जब सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड से कहा - ताजमहल आपका है तो कागज दिखाइए

यूपी के सुन्नी वक्फ बोर्ड ने 2005 में ताजमहल को वक्फ की संपत्ति के रूप में रजिस्टर कर लिया था

2004 में ताजमहल/इंडिया टुडे
2004 में ताजमहल/इंडिया टुडे

विवादित वक्फ संशोधन बिल के ऊपर 18 से 20 सितंबर तक संसद की संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) चर्चा करेगी. इसी साल 8 अगस्त को जब इस बिल को लोकसभा से पारित किया गया था तब विपक्ष के विरोध के बाद उसी दिन एनडीए सरकार ने इसे जेपीसी के पास भेजने के लिए हामी भर दी थी.

इस बीच गृहमंत्री अमित शाह ने 17 सितम्बर को बयान दिया है कि आने वाले दिनों में वक्फ संशोधन बिल संसद से पास हो जाएगा. सरकार का इस बिल को लाने के पीछे उद्देश्य वक्फ बोर्ड की कथित मनमानी को रोकना है जिसमें वे किसी भी संपत्ति को वक्फ के दायरे में ले आते हैं. ऐसे में जानते हैं उस मामले के बारे में जब यूपी की सुन्नी वक्फ बोर्ड ने ताजमहल के ऊपर अपना दावा ठोक दिया था.

कहां से शुरू हुई कहानी?

कहानी शुरू होती है 1998 से, जब यूपी के फिरोजाबाद के एक व्यापारी इरफ़ान बेदार ने यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड से गुजारिश की थी कि ताजमहल को वक्फ की संपत्ति घोषित कर बोर्ड उन्हें वहां का मुतवल्ली या केयर टेकर बना दे. चूंकि यह ऐतिहासिक स्मारक भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अंतर्गत आती थी, बोर्ड ने एएसआई को इस संबंध में एक नोटिस जारी किया.

2018 में यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष जुफर अहमद फारूकी ने मीडिया को बताया था कि जब बोर्ड ने ताजमहल को सीधा वक्फ संपत्ति घोषित करने की जगह एएसआई को नोटिस भेजा, तब 2004 में इरफान बेदार खुद ही इस मामले को लेकर इलाहबाद हाई कोर्ट पहुंच गए और उन्हें ताजमहल का मुतवल्ली बनाने की मांग की.

इलाहबाद हाई कोर्ट ने सुन्नी वक्फ बोर्ड को ही इस अपील पर विचार करने को कहा जिसके बाद 2005 में यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने ताज को वक्फ संपत्ति के रूप में पंजीकृत करने का निर्णय ले लिया. फारुकी के मुताबिक एएसआई ने वक्फ संपत्तियों से संबंधित विवाद के सभी मामलों के लिए प्रथम अपीलीय प्राधिकरण - वक्फ न्यायाधिकरण - के पास जाने के बजाय, इस निर्णय के खिलाफ सीधे सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.

साल 2010 में जाकर सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ बोर्ड के इस निर्णय पर रोक लगा दी और वक्फ बोर्ड से इस बात के सुबूत मांगे कि वक्फ बोर्ड कैसे ताजमहल पर अपना दावा कर रहा है.

कैसे हुई राजनीति?

इस बीच 2014 में उत्तर प्रदेश के नगर विकास एवं अल्पसंख्यक मामलों के तत्कालीन मंत्री आजम खान ने कहा कि दुनिया के अजूबों में से एक ताजमहल को राज्य के वक्फ बोर्ड की संपत्ति घोषित किया जाना चाहिए. आजम, जो राज्य की समाजवादी पार्टी की सरकार में वक्फ मंत्री भी थे, ने 13 नवंबर, 2004 को कहा था कि ताजमहल को वक्फ संपत्ति घोषित किया जाना चाहिए और उन्हें इसका प्रभार दिया जाना चाहिए.

तब उन्होंने यह भी कहा था कि यह जायज़ इसलिए है क्योंकि ताजमहल दो मुसलमानों, शाहजहां और उनकी पत्नी मुमताज का मकबरा है. खान की दलील थी, "हर जगह मुसलमानों की कब्रें सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधीन हैं. ताजमहल में दो मुसलमानों की कब्रें हैं." यह दलील उन्होंने लखनऊ में मुस्लिम नेताओं की एक बैठक के दौरान दी थी. इसमें वक्फ बोर्ड के सदस्य शामिल थे.

