दिल्ली के सीएम : लाहौर से विस्थापित परिवार की बेटी सुषमा स्वराज कैसे बनी दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री?

महज 25 साल की उम्र में मंत्री बनने वालीं सुषमा स्वराज अपनी पीढ़ी की सबसे काबिल नेताओं में शुमार की जाती थीं, हालांकि दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी पारी कुछ खास चमकदार नहीं रही

दिल्ली के सीएम सीरीज में सुषमा स्वराज की कहानी
दिल्ली के सीएम सीरीज में सुषमा स्वराज की कहानी

भारत के राजनैतिक इतिहास में कुछ नेता ऐसे हुए हैं जिन्हें आज भी पूरा देश सम्मान की नजरों से देखता है. इस फेहरिस्त में एक नाम सुषमा स्वराज का भी है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से राजनीति सीखकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के गठन से ही जुड़ी रहने वाली सुषमा को भले ही आज देश के ज्यादातर लोग एक सफल विदेश मंत्री के रूप में जानते हों, मगर वे दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री भी थीं.

दिल्ली की राजनीति में पिछले दो दशकों से अधिक समय से किसी भी बीजेपी नेता ने सत्ता हासिल नहीं की. मगर जब आखिरी बार बीजेपी सत्ता में थी, तब एक ही कार्यकाल में तीन-तीन नेताओं ने सीएम पद की शपथ ली थी. सुषमा स्वराज इन्हीं नेताओं में थीं. लेकिन लाहौर से विस्थापित एक परिवार की लड़की यहां तक पहुंची कैसे और क्यों महज 52 दिनों के बाद उन्हें दिल्ली के सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ गई? दिल्ली के सीएम सीरीज में पढ़िए दिल्ली की पहली महिला सीएम सुषमा स्वराज की कहानी.

हरियाणा की सबसे युवा मंत्री

अंबाला में जन्मी सुषमा शर्मा का परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान के लाहौर स्थित धरमपुरा इलाके से हिंदुस्तान आया था. संघ के बड़े अधिकारी रहे हरदेव शर्मा की इस बेटी ने कॉलेज के दिनों से ही राष्ट्रीय स्यवंसेवक संघ (आरएसएस) की स्टूडेंट विंग एबीवीपी से नाता जोड़ लिया था. संस्कृत और राजनीतिशास्त्र की पढ़ाई करने के बाद सुषमा ने पंजाब यूनिवर्सिटी से वकालत की पढ़ाई भी की. एक सफल वकील के रूप में खुद को पहले ही स्थापित कर चुकीं सुषमा 1973 से सुप्रीम कोर्ट में वकालत करने लगीं और 1975 में जॉर्ज फर्नांडिस की लीगल टीम में शामिल हो गईं. उसी टीम में एक और तेजतर्रार वकील, कौशल स्वराज उन्हें भा गए और उनसे शादी कर सुषमा शर्मा सुषमा स्वराज हो गईं. इसी बीच उन्होंने जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति में भी हिस्सा लिया.

तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और उनके पति स्वराज कौशल, 10 अगस्त, 2016 को दिल्ली में संसद के मानसून सत्र के दौरान

इमरजेंसी ख़त्म होते ही जब 1977 में चुनावों की घोषणा हुई तब सुषमा स्वराज ने हरियाणा विधानसभा चुनाव में अपनी घरेलू सीट अंबाला कैंट से खड़े होने का फैसला किया. जनता पार्टी से लड़ीं सुषमा न केवल विजयी हुईं बल्कि देवीलाल की सरकार में महज 25 की उम्र में मंत्री बन सबसे युवा मंत्री बनने का रिकॉर्ड भी बनाया. देवीलाल की सरकार में उन्होंने श्रम के अलावा शिक्षा और खाद्य मंत्रालय का जिम्मा संभाला था.

1980 में जब बीजेपी का गठन हुआ तब जनता पार्टी की सदस्य रहीं सुषमा ने फौरन अपना अगला ठिकाना बीजेपी दफ्तर बनाया. संघ से सीखा राजनीति का ककहरा पूरे पाठ तक आडवाणी की छत्रछाया में पहुंचा और यहीं उन्हें भविष्य का नेता बनने के गुर भी मिले. इस बीच सुषमा स्वराज ने तीन बार (1980, 1984 और 1989) लोकसभा का चुनाव लड़ा मगर वे असफल रहीं. फिर 1990 में बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा का टिकट दिया और वे केंद्र की राजनीति में पहुंचीं.

