कारून का खजाना

बेहिसाब विविधताओं वाला भारत का हस्तशिल्प क्षेत्र न जाने कितने तूफान झेलकर भी फल-फूल रहा.

नैनी की फिरोजा बेगम मूंज के अपने हस्तशिल्प के साथ
नैनी की फिरोजा बेगम मूंज के अपने हस्तशिल्प के साथ

विशेषांक : भारत की शान

हस्तशिल्प

जया जेटली, एक्टिविस्ट, लेखक और हस्तशिल्प क्यूरेटर

हालांकि यह लेख देश के हस्तशिल्प क्षेत्र के महत्वपूर्ण पड़ावों की फेहरिस्त जुटाने की कोशिश है, लेकिन ऐसा कुछ जुटा पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि यह निरंतर धारा बदलती विशाल सदानीरा प्रवाहमान नदी की तरह है, जो बाहरी दबावों से कभी मंद, तो कभी समृद्ध होती रहती है.

वेदों में वर्णित शिल्प शास्त्र के समय से ही भारत के शिल्प कौशल और परंपराओं के विशाल भंडार का सदा प्रवाहमान अस्तित्व हमारी सभ्यता का एक चमत्कारिक उपहार है. इसका असल इतिहास 1947 के हमारे स्वतंत्रता दिवस से सहस्राब्दियों पहले से शुरू होता है. दक्षिण के चोल और विजयनगर राजवंशों ने इसे अपनी शक्ति के सार्वजनिक प्रदर्शन का हिस्सा बनाया और शिल्प कौशल पर विशेष ध्यान दिया.

आगे चलकर मुगलों ने भारतीय शिल्प में कई तरह की महीन कारीगरी जोड़ी, जो हमारे शिल्प की शब्दावली में समाहित हो गई. हालांकि, ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने अपने औद्योगिक अभियान में रुकावट बनने वाली हर हस्तकला और दस्तकारी को नेस्तनाबूद कर दिया. अलबत्ता, बाद में उन्हें उसकी कीमत समझ में आई और लंदन में शानदार प्रदर्शनियों में उन्होंने दस्तकारी के कई सुंदर नमूने पेश किए, ताकि अपने उपनिवेश की चमत्कारी कला को दिखा सकें.

सन् 1947 में जब भारत आजाद हुआ, तो महात्मा गांधी से लेकर कमलादेवी चट्टोपाध्याय और दीनदयाल उपाध्याय जैसे दिग्गजों और कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने ग्रामीण उद्योगों के महत्व पर जोर दिया. राजधानी दिल्ली में केंद्रीय कुटीर उद्योग एंपोरियम और राज्य एंपोरियम जैसे बिक्री केंद्र खोले गए, ताकि कुटीर उद्योग के शिल्प शहरी जनता के लिए उपलब्ध हो सकें.

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का जोर इन्फ्रास्ट्रक्चर और भारी उद्योग पर था, लेकिन पंचवर्षीय योजनाओं में हस्तशिल्प, हथकरघा और खादी क्षेत्र के लिए भी आवंटन किया गया. हालांकि, शुरुआत में यह आवंटन काफी उदारतापूर्वक हुआ, मगर धीरे-धीरे उत्पादन के दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले इसका प्रतिशत घटता गया.

फिर भी जब ग्रामीण बाजारों में औद्योगिक वस्तुओं का सैलाब उमड़ना शुरू हुआ, तो सरकार ने हस्तशिल्प के विकास और संवर्धन के लिए सब्सिडी और अनुदान देकर उन्हें जीवित रखा. शिल्पकारों को लगातार राष्ट्रीय और राज्य पुरस्कारों से नवाजा गया और बाद में पद्मश्री और शिल्प गुरु जैसी उपाधियां भी दी गईं.

