उत्तराखंड में यूसीसी को लागू करना बीजेपी के लिए जोखिम भरा साहस क्यों है?

उत्तराखंड में यूसीसी लागू किया जाना बीजेपी के लिए सभी समीकरण ध्यान में रखकर उठाया गया जोखिम और एक रणनीतिक प्रयोग दोनों है

समान नागरिक संहिता, इलस्ट्रेशन: सिद्धांत जुमडे
समान नागरिक संहिता, इलस्ट्रेशन: सिद्धांत जुमडे

उत्तराखंड में प्राचीन परंपराएं आधुनिकता से गलबहियां करती आई हैं. उसी प्रदेश की बर्फीली पहाड़ी हवा आज बदलाव के चक्रवात से गुजर रही है. दशकों चली बहस के बाद 27 जनवरी को देवभूमि कहलाने वाला उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने वाला देश का पहला राज्य बन गया. इसे भारत के हालिया इतिहास में सबसे ज्यादा ध्रुवीकरण वाले सुधारों में एक माना जा रहा है. इसमें धर्म-जाति से परे हर किसी के लिए विवाह, तलाक, विरासत, लिव-इन रिश्ते और उत्तराधिकार पर समान कानून लागू होने का प्रावधान किया गया है.

कुल मिलाकर, यह सुधार संविधान में सूचीबद्ध राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व और सबके लिए समान कानून के राजनैतिक नारे के एकदम अनुरूप है. लेकिन इसके व्यावहारिक और सामाजिक निहितार्थ पहले ही तगड़ी बहस को जन्म दे चुके हैं. सरकार इसे सशक्तिकरण और लैंगिक समानता सुनिश्चित करने का एक प्रमुख साधन मानती है तो आलोचकों का तर्क है कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है और इससे कुछ समुदायों के अलग-थलग पड़ने का खतरा भी है.

यूसीसी का सफर 2022 में शुरू हुआ, जब मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अपने चुनाव अभियान के दौरान इसे लागू करने का वादा किया था. आखिरकार फरवरी 2024 में उत्तराखंड यूसीसी अधिनियम पारित हो गया. बेटे-बेटियों के लिए समान संपत्ति अधिकार, लिव-इन रिश्ते से जन्मे बच्चों को कानूनी वैधता और तलाक के लिए समान कानून इसके प्रमुख प्रावधानों में शुमार हैं. हां, अनुसूचित जनजातियों की सांस्कृतिक स्वायत्तता बरकरार रखने के लिए उन्हें इसके दायरे से बाहर रखा गया है. मोबाइल फोन और आधार नंबर रखने वाले नागरिक बिलावजह की लालफीताशाही से बच सकेंगे.

राज्य सरकार ने सुव्यवस्थित ढंग से विवाह, तलाक और विरासत पंजीकरण के लिए एक ऑनलाइन पोर्टल पेश किया है. दूरदराज के इलाकों और गांवों में रहने वालों के लिए इन सेवाओं को उनके दरवाजे तक पहुंचाने की जिम्मेदारी कॉमन सर्विस सेंटर एजेंटों और ग्राम पंचायत विकास अधिकारियों को सौंपी गई है.

सरकार जहां इन कदमों को प्रगतिशील करार दे रही है, आलोचकों का सवाल है कि क्या राज्य का बुनियादी ढांचा इस सुधार को व्यापक स्तर पर संभालने में सक्षम है. लिव-इन रिश्ते का पंजीकरण अनिवार्य होने ने भी खासी नाराजगी उत्पन्न की है. जोड़ों को साथ रहना शुरू करने के एक माह के भीतर पंजीकरण कराना होगा, अन्यथा उन्हें जुर्माने या कारावास जैसे दंड का सामना करना पड़ सकता है.

इसे लोग निजी जीवन में दखलअंदाजी करार दे रहे हैं. देहरादून में लिव-इन रिश्ते में रहने वाली एक 33 वर्षीया महिला व्यवसायी ने इंडिया टुडे से कहा, "अगर मैं उत्तराखंड में ही रहती हूं तो मुझे यूसीसी के तहत पंजीकरण कराना होगा. वे इस तरह हमारे बेडरूम में नहीं घुस सकते." वे राज्य छोड़कर जाने पर विचार कर रही हैं. कई लिव-इन जोड़ों ने इसी तरह की चिंता जाहिर की है. हालांकि, प्रदेश के गृह सचिव शैलेश बगौली का कहना है कि इसमें महिला अधिकारों की रक्षा में कानूनी भूमिका पर जोर दिया गया है. उन्होंने कहा, "कई बार ऐसे रिश्तों में अप्रिय घटनाएं सामने आती हैं. यह कानून महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा."