इस बैठक में लखनऊ ईदगाह के तब इमाम रहे मौलाना खालिद रशीद फिरंगीमहली, जो समाजवादी पार्टी के करीबी भी रहे थे, ने उसी मंच पर मुख्यमंत्री (अखिलेश यादव) से मुसलमानों के लिए ताजमहल को खोलने की मांग कर दी. उन्होंने कहा, "हमें दिन में पांच बार ताजमहल में नमाज अदा करने की अनुमति दी जानी चाहिए. हमने मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन सौंपा है और उन्होंने इसे सकारात्मक रूप से लिया है." दूसरी ओर, तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 17वीं सदी के इस स्मारक के आगंतुकों के लिए जल्द से जल्द ई-टिकटिंग की व्यवस्था करने के लिए पत्र लिखा था.

अब आजम खान के इस बयान के बाद बवाल होना तय था. तत्कालीन वक्फ मंत्री के बयान पर पलटवार करते हुए शिया नेता और लखनऊ के इमाम-ए-रज़ा कमिटी के अध्यक्ष सैयद फैयाज हैदर ने कहा, "ताजमहल हमें दे दिया जाना चाहिए. मुमताज एक शिया थीं, जिनका असली नाम अर्जुमन बानो था. ताज की वास्तुकला इसके शिया कनेक्शन का सबूत है. मस्जिद के पास एक पानी की टंकी है, जो मकबरे के पश्चिम की ओर स्थित है. हम सभी जानते हैं कि शिया नमाज़ अदा करने से पहले पानी की टंकी से वजू करते हैं." इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मुमताज के शव को बुरहानपुर (जहां उनकी मृत्यु हुई) में खोदकर निकाला गया था और दफनाने के लिए एक ताबूत में ताजमहल लाया गया था, जो एक शिया रिवाज था.

जब इंडिया टुडे ने हैदर से 2014 में पूछा कि क्या वे ताजमहल से होने वाली कमाई के लिए स्मारक का स्वामित्व मांग रहे हैं तब उनका कहना था, "हमें ताजमहल से होने वाली कमाई नहीं चाहिए, हमें तो बस मुहर्रम के मौके पर (ताजमहल परिसर के भीतर) खुद को कोड़े मारने की इजाजत चाहिए."

ऐसी ही मांगों और प्रति-मांगों के बीच, इंडिया टुडे ने 2014 में यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा नियंत्रित कुछ ऐतिहासिक इमारतों-ढांचों का दौरा किया था. सभी मामलों में यही देखा गया कि एएसआई ही इनका रखरखाव करती थी, जबकि वक्फ बोर्ड इस मामले में सुस्त ही रहता है. उदाहरण के लिए, आगरा की जामा मस्जिद की अगर बात करें, जिसका निर्माण मुग़ल बादशाह शाहजहां ने करवाया था. उन्होंने इस मस्जिद को अपनी बेटी जहांआरा बेगम को समर्पित किया था. उत्तर प्रदेश केंद्रीय सुन्नी वक्फ बोर्ड को इस मस्जिद का नियंत्रण मिला था.

2014 में इंडिया टुडे ने देखा कि इसके परिसर में 82 दुकानें हैं, जहां से बोर्ड हर महीने 17,000 रुपये का किराया वसूलता था. लेकिन यह एएसआई था जो अपने संसाधनों से इस इमारत का रखरखाव कर रहा था.

हालांकि तभी ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रवक्ता यासूब अब्बास ने कहा था कि ताजमहल एक हेरिटेज साइट है जिसे वक्फ बोर्ड को नहीं सौंपा जा सकता, चाहे वह सुन्नी हो या शिया. अब्बास का कहना था, "हम सुन्नी या शिया की ऐसी मांगों से सहमत नहीं हैं. यह सच है कि मुमताज शिया थीं, लेकिन ताजमहल एक हेरिटेज साइट है. सुन्नी और शिया वक्फ बोर्ड अपनी मौजूदा संपत्तियों का प्रबंधन नहीं कर सकते, इसलिए ताजमहल को नियंत्रित करने की कोई भी मांग अनुचित है. उन्हें ताजमहल को छोड़ देना चाहिए."

इतिहासकारों ने क्या कहा?

आजम खान के ताजमहल वाले बयान पर तब देश के कई जाने-माने इतिहासकार भी भड़क गए थे. लगभग सभी की एकमत राय थी कि ताजमहल को सुन्नी वक्फ बोर्ड को सौंपने का विचार, लोकप्रियता पाने की एक सस्ती कोशिश है. प्रसिद्ध इतिहासकार डी.एन. झा ने तब राजनेताओं के ऐसे बयानों की सर्वसम्मत निंदा करने की बात करते हुए कहा कि उनसे स्वार्थी उद्देश्यों के लिए इतिहास को फिर से परिभाषित करने के प्रयास की बू आती है.

उन्होंने कहा था, "हर चीज को सांप्रदायिक बनाने का क्या मतलब है? यह एक अनुचित मांग है. राजनेताओं कि तरफ से इतिहास का उपयोग करके राय को विभाजित करने की यह प्रवृत्ति खतरनाक है. इतिहासकारों को इसका मुकाबला करना चाहिए. सभी हेरिटेज साइट्स एएसआई के पास ही रहनी चाहिए."

