कोई न बचा राजपक्षे का पक्षकार

राजपक्षे परिवार ने भाई-भतीजावाद और अविवेकपूर्ण नीतिगत फैसलों के जरिए श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को तबाह और बर्बाद करके रख दिया. अब गुस्से में उबल रहा देश इन बंधुओं को पूरी तरह से सत्ता से बेदखल करना चाहता है

फिसलती सत्ता : कोलंबो की एक सड़क पर कतारबद्ध प्रदर्शनकारी
फिसलती सत्ता : कोलंबो की एक सड़क पर कतारबद्ध प्रदर्शनकारी

चांदनी  किरिंदे, कोलंबो में

महाबलवान को वक्त की मार कैसे धराशायी करती है. देखिए, श्रीलंका में राजनैतिक रूप से महाबलशाली समझे जाने वाले राजपक्षे परिवार का अंत सामने दिख रहा है. कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के चलते अर्थव्यवस्था के भयंकर रूप से चरमरा जाने से इस परिवार का मजबूत सियासी किला जिस तरह भरभराकर ध्वस्त होता दिख रहा है, वह कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

महज ढाई साल पहले नवंबर 2019 में गोटाबाया राजपक्षे प्रचंड बहुमत के साथ राष्ट्रपति चुने गए थे. उसके बाद अगस्त 2020 के आम चुनावों में उनकी श्रीलंका पीपल्स पार्टी (एसएलपीपी) को शानदार जीत मिली थी. इससे उन्हें संसद में दो-तिहाई बहुमत हासिल हो गया और उन्हें अपने बड़े भाई महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बनाने में मदद मिल गई. लेकिन देश के दो सबसे बड़े पदों पर आसीन होने के बावजूद राजपक्षे भाइयों को संतोष नहीं हुआ—बड़े भाई चमल को कृषि मंत्री और छोटे भाई बासिल को वित्त मंत्री बना दिया गया. इतना ही नहीं, प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के तौर पर देखे जा रहे, महिंदा के बेटे नमल को युवा और खेलकूद मंत्री का जिम्मा सौंप दिया गया. लेकिन श्रीलंका के इस महाशक्तिशाली प्रथम परिवार के लिए स्थितियां तेजी से बिगड़ने लगीं. राजनैतिक और आर्थिक राजधानी कोलंबो के उपनगरीय इलाकों में बढ़ती महंगाई और कुशासन को लेकर राजपक्षे के खिलाफ कैंडललाइट जुलूस के साथ विरोध प्रदर्शन शुरू होने लगे. अराजनैतिक और शांतिपूर्ण विरोध का रूप लिए हुए ये प्रदर्शन जल्दी ही देश भर में फैल गए और राष्ट्रपति के साथ ही प्रथम परिवार के दूसरे लोगों से भी इस्तीफे की मांग की जाने लगी.

सबसे पहले बासिल को इस्तीफा देना पड़ा. बिगड़ती आर्थिक स्थिति को संभालने में अक्षमता को लेकर उनके खिलाफ नाराजगी बढ़ती जा रही थी, साथ ही लोगों में इस बात को लेकर भी खासा गुस्सा था कि लंका जब सुलग रहा था तो वे संसद से लंबे समय तक गायब रहे थे. इसके बाद जल्दी ही चमल और नमल की भी इस्तीफा देने की बारी आ गई ताकि राजपक्षे परिवार के खिलाफ बढ़ती आलोचना को दूर किया जा सके. लेकिन विरोध प्रदर्शन करने वाले इससे शांत नहीं हुए—''गोटा-गो-होम'' का नारा लगाते हुए वे राष्ट्रपति गोटाबाया का इस्तीफा मांग रहे थे. वे कोलंबो में राष्ट्रपति सचिवालय के सामने गाल फेस ग्रीन मैदान में जमा हो गए. ये विरोध प्रदर्शन जब पूरे देश में फैल गए तो सत्ताधारी एसएलपीपी के सदस्य भी फिक्रजदा हुए. प्रधानमंत्री महिंदा के खिलाफ सबसे पहला हमला खुद उनकी पार्टी की ओर से हुआ, कुछ असंतुष्ट सांसदों के एक समूह ने उनसे इस्तीफे की मांग की. 225 सदस्यों वाली संसद में ऐसे सांसदों की संख्या अब 50 से ऊपर हो गई है, जिसका मतलब है कि गोटाबाया राजपक्षे विधानमंडल में अपना समर्थन खो चुके हैं. इसी वजह से 9 मई को महिंदा को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा.

