रंगमंच: हम हैं तो गम नहीं

कुछ जज्बे वाले लोगों ने हिंदी क्षेत्र के रंगमंच में डाली जान. इनमें से ज्यादातर दूसरे पेशों के.

रात का यही कोई एक बजा होगा. बरेली के सिद्धि विनायक अस्पताल की पहली मंजिल पर डॉ. ब्रजेश्वर सिंह एक अधेड़ महिला मरीज की दाईं कलाई में बोन ट्यूमर का ऑपरेशन करने में जुटे हैं. कलाई में भरने के लिए वे कमर की हड्डी काटकर टुकड़े निकाल रहे हैं. तभी वे चिमटा थामे अपनी सहायक मैसी से पूछते हैं, ''आज का नाटक देखा था?'' वे बताती हैं कि ''पंजाबी जबान (नागमंडल; निर्देशकः नीलम मानसिंह चौधरी) में होने की वजह से पूरा समझ नहीं पाई लेकिन सीन अच्छे लग रहे थे.'' ऑपरेशन थिएटर में मौजूद पैरामेडिकल स्टाफ के 4-5 अन्य सहकर्मी भी बेबाकी से नाटक के बारे में राय रखने लगते हैं. डॉ. सिंह इसके बाद तीन और ऑपरेशन करते हैं. यह ब्यौरा खास इसलिए है क्योंकि जिस नाटक की बात हो रही थी, वह डॉ. सिंह के ही बनवाए अत्याधुनिक सभागार में चल रहे दस दिन के रंग विनायक नाट्य समारोह का हिस्सा था. नाटक खत्म होने के बाद रात ग्यारह बजे तक वे कलाकारों की खातिर-तवज्जो में लगे रहे. दिन में कुछ घंटे ओपीडी में बैठे, रात में फिर ऑपरेशनों का सिलसिला. तड़के सोकर 10.30 बजे उठकर वे अगले दिन के नाटक की चिंता में लग गए.

डॉ. सिंह इस बात के दिलचस्प प्रतीक हैं कि हिंदी प्रदेशों में आधुनिक नाटकों की परंपरा किस तरह के लोगों के जज्बे और जुनून के बूते आगे बढ़ रही है. देश के किसी भी थिएटर ग्रुप को बुलाने के लिए अब उन्हें किसी तरह की मनुहार नहीं करनी पड़ती. दिल्ली-लखनऊ, दोनों राजधानी शहरों से 250 किमी दूर होने के बावजूद देश भर से थिएटर ग्रुप ट्रेन, बस, कार से आ पहुंचते हैं. और इस तरह के वे अकेले मेजबान नहीं हैं. हिंदी पट्टी में पिछले एक अरसे में ऐसे कई नाम उभरे हैं, जिनकी अगुआई में चलने वाली कोशिशों से कई छोटे-बड़े शहर रंगमंच की दुनिया के नक्शे पर चमकने लगे हैं. इनमें से रंगमंच कइयों का तो मूल पेशा भी नहीं है. लखनऊ हो या बनारस, रायपुर हो या उज्जैन, दिल्ली हो या फिर जबलपुर, करोड़ों रु. के बजट के बावजूद केंद्र और इन राज्यों की नाट्य अकादमियां वैसा माहौल नहीं बना सकीं, जैसा कि इन मेजबानों ने निजी संसाधनों और छोटी-सी टीम के बूते पर तैयार कर डाला.

लखनऊ के 36 वर्षीय भूपेश राय को ही लीजिए. कुछ दिन पुश्तैनी होटल व्यवसाय, फिर बैंक और एअरटेल कंपनी में काम करने के बाद अब वे विज्ञापन बनाते हैं और शहर तथा आसपास होने वाली फिल्मों की शूटिंग में लाइन प्रोड्यूसर भी होते हैं. लेकिन अपने रेपेटवा थिएटर फेस्टिवल से उन्होंने लखनऊ शहर की कलात्मक जड़ता को हिला दिया है. लखनऊ के लोग अब मुंबई, दिल्ली वगैरह के बड़े प्रोफेशनल ग्रुप्स के भव्य और उम्दा नाटक देख पा रहे हैं. बरेली के दसवें साल का नाट्य समारोह अभी-अभी पूरा हुआ है. सातवां रेपेटवा महोत्सव भी पिछले महीने ही हुआ है. जबलपुर के हिमांशु राय बैंक की नौकरी से दो साल पहले रिटायर हुए हैं. नौकरी में रहते हुए उन्होंने प्रमोशन के कई मौके छोड़ दिए क्योंकि इसके लिए शहर छोडऩा पड़ता, जो वहां नाटक करवाते रहने के उनके बड़े मकसद में मुश्किल खड़ी करता. उनके विवेचना नाट्य समारोह को इस साल अक्तूबर में 23 साल पूरे हो जाएंगे. रायपुर (छत्तीसगढ़) के सुभाष मिश्र पंचायत विभाग में अपर आयुक्त हैं लेकिन हालत यह है कि शहर में उनके बगैर रंगमंच की कल्पना ही बेमानी लगती है. भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के स्थानीय संयोजक मिश्र पिछले 19 बरसों से मुक्तिबोध नाट्य समारोह करवाते आ रहे हैं.

