क्या है 'चीनी मिट्टी' की दुनिया में चीन का वर्चस्व तोड़ने वाली मिन्हास पॉटरी की कहानी?
आज 300 से ज्यादा कर्मचारी गुलजीत के सपने को आकार दे रहे हैं. 45 देशों में उनके उत्पाद निर्यात होते हैं. फैब इंडिया, स्वदेश समेत देश और विदेश के सभी बड़े ब्रांड मिन्हास पॉटरी के बड़े ग्राहक हैं

बुलंदशहर में खुर्जा औद्योगिक क्षेत्र में जीटी रोड के किनारे बनी एक फैक्ट्री सिरेमिक कला के कद्रदानों का मुख्य गंतव्य बनकर उभरी है. यह देश-विदेश में मशहूर 'मिन्हास' पॉटरी है. यह एक छत के नीचे चीनी मिट्टी के बर्तन और सजावटी सामान का निर्माण करती है. इसके आकर्षण में न केवल सिरेमिक इंजीनियरिंग के विद्यार्थी यहां प्रशिक्षण के लिए लाइन लगाए रहते हैं, बल्कि विदेशी ग्राहक फैक्ट्री के भीतर बने शोरूम में खरीदारी के लिए भी जुटते हैं.
किसी शोर-शराबे से दूर मिन्हास पॉटरी उस वक्त चर्चा में आई जब ब्रिटेन की महारानी के कार्यकाल के 75 साल पूरे होने पर यानी प्लेटिनेम जुबली पर मिन्हास पॉटरी के निदेशक गुलजीत सिंह ने चीनी मिट्टी के रंग बिरंगे ऐसे कप प्लेट तैयार किए जिन पर प्लेटिनम की परत चढ़ी हुई थी. यह सेट पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के हाथों लंदन भेजा गया.
बुलंदशहर के एक कस्बे खुर्जा से निकलकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री के हाथों तक पहुंचने तक का मिन्हास पॉटरी का सफर आसान नहीं था. गुलजीत सिंह के बाबा प्रताप सिंह 1956 में कानपुर की प्रताप कॉटन मिल्स के महाप्रबंधक पद से रिटायर हुए थे. एक परिचित की सलाह पर रिटायरमेंट के बाद प्रोविडेंट फंड और ग्रेच्युटी का जो पैसा मिला उससे प्रताप सिंह ने कानपुर में 50 बीघे से अधिक खेती योग्य जमीन खरीदी.
बाद में पता चला कि यह जमीन पूरी तरह बंजर थी. इस तरह प्रताप सिंह की सारी बचत जमीन के गड़बड़झाले में लुट गई. परिवार भीषण आर्थिक तंगी में आ गया. काम धंधे की तलाश प्रताप के बेटे जसवंत सिंह मिन्हास को बुलंदशहर के कस्बे खुर्जा ले आई. जसवंत ने वर्ष 1959 में खुर्जा के सिरेमिक प्रशिक्षण केंद्र में एक साल के डिप्लोमा कोर्स में प्रवेश लिया.
तत्कालीन मुख्य प्रशिक्षक जापान निवासी आइजोकाटो थे. जसवंत सिंह की लगन देखकर आइजोकाटो ने उन्हें 'केमिकल प्रूफ पोर्सलीन' बनाना सिखाया. ये एक विशेष प्रकार के बर्तन थे जिनका उपयोग आयुर्वेद या अन्य दवाओं को घिसने और प्रयोगशालाओं में किया जाता था. भारत में उस वक्त केमिकल प्रूफ पोर्सलीन विदेशों से ही आयात किए जाते थे. इसी दौरान राज्य सरकार ने खुर्जा में चीनी मिट्टी की कुंभकारी को बढ़ावा देने के लिए कॉमन फैसिलिटी सेंटर खोला था.
यहीं पर जसवंत सिंह ने 300 रुपए से कुछ उपकरण खरीदकर देश में पहली बार चीनी मिट्टी के केमिकल प्रूफ पोर्सलीन बनाने शुरू किए. शुरू में बमुश्किल 50 से 100 पोर्सलीन ही बन पाते थे लेकिन इनकी भारी मांग के चलते सब चुटकियों में बिकते थे. जसवंत सिंह ने अपने साथी हरमेंद्र सिंह के साथ मिलकर 1960 में केमिकल प्रूफ पोर्सलीन बनाने वाली देश की पहली फैक्ट्री सिलिको ऐंड कोमिको पोर्सलीन वर्क्स खुर्जा में खोली.
इस फैक्ट्री के बने उत्पादों ने केमिकल प्रूफ पोर्सलीन का विदेशों से भारत में होने वाले आयात को पूरी तरह बंद करा दिया. आज सिलिको ऐंड कोमिको पोर्सलीन वर्क्स रोज तीन टन केमिकल प्रूफ पोर्सलीन तैयार करने वाली विश्व की सबसे बड़ी कंपनी है.