बहरहाल, कुछ विवादों के बीच नागरिकों की तरफ से इस बदलाव को खुले दिल से अपनाने की बातें भी सामने आ रही हैं. धामी खुद नए पोर्टल पर अपनी शादी का पंजीकरण कराने वाले पहले व्यक्ति थे. उसके बाद 42 वर्षीया निकिता नेगी रावत और 26 वर्षीया अंजलि वर्मा जैसे निवासियों ने पंजीकरण कराया. राज्य में ही आयकर अधिकारी रावत कहती हैं, ''सामान्य तौर पर पंजीकरण प्रक्रिया काफी जटिल होती है. लेकिन इस पोर्टल पर मैंने अपनी शादी को काफी आसानी से पंजीकृत करा लिया.'' वहीं तत्काल सेवा का विकल्प अपनाने वालीं अंजलि वर्मा ने भी इसी तरह की राय जाहिर करते हुए नए कानून को गेम चेंजर बताया.

उत्तराखंड में यूसीसी लागू किया जाना बीजेपी के लिए सभी समीकरण ध्यान में रखकर उठाया गया जोखिम और एक रणनीतिक प्रयोग दोनों है. राज्य की धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के मद्देनजर प्रतीकात्मक तौर पर यह सुधार काफी अहम हो जाता है. साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी की महत्वाकांक्षा के लिहाज से एक बड़ा परीक्षण भी है. यही वजह है, जिस दिन नया कानून लागू हुआ, उसी दिन उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि यह देशभर में अपनाए जाने की राह प्रशस्त करेगा. वहीं, हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने उनके सुर में सुर मिलाते हुए इसे 'उचित समय पर' अपने राज्य में पेश करने का इरादा जताया. इससे एक हफ्ते पहले करीब एक दर्जन खाप पंचायतों के प्रतिनिधियों ने उनसे मुलाकात की थी और लिव-इन रिश्तों और समान-गोत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाने का आग्रह किया था, जो राज्य के रूढ़िवादी इलाकों में रहने वालों को खासे नापसंद हैं.

उत्तराखंड के मुस्लिम संगठनों ने यूसीसी के खिलाफ हाइ कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की बात कही है, जबकि विपक्षी कांग्रेस ने नए कानून को 'एक राजनैतिक चाल' बताया है. ये प्रतिक्रियाएं दर्शाती हैं कि भारत में व्यापक स्तर पर यूसीसी को लागू करने की राह आसान नहीं होने वाली है.

ये रहे प्रमुख प्रावधान

> विवाह: छह महीने के भीतर पंजीकरण कराना अनिवार्य; बहुविवाह और बाल विवाह (महिलाओं के विवाह के लिए न्यूनतम आयु 18 वर्ष और पुरुषों के लिए 21 वर्ष) पर प्रतिबंध.

> तलाक: सभी समुदायों के लिए तलाक का समान आधार; तीन तलाक, इद्दत और हलाला जैसी प्रथाएं अपराध घोषित.

> लिव-इन संबंध: पंजीकरण अनिवार्य, इस तरह कानूनी मान्यता मिलेगी, पार्टनर और बच्चों को मेंटेनेंस और विरासत का अधिकार मिलेगा.

> उत्तराधिकार: बेटे और बेटियों को संपत्ति में बराबर का अधिकार; लिव-इन रिश्ते, सरोगेसी से जन्मे और गोद लिए बच्चों को जायज उत्तराधिकारी माना जाएगा.

> कानून किन पर लागू होगा: यह कानून न केवल राज्य में रहने वाले नागरिकों बल्कि दूसरी जगहों पर रहने वाले इस राज्य के लोगों पर भी लागू होगा.

> किन्हें छूट मिलेगी: अनुसूचित जनजाति के लोगों को इससे छूट दी गई है. वे अपने निजी मामलों में अपने रीति-रिवाजों का पालन जारी रख सकते हैं.

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