हरफनमौला अनुराग

जब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रहा है, उस दौर में एक असफल क्रिकेटर से बीसीसीआइ अध्यक्ष बने अनुराग ठाकुर के सफर पर एक नजर.

यह हैं अनुराग ठाकुर, जिनके बारे में सभी जानते हैं कि वे हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के सुपुत्र हैं और नेतागीरी उन्हें विरासत में मिली है. पिता के प्रभाव की वजह से वे 25 साल की उम्र से ही हिमाचल क्रिकेट कंट्रोल एसोसिएशन (एचपीसीए) का नियंत्रण अपने हाथों में रखते आए हैं, तीन बार सांसद रहे हैं, बीसीसीआइ में ज्यादातर समय सत्ता पक्ष के साथ रहे हैं, और एचपीसीए के प्रभावशाली अध्यक्ष रहे हैं, जिन्होंने धर्मशाला जैसे छोटे-से पहाड़ी शहर में क्रिकेट का अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम बनवाया.

उनके बारे में जो बात ज्यादातर लोग नहीं जानते हैं, वह है उनके सीवी पर लगा एक भारी धब्बा. 2000 में, जब वे एचपीसीए के अध्यक्ष बने थे तो रणजी ट्रॉफी के एक मैच में हिस्सा लेने के लिए वे बिना किसी को बताए सुबह-सुबह जम्मू पहुंच गए. वहां पहुंचकर उन्होंने टीम को बताया कि वे भी 11 खिलाड़ियों में शामिल होकर मैच खेलेंगे, हालांकि टीम में उनका चुनाव नहीं हुआ था. इस बात पर जब टीम के कप्तान राजीव नय्यर ने विरोध किया तो उन्होंने उनकी बात दरकिनार कर दी. प्रथम श्रेणी की अपनी एकमात्र पारी में वे शून्य पर आउट हो गए, पर उनका मकसद पूरा हो चुका था. उनके खेलने की एक ही वजह थी और वह यह कि वे भविष्य में टीम के चयनकर्ता बनना चाहते थे—जिसके लिए रणजी का एक मैच खेलना अनिवार्य था.

इस तरह एक प्रशासक के तौर पर ठाकुर का करियर अपयश के साथ शुरू हुआ. एक तरह से उन्होंने उसी अहंकार की भावना का परिचय दिया, जो दशकों से बीसीसीआइ की पहचान बनी हुई है, और जिसने लोढ़ा कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद इसके लिए संकट खड़ा कर दिया. इस रिपोर्ट के अनुसार, बीसीसीआइ में आमूल-चूल बदलाव (चयन प्रक्रिया में बदलाव, पदाधिकारियों की योग्यता, और भारत में क्रिकेट के संचालन को पेशेवर बनाना) की जरूरत है. यह देखते हुए कि ठाकुर पिछले 16 साल में कितने दूर आ चुके हैं, 22 मई को बीसीसीआइ के दूसरे सबसे कम उम्र के अध्यक्ष के रूप में उनकी नियुक्ति (इससे पहले 1963 में वडोदरा के महाराजा फतेहसिंहराव गायकवाड़ कम उम्र में बीसीसीआइ के अध्यक्ष बने थे) यह भी दिखाती है कि वे अब तक कितने बदल चुके हैं.

कई दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं—एन. श्रीनिवासन और 2013 में स्पॉट-फिक्सिंग का मामला, 2015 में अध्यक्ष रहते हुए जगमोहन डालमिया का निधन, आइसीसी का अध्यक्ष बनने के लिए शशांक मनोहर का अपने पद से इस्तीफा देना—के दौर के बाद आए 41 वर्षीय अनुराग ठाकुर बीसीसीआइ के ज्यादातर पूर्व अध्यक्षों से अलग हैं. राजनैतिक रूप से न तो उनका कद पूर्व अध्यक्षों ज्योतिरादित्य सिंधिया और शरद पवार जितना बड़ा है और न ही उनका इतना बड़ा रसूख है जिसने डालमिया, ए.सी. मुथैया और श्रीनिवासन जैसी उद्योग जगत की हस्तियों को अध्यक्ष पद तक पहुंचा दिया था. इसके अलावा ठाकुर ऐसे समय बोर्ड का काम संभाल रहे हैं जब वह 87 साल के अपने इतिहास में सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है.