सलीम राजा को वाराणसी में लोग एक बड़े अखबार के सांस्कृतिक पत्रकार के रूप में जानते थे. लेकिन पिछले एक दशक में वे विश्व रंगमंच दिवस यानी 27 मार्च पर किए जाने वाले अपने हफ्ते भर के नाट्य समारोह के लिए जाने जा रहे हैं. पहले कला प्रकाश और फिर सेतु संस्था के जरिए शहर के रंगमंच को एक नई सक्रियता देने वाले राजा अब इसके पूर्णकालिक प्रोत्साहक हैं.

उज्जैन के 60 वर्षीय शरद शर्मा और दिल्ली के 44 वर्षीय श्याम कुमार सरीखे कुछ ऐसे मेजबान भी हैं, जो रंगकर्मी होने के बावजूद अपने उत्सवी आयोजनों के लिए जाने जाते हैं. शर्मा ने 1991 में राष्ट्रीय नाट्य समारोह करने के लिए पत्नी के गहने तक गिरवी रख दिए थे. संसाधन जुटाने के लिए उन्होंने टेंपो चलाया, वकालत की, बालू ठेका लिया और जमीन के सौदे भी करवाए. आज उनका अभिनय नाट्य समारोह देश के प्रमुख नाट्य समारोहों में शुमार है, जिसका रंगकर्मियों और दर्शकों को इंतजार रहता है. पिछले साल से उन्होंने उज्जैन को छोड़कर इंदौर को अपना आधार शहर बना लिया है. इसी 16-20 फरवरी तक होने जा रहे समारोह के 30,000 रु. के टिकट वे एडवांस में बुक कर चुके हैं.

कशिश क्या है
पर वह भला कौन-सा आकर्षण है, वे कौन-सी प्रेरणाएं हैं जो इन महानुभावों को नाटक जैसी बौद्धिक किस्म की मानी जाने वाली कला विधा के एक आयोजन के लिए कुछ भी कर गुजरने को राजी कर लेती हैं? असल में ये वे लोग हैं, जिन्हें उम्र के किसी मोड़ पर नाटक का चस्का लगा. उससे अपने व्यक्तित्व में धीरे-धीरे और अनायास ही आने वाले बदलावों को महसूस करने के बाद उन्हें लगा कि इसे आसपास के एक बड़े दायरे तक ले जाया जाना चाहिए.

मसलन, ब्रजेश्वर सिंह ने मेडिकल की पढ़ाई के वक्त नाटक देखे थे लेकिन 2003 में हिजड़ों के जीवन पर बेहद उद्वेलित करने वाला निहायत उम्दा नाटक जानेमन (निर्देशक वामन केंद्रे) देखने के बाद वे यह सोचने पर मजबूर हो गए कि ''ऐसे नाटक हमारे शहर के लोग क्यों नहीं देख सकते? जाहिर है, हर कोई दिल्ली-मुंबई नहीं जा सकता, तो उन्हें शहर में ही क्यों न लाया जाए!'' और 2007 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के तीन नाटकों के साथ उन्होंने शहर में नाट्य समारोह का श्रीगणेश कर ही तो दिया. यहां तक कि शहर और आसपास से उभरते कलाकारों को छांटकर उन्होंने बाकायदा एक थिएटर ग्रुप बना डाला. अब तो वे देश के मेडिकल कॉलेजों में जा-जाकर पेशे से जुड़ी संवेदनात्मक फिल्मों की क्लिप्स दिखा-दिखाकर उन्हें जागरूक बनाते हैं.

