एक कारोबारी सिनेमाकार जिसके नाम दर्ज हैं पिछले दशक की सबसे असरदार फ़िल्में

उन्नीस साल की उम्र में दर्द, डर और शर्म के मायने समझकर दिग्गज निर्माता-निर्देशक मनीष मूंदड़ा ने कामयाबी की वह कहानी लिखी कि कहानियों को भी अपनी परिभाषा बदलनी पड़ी. एक दशक में मनीष ने सिनेमा में अपने दम पर एक आंदोलन खड़ा कर दिया

मनीष मूंदड़ा, 5० वर्ष  संस्थापक, दृश्यम फिल्म्स
दृश्यम फिल्म्स के मनीष मूंदड़ा

अभिने संजय मिश्रा साल 2014 में जब एक सिनेमाघर में चलते शो के बीच दो लोगों के साथ पहुंचे तो दर्शक फिल्म में डूबे हुए थे. उन्हें फिल्म के साथ एक सुर में हंसते-रोते देख संजय भावुक हो गए. वजह? लीक से हटकर बनी इस फिल्म को लेकर सारे डर दूर हो चुके थे. फिल्म थी आंखों देखी. ऐक्टर-डायरेक्टर रजत कपूर के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने एक झटके में फिल्मी दुनिया के नियमों को धता बता दी थी. फिर तो जैसे अच्छी कहानी पर बने सार्थक सिनेमा का सिलसिला सा चल पड़ा.

आंखों देखी (2014), मसान (2014), धनक (2015), न्यूटन (2017), कड़वी हवा (2017), कामयाब (2019), रामप्रसाद की तेरहवीं (2019). इन सारी फिल्मों में एक जैसा क्या है? जवाब होगा, लीक से हटकर बनीं ये सारी फिल्में बेहद शानदार थीं. लेकिन इन फिल्मों में एक बात और है जो एक ही जैसी है. ये सारी फिल्में एक ही शख्स की वजह से बन सकीं.

मनीष मूंदड़ा, 5० वर्ष संस्थापक, दृश्यम फिल्म्स

कारोबारी-निर्माता-निर्देशक मनीष मूंदड़ा. साल 2014 में संजय मिश्रा के साथ उसी सिनेमाघर में मौजूद वह शख्स, जो अगले कुछ बरसों में कई कहानियों के भटक रहे प्रेतों को सुनकर 'मुक्त’ करने वाला था. माया नगरी की हवा में तैर रही दर्जन भर कहानियों को पर्दे पर मनीष मूंदड़ा की वजह से शक्ल मिली.

नाइजीरिया में एक मल्टी-नेशनल पेट्रो केमिकल कंपनी के बेहद सफल सीईओ को अचानक फिल्म बनाने की क्यों सूझी? मनीष बताते हैं, "मुझे हैरत हुई जब दिग्गज अभिनेता रजत कपूर ने सोशल मीडिया पर लिखा कि कोई अच्छी कहानी पर फिल्म नहीं बनाना चाहता. मुझे शायद फिल्म इंडस्ट्री छोड़कर थिएटर की दुनिया में वापस चले जाना चाहिए, मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि आपकी फिल्म मैं बनाऊंगा." 

बिहार के देवघर (अब झारखंड में) में मनीष के पिता का कारोबार ठीक उसी दिन अर्श से फर्श पर आया जिस दिन मनीष का जन्म हुआ. तेंदू पत्ते के जमे-जमाए व्यापार को मौसम की मार ने तहस-नहस कर दिया. नतीजतन, जिस शहर में मनीष के परिवार को रुतबेदार परिवारों की फेहरिस्त में गिना जाता था, ठीक उसी शहर में उन्हें काम भर सम्मान के लिए दर-ब-दर होना पड़ा.

बरसों पहले 'कामयाब शख्स’ का दुनियावी तमगा हासिल कर चुके मनीष आज जब उन दिनों की बात करते हैं, तो नाकामयाबी का असर इतना ताजा मालूम पड़ता है जैसे कल ही की बात हो. "दर्द, डर और शर्म क्या होते हैं, मुझे तब पता चला जब मुझे अपने उस शहर में परिवार की मदद के लिए छोटे-छोटे काम करने पड़े, जिसमें मेरा स्कूल था, दोस्त थे, जानने वाले थे...आप कहीं छिप नहीं सकते थे क्योंकि देवघर इतना छोटा शहर था कि बच्चों को गाड़ियों के नंबर तक याद रहते थे."

कभी शर्बत, कभी साड़ी, तो कभी च्यवनप्राश बेचने तक, मनीष ने वह हर मुमकिन कोशिश की जिससे परिवार की हालत में सुधार आ सके. फिर उन्हें एहसास हुआ कि इनमें से कोई भी कोशिश कामयाब क्यों नहीं होती— 'पूंजी के बिना आपका कोई भी काम कैसे चल पाता. और मुझे यह बात बहुत जल्दी समझ में आ गई कि बिना पूंजी के ये सारे काम करते रहने का मतलब था पूरी जिंदगी खपाने के बाद भी कुछ हासिल नहीं होगा.’