1996 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने 13 दिनों की सरकार बनाई तब सुषमा स्वराज को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया. फिर 1998 में जब दोबारा अटल पीएम बने तब भी उन्हें वही मंत्रालय सौंपा गया.

केंद्र सरकार में मंत्री से सीएम और प्याज कांड

इस दौरान दिल्ली की राजनीति में खलबली मची हुई थी. विधानसभा वाले इस केंद्रशासित प्रदेश में तब बीजेपी की सरकार थी. 1993 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने 70 में से 49 सीटों पर जीत हासिल की थी. मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री बने, लेकिन जैन हवाला कांड में  नाम आने के बाद 1996 में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद साहिब सिंह वर्मा, जो पार्टी में खुराना के प्रतिद्वंद्वी माने जाते थे, को दिल्ली की कमान सौंपी गई. लेकिन वर्मा की सरकार के दौरान दिल्ली की जनता महंगाई से परेशान हो गई. स्थिति यह हो गई थी कि जून 1998 में दिल्लीवाले 8 रुपये में एक किलो प्याज खरीद रहे थे और अक्टूबर में, दीवाली के समय, प्याज की कीमत 60 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गई.

यह स्थिति सिर्फ प्याज तक सीमित नहीं थी, बल्कि महंगाई ने आलू (20 रुपये प्रति किलो), फूलगोभी (26 रुपये प्रति किलो), और टमाटर (30 रुपये प्रति किलो) को भी महंगा बना दिया था. जब पत्रकारों ने सीएम वर्मा से प्याज की कीमतों पर सवाल किया, तो उनका जवाब कुछ-कुछ मौजूदा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण तर्ज का था, "गरीब लोग प्याज नहीं खाते." इस बयान से जनता को लगने लगा था कि दिल्ली सरकार महंगाई की गंभीरता को नहीं समझ रही. वहीं, दिल्लीवालों की परेशानी इसलिए भी बढ़ी हुई थी, क्योंकि उस गर्मी में उन्हें बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं की भी किल्लत का सामना करना पड़ रहा था. जाहिर है कि इन हालात ने धीरे-धीरे दिल्ली की जनता में पार्टी के खिलाफ आक्रोश भर दिया.

सीएम वर्मा के "गरीब लोग प्याज नहीं खाते" वाले बयान को विपक्षी कांग्रेस ने एक मौके के रूप में लिया. दिल्ली प्रदेश कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष शीला दीक्षित ने महंगाई के मुद्दे को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इस काम में उनका साथ कांग्रेस के सबसे युवा उम्मीदवार अरविंदर सिंह लवली (अब बीजेपी नेता) ने भी दिया. बीजेपी को घेरने के लिए लवली ने एक नारा तैयार किया - "बिजली, पानी, आलू, प्याज, ख्वाबों में आते हैं आज."

इंडिया टुडे के 21 अक्टूबर 1998 के अंक में संवाददाता कुमार संजय सिंह लिखते हैं, "बतौर मुख्यमंत्री अपने ढाई साल के करियर में साहिब सिंह वर्मा कई बार झटके खा चुके थे, और उन्हें इसे पचाने का भी खासा अनुभव हो चुका था. लेकिन साहिब सिंह वर्मा को सीएम पद से हटाए जाने के तल्ख अंजाम की उम्मीद नहीं थी."

सुषमा स्वराज और साहिब सिंह वर्मा - 2004/इंडिया टुडे

दिल्ली में विपक्ष की बढ़ती ताकत और जनता का रोष देखते हुए बीजेपी हाईकमान ने एक अप्रत्याशित कदम उठाया. 25 नवंबर को होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक 45 दिन पहले वर्मा को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए कहा गया.

सुषमा स्वराज का मुख्यमंत्री बनने का निर्णय कई मायनों में अनोखा था, क्योंकि यह बदलाव सरकार और पार्टी में बिना किसी पूर्व तैयारी के हुआ था. उस वक्त सुषमा स्वराज, जो केंद्र में सूचना और प्रसारण मंत्री थीं और दूरसंचार मंत्रालय की अतिरिक्त जिम्मेदारी निभा रही थीं, के लिए भी यह कदम उतना ही चौंकाने वाला था.

