आपातकाल, शाह कमीशन की रिपोर्ट और इसके इर्द-गिर्द नाचती राजनीति की क्या है पूरी कहानी?
हाल ही में संसद में मांग की गई है कि 1975 में आपातकाल की ज्यादतियों की जांच करने के लिए गठित शाह कमीशन की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए

करीब दो साल के आपातकाल के बाद जब देश में सातवां आम चुनाव हुआ, और जनता पार्टी की सरकार बनी तो सत्ता में आने के करीब दो महीने बाद उसने 28 मई 1977 को शाह कमीशन का गठन किया. इसका गठन आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों के आरोपों के बारे में पता लगाने के लिए था.
शाह कमीशन ने अपने तरीके से इसके बारे में जांच की, रिपोर्ट भी सबमिट किया, लेकिन आज तक वो रिपोर्ट सामने नहीं लाई जा सकी. क्यों? इसका जवाब आगे है. वैसे संसद में एक बार फिर इसे सामने लाने की मांग की गई है. ऐसे में पूरा मामला क्या है, आइए समझते हैं?
दरअसल, 26 जुलाई को राज्यसभा में शून्यकाल के दौरान इस मुद्दे को उठाते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सांसद दीपक प्रकाश ने मांग की थी कि केंद्र सरकार शाह कमीशन की रिपोर्ट की एक प्रति प्रकाशित करे. उन्होंने कहा कि 1980 में जब इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आईं तो कांग्रेस सरकार ने रिपोर्ट को नष्ट कर दिया था, लेकिन ऑस्ट्रेलिया की नेशनल लाइब्रेरी में इसकी एक प्रति अभी भी मौजूद है.
दीपक की इस मांग को दोहराते हुए उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने भी इसे गंभीर और सार्वजनिक महत्व का मुद्दा बताया था. उन्होंने कहा, "भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले दौर की जांच के लिए गठित शाह आयोग की रिपोर्ट 1975 में लगाए गए आपातकाल के दौरान किए गए अत्याचारों से संबंधित है. सरकार को इसकी प्रामाणिक रिपोर्ट की संभावना पर विचार करना चाहिए और इसे सदन के पटल पर रखना चाहिए."
दिलचस्प है कि 18वीं लोकसभा चुनाव के दौरान इंडिया अलायंस के रूप में विपक्ष ने सत्ताधारी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खिलाफ "संविधान खतरे में है" का नैरेटिव बनाने में प्रभावी रूप से सफलता हासिल की थी. लेकिन अब जबकि केंद्र में मोदी 3.0 सरकार है, इसने सत्ता में आते ही कांग्रेस की कमजोर नब्ज 'आपातकाल' पर प्रहार करना शुरू कर दिया है. शाह कमीशन की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखने की मांग संभवत: इसी कवायद का हिस्सा है. क्योंकि इस रिपोर्ट का इतिहास ऐसा रहा है जो कांग्रेस को बगलें झांकने पर मजबूर करता है.
आपातकाल और शाह आयोग की रिपोर्ट
चुनाव में धांधली और नियमों के उल्लंघन के कारण जब इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने इंदिरा गांधी को एक सांसद के रूप में अयोग्य करार दिया, तो अपनी कुर्सी खोने की आशंका के चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा ने 25 जून, 1975 को संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल की घोषणा कर दी.
इसका नतीजा यह हुआ कि देश में नागरिकों की आजादी मटियामेट हो गई, जो इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधी थे उन्हें निर्मम तरीके से गिरफ्तार कर लिया गया और प्रेस पर व्यापक सेंसरशिप थोप दी गई.
लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, यह आपातकाल करीब दो साल चला. 21 मार्च, 1977 को इंदिरा ने आपातकाल हटाने की घोषणा की और लोकतांत्रिक तरीके से एक नई सरकार चुनने के लिए छठवे आम चुनाव की तारीखों का भी एलान हुआ. लेकिन चुनाव के नतीजे इंदिरा के पक्ष में नहीं रहे, और देश में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. जनता पार्टी की इस सरकार ने आपातकाल के दौरान जेल में समय बिताने वाले नेताओं में से एक मोरारजी देसाई को अपना नेता घोषित किया.
सत्ता में आने के दो महीने बाद 28 मई, 1977 को मोरारजी सरकार ने एक जांच आयोग की घोषणा की. यह आयोग आपातकाल के दौरान इंदिरा सरकार के सत्ता के दुरुपयोग, कानून का उल्लंघन और अन्य ज्यादतियों के आरोपों की जांच करने वाला था. इसके अध्यक्ष के रूप में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जयंतीलाल चोटीलाल शाह (जे.सी. शाह) को चुना गया. इसे शाह कमीशन या शाह आयोग के नाम से जाना गया.
