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जब अपने ससुर एनटी रामाराव से विद्रोह कर चंद्रबाबू नायडू पहली बार बने थे आंध्र प्रदेश के सीएम

आंध्र प्रदेश में 1994 के विधानसभा चुनाव में एनटी रामाराव के नेतृत्व वाली टीडीपी ने 214 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी. एक साल के भीतर ही रामाराव के दामाद चंद्रबाबू नायडू पार्टी में विद्रोह कर मुख्यमंत्री बन गए

एक कार्यक्रम के दौरान चंद्रबाबू नायडू और एनटी रामाराव, साथ में लक्ष्मी पार्वती
एक कार्यक्रम के दौरान चंद्रबाबू नायडू और एनटी रामाराव, साथ में लक्ष्मी पार्वती
अपडेटेड 14 जून , 2024

आंध्र प्रदेश के स्किल डेवलपमेंट केस में 10 सितंबर, 2023 को तेलुगू देशम पार्टी (TDP) के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू की गिरफ्तारी हुई तो इस मौके को उनके सियासी अस्त की शुरुआत के तौर पर देखा गया. 51 दिन राजमुंदरी सेंट्रल जेल में गुजारने के बाद 31 अक्टूबर 2023 को जब वो बाहर निकल रहे थे तब उनके समर्थकों में जोश तो था. लेकिन यकीन नहीं था कि उनके पॉलिटिकल ग्राफ की गिरावट में सुधार हो पाएगा. सुधार भी इतना कि विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनाव तक उनके ही नाम का हल्ला होगा.

कट टू 4 जून, 2024. लोकसभा की 543 और आंध्र प्रदेश विधानसभा की 175 सीटों के नतीजे सामने आए. एकतरफ आंध्र में नायडू की TDP ने 135 सीटें जीतकर सत्ता पर कब्जा पा लिया तो वहीं दूसरी ओर 16 लोकसभा सीटें जीतकर बीजेपी नेतृत्व वाले गठबंधन NDA में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी.

सियासी हलचल में चंद्रबाबू नायडू सुर्खियों में हैं. उन्होंने चौथी बार आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है. लेकिन जब नायडू के लिए पहली बार ये कुर्सी हथियाना आसान नहीं था. राज्य की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लिए उन्होंने अपने ससूर से ही बग़ावत कर दी.

साल 1994 में आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव हुए. तब विधानसभा में 295 सीटें हुआ करती थीं. नतीजे आए तो TDP 216 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई. कांग्रेस के खाते में थीं 26 सीटें. CPI को 12, CPM को और 12 निर्दलीय उम्मीदवारों के हिस्से भी जीत आई थी.

TDP के अध्यक्ष और पार्टी के संस्थापक नंदमूरि तारक रामाराव विधायक दल के नेता चुने गए और मुख्यमंत्री बने. CM रामाराव ने कैबिनेट में अपने दामाद और युवा नेता चंद्रबाबू नायडू को जगह दी. उन्हें वित्त मंत्री बनाया. नायडू ने रामाराव की बेटी नारा भुवनेश्वरी की शादी की थी.

यहां तक सब कुछ ठीक था लेकिन एक साल बाद परिवार के भीतर का विवाद पार्टी के सिर चढ़ने लगा. और यहां एक और किरदार सामने आता है. ये रामाराव की दूसरी पत्नी लक्ष्मी शिव पार्वती थीं. इंडिया टुडे हिंदी के 15 सितंबर, 1995 के अंक में अमरनाथ के. मेनन लिखते हैं, “तीन साल पहले रामाराव से मिलकर लक्ष्मी पार्वती ने उनकी जीवनी लिखने की इच्छा प्रकट की थी. बाद में वे उनकी परिचारिका (होस्टेस) बन गईं और 1992 के आखिर में उनकी पत्नी बनीं. अगले साल यानी 1993 में रामाराव को लकवा मार गया तो लक्ष्मी पार्वती ने ही उनकी देखभाल की जबकि उनकी संतानें उनका साथ छोड़ चुकी थीं. आलोचक भी मानते हैं कि विधानसभा चुनाव में तेलुगू देशम की जीत का श्रेय बहुत हद तक लक्ष्मी पार्वती को जाता है.”

एनटी रामाराव के साथ उनकी पत्नी लक्ष्मी पार्वती
एनटी रामाराव के साथ उनकी पत्नी लक्ष्मी पार्वती

दरअसल परिवार में तो लक्ष्मी का हस्तक्षेप था ही लेकिन अब पार्टी में भी उनकी सक्रियता बढ़ने लगी थी. 1995 में आंध्र प्रदेश में निकाय चुनाव होने वाले थे. 12 मार्च को रामाराव ने उम्मीदवारों की घोषणा की. तब पार्टी में इस बात पर सिर-फुटव्वल शुरू हो गया कि टिकट बंटवारे में लक्ष्मी की भूमिका रही है. उन पर अपने ख़ास लोगों को टिकट दिलाने के आरोप लगे.

