रमेश चंद्र गुप्ता: कभी मोटरसाइकिल पर बेचते थे पुर्जे, आज 5 कंपनियों के मालिक
मैट्रिक पास कर रोजगार की तलाश में राजस्थान के एक छोटे से गांव से पटना आए रमेश चंद्र गुप्ता, जो कभी बाइक पर माल लादकर दुकान-दुकान बेचते थे, आज पांच कंपनियों के मालिक हो गए हैं.

करीब 40 साल पहले की बात है. पटना शहर के पुराने इलाके में उनकी एक छोटी सी फाउंड्री थी. जिस फाउंड्री में वे डीजल इंजनके स्पेयर पार्ट तैयार करते और अपनी राजदूत मोटसाइकिल के पीछे लादकर पटना और आसपास के कई जिलों में उसे घूम-घूमकर दुकानों को बेचते. सालभर में बमुश्किल बीस हजार रुपए आमदनी होती. मगर वे उससे भी खुश थे, क्योंकि उन्होंने पांच सौ रुपए महीने की नौकरी छोड़कर यह फैक्ट्री शुरू की थी.
मगर आज बिहार में उनकी स्टील रॉड की तीन बड़ी कंपनियां हैं. इसके अलावा एक कंपनी पीवीसी पाइप की है और एक मेडिकल सिरिंज की. 40 साल की मेहनत में आज वे बिहार के उन बड़े उद्यमियों में गिने जाते हैं, जिन्होंने अपने दम पर अपना औद्योगिक साम्राज्य खड़ा किया है. यह कहानी रमेश चंद्र गुप्ता की है.
रमेश चंद्र गुप्ता पटना की एग्जिबिशन रोड की एक सामान्य सी इमारत के टॉप फ्लोर पर बने अपने दफ्तर में मिलते हैं. वे बताते हैं, "1979-80 में जब मैंने अपनी पहली छोटी-सी फैक्ट्री शुरू की थी तो अपना माल इसी एग्जिबिशन रोड के दुकानदारों को सप्लाइ करता था. तब मेरे पास मोटरसाइकिल भी नहीं थी. छह-सात साल पहले मैट्रिक पास करके राजस्थान के अलवर जिले के छोटे से गांव तातारपुर से यहां आया था." पटना में रमेश के दो मामा रहते थे जो यहीं रेडिमेड कपड़ों का व्यापार करते थे.
अलवर जिले के तातारपुर गांव में उनके पिता श्रीराम गुप्ता की एक छोटी-सी किराने की दुकान थी, जहां दिन भर में मुश्किल से 40-50 रुपए की सेल होती थी और पांच-दस रुपए की कमाई. महीने की ढाई-तीन सौ रुपए की कमाई में उनके पिता ने उन्हें और उनके चार अन्य भाइयों को मैट्रिक तक पढ़ाया. उनके छोटे से गांव में इसके आगे पढ़ने की गुंजाइश नहीं थी. इसलिए उन्हें अपने मामा के साथ पटना आना पड़ा. यहां उन्होंने पांच से छह साल अपने दोनों मामा की दुकान में बतौर मैनेजर काम किया और फिर एक दिन वे इस रोजगार में उतर गए.
पिता किराने की दुकान और मामा के कपड़े के कारोबार से इतर उन्होंने लोहे का कारोबार क्यों शुरू किया, इस सवाल पर गुप्ता बताते हैं, ''पटना में मेरे एक मित्र एक फाउंड्री में मैनेजर थे. वे अक्सर इस बिजनेस के फायदे के बारे में मुझे बताते थे. उनकी वजह से ही मैं इस कारोबार में आया."
अपने आगे के सफर के बारे में बताते हुए रमेश चंद्र गुप्ता कहते हैं, "मैंने अपनी पहली फैक्ट्री सिर्फ 10,000 हजार रुपए में शुरू की थी. 5,000 रुपए में एक वर्कशॉप खरीदा और 5,000 में भट्टी का सामान. मगर जब ये कारोबार फायदा देने लगा, हमारे प्रोडक्ट की मांग बढ़ने लगी तो हमने फिर 1985 में दीदारगंज चेकपोस्ट के पास एक पुरानी बंद पड़ी फाउंड्री को जमीन समेत डेढ़ लाख रुपए में खरीद लिया. अब हमारी फैक्ट्री महीने में 50 टन माल तैयार करने लगी.’’ रमेश चंद्र माल की गुणवत्ता पर ध्यान देते थे और डिमांड बढ़ती तो उत्पाद क्षमता बढ़ा लेते. डीजल पंप के स्पेयर पार्ट सप्लाइ करने के दौरान उन्हें समझ आया कि बिहार के बाजार में पीवीसी पाइप की भी जबरदस्त मांग है."
1994 में उन्होंने शिवा पीवीसी पाइप फैक्ट्री की शुरुआत की. इस फैक्ट्री को शुरू करने के दौरान उन्हें दो साथी मिले. एक सबलपुर के पुराने बाशिंदे थे, जिनके पास कुछ जमीन थी. एक चार्टर्ड एकाउंटेंट थे. इन तीन लोगों ने मिलकर तीस लाख रुपए में यह फैक्ट्री शुरू की.