शाह आयोग ने इस तरह जुटाए साक्ष्य
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, शाह आयोग ने आम जनता से मांग की कि वे अपनी शिकायतें उसके पास दर्ज कराएं. आयोग ने शिकायतें भेजने की आखिरी तारीख 31 जुलाई, 1977 तय की. डेडलाइन तक आयोग को कुल 48,500 शिकायतें हासिल हुईं, जिनमें से उसने जांच के लिए महत्वपूर्ण शिकायतों को छांट लिया.
इसके अलावा आयोग ने 29 सितंबर, 1977 को गवाहों से मौखिक साक्ष्य हासिल करने और ज्यादतियों के शिकार उन व्यक्तियों के साथ खुली बैठकें आयोजित कीं, जो इस मामले पर महत्वपूर्ण जानकारी दे सकते थे.
आयोग ने आपातकाल के समय इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में रहे कुछ नामचीन लोगों को भी गवाही के लिए बुलाया. उनमें से तत्कालीन कानून मंत्री एचआर गोखले, वित्त मंत्री सी सुब्रमण्यम और नागरिक उड्डयन मंत्री राज बहादुर जैसे मंत्रियों ने आयोग के सामने गवाही दी भी. हालांकि, इंदिरा गांधी ने खुद बयान देने से साफ इनकार कर दिया.
सिक्किम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वी. कृष्ण अनंत ने अपनी किताब 'इंडिया सिंस इंडिपेंडेंस: मेकिंग सेंस ऑफ इंडियन पॉलिटिक्स' में लिखा है, "इंदिरा गांधी ने हर तरह से जांच (शाह कमीशन की) को विफल करने की कोशिश की. शुरू में उन्होंने दलील दी कि वे आयोग के सामने गवाही नहीं देंगी क्योंकि एक प्रधानमंत्री के तौर पर उनके काम गोपनीयता की शपथ से बंधे हुए हैं. लेकिन जब यह रणनीति भी विफल हो गई तो उन्होंने मांग की कि उन्हें गवाही देने वाले अन्य लोगों से जिरह-बहस करने की अनुमति दी जाए. लेकिन उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी गई और आखिर में इंदिरा ने आयोग के सामने 30 मिनट से ज्यादा समय तक चले एक लंबे भाषण के अलावा कुछ भी कहने से इनकार कर दिया."
क्या था शाह कमीशन की रिपोर्ट में
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, शाह आयोग ने जनता पार्टी सरकार को दो अंतरिम और एक अंतिम रिपोर्ट पेश की थी. 11 मार्च, 1978 को पेश की गई पहली रिपोर्ट में इन बातों का ब्योरा था कि कैसे इंदिरा गांधी सरकार ने प्रमुख पदों (जैसे आरबीआई गवर्नर) पर नियुक्तियां करने के लिए कानूनी और प्रशासनिक प्रक्रियाओं को कमजोर करने का प्रयास किया. साथ ही, इसमें अवैध हिरासत और झूठी आपराधिक शिकायतों के जरिए कानून का दुरुपयोग करने के विशिष्ट उदाहरणों का विवरण शामिल था.
शाह कमीशन ने अपनी दूसरी रिपोर्ट 26 अप्रैल, 1978 को प्रस्तुत की. इसमें पुरानी दिल्ली के उस तुर्कमान गेट फायरिंग की घटना का विवरण दर्ज था, जिसमें इंदिरा गांधी के बेटे और कांग्रेस सांसद संजय गांधी पर यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने इलाके में झुग्गियों को खत्म करने, निवासियों को बाहर निकालने और उन्हें कहीं और बसाने के लिए दबाव डाला. इसके प्रतिरोध में वहां के स्थानीय निवासी सड़कों पर उतर आए, जिसके बाद बुलडोजर के लिए रास्ता साफ करने के लिए 5,000 से अधिक प्रदर्शनकारियों और उग्र भीड़ पर गोलियां चलाई गईं.
आयोग ने अपनी तीसरी और अंतिम रिपोर्ट 6 अगस्त, 1978 को पेश किया. इसमें सरकार के विवादास्पद 'परिवार नियोजन कार्यक्रम' पर विस्तार से चर्चा की गई थी. इस कार्यक्रम को संजय गांधी की पहल के रूप में भी जाना जाता है. संजय पर आरोप था कि उन्होंने जबरन पुरुषों की नसबंदी करवाई. इस रिपोर्ट में आपातकाल के दौरान की गिरफ्तारियों और जेलों के अंदर के हालात के बारे में राज्यवार विवरण भी शामिल थे.
तो रिपोर्ट का क्या हुआ?
जिस जनता पार्टी की सरकार ने जोश-ओ-खरोश के साथ आपातकाल की ज्यादतियों की जांच के लिए शाह कमीशन का गठन किया था, अब उसमें ही आंतरिक कलह शुरू हो गई थी. इस संकटग्रस्त सरकार के लिए खुद को बनाए रखना अब शायद पहली प्राथमिकता थी, जबकि शाह कमीशन की रिपोर्ट को साइडलाइन कर दिया गया. जनता पार्टी की सरकार में आयोग की इस रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया. 1979 में मोरारजी की सरकार गिर गई.