लेकिन ज्यादातर दूसरे अध्यक्षों के विपरीत (और हिमाचल की टीम में जबरन प्रवेश के बावजूद) ठाकुर अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों में क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी माने जाते थे. 1990 के दशक के शुरू में जो लोग उनके साथ खेल चुके थे, वे उन्हें एक बढ़िया बल्लेबाज बताते हैं, जिन्होंने विभिन्न प्रतियोगिताओं में पंजाब के लिए अच्छा खेल दिखाया था, और वे 1993 में भारत आई इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया की जूनियर टीमों के खिलाफ भारत की अंडर-19 टीम के लिए खेल सकते थे. एक ऐसा समय भी था जब स्थानीय मैचों में ढेरों रन बटोरने के बावजूद रणजी की टीम में न चुने जाने के कारण वे पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन से काफी नाराज थे.

समय का फेर देखिए—यह पीसीए के सचिव एम.पी. पांडोव ही थे, जिन्होंने पिछले हक्रते मुंबई में आम सदस्यों की एक विशेष बैठक में बीसीसीआइ प्रमुख के तौर पर उनके नाम का प्रस्ताव रखा था. ठाकुर ने इंडिया टुडे को बताया, ''मैं क्रिकेट खिलाड़ी से प्रशासक बना हूं. जब मैं छोटा था तो भारत के लिए क्रिकेट खेलने का सपना देखता था, लेकिन अतीत में क्या हुआ, इस बारे में मैं अब नहीं सोचता. अब बीसीसीआइ के अध्यक्ष के तौर पर मेरे ऊपर कहीं बड़ी जिम्मेदारियां हैं.''

बीसीसीआइ में सत्ता के गलियारों में उनकी किस्मत उस समय चमकनी शुरू हो गई थी, जब केंद्र में मई, 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी थी. अपनी किस्मत का सहारा लेते हुए उन्होंने 2015 में बोर्ड के सचिव पद के लिए चुनाव लड़ने का दांव खेला.

श्रीनिवासन की ओर से पहले तंग करने और फिर पुचकारे जाने के बाद ठाकुर ने श्रीनिवासन विरोधी खेमे की तरफ जाने का फैसला किया और तत्कालीन सचिव संजय पटेल के खिलाफ एक वोट से विजयी रहे. बोर्ड में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण पद पर पहुंचने के बाद ठाकुर ने डालमिया के खराब स्वास्थ्य की वजह से अपना प्रभाव दिखाना शुरू किया. उन्होंने जल्द ही सीख लिया कि किस तरह संकट के समय प्रबंध संभाला जाता है और किस तरह बीसीसीआइ जैसे संपन्न और जटिल संगठन को नियंत्रित किया जाता है. उन्होंने शुरू में ही एक क्रिकेट सलाहकार समिति का गठन कर दिया था, जिसमें जूनियर टीम के पुराने साथी सौरव गांगुली, सचिन तेंडुलकर और वी.वी.एस लक्ष्मण ने शामिल होकर तब उन्हें सम्मान दिलाया जब मुद्गल पैनल की रिपोर्ट आई थी और भारतीय क्रिकेट पीढ़ीगत बदलाव से गुजर रहा था.

जब दिल का दौरा पडऩे से डालमिया का निधन हो गया तो बोर्ड का कार्यभार मनोहर के ऊपर आ गया, क्योंकि ठाकुर को तब इस काम के लिए पर्याप्त रूप से परिपक्व नहीं माना जा रहा था. लेकिन मनोहर ने जब अपना पद छोड़ने का फैसला किया तो बोर्ड ने बढ़ी हुई जवाबदेही के दौर में उनकी जगह किसी अन्य का चुनाव करने के बजाए ठाकुर पर दांव लगाने का फैसला किया.

अगले दिन दिल्ली में जनपथ स्थित उनके निवास पर खुशियां मनाई जा रही थीं, लेकिन ठाकुर अच्छी तरह जानते हैं कि उनके ऊपर भारी जिम्मेदारी आ गई है. बीसीसीआइ ने लोढ़ा समिति की कई सिफारिशों को कोर्ट में चुनौती दे रखी है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला जुलाई में आने की उम्मीद के कारण मौजूदा समय परेशानी का सबब बना हुआ है. दरअसल, यह अनिश्चितता ही मुख्य वजह थी, जिस वजह से मनोहर के हटने के बाद बोर्ड के पूर्व अध्यक्षों पवार और श्रीनिवासन ने अपनी दावेदारी पेश नहीं की.

बीसीसीआइ को बचाने का दायित्व अब उनके कंधों पर है. वे कहते हैं,  ''बीसीसीआइ के अध्यक्ष पद के लिए मैं अपनी भूमिका उसी तरह देखता हूं जिस तरह बल्लेबाजी के समय अपनी भूमिका देखता था. मैं हमेशा जीतने के लिए खेलता था, लड़ाई से भागने के लिए नहीं.''