केमिकल प्रूफ पोर्सलीन बनाने में महारत हासिल करने के बाद जसवंत सिंह ने चीनी मिट्टी के विशेष बर्तन बनाने शुरू किए. ’70 के दशक में देश में होटल व्यवसाय गति पकड़ रहा था. खुर्जा में होटल में काम आने वाली क्रॉकरी बनाने वाली उनकी देश की पहली फैक्ट्री थी. लेकिन बदलते दौर की अलग जरूरतें थीं. इस दौर में जसवंत सिंह ने अपने बेटे गुलजीत सिंह को प्रारंभिक शिक्षा के लिए मसूरी भेजा.
यहां से गुलजीत सिरेमिक इंजीनियरिंग करने कर्नाटक के गुलबर्गा जिले के पी.डी.ए. कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग पहुंचे. 1992 में सिरेमिक इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद गुलजीत अपने पिता का हाथ बंटाने खुर्जा आ गए. युवा गुलजीत ने खुर्जा में चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने की प्रक्रिया में नई टेक्नोलॉजी का समावेश किया. पहली बार सफलतापूर्वक कोयले की भट्टियों की जगह डीजल से चलने वाली खास भट्टियां लगाई गईं. 1993 में गुलजीत सिंह ने फैक्ट्री में बोनचाइना की क्रॉकरी बनाना शुरू किया.
लेकिन शुरुआत में ही चुनौतियां मुंह बाए खड़ी थीं. इसी समय बोनचाइना में जानवरों की हड्डियां मिलाने को लेकर पर्यावरणविदों का विरोध शुरू हो गया. कच्चे माल की भारी किल्लत शुरू हो गई. गुलजीत सिंह को अपनी पूरी फैक्ट्री बंद करनी पड़ी. फैक्ट्री के आधुनिकीकरण में लगे लाखों रुपए डूब गए.
यह उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं था. उत्पादन छोड़ गुलजीत ने कर्नाटक के जिले बेलगाम के खानापुर में एक सरकारी टेराकोटा ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में कार्यकारी परामर्शदाता के रूप में पढ़ाना शुरू किया. गुलजीत ने इस ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट को टेराकोटा के साथ चीनी मिट्टी के उत्पादों के एक प्रोडक्शन सेंटर के रूप में तब्दील किया.
मगर कर्नाटक में गुलजीत सिंह का मन नहीं लग रहा था. वे बताते हैं, "रह-रह कर मुझे अपनी खुर्जा की फैक्ट्री की याद आती थी. लगता था कि मैंने जो पढ़ाई की है, उसका सही उपयोग नहीं हो रहा है." 2010 में गुलजीत कर्नाटक छोड़कर खुर्जा आ गए. कुछ पैसे जुटे तो खुर्जा में बंद पड़ी फैक्ट्री को नए सिरे से संवारने की योजना बनाई. गुलजीत बताते हैं,"मैंने सोचा कि जब मैं कर्नाटक के खानापुर में एक सरकारी संस्थान को नया रूप दे सकता हूं तो खुर्जा की अपनी फैक्ट्री के साथ ऐसा क्यों नहीं कर सकता."
पिता से अनुमति लेकर गुलजीत ने 2012 में खुर्जा की पुरानी फैक्ट्री को जमींदोज करा दिया. एक वर्ष के भीतर 'मिन्हास पॉटरी' के नाम से एक नई कंपनी बनाई. इसमें विश्व की अत्याधुनिक मशीनें लगाई गईं. पहली बार भट्टियों में नेचुरल गैस का उपयोग करना शुरू किया.
खुर्जा के वे कारीगर जो काम न मिलने के कारण दूसरे धंधे में लग गए थे, गुलजीत ने उन्हें खोजकर सिरेमिक हैंडीक्राफ्ट की आधुनिक तकनीकों का प्रशिक्षण दिया. परंपरागत उत्पादों के साथ पहली बार मिन्हास पॉटरी चीनी मिट्टी के रंग बिरंगे और आकर्षक सजावटी सामान बनाने शुरू किए. उन्होंने पहली बार थ्रीडी प्रिंटिंग करनी शुरू की.
सिरेमिक आर्ट में प्रयोगों का सिलसिला इस वक्त 'स्टूडियो पॉटरी' के रूप में सामने है. स्थापना के तीन वर्ष के भीतर 2015 में मिन्हास पॉटरी की फैक्ट्री में करीब दो मीट्रिक टन पात्र प्रतिदिन बनने लगे जो अब बढ़कर साढ़े चार मीट्रिक टन पात्र प्रति दिन हो गए हैं.
आज 300 से ज्यादा कर्मचारी गुलजीत के सपने को आकार दे रहे हैं. आज 45 देशों में उनके उत्पाद निर्यात होते हैं. फैब इंडिया, स्वदेश समेत देश और विदेश के सभी बड़े ब्रांड मिन्हास पॉटरी के बड़े ग्राहक हैं. खुर्जा में जीटी रोड के किनारे बनी अपनी फैक्ट्री में बैठे गुलजीत बड़ी शान से कहते हैं, "खुर्जा आज चीन से आगे निकल गया है."