उस समय स्थिति यह थी कि मदनलाल खुराना जिन्हें जैन हवाला कांड से राहत मिल गई थी, मुख्यमंत्री बनने के लिए इच्छुक थे. लेकिन वर्मा किसी भी हाल में खुराना को यह पद देने को तैयार नहीं थे. संजय सिंह ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, "दिल्ली की राजनीति में अपने प्रतिद्वंदी मदनलाल खुराना को मुख्यमंत्री बनाने से इनकार करने के बाद वर्मा ने यह बदलाव अनिवार्य समझते हुए सुषमा स्वराज का नाम प्रस्तावित किया. खुराना ने भी इस पर सहमति दी."

अब सुषमा स्वराज के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो चुका था, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया उतनी उत्साही नहीं थी. रिपोर्ट्स के मुताबिक, प्रधानमंत्री निवास से मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी लेने के बाद सुषमा ने कहा, "मैंने पहले भी इस पद के लिए अपनी अनिच्छा व्यक्त की थी, लेकिन इस बार मुझसे राय नहीं ली गई, सीधे निर्णय सुनाया गया."

वहीं, वर्मा के घर पर देर रात तक करीब 20 बीजेपी विधायकों की आवाजाही हो रही थी और रविवार की सुबह हजारों समर्थकों ने उनका घेराव कर लिया. वर्मा पहले यह कहते रहे कि वे विधायकों से राय लेकर ही इस्तीफा देंगे, लेकिन बाद में उन्होंने अपना इस्तीफा उपराज्यपाल को सौंप दिया. समर्थकों की भीड़ को देखकर वर्मा कई बार भावुक हो गए और उनकी आंखों में आंसू भी आए. उन्होंने दुखी होकर कहा, "मुझे विश्वास में लिए बिना यह कदम उठाने की इतनी जल्दी क्यों थी, पर मैं आलाकमान के निर्देश का पालन करूंगा."

12 अक्टूबर को सुषमा स्वराज दिल्ली की नई मुख्यमंत्री बनीं. वे प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं और दिल्ली की पांचवीं मुख्यमंत्री.

सुषमा स्वराज के लिए मुख्यमंत्री बनने के बाद मुश्किलों की शुरुआत हो गई. प्याज का संकट पहले से ही तूल पकड़े हुए था, और नमक की कमी, जो अफवाह के कारण फैल गई थी, उससे भी दिल्लीवाले परेशान थे. मुख्यमंत्री के रूप में सुषमा ने प्याज संकट को सुलझाने के लिए कई कदम उठाए, लेकिन बात नहीं बनी. कांग्रेस का प्रचार काम कर गया था जिसका फल उसे 1998 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में मिला भी.

शीला दीक्षित से हार

1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस की शीला दीक्षित थीं. शीला दीक्षित पंजाबी खत्री खानदान से आती थीं और उनकी शादी उत्तर प्रदेश के एक पुराने कांग्रेसी परिवार में हुई थी. 1998 के चुनावों से छह महीने पहले सोनिया गांधी ने उन्हें गुटों में बंटी दिल्ली कांग्रेस का प्रभारी बना दिया. कांग्रेस ने 52 सीटों के प्रभावशाली आंकड़े के साथ जीत हासिल की और 52 दिनों के बाद ही सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. बीजेपी की सीटें आई थीं 15 और आने वाले 15 सालों तक लगातार शीला दीक्षित ने बतौर मुख्यमंत्री अपने तीन कार्यकाल पूरे किए.

दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, लोकसभा में तब विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के साथ एजेंडा आजतक के दौरान 4 दिसंबर 2013

खैर दिल्ली का यह पद तो सिर्फ झलक थी, उस सुनहरे राजनीतिक भविष्य की जिसे सुषमा स्वराज अपने आने वाले जीवन में जीने वाली थीं. आगे चलकर पूरे देश ने संसद में उनकी बहसें देखी-सुनीं, मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान तेज-तर्रार लेकिन मर्यादाओं में रहने वाले विपक्षी नेता का रूप देखा और गर्व किया ऐसे राजनेता पर जो जिसने मोदी सरकार में विदेश मंत्री रहते हुए पाकिस्तान तक की तारीफ बटोरीं.

सुषमा स्वराज 2016 के अंत तक स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं से घिर गईं. उन्हें किडनी की दिक्कतें हुईं और उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनावों में नहीं खड़े होने का फैसला किया. वे मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के अंत में उनके मंत्रिमंडल से बाहर हो गईं. उसी साल अगस्त में दिल की धड़कन रुक जाने से उनका निधन हो गया था.

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