
26 जनवरी का दिन. भारतीय गणतंत्र के लिए एक ख़ास मौका. यही कोई दो दशक पहले 2001 में 51वां गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा था. दिल्ली का राजपथ पूरी तरह सेना के तीनों अंगों की परेड के लिए तैयार था.
घड़ी की सुई यह इशारा करती कि सुबह के 9 बज चुके हैं, इससे पहले दिल्ली से करीब 1,150 किलोमीटर दूर कुछ लोग 'भारत माता की जय' का नारा लगाने के बजाय "अमने बचावो... अमने बचावो" चिल्ला रहे थे.
"अमने बचावो" की चीत्कार तीन भीमकाय मशीनों की घरघराहट के पीछे दब गई थी. मशीनें और उनकी घरघराहट बढ़ती गई, "अमने बचावो" की कांपती-सी आवाज़ें धीमी होती गईं और एक वक़्त के बाद तो चुप ही हो गईं. यह अहमदाबाद के इशानपुर इलाके की कैडिला स्कूल के इमारत के भरभरा कर गिर जाने का दृश्य है. इंडिया टुडे हिंदी के 7 फरवरी, 2001 के अंक में उदय माहूरकर अपनी रपट में लिखते हैं, "एक दिन पहले हुई कोई तीन मिनट की उस विनाशलीला के करीब 28 घंटे बाद भी अपराह्न तक बचावकर्मी इमारत के ढेर से मासूम बच्चों के महज दो शरीर ही निकाल पाए."
26 जनवरी, 2001 की सुबह गुजरात ने विध्वंसक भूकंप के झटके महसूस किए. करीब तीन मिनट तक धरती डोलती रही. केंद्र था गुजरात के कच्छ जिले का भचाऊ तालुका. थोड़ा और ठीक-ठीक देखें तो चबारी गांव था इस भूकंप का सेंटर. उदय से बातचीत में भचाऊ के सैयद हुसैन मियां उस दिन का हाल बयां करते हैं, "हमने भागने की जितनी भी कोशिश की, पता चला, हम एक ही जगह फंसे हुए हैं. एक बार जोर की आवाज़ उठी, जैसे कोई रेलगाड़ी धड़धड़ाती जा रही हो. और फिर सन्नाटा छा गया." सैयद मियां ने अपनी पत्नी, बेटी, भाभी और भतीजों को खो दिया. उसी इलाके के जगदीश वीरजी के सिर से मां का साया उठ गया और घर किसी खंडहर में तब्दील हो गया. जगदीश को लगा जैसे, "चारों ओर मातम और कुंठा, विनाश और तबाही का आलम है. अब रोने से क्या होगा?"

कच्छ से यही कोई 70-72 किलोमीटर की दूरी है भुज की. भुज भी इस तबाही से अछूता नहीं था. तीन मिनट में भुज किसी खुदाई में मिले शहर के खंडहर जैसा लगने लगा थी. लेकिन यह खंडहर पुराना नहीं था. मलबों में हज़ारों लोग एक-एक सांस की लड़ाई लड़ रहे थे. भुज के जनक पुरोहित की चिंता थी कि, "सर, उसके परिवार में कोई नहीं बचा है. उसकी मदद करने वाला कोई नहीं है. अगर बचा सकते हैं तो उसका हाथ बचा लीजिए." जनक के भाई मलबे में दबे थे. उन्हें बाहर निकालने के लिए सेना के डॉक्टर हाथ काटने की बात कह रहे थे. अंजार के गुणवंत लाल मेहता तो सेना के अस्पताल में डॉक्टर से बार-बार यही पूछते रहे कि "मैं जिंदा क्यों हूं?"