लेकिन जब उनसे आगे आने वाली चुनौतियों के बारे में पूछा गया तो ठाकुर ने सीधा जवाब देने की जगह क्रीज को छोड़ना ही उचित समझा. उन्होंने कहा, ''हम लोढ़ा समिति की सिफारिशों से बिल्कुल नहीं डरते हैं. मैं इसे चुनौती के रूप में नहीं लेता. मैं एक आशावादी इनसान हूं. लोढ़ा समिति की ज्यादातर सिफारिशें लागू करने योग्य नहीं हैं, तो उनके बारे में क्यों चिंता करें. मुझे यकीन है कि सुप्रीम कोर्ट भारत में खेल को बचाना चाहेगा, और बीसीसीआइ में हमने खुद ही सिस्टम को साफ करने का काम शुरू कर दिया है. मैं मानता हूं कि 2013 में हमने गड़बडिय़ां कीं, लेकिन इक्का-दुक्का घटनाएं बीसीसीआइ के वर्षों के अच्छे काम को खराब नहीं कर सकतीं.''

बीसीसीआइ के पुराने लोग, जिनमें से कुछ लोग दशकों तक राज्य स्तर पर पदों पर रहे हैं (लोढ़ा समिति की सिफारिशें अगर मानी गईं तो यह अब खत्म हो जाएगा) उम्मीद करते हैं कि ठाकुर का बीजेपी से जुड़ा होना बोर्ड के लिए वरदान साबित हो सकता है. हालांकि बीजेपी के कुछ युवा चेहरों में से एक ठाकुर वित्त मंत्री अरुण जेटली के करीबी हैं, जिन्हें नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ आग उगलने के लिए जाना जाता है. बीसीसीआइ में राजीव शुक्ल और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे कांग्रेस के नेता भी उनका साथ देते हुए दिख रहे हैं—कम से कम फिलहाल के लिए. बोर्ड के एक उपाध्यक्ष कहते हैं, ''किसी ने अंदाजा नहीं लगाया था कि वे इतनी जल्दी और इतनी कम उम्र में बोर्ड के अध्यक्ष बन जाएंगे. लोढ़ा समिति की सिफारिशों के कारण इस समय हर कोई संगठित दिखाई दे रहा है लेकिन अगले छह महीने में उनकी और नए सचिव अजय शिरके दोनों की असली परीक्षा होगी.''

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें ठाकुर से बड़ी उम्मीदें है. भारत के पूर्व खिलाड़ी निखिल चोपड़ा, जो ठाकुर के साथ जूनियर क्रिकेट खेल चुके हैं, मानते हैं कि वे घरेलू और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के बीच की खाई को भर सकते हैं. वे कहते हैं, ''जूनियर स्तर पर वे बहुत अच्छे खिलाड़ी थे और वे खेल के विभिन्न स्तरों के बीच के अंतर को अच्छी तरह जानते हैं. वे हाशिए पर खड़े खिलाडिय़ों की जरूरतों और मांगों को समझ सकते हैं.''

भारत के पूर्व कप्तान और बंगाल क्रिकेट संघ के प्रमुख सौरव गांगुली मानते हैं कि मौजूदा परिस्थितियों में अनुराग ठाकुर सबसे अच्छा विकल्प हैं. वे कहते हैं, ''क्या उन्होंने सही इरादा नहीं दिखा दिया है? मैं उनके साथ कई बैठकों में शामिल रहा हूं. वे खेल को लेकर बहुत गंभीर हैं. मेरे लिए यह बात बहुत मायने रखती है.''

हालांकि क्रिकेट का ग्लैमर और राजनीति नेताओं को एक मौज की जिंदगी दिलाती है, लेकिन ठाकुर को दिल्ली के हिमाचल भवन से बस पकड़कर अपने निर्वाचन क्षेत्र हमीरपुर तक 10 घंटे का सफर करने के लिए जाना जाता है. बोर्ड के प्रमुख के रूप में उनका कार्यकाल भारतीय क्रिकेट के लिए पूरी तरह सफल हो सकता है तो पूरी तरह असफल भी—ठीक वैसे ही जैसे रणजी के पहले मैच में उन्हें अपयश मिला था या खेल में उनके गौरवशाली उत्थान की तरह, जिसमें कभी वे अपनी पहचान बनाने में असफल रहे थे.

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