मैं सत्यजीत रे की तुलना आइज़ेंस्टीन, चैपलिन, कुरोसावा, बर्गमैन और एंटोनियोनी से करूंगा. वे विश्व सिनेमा के महानतम लोगों में से हैं." सत्यजीत रे की फिल्मोग्राफी की बात की जाए तो 'पथेर पांचाली', 'अपराजितो', 'देवी', 'जलसाघर', 'चारुलता' और 'जन अरण्य' जैसे क्लासिक्स बनाकर उन्होंने अपनी जगह पुख्ता कर ली थी. इंडिया टुडे की 1983 की रिपोर्ट में ही गर्म हवा के निर्माता एमएस सथ्यू ने कहा था , "मुझे रे की फिल्म का 10 सेकंड का शॉट दिखाओ और मैं बता दूंगा कि यह उन्हीं का है. मगर कैसे? इसकी क्लास से".

जैसा कि अपने यहां 'आर्ट फिल्म' या 'पैरेलल सिनेमा' को लेकर बातें चलती हैं कि इन फिल्मों को बनाकर पैसा नहीं कमाया जा सकता, अपने दौर में सत्यजीत रे ने इन बातों को धराशायी कर दिया था. मित्रा अपनी रिपोर्ट में बताते हैं कि 1978 में, बर्लिन फिल्म फेस्टिवल कमिटी ने उन्हें सिनेमा के तीन सर्वकालिक महारथियों में से एक चुना. यह एक दुर्लभ उपाधि थी जिसे उन्होंने तब तक सिर्फ चैपलिन और बर्गमैन के साथ साझा किया था. उसी साल ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया, एक ऐसा सम्मान जो 600 साल पुराने संस्थान ने केवल एक अन्य फिल्मी हस्ती, चैपलिन को दिया था.
मगर इसकी वजह क्या थी? क्यों सत्यजीत रे की ख्याति दिन-दूनी रात चौगुनी होती चली गई? दुनिया के महान फिल्ममेकर्स में गिने जाने वाले कोस्टा-गवरास ने इसका कारण बताया था. उनका कहना था, "रे की फिल्मों में एक आंतरिक शक्ति और क्लासिक गुणवत्ता होती है. मुझे लगता है कि फ़्रांस में तो अभी (अस्सी के दशक में) उनकी फिल्मों का पुनर्मूल्यांकन शुरू हो गया है." दिलचस्प बात है कि इंडिया टुडे के साथ ही इंटरव्यू में सत्यजीत रे ने कहा था कि भारत में सेंसरशिप की वजह से कोस्टा-गवरास टाइप की फिल्म बनाना संभव नहीं है.
इसके साथ ही जो एक चीज रे को ख़ास बनाती थी वो थी उनकी बंगाली अस्मिता को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति. चाहे वो दुनिया के कितने ही अंग्रेजीदां शहरों में गए, तमाम तरह की भाषाएं बोलने वाले लेखकों और निर्देशकों से मिले, अपना बांगला दामन उन्होंने थामे रखा. फिल्म इतिहासकार पेनेलोप ह्यूस्टन लिखती हैं कि जब तक कोई और इसे आकर बदल नहीं देता, सत्यजीत रे का बंगाल ही सिनेमा की दुनिया में भारत बना रहेगा.
अपने जीवन में सत्यजीत रे ने केवल 2 फ़िल्में हिंदी में बनाईं और वो भी प्रेमचंद की कहानियों पर - 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'सद्गति'. इसके अलावा उनकी सभी फ़िल्में बांग्ला में थीं. सुमित मित्रा अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, "न केवल किरदारों की भाषा में बल्कि उसके मुहावरों और बारीकियों में भी भरपूर बांग्ला मौजूद हुआ करती थी. भाषाई अंतर होने के बावजूद उन्होंने बाहर के दर्शकों से पूरी सहजता से संवाद किया. वास्तव में रे के फैन की कोई भाषाई पहचान या राष्ट्रीयता नहीं है; उसमें बस एक निश्चित स्तर की प्रबुद्ध ग्रहणशीलता होती है. एक बार संकेत मिलने पर, ध्वनियां और छवियां सभी भौगोलिक सीमाओं को पार कर जाती हैं."
6 फ़ीट और साढ़े 4 इंच लंबे सत्यजीत औसत भारतीयों से लगभग 8 इंच ऊंचे ठहरते थे. यही उनके काम का भी हिसाब था. अभिनेता सौमित्र चटर्जी ने सुमित मित्रा से बातचीत में उनकी तुलना टैगोर से की थी. उनका कहना था, "टैगोर किसी भी तरह की ज्यादती के खिलाफ थे और रे भी वैसे ही हैं. दोनों ही उस अर्थ में क्लासिकिस्ट हैं." हालांकि सत्यजीत रे के दोस्त डेविड मैककचियन के मुताबिक, "सत्यजीत देखने में कुछ-कुछ सिकंदर महान जैसा है. हालांकि तथ्य यह है कि वे जमकर शराब पीने वाले व्यक्ति हैं और अपनी सामान्य फीस के अलावा एक रुपया भी काला धन स्वीकार नहीं करते, जो कि प्रति फिल्म 1 लाख रुपये से 1.5 लाख रुपये तक है. यही बात उन्हें पेशे में अलग करती है."