इतिहासकार सोहेल हाशमी ने भी इस मामले में कहा था कि इस तरह के बयानों का कोई मतलब नहीं है और यह केवल सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए है. उन्होंने इतिहास का हवाला देते हुए कहा था, "ताजमहल कोई तीर्थस्थल नहीं है और पहले के समय में वहां नमाज अदा करने की कोई परंपरा नहीं थी. हम इस विरासत को हिंदू और मुस्लिम विरासत में विभाजित नहीं होने दे सकते." हाशमी का कहना था कि प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम, 1958 के तहत, ऐतिहासिक, पुरातत्व और स्थापत्य महत्व के सभी स्मारक एएसआई की जिम्मेदारी हैं, सिवाय उन स्थानों के जहां प्रार्थना की जाती है.

सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

10 अप्रैल, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड से कहा कि अगर बोर्ड चाहता है कि अदालत विश्व प्रसिद्ध स्मारक ताजमहल पर बोर्ड के दावे को स्वीकार करे तो उसे ताजमहल को वक्फ संपत्ति के रूप में सौंपने वाले शाहजहां के हस्ताक्षर वाले मूल दस्तावेज पेश करने होंगे.

दरअसल, सुन्नी वक्फ बोर्ड ने वरिष्ठ अधिवक्ता वी वी गिरी के माध्यम से इस बात पर जोर दिया कि शाहजहां ने ही ताजमहल को वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया था. इस पर तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा और जस्टिस ए.एम. खानविलकर और जस्टिस (अब सीजेआई) डी वाई चंद्रचूड़ की तीन सदस्यीय बेंच ने मूल स्वामित्व वाले दस्तावेजों को देखने की मांग की.

तत्कालीन सीजेआई दीपक मिश्रा ने सुन्नी वक्फ बोर्ड से सुनवाई के दौरान पूछा था, "भारत में कौन स्वीकार करेगा कि ताजमहल वक्फ बोर्ड का है?" उन्होंने आगे कहा, "यह आपको कब दिया गया? आप कब आए? 250 से ज़्यादा सालों तक ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्ज़े में रहा. उसके बाद यह केंद्र सरकार के पास चला गया. एएसआई इसके प्रबंधन का प्रभारी रहा है और इसी के पास प्रशासन का अधिकार था."

शाहजहां वाली बात पर सीजेआई ने कहा, "शाहजहां तो जेल में था. वह ताज को देख रहा था. मैं शाहजहां की लिखावट देखना चाहता हूं, अगर ऐसा कोई दस्तावेज है तो उसके हस्ताक्षर देखना चाहता हूं. उसकी लिखावट, उसके हस्ताक्षर देखना बहुत दिलचस्प होगा." ये दस्तावेज पेश करने के लिए कोर्ट ने सुन्नी वक्फ बोर्ड को एक हफ्ते का समय दिया.

इस बीच मीडिया से बात करते हुए बाबरी मस्जिद विवाद में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील रहे जफरयाब जिलानी ने कहा था कि शाहजहां के हस्ताक्षर दिखाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि कानून कहता है कि मकबरे और कब्रें वक्फ हैं. उनका कहना था, "एक कब्र और उसके ऊपर बनी कोई भी इमारत हमेशा वक्फ होती है और यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने खुद सुनाया है."

हालांकि 17 अप्रैल, 2018 को अगली सुनवाई के दौरान यूपी सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि ताजमहल का मालिकाना हक़ अल्लाह के पास है, लेकिन व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए इसे सुन्नी वक्फ बोर्ड की संपत्ति के रूप में सूचीबद्ध किया जाना चाहिए.

बोर्ड ने कोर्ट को यह भी बताया कि उसके पास शाहजहां के वंशजों के हस्ताक्षरित ऐसे कोई दस्तावेज नहीं हैं. सुन्नी बोर्ड का कहना था कि वह बिना स्वामित्व के भी ताजमहल का प्रबंधन कर सकता है. बोर्ड ने एएसआई से इस बात पर विचार करने का आग्रह किया कि क्या ताजमहल को केवल रखरखाव के लिए अपनी संपत्ति के रूप में पंजीकृत किया जा सकता है.

एएसआई ने इसका सख्त विरोध करते हुए अपनी चिंता बताई कि ताजमहल के स्वामित्व पर हस्ताक्षर करने से अन्य समस्याएं पैदा होंगी और लाल किले और फतेहपुर सीकरी के लिए इसी तरह के दावे किए जाएंगे.

हालांकि बाद में यूपी वक्फ बोर्ड ने खुद ही ताजमहल से अपना दावा वापस ले लिया. 

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