इंडिया टुडे हिंदी ने 14 फरवरी, 2001 को 'गुजरात विशेष' अंक प्रकाशित किया. अंजार से सायंतन चक्रवर्ती अपनी रिपोर्ट में गुणवंत लाल का जिक्र करते हैं, "जमींदोज हो चुके शहर में सेना के फील्ड अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ करते हुए मेहता जिंदा बच जाने की दास्तान को याद करते हैं. वे सीमेंट और पत्थर के 10 फुट मलबे में 76 घंटे तक दबे हुए थे. पास में ही मां और दो बेटे मरे पड़े थे. इस 45 वर्षीय पंसारी ने अपने गले को सूखने से बचाने के लिए अपने हाथों में अपना पेशाब जमा कर उसे पीना शुरू कर दिया." मेहता चिल्ला-चिल्लाकर रोना चाहते थे लेकिन नहीं रोए कि डिहाइड्रेशन हो जाएगा.
इस त्रासदी में बहुतों की देह बच गई, लेकिन उनमें से ज्यादातर मानसिक तौर पर खत्म हो गए. अपनी बेटी, दामाद और घर को स्वाहा होते देखकर भुज की जयकृष्ण मेघाणी को तो लगा कि, "उन पांच मिनटों ने घड़ी को 50 साल पीछे कर दिया." देर-सबेर राज्य और केंद्र सरकार ने बचाव अभियान शुरू किया लेकिन यह भूकंप हताशा की आंधी लेकर आया था, जो अपने साथ जिंदा रहने की आशा को उड़ाकर ले गया. मां-बाप और दादी को गंवा देने वाली भुज की मीताबेन सोनी कहती हैं, "कितनी भी राहत सामग्री हमारा जीवन नहीं लौटा सकती."

जब यह तबाही हुई तब सरकारें क्या कर रही थीं? केंद्र और राज्य दोनों ही जगहों पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकार थी. प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी और केशुभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री थे. भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तब पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव थे. 14 फरवरी, 2001 के अंक में राज्य प्रशासन के पंगु हो जाने की कहानी वी. शंकर अय्यर, उदय माहूरकर और सायंतन चक्रवर्ती की रिपोर्ट में मिलती है.
सुबह 8:46 बजे भूकंप के झटके आने शुरू हुए. करीब 3 मिनट तक धरती हिलती रही. इन तीन मिनटों में गुजरात की कहानी खत्म हो चुकी थी. सुबह 9 बजे तक राज्य भूकंप के केंद्र का भी पता नहीं लगा पाया था. जिलों के साथ कम्यूनिकेशन टूट चुका था. सुबह 9:45 बजे गांधीनगर में नियंत्रण कक्ष खुला लेकिन फोन काम ही नहीं कर रहे थे. रात 10:30 बजे पहली बार जिला कलेक्टरों से संपर्क हुआ लेकिन दिल्ली से अभी भी संपर्क नहीं हो पाया था. 27 जनवरी की सुबह 3 बजे पहली बार दिल्ली के मौसम विभाग से बातचीत हुई और पता लगा कि केंद्र भुज के पास था.
लापरवाही का आलम ये था कि 26 जनवरी को जब भूकंप आया तो गुजरात के 25 जिला कलेक्टरों में से किसी का भी सैटेलाइट फोन काम नहीं कर रहा था. जबकि एक ही महीने पहले दिसंबर में गुजरात के प्रमुख सचिव (राजस्व) सी. के. कोशी ने राज्य के कलेक्टरों को पत्र जारी करके कहा था कि अलमारी से सैटेलाइट फोन बाहर निकालकर धूल झाड़िए, देखिए कि वे काम कर रहे हैं या नहीं और रिपोर्ट दीजिए. लेकिन इसके बावजूद किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया था. नतीजतन सुस्ती की नींद ने हजारों लोगों को मौत की नींद सुला दी. क्योंकि समय रहते बचाव अभियान शुरू हो जाता तो शायद बहुत से घायलों की जान बच सकती थी.

भुज में भारतीय वायु सेना का अड्डा है, यह बात जब अधिकारियों को ध्यान आई तो रक्षा मंत्रालय के जरिए वहां संपर्क की कोशिश शुरू हुई. लेकिन हैरानी की बात ये कि बकौल कोशी, "रक्षा मंत्रालय भी वायु सेना के अड्डे से संपर्क नहीं साध सका." अगले दिन 27 जनवरी की रात करीब 2-3 बजे गांधीनगर कंट्रोल रूम में सैटेलाइट फोन बजा. दूसरी ओर कच्छ के कलेक्टर कमल दयानी थे. और इस तरह भूकंप के 17 घंटे बाद गुजरात सरकार को मालूम चला कि कच्छ जिले की जमीन मलबे और शवों से पट चुकी है. 27 तारीख़ की ही भोर में राहत सामग्री से भरे ट्रक पहली बार गांधीनगर से कच्छ और भुज के लिए रवाना हुए.
