दिल्ली के सीएम: सांप्रदायिक हिंसा पर बोले तो बीजेपी ने की कार्रवाई, कैसे कहलाए मदनलाल खुराना 'दिल्ली के शेर'

पाकिस्तान से आए शरणार्थी परिवार के सदस्य मदनलाल खुराना को दिल्ली में बीजेपी की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है लेकिन जिंदगी के आखिरी दौर तक उनकी पार्टी नेतृत्व से ठनी रही

लालकृष्ण आडवाणी और मदन लाल खुराना (फाइल फोटो)
लालकृष्ण आडवाणी और मदन लाल खुराना (फाइल फोटो)

साल 1993, केंद्र में पी.वी. नरसिम्हा राव और दिल्ली में मदनलाल खुराना की सरकार थी. 29 जून को जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने एक प्रेस कांफ्रेंस की. इसने मदनलाल खुराना सरकार की बुनियाद हिला दी. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा, "मैं ये साबित कर दूंगा कि एक दलाल और हवाला कारोबारी सुरेंद्र जैन ने 1991 में लालकृष्ण आडवाणी को दो करोड़ रुपए दिए. जैन उस जाल से जुड़ा था, जो विदेशी धन को यहां गैरकानूनी तरीके से रुपए में बदलकर कश्मीर के अलगाववादी संगठन JKLF की मदद करता था."

स्वामी के इस बयान के बाद मामले ने तूल पकड़ा. एक बार फिर से CBI के पास रखी सालों पुरानी डायरी केंद्र सरकार के नजर में आ गई. हालांकि, नरसिम्हा राव की सरकार इस डायरी पर कुंडली मारे बैठी रही.  जब लोकसभा चुनाव में सिर्फ चार-पांच महीने बाकी थे, तब CBI जैन हवाला केस में चार्जशीट तैयार करने लगी. जनवरी 1996 में लालकृष्ण आडवाणी ने फौरन बीजेपी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद दिल्ली के सीएम मदनलाल खुराना पर भी मुख्यमंत्री का पद छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा.

इसकी वजह ये थी कि CBI के इस डायरी में मदन लाल खुराना का भी नाम था. आरोप था कि उन्होंने 1988 में तीन लाख रुपए लिए थे. आडवाणी खेमा भी यही चाहता था कि सीएम खुराना अपने पद से इस्तीफा दे दें. हालांकि, खुराना इस्तीफा देने को तैयार नहीं थे. खुराना को प्रधानमंत्री के करीबी नेता भजनलाल ने भरोसा दिया कि CBI की चार्जशीट में दिल्ली के सीएम का नाम नहीं होगा. 

मदन लाल खुराना के साथ बातचीत करते हुए लाल कृष्ण आडवाणी (फाइल फोटो)

फरवरी के आखिरी सप्ताह में संसद भवन एनेक्सी में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हो रही थी. मदनलाल खुराना इसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने पहुंचे थे. वहीं पर अधिकारियों ने उन्हें बताया कि CBI ने जैन हवाला कांड में खुराना के खिलाफ चार्जशीट दायर करने की तैयारी कर ली है. 

उन्हें तुरंत दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के घर जाने के लिए कहा गया. यहां मौजूद एलजी पीके दवे ने उन्हें इस्तीफा देने के लिए कहा. अब खुराना समझ गए थे कि उनके लिए कुर्सी पर बने रहना मुश्किल है.

आखिरकार 26 फरवरी 1996 को मदनलाल खुराना ने दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर पीके दवे को अपना इस्तीफा सौंप दिया. इस तरह करीब 3 साल 2 महीने बाद ही मदन लाल खुराना को मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा. 

‘दिल्ली के सीएम’ सीरीज की पहली किस्त में स्टोरी उस नेता की, जो 1993 विधानसभा चुनाव के बाद रिफ्यूजी से मुख्यमंत्री बन गए…

दिल्ली के तीसरे मुख्यमंत्री थे मदन लाल खुराना

पाकिस्तान से दिल्ली आए और रिफ्यूजी कॉलोनी में अपना बचपन गुजारा

15 अक्टूबर 1936 को पंजाब प्रांत के फैसलाबाद में मदनलाल खुराना का जन्म हुआ था. खुराना 15 साल के थे, जब भारत विभाजन के बाद  उनके परिवार को दिल्ली पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा.  

खुराना और उनका परिवार नई दिल्ली के कीर्ति नगर स्थित रिफ्यूजी कैंप में रहने लगे. दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद खुराना पीजी की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चले गए. 

यही वो दौर था, जब उनका राजनीति की तरफ झुकाव हुआ. 1959 में वे इलाहाबाद छात्र संघ के महासचिव और फिर 1960 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के महासचिव बने. धीरे-धीरे जनसंघ नेताओं के बीच चर्चाओं में आने लगे और उन्होंने संगठन में मजबूत पकड़ बना ली. राजनीति के साथ रोजी-रोटी के लिए उन्होंने RSS के बाल भारती स्कूल में पढ़ाना शुरू किया और बाद में दिल्ली के एक इवनिंग कॉलेज में प्रोफेसर बन गए.

