आठ हजार की सैलरी से शुरुआत कर सुशील सिंह ने अपना 80 करोड़ का काराबोर कैसे खड़ा किया?

भारत से अमेरिका तक अपने काम को विस्तार दे चुके एसएसआर टेकविजन के संस्थापक सुशील सिंह युवाओं को बिजनेस करने की सलाह देते हैं. इन सब के बीच उन्हें गर्व है कि वो उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव से आने वाले अंडर ग्रेजुएट हैं

एसएसआर टेकविजन के संस्थापक और सीईओ सुशील सिंह
एसएसआर टेकविजन के संस्थापक और सीईओ सुशील सिंह

नोएडा के सेक्टर-64 में एसएसआर टेकविजन (SSR Techvision) के जिस दफ्तर में हम बैठे थे वहां सुशील सिंह (Sushil Singh) पहली बार 2015 में आए थे. बिल्डिंग के बेसमेंट में किराए पर चार टेबल लगाने लायक जगह मिली. आज ये पूरी बिल्डिंग ही उनकी है. 2017 में उन्होंने इसे खरीद लिया.

हमारी मुलाकात जिस केबिन में हुई उसकी बुनावट आधुनिक दिखती है. दरवाजे के ठीक सामने पिछले दीवार से लगा हुआ एक सोफा है. जिस पर सुशील सिंह खुद बैठे हैं. इसके बाद बची-खुची जगह जिम के सेटअप ने घेर रखा है. तरह-तरह के उपकरण रखे हुए हैं इस सेटअप में. एक क्रिकेट किट भी रखा है. एक छोटा चमकता हुआ टेबल है जिसपर एक प्लेट में कटे हुए सेब और अमरूद रखे हैं. टेबल के ही पास नीचे एक कोल्ड ड्रींक का केन रखा हुआ है.

जिम, फल, कोल्ड ड्रींक और मिठाइयों के शौक की चौकड़ी से जो विरोधाभास पनपता है वो सुशील सिंह के अब तक के करियर में साफ झलकता है. एसएसआर टेकविजन के ऑफिस से साढ़े सात सौ किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश का जौनपुर जिला पड़ता है. सुशील को जौनपुर के मड़ियाहूं तहसील स्थित अपने कटौना गांव की याद 3 साल की उम्र से है. जब उन्हें पूरा सुंदरकांड याद हो गया था और दादा द्वारका सिंह लोगों के सामने बार-बार इसकी प्रस्तुति करवाते थे.

छह बहनों के इकलौते भाई सुशील की शुरुआती पढ़ाई पड़ोस के गांव दुबेपुर की एक प्राइमरी स्कूल में हुई. कच्चे मकान और बारिश के दिनों में टपकते छत वाले इस स्कूल में आते हुए उन्हें कुछ ही महीने हुए थे कि चार साल की उम्र में पिता आदित्य नारायण सिंह के साथ मुंबई जाना पड़ा. 

पिता सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करने के लिए मुंबई आए थे. एक राइफल लेकर अलग-अलग जगहों पर गार्ड बनकर खड़े रहते थे. ये वही राइफल था जो उन्होंने 1978 में शिकार खेलने के लिए खरीदा था. सुशील सिंह बताते हैं, “हमारा खानदान जमींदार था. लेकिन वैसे जमींदार जिनके पैसे खत्म होने लगे थे.

आलम ये हुआ कि शौक में शिकार खेलने के लिए पापा ने जो बंदूक लिया, वही लेकर गार्ड की नौकरी करने पर मजबूर हो गए.” ये कहते हुए वो मुंबई में पढ़ाई का किस्सा सुनाने लगे. डोंबिवली के बावनचाल में रहते हुए पहले साल स्कूल में दाखिला नहीं हो सका. क्योंकि प्रवेश के लिए पहले की पढ़ाई का कोई दस्तावेज नहीं था. जैसे-तैसे एक स्कूल में जाना शुरू किया.

10वीं कक्षा तक पढ़ाकू रहे सुशील जब 11वीं में पहुंचे तो पढ़ाई से ध्यान भटकने लगा था. इस कदर मन हटा कि 12वीं में फेल हो गए. पढ़ाई में मन ना लगने की क्या वजह रही? जवाब मिलता है, “अब मैं मानता हूं कि वो उम्र का असर था. डोंबिवली का माहौल भी अलग था. एक दिन मुझे रामपूरी चाकू मिला. मैं घर ले जाने वाला था. लेकिन पता चला कि एक दिन पहले उसी चाकू से किसी का मर्डर कर अपराधियों ने उसे फेंक दिया था.”

सुशील सिंह 3 कंपनियों के मालिक हैं

जैसे-तैसे 12वीं पास करके आगे की पढ़ाई के लिए फिर अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश लौटे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा पास करके ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज में दाखिला लिया. कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई शुरू हुई. इस विषय में दिलचस्पी होते हुए भी थ्री-डी टॉपिक समझ नहीं पाते थे. सुशील कहते हैं, “मैं हमेशा पढ़ाई को लेकर ये सोचता था कि मेरी जिंदगी में इसका क्या फायदा है? क्योंकि मेरी छह बहनें थीं. अकेला मैं लड़का था. बहनों की शादी की जिम्मेदारी थी.”

ग्रेजुएशन के दूसरे साल सुशील में अपने एक दोस्त दिलीप कुमार दुबे- उत्तर प्रदेश सचिवालय में कार्यरत- से सलाह करके पढ़ाई छोड़ने का निर्णय ले लिया. इलाहाबाद से निकले तो उनकी जिंदगी में एक और बड़े शहर दिल्ली ने एंट्री ली. इसी दौरान ट्यूबरक्लोसिस की बीमारी से ग्रसित हो गए.

