माइक्रोफाइनेंस: गरीबों की दुनिया में छोटे कर्ज के बड़े कारनामे

बड़े बैंकों के लिए बड़े कर्जदार भले ही मुश्किल का सबब बन गए हों, लेकिन माइक्रोफाइनेंस ने छोटे कर्ज में खोजी कामयाबी की राह.

हापुड़ के श्यामपुर गांव में माइक्रोफाइनेंस से कर्ज लेने वाली महिलाएं
हापुड़ के श्यामपुर गांव में माइक्रोफाइनेंस से कर्ज लेने वाली महिलाएं

बारिश रुक गई. बादलों को दफा कर चटख घाम निकल आया. एक पुराने घर के छोटे से अहाते में दस-बारह औरतें नीम के पेड़ की छाया में बैठी हैं. काले बुर्के पहने ज्यादातर औरतों के हाथ में एक कार्ड और सौ-पांच सौ रु. के नोट नजर आ रहे हैं. फिर उन औरतों ने वे सारे पैसे अपनी ग्रुप लीडर को दिए और उसने वे पैसे गिनकर एक व्यक्ति को दे दिए.—पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले के पटना मुरादपुर गांव में ये महिलाएं उस ग्रुप की सदस्य हैं, जिन्होंने एसवीसीएल माइक्रोफाइनेंस कंपनी से कामकाज के लिए छोटे-छोटे कर्ज लिए हैं. पैसा जमा करने वाला व्यक्ति कंपनी का फील्ड ऑफिसर है.

किसी महिला ने परचून की दुकान चलाने के लिए 30,000 रु. का कर्ज लिया है, तो किसी ने इसलिए कर्ज लिया है कि उसका पति इलेक्ट्रिशियन की दुकान चला सके. बैंकों में डूबते बड़े-बड़े कर्ज और कर्ज से पिंड छुड़ाकर देश से भागते बड़े कारोबारियों से अलग यह माइक्रोफाइनेंस की दुनिया है, जहां लोग छोटे-छोटे कर्ज लेते हैं. उसे काम-धंधे में लगाते हैं. वक्त पर पैसा चुकाते हैं और ढेर सारी खुशियां अपनी झोली में भर लेते हैं. लेकिन इस दुनिया पर बाहरी दुनिया की नजर नहीं पड़ती.

पटना मुरादपुर की महिलाओं की जिंदगी में आए बदलाव को तफसील से समझेंगे, लेकिन पहले जरा यह समझ लें कि माइक्रोफाइनेंस है क्या? अगर ऐतिहासिक संदर्भ में देखा जाए तो बांग्लादेश में मुहम्मद यूनुस ने दक्षिण एशिया की ग्रामीण जरूरतों और सामाजिक ताने-बाने को ध्यान में रखकर छोटे कर्ज मुहैया कराने का एक ढांचा चार दशक पहले तैयार किया था. यह मॉडल इतना कामयाब रहा कि 2006 में उन्हें इसके लिए शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया. 2010 के बाद से भारत में भी यह प्रयोग पहले से कहीं तेज हुआ है. यहां माइक्रोफाइनेंस कंपनियां भारतीय रिजर्व बैंक की निगरानी में काम करती हैं और वंचित आय वर्ग के लोगों को कर्ज देती हैं. इनमें से अधिकांश लोगों के पास बैंक में खाता तक नहीं होता. न ही इन लोगों के पास गिरवी रखने के लिए जायदाद होती है. ये 56 कंपनियां देश भर में फैली अपनी शाखाओं और फील्ड ऑफिसर्स के जरिए लोगों (व्यावहारिक रूप से सिर्फ महिलाओं) को कर्ज देती हैं. लोन लेने वाले को कंपनी को आश्वस्त करना पड़ता है कि कर्ज किस काम के लिए लिया गया है. इसी बिजनेस मॉडल पर देश में इस समय करीब 3.5 करोड़ लोग माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से कर्ज ले रहे हैं. यह संख्या देश के कुल आयकर दाताओं से दोगुनी है. सिर्फ पिछले वित्त वर्ष में इन कंपनियों ने 60,000 करोड़ रु. से अधिक का कर्ज बांटा. देश की विकास दर भले ही 7-8 फीसदी की हो लेकिन माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के ग्रुप लोन पोर्टफोलियो में 2014-15 की तुलना में 2015-16 में रिकॉर्ड 84 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई. सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि एक फीसदी मामले भी ऐसे नहीं हैं, जब कंपनियों का पैसा डूब गया हो.

