सूरत का वह अनोखा प्रयोग, जो बताता है कि प्रदूषण घटाकर भी तरक्की हो सकती है!
सूरत में चल रहा यह अपने आप में पहला प्रयोग है, जो भारत जैसे विकासशील देशों में औद्योगीकरण से होने वाले प्रदूषण से निपटने का तरीका बदल सकता है

सूरत ने वायु प्रदूषण से लड़ने का एक नया रास्ता दिखाया है. शिकागो यूनिवर्सिटी, येल यूनिवर्सिटी और वारविक यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की एक स्टडी, जो मई में जर्नल ऑफ इकोनॉमिक्स में छपेगी, बताती है कि एक खास ‘प्रदूषण बाजार’ हानिकारक कणों को 20-30 फीसदी तक घटा सकता है. यह कारोबारियों का पैसा भी बचाता है और सरकार के लिए साफ हवा के नियम लागू करना आसान बनाता है.
यह अपने आप में पहला प्रयोग है, जो भारत जैसे विकासशील देशों में औद्योगीकरण से होने वाले प्रदूषण से निपटने का तरीका बदल सकता है. विशेषज्ञों का कहना है कि वायु प्रदूषण औसतन इंसान की जिंदगी से साढ़े तीन साल छीन लेता है. कोयला जलाने वाली फैक्ट्रियां और पावर प्लांट छोटे-छोटे कण (पार्टिकुलेट मैटर) छोड़ते हैं, जो फेफड़ों में गहराई तक घुसकर दिल की बीमारियां, फेफड़ों के रोग, और यहां तक कि जल्दी मौत का कारण बनते हैं.
भारत में लगभग हर शख्स ऐसी हवा में सांस लेता है, जो स्वास्थ्य विशेषज्ञों के ‘सुरक्षित’ मानकों से कई गुना खराब है—कभी-कभी 10 गुना तक. सालों से सरकार सख्त नियमों से प्रदूषण रोकने की कोशिश कर रही है, फैक्ट्रियों को बता रही है कि वे कितना प्रदूषण फैला सकती हैं. लेकिन इन नियमों को लागू करना मुश्किल है, और कारोबारी शिकायत करते हैं कि ये बहुत महंगे हैं.
यहीं से ‘प्रदूषण बाजार’ की बात उपजती है. इसे एक सब्जी मंडी की तरह समझिए, जहां सेब या टमाटर की जगह प्रदूषण के ‘परमिट’ बिकते हैं. सरकार किसी इलाके की सभी फैक्ट्रियों के लिए कुल प्रदूषण की सीमा तय करती है. हर फैक्ट्री को उस सीमा का एक हिस्सा मिलता है, यानी वह उतना प्रदूषण कर सकती है. अगर कोई फैक्ट्री अपने हिस्से से कम प्रदूषण करती है, तो वह बचे हुए ‘टिकट’ को दूसरी फैक्ट्री को बेच सकती है, जो सीमा में रहने के लिए जूझ रही हो. इस तरह कुल प्रदूषण सरकार की सीमा में रहता है, कारोबारियों को लचीलापन मिलता है, और कुछ को अतिरिक्त ‘क्रेडिट’ बेचकर कमाई भी होती है.
2019 में गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी) के साथ शुरू हुए सूरत प्रयोग में 317 बड़े कोयला आधारित प्लांट शामिल थे. आधे को बेतरतीब ढंग से एमिशन्स ट्रेडिंग सिस्टम (ईटीएस) में रखा गया, बाकी पुराने नियमों के तहत रहे. जीपीसीबी ने सभी प्लांट्स में कंटीन्यूअस एमिशन्स मॉनिटरिंग सिस्टम (सीईएमएस) लगवाया, जो पहले की छिटपुट जांच से बड़ा कदम था. ईटीएस में कुल पार्टिकुलेट उत्सर्जन की सीमा तय की गई, और परमिट बांटे गए. जिन प्लांट्स ने अपनी सीमा से कम उत्सर्जन किया, वे अतिरिक्त परमिट बेच सकते थे.
नतीजे चौंकाने वाले थे. ईटीएस वाले प्लांट्स ने कंट्रोल ग्रुप की तुलना में उत्सर्जन 20-30 फीसदी घटाया, प्रदूषण नियंत्रण की लागत 11 फीसदी कम की (जिससे मुनाफा बढ़ा), और परमिट नियमों का 99 फीसदी पालन किया. वहीं, गैर-ईटीएस प्लांट्स ने कम-से-कम एक-तिहाई बार प्रदूषण सीमा का उल्लंघन किया.
भारत में, जहां वायु प्रदूषण एक 'साइलेंट किलर' है, यह बड़ी बात है. स्टडी की अहमियत इस बात में है कि यह साबित करती है कि कमजोर रेगुलेशन वाले देशों में भी प्रदूषण बाजार काम कर सकता है. शोधकर्ता ग्रीनस्टोन ने कहा, "इस बाजार ने तीनों मोर्चों पर जीत हासिल की- प्रदूषण कम किया, लागत घटाई, और नियम लागू करने में सरकार की कामयाबी बढ़ाई."
यह सफलता उन आलोचनाओं को भी खारिज करती है, जो मानती थीं कि सीमित ढांचे में बाजार आधारित समाधान काम नहीं करेंगे. स्टडी कहती है कि स्वच्छ हवा और जिंदगियां बचाने जैसे फायदे इस बाजार को चलाने की लागत से कम-से-कम 25 गुना ज्यादा हैं.
सूरत की कामयाबी की चर्चा अब चारों ओर है. स्थानीय सरकार ने सभी फैक्ट्रियों को इस बाजार में शामिल कर लिया है और अहमदाबाद में नया बाजार शुरू किया है. अन्य प्रदूषकों और औद्योगिक समूहों को शामिल करने की योजना है, जबकि एक और भारतीय राज्य सल्फर डाइऑक्साइड के लिए ईटीएस बना रहा है.
शोधकर्ता भारत के अन्य हिस्सों और दुनिया के देशों में भी ऐसे प्रयोगों में मदद कर रहे हैं. इसी से जुड़े एक शोधकर्ता बताते हैं, "यह एक सबूत है कि कमजोर प्रशासनिक क्षमता वाले देशों में भी अनुपालन का बाजार काम कर सकता है." पार्टिकुलेट्स के अलावा, ईटीएस कार्बन उत्सर्जन को भी संबोधित कर सकता है, जो विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन से निपटने का एक बड़ा हथियार बन सकता है.
सूरत का यह प्रयोग दिखाता है कि साफ हवा और कारोबार की तरक्की में से किसी एक को चुनना जरूरी नहीं. जब दुनिया की 92 फीसदी आबादी असुरक्षित हवा में सांस ले रही है, सूरत का मॉडल आर्थिक और पर्यावरणीय प्राथमिकताओं को संतुलित करने की राह दिखाता है. ग्रीनस्टोन के शब्दों में, यह सफलता "दूसरी सरकारों में खासी दिलचस्पी जगा रही है." उन करोड़ों लोगों के लिए, जो रोज गंदी हवा में सांस ले रहे हैं, यह स्टडी न सिर्फ उम्मीद देती है, बल्कि एक ऐसा रास्ता भी, जो दुनिया को सेहतमंद बना सकता है.