साल 1991 में हावड़ा-दिल्ली एक्सप्रेस से अपनी दादी के घर जोधपुर पहुंचे मनीष मूंदड़ा ने शिक्षा का दरवाजा खटखटाया. दही की दुकान पर ग्राहकों के लिए दही तौलते हुए भी वे जानते थे कि संघर्ष का पलड़ा अपनी तरफ झुकाने के लिए तराजू पर डिग्री का बाट रखना ही पड़ेगा. मनीष कहते हैं, "इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप किस जगह से आते हैं, आपको जीवन में कितनी मुश्किलें झेलनी पड़ रही हैं, मैं हर युवा से कहूंगा कि शिक्षा सब कुछ बदल सकती है."

मनीष बताते हैं कि साल 1997 में एमबीए करने के बाद उनके दिन बहुरे. एमबीए करते ही मनीष कैंपस प्लेसमेंट के तहत आदित्य बिरला ग्रुप के साथ जुड़ गए. मनीष के कॉर्पोरेट में आने के शुरुआती पांच साल सबसे उपजाऊ साबित हुए. वे कहते हैं, "मैंने तय कर लिया था कि जिन हालात से मैं बाहर आया था, जब महीने के राशन का इंतजाम सबसे बड़ी मुश्किल थी, वह हालत दोबारा नहीं होनी चाहिए."

पांच साल में पांच प्रमोशन पाकर मनीष यह तय कर चुके थे कि उन्हें अब जीवन में पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना. और यही हुआ भी, जब देवघर से बिना पूंजी के निकले मनीष  आदित्य बिरला ग्रुप के टॉप मैनेजमेंट के साथ सीधे जुड़े. साल 2002 में इनके जुनून को नया पता मिला और वे पेट्रोकेमिकल कंपनी इंडोरामा के साथ काम करने अफ्रीका के नाइजीरिया पहुंच गए. वे इंडोरामा में महज बत्तीस साल की उम्र में सीईओ बन चुके थे.


काम में ईमानदारी हो तो नतीजे मिलते हैं," मनीष यह किस असर के साथ कहते हैं इसे मापना हो तो बतौर निर्माता उनकी पहली फिल्म आंखों देखी के नतीजे देखें. तीन फिल्मफेयर अवॉर्ड और तीन स्क्रीन अवार्ड. बहुत मुमकिन था कि मनीष के इस प्रयोग को 'एक पैसेवाले एनआरआइ की खब्त’ कहकर खारिज कर दिया जाता. लेकिन दुनिया भर के जाने-माने कान फिल्म फेस्टिवल और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार तक पहुंचने में मनीष को सिर्फ साल भर का समय लगा.

बतौर निर्माता मनीष मूंदड़ा ने मसान (2014) और धनक (2015) बनाकर मुनादी कर दी थी कि बिना दूरदर्शिता और रणनीति के वे इस क्षेत्र में सिर्फ भाग्य आजमाने नहीं आए थे. इन्होंने न सिर्फ आगे भी फिल्में बनाते रहने का इरादा जाहिर कर दिया था बल्कि बाकायदा फिल्मों का प्रोडक्शन अपने हाथ में रखने के लिए अपना प्रोडक्शन हाउस 'दृश्यम’ शुरू किया, जहां गैर-परंपरागत निर्माता के तौर पर उन्होंने इस बात का खास ख्याल रखा कि उनका सिनेमा असर पैदा करे.

यही असर था कि साल 2017 में दृश्यम फिल्म्स की न्यूटन देश दुनिया में सराही तो गई ही, 90वें अकादमी पुरस्कारों में भारत की ऑफिशियल एंट्री के तौर पर ऑस्कर्स में भेजी गई. फिल्मी दुनिया को बतौर निर्माता करीब दस साल देखने के बाद मनीष ने साल 2022 में एक बेहतरीन फिल्म सिया खुद भी डायरेक्ट की. गुजरे हुए और आने वाले कल से इतर, आज में जीने का सबक देने वाले मनीष दार्शनिक भाव से कहते हैं कि ठआप किसी जरूरतमंद के काम आ सकें, इससे बेहतर क्या होगा.ठ

उनका यह जीवन दर्शन कोविड महामारी के दौरान दिखाई देता है जब वे घर लौट रहे मजदूरों के लिए संसाधन, मरीजों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर और दवाएं मुहैया करवाने में मदद करते हैं. यह मदद के लिए लगाई आवाज सुनने का साहस था जो मनीष को नाइजीरिया से खींचकर मुंबई ले आया. और जरूरी जगह मदद पहुंचाने की नीयत ही है जो अब इस भारतीय निर्माता-निर्देशक को हॉलीवुड भी ले चली है.

दृश्यम इंटरनेशनल ने इटैलियन-जर्मन डायरेक्टर नोरा जैनिक की फिल्म आइलैंड पर दांव खेला है. जब मनीष कहते हैं कि 'अगले साल मैं खुद हॉलीवुड की फिल्म डायरेक्ट करूंगा’ तो उनके लहजे में खुशी से ज्यादा भरोसा झलकता है. वही भरोसा जिसके पंख लगाकर एक उन्नीस साल का लड़का देवघर से बरसों पहले अपनी नियति का आसमान मापने उड़ चला था. क्योंकि यह शख्स किस्मत के भरोसे नहीं बैठता. बॉलिवुड के वर्सेटाइल अभिनेता संजय मिश्रा मनीष के बारे में कहते हैं कि मनीष दिल से कलाकार हैं. खुद पर और दूसरों पर भी बेजोड़ भरोसा करते हैं, इसीलिए इतना कमाल का सिनेमा बनाते रहे हैं. भीतर से जितने मजबूत, उतने ही भावुक भी हैं. कभी मुश्किलों के आगे घुटने नहीं टेके. 
 

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