मांग के अनुसार फैक्ट्री का आकार लगातार बढ़ता रहा. कुछ समय बाद उन्होंने एक मारुति वैन भी खरीद ली थी, जिससे वे पूरे बिहार में घूमते थे. इस फैक्ट्री ने उन्हें दो कारोबारी पार्टनर दिए, जिनके साथ आज भी कई कंपनियों में वे साझेदार हैं. इन्हीं तीनों लोगों ने मिलकर 1997 में रोलिंग मिल की शुरुआत की, जो उनकी पहली सरिया फैक्ट्री है. उसका नाम दादीजी स्टील प्राइवेट लिमिटेड है.
जब 1997 में सरिया फैक्ट्री शुरू हुई तो वह हर माह सिर्फ 2,000 टन सरिया उत्पादित करती थी. 2017 तक उसका उत्पादन 13 हजार टन प्रति माह तक चला गया था. मांग लगातार बढ़ रही थी. ऐसी में 2017 में उन्होंने फिर एक नई सरिया की फैक्ट्री शुरू की. शिव शक्ति स्टील के नाम से. उसकी उत्पादन क्षमता 15 हजार टन प्रति माह थी.
मगर जल्द ही 28 हजार टन प्रति माह सरिया उत्पादित करने वाली उनकी दो कंपनियां डिमांड को पूरा करने में विफल होने लगीं. यह दौर बिहार में इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट का था. कंस्ट्रक्शन मटीरियल की मांग लगातार बढ़ रही थी. ऐसे में 2021 में उन्होंने फिर एक कंपनी शुरू की.
पटना के फतुहा में उन्होंने तेजस आयरन के नाम से एक अत्याधुनिक स्टील फैक्ट्री की नींव डाली, जिसकी उत्पादन क्षमता 20 हजार टन प्रति माह है. जब यह फैक्ट्री शुरू हुई थी तो पूरे पूर्वी भारत में इससे आधुनिक कोई सरिया प्लांट नहीं था. इस तरह आज की तारीख में उनके पास सरिया बनाने वाले तीन स्टील प्लांट और एक पीवीसी पाइप फैक्ट्री है. इसके अलावा उन्होंने एक मेडिकल सिरिंज की कंपनी भी शुरू की है.
महज 15 साल की उम्र में बिहार आए एक निम्न मध्यवर्ग के युवा रमेशचंद्र आज पचासवें साल में एक सफल कारोबारी बन चुके हैं. उनका लंबा-चौड़ा कारोबार है और सैकड़ों कर्मचारी उनकी फैक्ट्रियों में काम करते हैं. उनके करियर की सबसे खास बात यह है कि उन्होंने बिहार में उस दौर में फैक्ट्रियों की शुरुआत की जब राज्य में अत्यधिक अपराध की वजह से डी-इंडस्ट्रियलाइजेशन हो रहा था. वे उस दौर में भी अपने दोस्तों के भरोसे न सिर्फ टिके रहे, बल्कि अपने कारोबार को आगे बढ़ाते रहे.
सफलता की इस राह में उन्हें कई मुश्किलों से दो-चार होना पड़ा. इस दौरान उनके एक मामा पर जानलेवा हमला हुआ जिसमें उन्हें गोली लगी. इसके बाद उनके दोनों मामा अपना कारोबार समेटकर बिहार से बाहर चले गए. मगर रमेश चंद्र गुप्ता यहीं बने रहे.
2005 में जब सरकार बदली तो उन्हें इसका बहुत फायदा हुआ. खास कर जब राज्य में इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास तेजी से होने लगा, तो अचानक उनके काम में तेजी आ गई. वे कहते हैं, ''मैं कहीं और जा सकता था. मगर आज की तारीख में सरिया की जितनी मांग बिहार में है, उतनी दूसरे राज्य में नहीं. इसलिए मैं टिका रहा."
रमेश चंद्र गुप्ता अपनी कारोबारी सफलता के सीक्रेट के बारे में बताते हुए कहते हैं, ''मैंने यह उसूल बनाया कि मुझे कम से कम लोन लेना है. आज भी मेरे कारोबार में बैंक लोन बमुश्किल दस से पंद्रह परसेंट है. इससे यह सुविधा रही कि जब कारोबार में उतार का समय आया तो मुझे बैंक लोन की किस्त चुकाने के लिए परेशान नहीं होना पड़ा. जबकि आज देखता हूं, कई उद्यमी अपने प्रोजेक्ट से भी अधिक लोन ले लेते हैं, गलत रिपोर्ट बनाकर. मगर बाद में वे किस्त चुकाने में ही बदहाल हो जाते हैं."
65 साल के हो चुके रमेश चंद्र गुप्ता का मन अब धीरे-धीरे समाज सेवा में रमने लगा है. पटना में मारवाड़ी समाज ने मारवाड़ी हेल्थ सोसाइटी की शुरुआत की है, जहां लोगों को बहुत कम कीमत में स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं. वे इसके अध्यक्ष हैं. इसके अलावा वे पटना की कई धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं.
पटना में काम करते हुए भी वे राजस्थान में अपने गांव को नहीं भूले. वे वहां अक्सर जाते हैं. उनके गांव का एक सरकारी स्कूल, जो संसाधनों के अभाव में बंद पड़ा था, उनके प्रयासों से दोबारा चालू हो सका. उन्होंने 2013 से इस स्कूल को मदद भेजनी शुरू की और लगभग बंद पड़ा स्कूल एक इंग्लिश मीडियम को-एजुकेशन स्कूल में बदल गया है. अपने गांव में उन्होंने एक गौशाला का भी निर्माण कराया है. वे कहते हैं, उनका मन ऐसे ही कामों में रमता है.