अक्टूबर 1951 में बने जनसंघ को दिल्ली में युवा और प्रभावशाली नेताओं की जरूरत थी. इसी वक्त मदनलाल खुराना ने विजय कुमार मल्होत्रा, केदारनाथ साहनी और कंवर लाल गुप्ता के साथ मिलकर जनसंघ की दिल्ली शाखा की स्थापना की. मदनलाल खुराना 1965 से 1967 तक जनसंघ के महासचिव रहे.

1967 में मदनलाल खुराना को मजबूती का पहला फल मिला. उन्होंने दिल्ली म्यूनसिपलिटी के चुनाव में पहाड़गंज वार्ड से पर्चा भरा और कांग्रेस से चुनाव लड़े रहे कद्दावर नेता ओमप्रकाश माकन को चुनाव हराया. आगे चलकर खुराना दिल्ली महानगर परिषद में मुख्य सचेतक और कार्यकारी परिषद के सदस्य भी बने. 

दिल्ली के लाल किला पर आयोजित RSS कार्यक्रम में आडवाणी के साथ मदन लाल खुराना (फाइल फोटो)

दिल्ली बीजेपी में नेतृत्व का संकट गहराया तो खुराना ने संभाला मोर्चा

1970 के दशक में मदनलाल खुराना की गिनती दिल्ली जनसंघ के बड़े नेताओं में होने लगी थी. साल 1980 में जनसंघ पार्टी पूरी तरह से बीजेपी में परिवर्तित हो गई. इसके करीब 4 साल बाद 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के बाद देश में आम चुनाव हुए और बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा. 

ये वो समय था, जब दिल्ली बीजेपी में नेतृत्व का संकट गहरा रहा था. इस वक्त मदनलाल खुराना ने दिल्ली में मोर्चा संभाल लिया. उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर संगठन खड़ा करने में पूरी ताकत झोंक दी. देखते ही देखते दिल्ली की गलियों में बीजेपी के कार्यकर्ता नजर आने लगे. 

संगठन को खड़ा करने के लिए उन्होंने जो ताकत लगाई, उसकी वजह से उन्हें 'दिल्ली के शेर' का तमगा मिला. एक तरह से खुराना को दिल्ली में बीजेपी को पुनर्जीवित करने का भी श्रेय दिया जाता है.

जब राष्ट्रपति ने फोन कर मदनलाल खुराना से मांगी मदद 

1983 का साल कांग्रेस के लिए काफी बुरा था. कांग्रेस पार्टी आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में चुनाव हारी थी. दिल्ली म्युनिसिपल चुनाव में बीजेपी ने नारा दिया- 'कांग्रेस दक्षिण हारी है, अब दिल्ली की बारी है.'

इंदिरा सरकार ने दिल्ली में जोर लगाया और पार्टी जीत गई. बीजेपी मुख्य विपक्षी पार्टी बनी और मदनलाल खुराना नेता विपक्ष बने. अगले साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हो गई. पूरे देश में सिख विरोधी दंगा भड़क गया. इस वक्त देश के राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह थे.

ज्ञानी जैल सिंह ने दंगे के दौरान अपने एक रिश्तेदार को बचाने के लिए बीजेपी नेता मदन लाल खुराना को फोन किया. इस घटना के बारे में मदनलाल खुराना के बेटे हरीश खुराना एक इंटरव्यू में बताते हैं, "मेरे पिता के घर के दरवाजे हमेशा ही विपक्षी दल के नेताओं के लिए खुले रहते थे. राष्ट्रपति के फोन के बाद पिता जी खुद गाड़ी से गए और ज्ञानी जैल सिंह के रिश्तेदार को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया."

कुछ समय के बाद लोकसभा के चुनाव हुए. बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर मदनलाल खुराना दिल्ली सदर सीट से चुनाव लड़े. इस चुनाव में जगदीश टाइटलर ने उन्हें 66 हजार से ज्यादा मतों से चुनाव हराया. हालांकि, 5 साल बाद 1989 में एक ओर बीजेपी राम रथ पर सवार थी. वहीं, दूसरी तरफ कांग्रेस बोफोर्स कांड के आरोपों से घिरी हुई थी. इस चुनाव में मदनलाल खुराना दक्षिणी दिल्ली की सीट से चुनाव लड़े. इस बार उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार सुभाष चोपड़ा को एक लाख से ज्यादा वोटों से हरा दिया. 

1993 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान रोड शो करते हुए मदन लाल खुराना (फाइल फोटो)

जब एक भाषण की वजह से अटल ने खुराना को केंद्रीय मंत्रिमंडल से निकाला

1997 आते-आते जैन हवाला कांड कोर्ट में कमजोर पड़ने लगा. इस केस से बरी होने के बाद खुराना दोबारा से दिल्ली के सीएम बनने की तैयारी में लग गए. खुराना समर्थक विधायकों ने पार्टी पर दवाब बनाना शुरू कर दिया. हालांकि, आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हुए. 