भूपेश राय तो 2002 में लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादमी से वर्कशॉप के बाद अभिनय के क्षेत्र में आगे बढऩा चाहते थे पर उन्हें ठीक से कोई गाइड करने वाला तक न मिला. उन्हीं के शब्दों में, ''लखनऊ में थिएटर की हालत बड़ी ही निराश करने वाली थी. मैंने तय किया कि शहर के नौजवानों को और दूसरे कलाप्रेमियों को अच्छे नाटक दिखाऊंगा और यहां थिएटर की ताकत को फिर से स्थापित करूंगा.'' बस हो गया संकल्प. 2009 में उन्होंने 8 लाख रु. जुटाकर पांच दिन का समारोह किया. पहले शो में 50 दर्शक आने के बावजूद उन्होंने टिकटों में कोई रियायत नहीं की क्योंकि चुनाव उन्होंने अच्छे नाटकों का किया था. और हाल ही में हुए सातवें समारोह में उन्हें नाटकों के दो-दो शो करने पड़े. उनका बजट 80 लाख रु. का था.

शरद शर्मा यहां प्रेरणा का एक बड़ा और जेनुइन पहलू जोड़ते हैं. ''हमारे यहां रोजगार के लिए एमबीए, एमसीए और जाने कितने तरह के कोर्सेज देश भर में शुरू किए गए हैं लेकिन व्यावसायिक पढ़ाई करके निकलने वाली यह पूरी युवा पीढ़ी संवेदनशील भी बने, वह अपने आसपास के परिवेश को लेकर सोचे, उसमें एक कलात्मक सौंदर्यबोध पैदा हो, इसकी फिक्र किसी को भी नहीं? नाटक उस बड़ी कमी को भरते हैं. नाट्य समारोहों में कभी-कभार ही सही, इन शहरों के लोगों को भी आस्वाद तो मिल पाता है.''

जहां से मिले मदद
इन समारोहों का आर्थिक प्रबंधन भी एक अहम पहलू है. यह आयोजकों को एक अलग टेरिटरी में ले जाता है. जबलपुर में हिमांशु राय की टीम को समारोह पर लगने वाले करीब 5 लाख रु. जुटाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ती थी. घर-घर जाकर टिकट बेचते, सड़क पर काउंटर लगाते. धीरे-धीरे संस्थाओं, उद्योगपतियों, वकीलों, डॉक्टरों और मित्रों ने हिस्सा बंटाया. अब पैसा जुटाना कोई समस्या नहीं रह गया है. दिल्ली के श्याम कुमार, जिनका 8-9 लाख रु. बजट वाला तेरहवां नटसम्राट राष्ट्रीय नाट्य समारोह 29 जनवरी को ही संपन्न हुआ है, बताते हैं कि इसके लिए साल भर दोस्तों और कला के प्रति थोड़ा उदार रवैया रखने वाली संस्थाओं वगैरह से चंदा/मदद जुटाते हैं. शरद शर्मा ने पिछले दिसंबर में देश के शीर्ष रंगकर्मियों में से एक बंसी कौल पर छह दिन के उत्सव के दौरान 75,000 रु. के तो टिकट ही बेच लिए थे, जो इंदौर जैसे परंपरावादी शहर में रंगमंचीय आयोजन के लिए बड़ी उपलद्ब्रिध थी. सलीम राजा के पास भूपेश राय की तरह आयोजन के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां नहीं हैं लेकिन हौसला बड़ा है. वे भी मित्रों, रंगमंच के हितैषियों से पैसा जुटाकर बड़ा आयोजन करके सबको चकित कर देते हैं. वाराणसी के वरिष्ठ रंग अध्येता कुंवरजी अग्रवाल कहते हैं कि ''सरकारी मदद के बगैर राजा जैसी सक्रियता बनाए रखते हैं, वह हर किसी के लिए संभव नहीं.''

ये आयोजक हर साल देश भर से उम्दा, चुनिंदा नाटक लेकर आते हैं, जिनमें विचारोजक, कॉमिक और अन्य तरह की प्रस्तुतियां होती हैं. भूपेश राय ने अभिनेत्री कल्कि केकलैं का नाटक लिविंग रूम भी बुलाया था तो बरेली के उत्सव में सुनील शानबाग और नीलम मानसिंह चौधरी के नाटक शामिल थे. शरद शर्मा अगले पखवाड़े के अपने उत्सव में रघुवीर यादव को उनके नाटक पियानो के साथ बुला रहे हैं. इसी तरह से सुभाष मिश्र ने रतन थियम, रंजीत कपूर और देश के दूसरे नामी रंगकर्मियों के काम से छत्तीसगढ़ के लोगों को रू-ब-रू कराया है. ये दिलेर मेजबान असल में हिंदी क्षेत्र के दर्शकों से एक तरह से यह कह रहे होते हैं कि जब हम हैं तो क्या गम है!

—साथ में रीना बापट और राजेश गनोदवाले

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