1970 में कैसे धीरूभाई अंबानी ने भारत के सुस्त पूंजी बाजार का किया कायापलट?

धीरूभाई अंबानी की अगुआई में रिलायंस इंडस्ट्रीज ने 1970 के दशक के आखिरी सालों में कैसे धन उगाहने के नए-नवेले तरीकों से भारत के सुस्त पूंजी बाजारों का कायापलट कर दिया?

Special Issues turning points business
रिलायंस पर भरोसा रिलायंस के आइपीओ के लिए रोडशो के दौरान अंबानी; (दाएं) नवंबर 1977 में मुंबई में रिलायंस का शेयर खरीदने के लिए लाइन में लगे लोग

भारत के पूंजी बाजार सत्तर के दशक के आखिरी सालों तक काफी सुस्त और उनींदे थे. ब्रिटिश पूंजीवाद के हाथों भारत में आयातित देश के स्टॉक एक्सचेंजों को दलालों के ऐसे गुट चला रहे थे जो कारोबार के अपने नियम खुद बनाते थे. समय-समय पर जब इन एक्सचेंजों का दिवाला पिटा, तो जनता का उनसे भरोसा ही उठ गया. बड़ी फर्मों ने अपनी वित्तीय जरूरतों के लिए बाजार से पैसा उगाहने के बजाए बैंकों का रुख किया.

भारतीय कंपनियों ने 1949 और 1979 के बीच पूंजी बाजारों से कुल सालाना औसत धनराशि 58 करोड़ रुपए (1979 की विनिमय दर पर 7.1 करोड़ डॉलर) उगाही. तब टेक्सटाइल कारोबारी धीरूभाई अंबानी अपने कारोबार को विश्व स्तरीय बनाना चाह रहे थे और उन्होंने जनता को भरोसा दिलाया कि अगर वे उनकी कंपनी में निवेश करेंगे तो वे धनी हो सकते हैं.

रिलायंस टेक्सटाइल इंडस्ट्री 1977 में 10 रुपए प्रति शेयर की दर से 28 लाख शेयर की पेशकश लेकर शेयर बाजार में आई और 2.8 करोड़ रुपए उगाहने में कामयाब रही. अंबानी की एंट्री से बनी जन विश्वास की लहर और उभरते मध्यवर्ग की बदौलत 1983 में शेयर बाजार में सालाना निवेश 100 करोड़ रुपए हो गया.

अपनी कंपनी के कर्मचारियों के साथ धीरूभाई (फाइल फोटो)

हालांकि ये कनवर्टिबल डिबेंचर्स थे जिनका इस्तेमाल कर धीरूभाई ने पूंजी बाजार में धूम मचाई थी. साल 1986 के अंत तक अंबानी ने आठ साल से ज्यादा समय के दौरान जनता से अभूतपूर्व 940 करोड़ रुपए उगाहे, जिनमें अकेले एक डिबेंचर इश्यू से हासिल किए गए 500 करोड़ रुपए शामिल था.

यह पहला मौका था जब कोई भारतीय उद्यमी पूरी तरह से जनता से लिए गए संसाधनों के बूते बड़ा कारोबार चलाने का नया प्रयोग कर रहा था. 1989 में अंबानी ने इंडिया टुडे से बातचीत में कहा था, ''भारतीय कैपिटल मार्केट में क्रांति लाने, मनी मार्केट, मध्यम वर्ग और किसानों के बीच इक्विटी कल्चर पैदा करने का श्रेय देने से मेरे खांटी दुश्मनों ने भी कभी इनकार नहीं किया.’’

कई मायनों में इस वजह से भारत में शेयरपूंजी की संस्कृति का सूत्रपात हुआ. वर्ष 1980 और 1985 के बीच शेयर रखने वाले भारतीयों की संख्या दस लाख से भी कम से बढ़कर चालीस लाख तक पहुंच गई. 1985 के अंत तक रिलायंस के शेयरधारकों की संख्या दस लाख से भी ज्यादा हो गई.

तीन गैरपारंपिक वर्गों के निवेशक बाजार में दाखिल हुए—भारतीय मध्यम वर्ग, 1960 के दशक में पूर्व अफ्रीका से निकाले जाने के बाद ब्रिटेन, नॉर्थ अमेरिका और दक्षिणपूर्व एशिया में बसे प्रवासी भारतीय समुदाय और ज्यादा बड़ी जमीनों के मालिक किसान, जो 1960 और 1970 के दशकों के दौरान हरित क्रांति की बदौलत फसलों की उपज में हुई भारी बढ़ोतरी से समृद्ध हुए थे और जिन्हें अपनी आमदनी पर कर से छूट मिलना जारी था. शेयरपूंजी की संस्कृति से 20 बड़े स्टॉक एक्सचेंज जुड़े थे, जिनमें सबसे प्रमुख था बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज.

धीरूभाई अंबानी, इंडिया टुडे से, 1989 में

पूंजी का जादूगर

● 1977 में अंबानी के 2.8 करोड़ रु. के पहले आइपीओ के बाद कम कीमत के साथ ढेर सारी कंपनियां शेयर बाजार में उतरीं. वे अपने निवेशकों, ज्यादातर मध्यवर्ग को बढ़िया रिटर्न देने में सक्षम थे.
● हर मुनाफा देने वाली लिस्टिंग के साथ नए आइपीओ की मांग बढ़ी, जिसकी वजह से कभी-कभी इश्यू ओवरसब्सक्राइब भी हुए.
● छोटी राशियों के दौर से हटकर आइपीओ बाजार से बहुत बड़ी धनराशियां भी उगाही जा रही हैं, जैसे हाल ही में 11,300 करोड़ रु. का स्विगी का आइपीओ
● 2023-24 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक, 9.5 करोड़ से ज्यादा व्यक्ति (खुदरा) निवेशक हैं, जिनके पास बाजार की करीब 10 फीसद 
मिल्कियत है.

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