यहीं वो स्विचिंग मोमेंट था जिसने पार्टी में बग़ावत को हवा दी. हालांकि ऐसा लगता है कि TDP प्रमुख पार्टी में तैयार होती फूट की ज़मीन को समझ नहीं पाए. इस बात को उन्होंने तब भी गंभीरता से नहीं लिया जब उन्हीं की छोड़ी हुई तेक्काली सीट पर उनके बेटे हरिकृष्ण और लक्ष्मी पार्वती की नज़रें टिक गईं. इस पारिवारिक संकट से उबरने के लिए रामाराव ने दोनों में से किसी को टिकट नहीं दिया. लेकिन हरिकृष्ण इसे अपनी हार ही मान रहे थे. और उनका ये मानना तब और मजबूत हो गया जब नेल्लूर से हरिकृष्ण के सहयोगी विधायक टी. रमेश रेड्डी को पार्टी से निलंबित कर दिया गया. हरिकृष्ण ने अपने पिता और लक्ष्मी पार्वती के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. लक्ष्मी के खिलाफ मोर्चे में रामाराव के एक और दामाद सांसद वेंकटेश्वर राव भी शामिल हो गए, जिनका चंद्रबाबू नायडू से ख़ास लेना-देना नहीं था.

ये खींचतान जुलाई-अगस्त के महीने में चल रही थी. और आख़िरकार वो दिन आया जब इस पूरी लड़ाई में चंद्रबाबू नायडू पूरी ताकत के साथ मैदान संभाल लेते हैं. तारीख़ 22 अगस्त, 1995. नायडू ने पार्टी के विधायकों को हैदराबाद आने के लिए कहा. बागियों का एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री रामाराव से मिला. इसमें तीन प्रमुख मांगें थीं- लक्ष्मी पार्वती के पर कतरना, उनके वफादार 7 मंत्रियों को हटाना और पार्टी की राज्य कार्यकारिणी का दोबारा गठन. सीएम ने इनमें से एक भी मांग नहीं मानीं.

मांग ठुकराए जाने के बाद 25 अगस्त को बागी विधायकों ने नायडू को अपना नेता चुन लिया. 24 घंटे के भीतर नायडू ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावा पेश किया. उधर रामाराव ने राज्यपाल कृष्णकांत के सामने विधानसभा भंग करने की पेशकश कर दी. यहां बगावत के बाद TDP का नंबर गेम समझना ज़रूरी है. पार्टी ने चुनाव में 214 सीटें जीती थीं. लेकिन विद्रोह के बाद 178 विधायक नायडू के साथ हो गए. NTR के पास सिर्फ 36 विधायकों का समर्थन था.

TDP विद्रोही गुट के तीन नेतृत्वकारी- चंद्रबाबू नायडू (बाएं), वेंकटेश्वर (बीच में) और हरिकृष्ण (दाएं)
TDP विद्रोही गुट के तीन नेतृत्वकारी- चंद्रबाबू नायडू (बाएं), वेंकटेश्वर (बीच में) और हरिकृष्ण (दाएं)

इंडिया टुडे की रिपोर्ट में अमरनाथ के. मेनन लिखते हैं, “विरोधी खेमे में जाने के लिए बेटे बालकृष्ण को कोसने के दो दिन बाद ही रामाराव ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया और नायडू को मुख्यमंत्री बनाने की बात छोड़कर विरोधी खेमे की सारी मांगें मान लेने की इच्छा जताई. बताया जाता है कि नायडू ने डिप्टी सीएम बनाए जाने के रामाराव के प्रस्ताव को सीधे ठुकरा दिया. उन्होंने कहा कि जो विधायक उनकी तरफ आ गए हैं वे रामाराव के नेतृत्व को कभी स्वीकार नहीं करेंगे.”

अपनी पार्टी के मुखिया की बात ना ही बालकृष्ण ने मानी और ना ही चंद्रबाबू नायडू ने. राज्यपाल ने रामाराव से 31 अगस्त को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने को कहा लेकिन उन्होंने ये नौबत नहीं आने दी और इस्तीफा दे दिया. यहां आंध्र की पॉलिटिक्स का एक सिरा दिल्ली से जाकर जुड़ता है. राज्यपाल की ओर से बहुमत साबित करने का मौका मिलने पर पूर्व प्रधानमंत्री और राष्ट्रीय मोर्चा के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह के समझाने पर रामाराव इस्तीफा देने के लिए राज़ी हो गए.

दरअसल TDP में हुई इस टूट ने केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा को काफी नुक्सान पहुंचाया. राष्ट्रीय मोर्चा तब केंद्र की राजनीति में बीजेपी और कांग्रेस के सामने खुद को एक विकल्प के तौर पर पेश करने की जुगत कर रहा था. मोर्चा की कमान NTR के ही हाथों में थी. लेकिन अपनी ही पार्टी में बगावत का सामना करने की वजह से पूरे देश में मोर्चा के कमजोर होने का संदेश गया.

राष्ट्रीय और राज्य की राजनीति में ये NTR का अस्त और नायडू का उदय था. नायडू ने 1 सितंबर, 1995 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. 45 साल की उम्र में वो पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. करीब 3 दशक बाद यही नायडू 12 जून, 2024 को चौथी बार राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे. तब उनके ससुर एनटी रामाराव राष्ट्रीय मोर्चा के लिए कमजोर कड़ी साबित हुए. तो अब नायडू केंद्र में NDA सरकार के लिहाज से एक अहम किरदार बनकर उभरे हैं.

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