लेकिन कारोबार शुरू करने से पहले ये कंपनियां लोगों को यह कैसे समझाती हैं कि वे चिटफंड कंपनी नहीं हैं, जो उनका पैसा लेकर चंपत हो सकती हैं? इस सवाल का सीधा जवाब सोनाटा माइक्रोफाइनेंस कंपनी के एमडी अनूप कुमार सिंह देते हैं, ''एमएफआइ सिर्फ कर्ज दे सकती हैं, लोगों का पैसा जमा नहीं कर सकतीं. जब लोगों का पैसा जमा ही नहीं किया जाएगा, तो लेकर भागने का सवाल ही कहां है.''

तो आखिर वह कौन-सा मॉडल है, जहां इतनी ईमानदारी से कर्ज वापस चुकाया जा रहा है, जबकि हजार बंदिशें लगाने वाले बैंकों का नॉन परफॉर्मिंग एसेट (एनपीए) सात से आठ फीसदी तक पहुंच जाता है. इस गुत्थी को सुलझाते हुए माइक्रोफाइनेंस कंपनियों की संस्था और नियामक माइक्रोफाइनेंस इंस्टीट्यूशंस नेटवर्क की सीईओ रत्ना विश्वनाथन ने इंडिया टुडे को बताया, ''खास बात यह है कि लंबी-चौड़ी दंड संहिता बनाने के बजाए बेहतर कारोबार के लिए सामाजिक ताने-बाने का इस्तेमाल किया जाता है.'' दरअसल यहां कर्ज किसी एक महिला को देने के बजाए पांच, दस या इससे अधिक महिलाओं के समूह को दिया जाता है. सदस्यों को यह बता दिया जाता है कि अगर कोई महिला कर्ज नहीं चुकाती तो बाकी महिलाओं को उसका पैसा देना होगा. कर्ज वापसी का ज्यादा बोझ न पड़े, इसलिए हर पखवाड़े किस्त जमा कराई जाती है. लोन, जहां कंपनी की शाखा से दिया जाता है, वहीं वसूली गांव में ही कंपनी के सेंटर बनाकर की जाती है. इससे महिलाओं को कंपनी के चक्कर न लगाने पड़ते.''

यहां दिमाग में फिर वही सवाल आया कि अगर कोई महिला किस्त चुकाने से मना कर दे तो? पटना मुरादपुर की हंसीरा पलट कर सवाल करती हैं, ''पैसा लिया है तो देना नहीं पड़ेगा? नहीं देंगे तो आगे कर्ज कैसे लेंगे. ऐसे लोगों को ग्रुप में शामिल ही क्यों करना जिनकी नीयत ठीक न हो.'' हंसीरा ने यह कर्ज हापुड़ में पति की बर्तनों की दुकान के लिए लिया है. वहीं, परचून की दुकान के लिए कर्ज लेने वाली शबनम कहती हैं, ''एक तो गलत औरत को ग्रुप में शामिल ही नहीं करते, दूसरी बात यह कि अगर कोई किस्त नहीं चुकाएगी तो क्या इतने लोगों के ताने सुनकर वह गांव में इज्जत से रह सकेगी.'' परचून की ही दुकान के लिए 35,000 रु. का कर्ज लेने वाली रुखसाना समझाती हैं, ''इस कर्ज से दुकान शुरू की. इतना पैसा निकल आता है कि 1,050 रु. महीने की किस्त चुका दें और कुछ पैसा बच भी जाए. हम तो यह चाहेंगे कि आगे से और ज्यादा कर्ज मिले.'' दरअसल, माइक्रोफाइनेंस में इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि उतना ही कर्ज दिया जाए, जितना कर्जदार आसानी से वापस कर सके. आरबीआइ के स्पष्ट आदेश हैं कि किसी सूरत में एक व्यक्ति दो से अधिक कंपनियों से लोन न ले सके. इसे सुनिश्चित करने के लिए सारी कंपनियों का डाटा हर 15 दिन में साझा और अपडेट किया जाता है.