महिंदा के लिए यह औंधे मुंह गिरने जैसा था. 2005 से 2015 तक देश के राष्ट्रपति के तौर पर उन्होंने राजनैतिक नेतृत्व सेना को दे दिया था जिसकी वजह से सेना ने तमिल टाइगरों को हरा कर उनके दुर्जेय समझे जाने वाले करिश्माई नेता वी. प्रभाकरन को 2009 में मार गिराया था. ऐसा करके वे सिंहली जनता के प्रिय नेता बन गए थे. 2.2 करोड़ की आबादी वाले देश में सिंहलियों की आबादी करीब 75 प्रतिशत है और जो मुख्य रूप से बौद्ध हैं. ये लोग प्यार से महिंदा को अप्पाच्ची कहते थे, सिंहली में जिसका अर्थ होता है पिता. लेकिन पिछले हफ्ते तक जनता ने उन्हीं पर निशाना तान दिया. उन्हें पद से इस्तीफा देना पड़ा. इसके बावजूद तुरंत बाद ही गुस्साई जनता ने कोलंबो में उनके सरकारी निवास को घेर लिया. अगले दिन उन्हें एयरलिफ्ट करके सुरक्षित बाहर निकालने के लिए सेना के जवानों को आना पड़ा. बताते हैं कि वे इस समय पूर्वी श्रीलंका में नौसेना के एक अड्डे पर हैं.

महिंदा पर हिंसा भड़काने का भी आरोप है. बताया जाता है कि उन्होंने जिस दिन अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को सौंपा, उसी दिन उन्होंने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को कोलंबो में अपने निवास पर जुटा लिया था ताकि वे उनके प्रति अपना समर्थन का इजहार कर सकें. पार्टी के इन कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शनकारियों पर हमला बोल दिया, जिसके बाद देश भर में अचानक हिंसा भड़क उठी. इस हिंसा में राजपक्षे परिवार से जुड़े लोगों को निशाना बनाया गया. स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए गोटाबाया ने सशस्त्र बलों को विशेष अधिकार देते हुए इमरजेंसी लागू कर दी और कर्फ्यू लगा दिया गया. लेकिन इससे भी नाराज भीड़ रुकी नहीं. उसने राजनेताओं और उनके समर्थकों के घरों को आग लगा दी और उन्हें तोड़-फोड़ दिया. इस हिंसा में मारे गए नौ लोगों में सत्ताधारी पार्टी का एक सांसद भी शामिल है.

प्रदर्शनकारी और विपक्षी पार्टियां इस पर अड़ी हुई हैं कि गोटाबाया अपने पद से इस्तीफा दें. राजनैतिक रूप से नौसिखिया गोटाबाया के इर्दगिर्द जो आभामंडल बनाया गया था और उन्हें एक कुशल प्रशासक बताया जा रहा था, उसकी चमक करीब साल भर पहले ही फीकी पड़नी शुरू हो गई थी. उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत करने, भ्रष्टाचार रोकने और अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने के जो वादे किए थे, वे सब खोखले साबित होने लगे थे. महिंदा जब राष्ट्रपति थे तो सेना के पूर्व अधिकारी रह चुके गोटाबाया उस समय रक्षा मंत्री थे और तमिल टाइगरों को हराने के कारण वे भी महिंदा की तरह जनता की नजरों में किसी नायक की तरह थे. लेकिन सत्ता संभालने के तुरंत बाद राजनीति में उनकी अनुभवहीनता और सेना में अपने सहकर्मियों की सलाह पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता का असर दिखने लगा.

देश की अर्थव्यवस्था के रसातल में पहुंचने के पीछे उनके नीतिगत गलत फैसलों का बड़ा हाथ रहा है. अपने चुनाव के ठीक बाद राजनैतिक फायदा लेने के लालच में उन्होंने कई गलत फैसले ले लिए—राष्ट्रपति ने टैक्स में भारी कटौती का ऐलान कर दिया. उनका कहना था कि इसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था में जान डालना था लेकिन सचाई यह थी कि उन्हें कुछ महीने बाद होने वाले आम चुनावों में मतदाताओं को खुश करना था. टैक्स में कटौती के कारण अप्रैल, 2022 तक सरकार को राजस्व में 500 अरब रु. (1.3 अरब डॉलर) का नुक्सान उठाना पड़ा. देश के नए वित्त मंत्री अली साबरी ने पिछले महीने संसद को बताया कि टैक्स में कटौती का फैसला एक ऐतिहासिक गलती थी.

इस बीच कोविड की महामारी ने भी देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुक्सान पहुंचाया. श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर्यटन, चाय और कपड़ों के निर्यात के अलावा बाहरी देशों में काम करने वाले अपने नागरिकों की ओर से भेजे जाने वाली रकम पर बहुत अधिक निर्भर है. राष्ट्रपति ने लोगों को राहत देने की बजाए मई 2020 में एग्रोकेमिकल्स के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया ताकि श्रीलंका जैविक खेती की तरफ कदम बढ़ा सके. इसकी वजह से इस साल धान की फसल में 40 फीसद से भी ज्यादा की गिरावट आई. इस नुक्सान से बड़ी संख्या में श्रीलंका के किसान उनसे नाराज हो गए जो कभी राजपक्षे के पक्के समर्थक हुआ करते थे. इस फैसले की वजह से खाने-पीने की चीजों के दामों में भारी बढ़ोतरी हो गई जो मौजूदा नाराजगी की एक बड़ी वजह है.