मार्च 1998 में लोकसभा चुनाव हुए. खुराना इस चुनाव में दिल्ली सदर से चुनाव लड़े. जीतने पर उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी के कैबिनेट में मंत्री बनाया गया. इस बीच दिल्ली विधानसभा चुनाव से करीब 7 सप्ताह पहले साहिब सिंह वर्मा से पार्टी ने सीएम की कुर्सी छोड़ने के लिए कह दिया. 

वर्मा सीएम पद से इस्तीफा देने के लिए तैयार हुए, लेकिन उन्होंने पार्टी के सामने एक शर्त रखी कि मदनलाल खुराना मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे. पार्टी इसके लिए तैयार हो गई. आखिर में सुषमा स्वराज को दिल्ली का सीएम बनाया गया. हालांकि, कुछ दिनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी दिल्ली में सिर्फ 15 सीटें जीत सकीं. कांग्रेस की ओर से शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं. 

सबकुछ सही चल रहा था. मदनलाल खुराना अटल सरकार में कद्दावर मंत्री थे. साल 1999 में बेंगलुरु में होने वाले बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा लेने के लिए सभी बड़े नेताओं के साथ मदनलाल खुराना भी पहुंचे थे. यहां अपने भाषण में खुराना ने बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों पर अटल सरकार के काम-काज में रोड़े अटकाने के आरोप लगाए. RSS मदनलाल खुराना के इस बयान से नाराज हो गया. संघ की ओर से केसी सुदर्शन ने अटल बिहारी वाजपेयी और बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे को पत्र लिखकर कहा कि तत्काल मदनलाल खुराना से इस्तीफा लेना चाहिए.

आखिरकार अटल बिहारी वाजपेयी के दवाब की वजह से मदनलाल खुराना को अपने केंद्रीय मंत्री पद से भी इस्तीफा देना पड़ा. 

कांग्रेस नेता शीला दीक्षित के साथ मदन लाल खुराना (फाइल फोटो)

बीजेपी अध्यक्ष और आडवाणी से टकराने पर दो बार पार्टी से निकाले गए

1999 में देश के कई हिस्सों में ईसाई विरोधी हिंसा की घटनाएं घटीं. इसके बाद मदनलाल खुराना अपनी ही पार्टी और सरकार के खिलाफ मुखर हो गए. उन्होंने इन घटनाओं को लेकर बीजेपी अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे को एक तीखा पत्र लिखा.

अपने पत्र में खुराना ने लिखा, "मैं पिछले 54 सालों से RSS का कार्यकर्ता हूं. जनसंघ तथा बीजेपी की स्थापना के समय से ही मैं इसका कार्यकर्ता रहा हूं. हिंदुत्व से मेरा मतलब राष्ट्रवाद से है. हिंदुत्व सांस्कृतिकता की अभिव्यक्ति है. मेरे लिए हिंदुत्व का मतलब राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण है. 

मुझे दुख है कि आज के समय में कुछ लोगों के लिए छद्म हिंदुत्व का अर्थ सिनेमा हॉलों में तोड़फोड़ करना, क्रिकेट पिचों को खोदना और चर्चों में आग लगाना है. हालांकि, यह हिंदुत्व वो नहीं है, जिसमें मैं विश्वास करता हूं."

इस पत्र के बाद पार्टी अनुशासनहीनता के आरोप में खुराना को बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा. हालांकि, कुछ समय बाद दोबारा से पार्टी में उनकी एंट्री हो गई. 

2003 के दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले मदनलाल खुराना को दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन में चेयरमैन बनाया गया. हालांकि, कांग्रेस ने चुनाव के वक्त आयोग में शिकायत की कि ये लाभ का पद है और चुनाव लड़ने से पहले उन्हें इस्तीफा देना चाहिए. मदनलाल मोती नगर विधानसभा से चुनाव लड़े और जीत गए. हालांकि, इस बार बीजेपी को सिर्फ 20 सीटों पर ही जीत मिली थीं. इसलिए दोबारा शीला दीक्षित ही दिल्ली की सीएम बनीं.  

अटल बिहारी वाजपेयी ने खुराना को राजस्थान का राज्यपाल बनाने का फैसला किया. करीब 7 महीने बाद वो दोबारा दिल्ली लौटे लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.  अगस्त 2005 में मदनलाल खुराना ने उस समय के बीजेपी अध्यक्ष आडवाणी की खुलकर आलोचना की. इसकी वजह से उन्हें निलंबित कर दिया गया. 

माफी मांगने के बाद दोबारा से उनकी सदस्यता बहाल कर दी गई. हालांकि, मदनलाल खुराना अब भी कहां मानने वाले थे. 6 महीने बाद ही दिल्ली में उमा भारती ने एक रैली आयोजित की. इस वक्त वह बीजेपी से निष्कासित थीं. मदनलाल खुराना ने उमा की रैली में शामिल होने का फैसला किया.

इससे नाराज होकर बीजेपी ने दोबारा उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया. हालांकि, 2008 में बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह की सहमति पर वह बीजेपी में शामिल हुए. इस तरह बीजेपी से तनावपूर्ण संबंधों के बावजूद खुराना एक ऐसे नेता के रूप में याद किए जाते हैं, जिन्होंने दिल्ली में बीजेपी की नींव रखी है. 

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