ट्यूबरक्लोसिस के इलाज की कहानी दिलचस्प है. घर वाले कई डॉक्टरों के चक्कर लगा चुके थे. लेकिन बीमारी जस की तस बनी रही. पिता एक अस्पताल के सिक्योरिटी गार्ड थे. जिनके डॉक्टर ने सुशील को खांसते हुए देखकर इलाज के लिए बुलाया. उन्हीं के उपचार से सुशील को इस बीमारी से निजात दिलाई.

2004 में सुशील को पहली नौकरी मिली. भारतीय एयरटेल की आउटसोर्सिंग में उन्होंने काम किया. अपने पहले दफ्तर के बारे में उन्हें सब कुछ याद है- ओखला में D-181 की आलीशान बिल्डिंग, शानदार सोफे और स्वादिष्ट खाना. इसके बाद एकाध कॉल सेंटर में भी काम किया. नोएडा की एक कंपनी में उनकी मुलाकात सरिता नाम की एक लड़की से हुई. यही लड़की अक्टूबर, 2013 में उनकी पत्नी बनी. सुशील याद करते हैं, “हम दोनों एक ही बॉस को रिपोर्ट करते थे. लेकिन हमारी बात नहीं होती थी. क्योंकि मैं रात की शिफ्ट में रहता था और वो दिन में. जब बात शुरू हुई तो छह महीने में ही हमने शादी का मन बना लिया.”

शादी को अपने जीवन का टर्निंग प्वाइंट बताने वाले सुशील ने 2015 में एसएसआर टेकविजन की नींव रखी. ये कंपनी मुख्य तौर पर आउटसोर्सिंग का काम करती है. किराए के एक कमरे में चार कंप्यूटर रखकर शुरू की गई कंपनी का एक दफ्तर आज अमेरिका में भी है. 300 से ज्यादा लोग एसएसआर टेकविजन के लिए काम कर रहे हैं. 80 करोड़ से ज्यादा नेटवर्थ की इस कंपनी के अलावा ‘साइवा सिस्टम’ उनकी दूसरी कंपनी है जो पूरी दुनिया में आईटी कंसल्टेंसी का काम करती है. पत्नी सरिता सिंह भी बिजनेस में उनके कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं. कपड़ों के मशहूर ब्रांड डिबाको की संस्थापक हैं और ये 150 करोड़ की कंपनी हो चुकी है.

एसएसआर टेकविजन दूसरी कंपनियों के काम के लिए कर्मचारियों से लेकर टेक्निकल समाधान तक मुहैया कराती है. जैसे कि मान लीजिए किसी कंपनी का कॉल सेंटर है. जिसे काम करने के लिए एक सॉफ्टवेयर की जरूरत है. जहां उनके उपभोक्ताओं के डाटा उपलब्ध रहें. साथ ही उपभोक्ताओं की समस्याओं को हल करने के लिए कुछ लोगों की भी आवश्यकता होगी. ऐसे में कंपनी एसएसआर टेकविजन से संपर्क करेगी.

बाजार के मानकों के हिसाब से एक डील होगी. डील होते ही वो कंपनी एसएसआर टेकविजन की क्लाइंट कहलाएगी. अब एसएसआर अपने क्लाइंट के लिए एक सॉफ्टवेयर तैयार करेगी और साथ ही कर्मचारियों की नियुक्ति करेगी जो इस कार्य के लिए पारंगत हों. इसे थर्ड पार्टी सिस्टम भी कहते हैं. जहां एक कंपनी में काम कर रहे कर्मचारी किसी दूसरी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट में होते हैं.

सुशील सिंह की दूसरी कंपनी साइवा सिस्टम आईटी के क्षेत्र में यही कार्य करती है. साइवा सिस्टम अलग-अलग आईटी कंपनियों के लिए स्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति और अनुबंध आधारित कर्मचारियों की नियुक्ति करती है. साथ ही डिजिटल माध्यमों पर काम करने का मॉडल मुहैया कराती है. जिसके लिए साइवा सिस्टम को एक डील के तहत तय रकम मिलती है.

बस का किराया नहीं होने से लेकर मर्सिडीज से चलने तक की इस यात्रा में सुशील ने अपने रहन-सहन का सलीका बदल लिया है. क्रिकेट खेलने के शौकीन सुशील को जूते खरीदना पसंद है. घर के एक अलमारी में करीब 80 जूते रखे हैं. कुछ ऑर्डर देकर बनवाए गए हैं, जिनके किनारे पर उनका नाम दर्ज है. जूते और महंगे कपड़ों की जब बात हो रही थी तभी एक किस्सा दिमाग में कौंधता है कि 11वीं कक्षा में उनके पास स्कूल ड्रेस का सिर्फ एक शर्ट था. जिसकी जेब पर कलम की स्याही का दाग लग चुका था. लेकिन पैसों की किल्लत ऐसी थी कि वही दागदार शर्ट पहनकर स्कूल जाते थे.

बच्चों के सामने ऐसी नौबत नहीं आए, इसका पूरा इंतजाम है. 12वीं में फेल, ग्रेजुएशन ड्रॉप आउट और कॉल सेंटर में काम करके सुशील आज करोड़पति बिजनेसमैन हो चुके हैं. लेकिन उन्हें अभी और भी बहुत कुछ होने का शौक है. कुछ-कुछ हो जाने के सिलसिले में वो एक मशहूर स्टैंडअप कमेडियन और पॉडकास्ट होस्ट भी हो जाने का ख्वाब बुन रहे हैं.

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