देश के जनसंख्या और सांख्यिकी विभाग के मुताबिक, उर्वरक पर प्रतिबंध और श्रीलंका के रुपए को मार्च 2022 में फ्री फ्लोट करने के फैसले के कारण खाद्य वस्तुओं की महंगाई में 47 फीसद का इजाफा हो गया. इसका नतीजा यह हुआ कि वहां की करेंसी, जो उस समय अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 230 रु. थी, वह इस हक्रते तक एकदम से बढ़कर एक अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 360 रु. हो गई. देश का विदेशी मुद्रा भंडार भी तेजी से गिरकर मार्च 2022 के अंत तक 1.9 अरब डॉलर रह गया था. लेकिन इसमें से ज्यादा बड़ा हिस्सा अमेरिकी डॉलर वाले भुगतान के लिए इस्तेमाल नहीं हो सकता है, इसलिए खजाने में मात्र 5 करोड़ डॉलर ही इस्तेमाल के योग्य रह गया है. आयात के लिए पैसा न होने के कारण वस्तुओं की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं और देश को ईंधन तथा घरेलू गैस की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है. गैस खरीदने या अपने वाहनों में पेट्रोल, डीजल भरवाने के लिए लोगों की लंबी-लंबी कतारें लगी हुई हैं. इसके साथ ही देश में बिजली की भी किल्लत हो गई है और लोगों को बिजली की कटौती का सामना करना पड़ रहा है. श्रीलंका मुख्य रूप से कोयले से पैदा बिजली पर निर्भर है.

राजपक्षे सरकार के लिए ये संकेत एक साल से साफ दिखने लगे थे कि देश एक बड़े आर्थिक संकट की तरफ बढ़ रहा है. लेकिन गोटाबाया और महिंदा चैन की बांसुरी बजाते रहे और झूठे दावे करते रहे कि स्थिति पूरी तरह उनके नियंत्रण में है. इस साल अप्रैल में समस्याएं जब चरम पर पहुंच गईं उसके बाद राष्ट्रपति ने अपने भाई और वित्त मंत्री बासिल को बर्खास्त कर दिया. उन्होंने राजनैतिक रूप से नियुक्त किए गए श्रीलंका के सेंट्रल बैंक के गवर्नर अजीत निवार्ड कैबराल को भी हटा दिया, जिन्होंने माना कि भारी गलतियां हुई थीं, लेकिन उन्होंने आइएमएफ से कर्ज नहीं लिया. तब तक राजनैतिक नुक्सान होना शुरू हो चुका था और जनता गोटाबाया तथा महिंदा, जो कि दक्षिण श्रीलंका के राजनैतिक परिवार के पितामह समझे जाते हैं, समेत राजपक्षे परिवार में अपना भरोसा खोने लगी थी.

एक ऐसे माहौल में जहां राष्ट्रपति और जनता के बीच विश्वास खत्म हो चुका है, गोटाबाया के सामने ज्यादा विकल्प बचे नहीं हैं. 12 मई की शाम को उन्होंने यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के इकलौते सांसद रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त कर दिया. वे छठी बार श्रीलंका के प्रधानमंत्री बनाए गए हैं. विक्रमसिंघे को राजपक्षे परिवार का करीबी माना जाता है और वे उन्हें इस संकट की घड़ी में सुरक्षा मुहैया करा सकते हैं. कभी कुशल रणनीतिकार माने गए विक्रमसिंघे की लोकप्रियता वक्त के साथ कम होती चली गई. विपक्ष और आम लोगों के बीच उन्हें खास समर्थन हासिल नहीं है, लिहाजा गोटाबाया की मुश्किलें खत्म होने वाली नहीं हैं. प्रदर्शनकारी नए प्रधानमंत्री की नियुक्ति से संतुष्ट नहीं हैं. वे इस नियुक्ति को गोटाबाया की दंभपूर्ण प्रतिक्रिया मान रहे हैं.

इससे पहले चर्चा चल रही थी कि पूर्व राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा के पुत्र और समागी जन बालबेगाया पार्टी के नेता साजिथ प्रेमदासा को प्रधानमंत्री बनाया जाएगा. साजिथ विपक्ष के मुख्य नेता की भूमिका में सामने आए हैं. लेकिन उनकी मांग थी कि पहले राष्ट्रपति गोटाबाया अपने पद से इस्तीफा दें, उसके बाद ही वे प्रधानमंत्री पद पर आसीन होंगे.

इस बीच गोटाबाया ने इमरजेंसी लगा दी है और सड़कों पर सेना के हजारों जवानों को तैनात करके देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिए हैं ताकि हिंसा को रोका जा सके. लेकिन बल प्रदर्शन की इस तरह की कोशिशों से उनके खिलाफ नाराजगी बढ़ेगी और उन्हें जल्दी ही सत्ता से बेदखल होना पड़ेगा. फिलहाल गोटाबाया कोलंबो में अपने किले जैसे निवास में सिमट गए हैं. कभी अत्यंत ताकतवर रहे अपने भाई महिंदा के इस्तीफा देने और श्रीलंका की आर्थिक बदहाली को देखते हुए यही लगता है कि कुर्सी पर उनके दिन बस गिने-चुने ही रह गए हैं.

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