माइक्रोफाइनेंस कंपनियों में ब्याज की दर अधिकतम 26 फीसदी तक होती है. एसवीसीएल के सीईओ राकेश दुबे कहते हैं, ''माइक्रोफाइनेंस कंपनी को बैंक से ही 12 फीसदी तक की दर से कर्ज मिलता है. फिर इसे ग्राहक को दिया जाता है.'' लेकिन यह दर तो सूदखोर महाजनों के भी कान काटने वाली लगती है? दुबे बताते हैं, ''अगर कर्ज की वसूली साल के अंत में की जाती तो एक व्यक्ति को 10,000 के लोन के एवज में 12,500 रु. देने पड़ते. लेकिन हर 15 दिन पर किस्त भरने से व्यवहार में उसे 1,100-1,200 रु. ही ब्याज देना पड़ता है. ऐसे में व्यावहारिक दर 12 फीसदी ही बैठती है.'' दूसरी बात यह कि छोटे-छोटे लोन में ऑपरेटिंग कॉस्ट बड़े लोन की तुलना में बढ़ जाती है. ज्यादा कर्ज का यही सवाल जब श्यामपुर गांव की शकंतुला देवी से किया तो उनका जवाब था, ''सबसे बड़ी सुविधा तो यह है कि हमें गिरवी कुछ नहीं रखना पड़ता, जबकि पहले महाजन के यहां से कर्ज लेने में सामान गिरवी रखना ही पड़ता था. महाजन का कर्ज साल के अंत में पूरे ब्याज के साथ एकमुश्त चुकाना होता था, जबकि हर पंद्रह दिन पर किस्त चुकाने से कर्ज का बोझ ज्यादा पता नहीं चलता.'' शकुंतला ने भैंस के लिए 35,000 रु. का कर्ज लिया था. उनके पति एक कोऑपरेटिव को दूध बेचते हैं. उनकी मांग है कि अब तो भैंस एक लाख रु. की आती है, तो उन्हें ज्यादा कर्ज दिया जाए. लेकिन अगर घर का कोई व्यक्ति भैंस के लिए मिले कर्ज को जुए में उड़ा दे या कुछ और करने लगे तब क्या होगा? इसका जवाब देती हैं 50 वर्षीया सुदेश शर्मा, ''कौन-सी भैंस लेनी है इसका फैसला घरवाला करता है, लेकिन पेमेंट करने हम खुद जाते हैं. औरतों के हाथ में पैसा आने से घरवालों की शराब तक छूट गई है. वे अब चुपचाप दूध बेचने चले जाते हैं. बच्चों की फीस का भी पैसा निकल आता है.''

अगर गांव की अर्थव्यवस्था में छोटी दुकान या पशुपालन के लिए कर्ज दिया जा रहा है तो शहरों में साइकिलरिक्शा कर्ज का एक नया माध्यम बनकर उभरा है. लखनऊ की भारतीय माइक्रोक्रेडिट (बीएमसी) के प्रबंध निदेशक विजय पांडे ने बताया, ''हमने केंद्र सरकार की मुद्रा योजना के साथ माइक्रोफाइनेंस को जोड़ दिया. रिक्शे के लिए एक लाख का लोन बैंक से और 40,000 रु. तक लोन एमएफआइ से करा दिया.'' यहां रिक्शा चलाने वाले भले ही पुरुष हों, लेकिन लोन महिलाओं को ही दिया गया है.बीएमसी बिहार में सोलर चरखा प्रदान करने के लिए भी लोन दे रही है. इससे महिलाएं हर रोज 300 रु. की दिहाड़ी कमा लेती हैं.

इस कंपनी की तरह बाकी कंपनियां भी फूंक-फूंककर कर्ज बांट रही हैं. इसी का असर है कि 99 फीसदी लोग समय पर पैसा लौटा दे रहे हैं. इतनी बड़ी संख्या में सफल कर्ज के दो मतलब हैं—गरीबों को उनके घर में रोजगार मिलना और माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के लिए ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था में संभावनाओं के नए द्वार खुलना.

Read more!