सत्यजीत रे को अगर आप सिर्फ एक महान फिल्मकार के तौर पर ही जानेंगे तो गलती कर देंगे. सुमित मित्रा के मुताबिक, देश के सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्माता होने के अलावा रे बंगाल के सर्वश्रेष्ठ बुक डिजाइनर, बंगाली फिक्शन के सबसे अधिक बिकने वाले लेखक, एक प्रसिद्ध चित्रकार और ग्राफिक आर्टिस्ट और, जैसा कि कलकत्ता के पियानोवादक आदि गज़दार ने कहा था - रे देश में पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के सर्वश्रेष्ठ पारखियों में से एक हैं."

रे अपनी कला की सरलता और ईमानदारी की वजह से ही इतने मुकम्मल हो सके. ईमानदारी का आलम ये था कि उनकी 1962 की फिल्म 'अभिजान' में उपयोग होने वाले प्रामाणिक राजस्थानी लोक संगीत के केवल कुछ मिनटों के टेप को सुरक्षित करने के लिए उन्होंने इंदिरा गांधी को हलकान कर दिया था.
सत्यजीत रे अक्सर किसी फिल्म के शुरू होने से पहले खुद ही उसके सेट का स्केच बनाते थे, जो उनके किरदारों के परफॉरमेंस की चाबी होती थी. उनका मानना था कि केवल प्रासंगिक बाहरी विवरण ही 'पात्रों की आंतरिक बुनाई' को जन्म दे सकते थे. सुमित मित्रा लिखते हैं, "लोगों से बात करते समय कभी-कभार ही ऐसा होता है जब वे किसी अजीब हावभाव या कहने वाले वाक्यांश को नोट करना भूलते हैं. एक दोस्त बताते हैं कि 1973 में एक कांग्रेस मंत्री से मिलने के बाद वे 'मेज थपथपाने, सिर हिलाने, गलत उच्चारण और अपने नेता के (बार-बार) जिक्र करने' की स्पष्ट रूप से नकल कर सकते थे. उनका यही ऑब्जरवेशन 'जन अरण्य' में एक कांग्रेस विधायक के पोरट्रेयल में काम आया. यह विशेष रूप से पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे को परेशान करने वाला था, जो फिल्म के प्रीमियर पर थिएटर से बाहर ही चले गए थे." सुमित ने यह लिखते-लिखते एक और अहम जानकारी देते हैं कि सत्यजीत रे और सिद्धार्थ शंकर रे चचेरे भाई और पारिवारिक मित्र थे.

अपने आप में रहने वाले सत्यजीत रे के 'कंट्रोलिंग' होने और अपने आप में पर्याप्त रहने का असर उनके काम में भी दिखा. फिल्म के लेंस लेकर एडिट के दौरान कैंची चलाने तक पर उनका सीधा कंट्रोल होता था. हर काम खुद ही करना होता था. मित्रा लिखते हैं, "इस प्रक्रिया में, रे ने भले ही सहजता खो दी होगी, लेकिन इसका उन्हें फायदा भी मिला. सभी भूमिकाओं को अपने पास रखकर, उन्होंने सिनेमा की कला को कविता, चित्रकला या संगीत के व्यक्तिवाद के जितना करीब संभव हो, लाया है."
इसी कवर स्टोरी के साथ सत्यजीत रे का एक इंटरव्यू भी छपा था. इस इंटरव्यू में उनकी ऑब्जरवेशन स्किल्स को लेकर पूछे जाने पर रे का कहना था, "मैं आइवरी टावर (समाज से बाहर होने का पर्याय) में नहीं रहता." मगर इस इंटरव्यू का आखिरी सवाल हर कोई पूछना चाहता था, कि क्या आपने अपनी सबसे अच्छी फिल्म बना ली है? इसपर उन्होंने हंसते हुए कहा था - नहीं.
'घरे-बाइरे' की शूटिंग चल रही है और सत्यजीत के एक्शन बोलते ही कलाकारों ने सेट में उन्होंने जान फूंक दी है!