1980 में जब देश में सातवां आम चुनाव हुआ तो इंदिरा गांधी की अगुआई में कांग्रेस (आई) ने 353 सीटें जीतकर सत्ता में धमाकेदार वापसी की. शाह कमीशन के साथ एक मुश्किल बात यह थी कि सिर्फ सरकार ही तय कर सकती थी कि इसके निष्कर्षों या फाइंडिंग के साथ कैसे आगे बढ़ना है. दरअसल, शाह कमीशन का गठन जांच आयोग कानून, 1952 के मुताबिक हुआ था. इस कानून के तहत गठित की गई समिति का काम सिर्फ तथ्य खोजने तक ही सीमित रहता है, और वो अपनी रिपोर्ट के साथ किसी भी तरह की मनमाफिक कार्रवाई नहीं कर सकती.
दूसरे शब्दों में कहें तो जांच आयोग कानून, 1952 के तहत गठित कोई भी समिति सरकार की अनुमति के बिना अपनी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं कर सकती. 4 जुलाई, 2000 की इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में शाह कमीशन से जुड़े रहे एक अधिकारी के हवाले से कहा गया था, "आयोग द्वारा सभी मामलों की जांच धीमी कर दी गई, या तो उन्हें आगे न बढ़ा कर या दोषियों पर मुकदमा न चलाकर धीरे-धीरे उन्हें खत्म कर दिया गया."
अधिकारी ने यह भी दावा किया, "ऐसा लगता है कि सरकार ने जांच रिपोर्ट की सभी प्रतियों को नष्ट करने का आदेश दिया है." उस रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि शाह कमीशन से जुड़े उच्च-स्तरीय अधिकारियों की पदोन्नति में देरी हुई और नई सरकार में उनके खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज किए गए.
एरा सेजियन और उनकी किताब 'शाह आयोग रिपोर्ट: लॉस्ट एंड रीगेन्ड'
इस कहानी का क्लाइमैक्स यहीं आता है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक वे एरा सेजियन ही थे जिन्होंने "गायब या नष्ट" हो चुके शाह आयोग की रिपोर्ट को वापस खोजा और उसे दुबारा प्रकाशित किया. 1923 में जन्मे एरा सेजियन डीएमके से एक सांसद, लेखक के साथ-साथ जाने-माने बुद्धिजीवी रहे थे. वे डीएमके के संस्थापक अन्नादुरई के सहयोगी थे, और आपातकाल विरोधी आंदोलन का हिस्सा रहे थे. 2017 में अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने साल 2010 में 'शाह आयोग रिपोर्ट: लॉस्ट एंड रीगेन्ड' नाम से एक किताब प्रकाशित की.
न्यूज 18 की एक रिपोर्ट के मुताबिक सेजियन ने शाह आयोग की रिपोर्ट के तीनों खंड सहेज कर रखे थे. उन्होंने लिखा, "मैंने अपनी किताबों की अलमारियों की ऊपरी पंक्ति से पुराने रिकॉर्ड और किताबों के धूल भरे बंडल नीचे उतारे और तीनों खंड ढूंढ़ निकाले, अपने मार्क किए गए सारी निशानियों और नोट्स के साथ." इस रिपोर्ट के मुताबिक वे बताते हैं, "वेबसाइटों, मीडिया रिपोर्टों और इंदिरा गांधी की जीवनी के माध्यम से आगे की खोज करने पर, मैं भारत में शाह आयोग की रिपोर्ट की प्रतियों के पूरी तरह से गायब होने की निर्णायक घोषणाओं पर चकित था."
सेजियन आगे यह भी बताते हैं, "एक सकारात्मक संकेत यह था कि आयोग की तीसरी और अंतिम रिपोर्ट शायद गायब हो गई है और वर्तमान में ऑस्ट्रेलिया की नेशनल लाइब्रेरी में है. एक और स्रोत से स्पष्ट हुआ कि रिपोर्ट के तीन खंडों की एकमात्र मौजूदा प्रतियां स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में हैं. मुझे इस बात पर ताज्जुब हुआ कि जबकि शाह आयोग की रिपोर्ट की प्रतियां ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम में छात्रों और रिसर्च स्कॉलर्स के लिए उपलब्ध थीं, भारत में इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को यही सुविधा क्यों नहीं दी गई."
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सेजियन ने अपनी किताब में लिखा है, "1980 में तत्कालीन सरकार द्वारा शाह आयोग की रिपोर्ट को वापस लेने और उसकी अस्वीकृति की आगे की कार्रवाइयों ने वेबसाइटों, जीवनीकारों के बीच आम तौर पर यह धारणा बनाने में सफलता हासिल की है कि 'भारत में शाह आयोग की रिपोर्ट की एक भी प्रति नहीं बची है'… लेकिन विश्व साहित्य के इतिहास ने यह साबित कर दिया है कि एक अच्छी किताब को 'मृत' और 'दफन' करना आसान नहीं है."