देश का सबसे अधिक औद्योगीकृत माना जाने वाला राज्य गुजरात. इस राज्य में भूकंप के 36 घंटे बाद तक सरकार इस जुगत में जुगाली करती रही कि मलबे को हटाने और जीवित बच गए लोगों को बाहर निकालने के लिए क्रेनें और अन्य मशीनें जुटाई जाएं. लेकिन ये हाल सिर्फ कच्छ, भुज या अंजार के इलाके में ही नहीं था. अहमदाबाद में तो तीन दिनों तक क्रेन और मिट्टी हटाने वाली मशीनों को पहुंचाने के लिए सरकार जूझती दिखी. कुछ 48 घंटे बाद राज्य के मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल दूरदर्शन पर गैस कटर के लिए अपील करते दिखे.
भूकंप से सिर्फ जमीन नहीं हिली थी. दिल्ली में बैठे तख्तनशीं भी थरथरा उठे थे. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. आनन-फानन में प्रधानमंत्री ने 500 करोड़ रुपए की मदद की घोषणा की. तत्कालीन प्रधानमंत्री वाजपेयी का बयान भी आया, "मैंने इतने बड़े पैमाने पर प्राकृतिक आपदा कभी नहीं देखी. इसका बोझ पूरे देश को मिलकर उठाना होगा." केंद्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी अपने संसदीय क्षेत्र गांधीनगर में डेरा जमाकर बचाव अभियान की देखरेख में जुट गए.

विपक्षी खेमे के नेता इस त्रासदी के वक़्त में भी छिछले बयान देने से खुद को रोक नहीं सके. कर्नाटक के नागरिक उड्डयन मंत्री जे. जॉन का बयान 'गुजरात विशेष' में छपा है. जॉन ने कहा था, "भूकंप ईसाइयों पर आक्रमण का ईश्वर द्वारा जवाब है." बीजेपी ने जॉन के इस बयान का विरोध किया. कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने इस बयान के बाद जॉन से इस्तीफा ले लिया.
आजाद भारत में हर घटना-दुर्घटना के एक किनारे पर छिछली और अमानवीय राजनीति किसी दीमक की तरह सटी रहती है. गुजरात भूकंप के बाद भी वही हुआ. लेकिन राजनीति के किनारे से दूर कच्छ, भुज और गुजरात के कुछ और शहरों में लोग हजारों की संख्या में जान गंवा रहे थे. लेकिन मौत का आंकड़ा ठीक-ठीक कितना था? 14 फरवरी के ही अंक में सुदीप चक्रवर्ती का लेख मिलता है- 'जब टूट पड़ी कयामत.' सुदीप ने आशंका जताई थी कि मरने वालों की संख्या एक लाख तक हो सकती है.
वे लिखते हैं, "यह विध्वंस एहसास दिलाता है कि कयामत क्या होती है. अगर प्रकृति दयालु हुई तो मौत का आंकड़ा 40,000 होगा वरना यह इसके दोगुने से भी ज्यादा हो सकता है. उससे भी बड़ी संख्या घायल, अपंग और अनाथ लोगों की होगी." हालांकि ये एक अनुमान ही था. अलग-अलग मीडिया रपटों के हवाले से देखें तो 13,000 से 20,000 हजार मौत तक का दावा किया जाता रहा है.
इस विध्वंस को आज दो दशक से ज्यादा का वक्त बीत चुका है. देश ने 51वें गणतंत्र दिवस से 75वें गणतंत्र दिवस की यात्रा तय कर ली है. गुजरात का कच्छ दोबारा उठ खड़ा हुआ है. उसने खुद को दोबारा समेटा है. लेकिन कच्छ की मिट्टी में उस तबाही की गूंज आज तक सनी हुई है.