लगभग सभी शिल्पों को सरकार की ओर से मदद और बढ़ावा मिला, लेकिन कश्मीर, राजस्थान और गुजरात में कुछ व्यापारिक प्रतिष्ठानों और कुछ अन्य निजी उपक्रमों ने विदेशों में आयातकों के साथ संबंध विकसित किए. 70 के दशक में हो रहे शिल्प संबंधी निर्यात में केवल कालीन, रत्न और आभूषण ही शामिल थे. हालांकि, 80 के दशक में कुछ राज्य एंपोरियम भी इस क्षेत्र में आए.

गुजरात सरकार के उद्यम गुर्जरी के लिए डिजाइन और नई मार्केटिंग रणनीतियों के माध्यम से ग्रामीण उत्पादकों को शहरी बाजार के साथ जोड़ने का मेरा व्यक्तिगत अनुभव अपने आप में एक अनोखी सफलता थी. दूसरी सरकारी संस्थाओं को भी इस उपक्रम से प्रेरणा मिली.

80 के दशक में हैंडब्लॉक प्रिंटेड टेक्सटाइल, टाइ-डाइ फैब्रिक, उत्तम कढ़ाई और बुनाई की विशाल शृंखला की खोज और प्रचार, गुर्जरी का प्रमुख योगदान था, जिसका फायदा आजादी के बाद देश में नए बुटीक शुरू करने वाले उद्यमियों को मिला. सोनिया गांधी, अभिनेत्री शबाना आजमी, नीना गुप्ता, दिवंगत स्मिता पाटील, और तेजी बच्चन जैसी शख्सियतें गुर्जरी के नियमित खरीदार थे. यह उपक्रम राजधानी में पारंपरिक फैशनपरस्त लोगों का एक मुख्य ठिकाना बन गया था.

उसी दौर में पुपुल जयकर की ओर से स्थापित राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान का जोर शुरू में तो औद्योगिक डिजाइन पर ही था, लेकिन उसने भी हस्तशिल्प पर गंभीरता से ध्यान देना शुरू किया. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी से हस्तशिल्प को नया प्रोत्साहन मिला. युवा फैशन डिजाइनरों ने जल्द ही महसूस किया कि भारतीय शिल्प कौशल वैश्विक बाजारों के लिए अभिनव था और उन्हें विशिष्ट पहचान दिला सकता था.

इसके बाद बहुत-से निजी क्षेत्र के डिजाइन संस्थान भी हस्तशिल्प की ओर मुड़े. इस दिशा में सूरजकुंड शिल्प मेला 80 के दशक के मध्य में शुरू हुआ. 1990 के दशक में निम्न-गुणवत्ता वाले औद्योगिक विदेशी ब्रांडों से ऊबे पैसे वाले अभिजात्य वर्ग को हस्तशिल्प सुहाने लगा. दिलचस्प बात यह है कि भारत के हस्तशिल्प पर वैश्विक ब्रांडों की छाया पडऩा तो दूर, इसकी विशिष्टता, विविधता और प्रचुरता ने फैशनपरस्तों को एक बिलकुल अलग विकल्प दिया. जमीनी स्तर पर वैश्वीकरण के नुकसानों के बावजूद, देश की विविध और विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं ने स्थानीय उत्पादों को जीवित रखा.

अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने का खतरा मोल लेते हुए बताऊं तो विशेष रूप से शिल्पकारों को समर्पित एक स्थायी शिल्प बाजार के रूप में मैंने 'अर्बन हाट’ की अवधारणा पेश की, ताकि वे बिचौलियों के बिना सीधे अपने काम की बिक्री कर सकें. 1994 में राजधानी में बना दिल्ली हाट इसी परिकल्पना की बानगी था. मध्यवर्गीय शहरी लोगों के साथ सीधे संपर्क ने तमाम शिल्पों को फलने-फूलने और पहचान हासिल करने में मदद की. ऐसे स्थानों पर हस्तशिल्प की मौजूदगी से व्यापार और पर्यटन को भी लाभ होने लगा.

सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ एनजीओ, डिजाइनरों और ऑनलाइन प्रबंधकों में हस्तशिल्प के आकर्षण के प्रति जागरूकता बढ़ी, जिसके  चलते शिल्पकारों की आजीविका के संरक्षण पर नए सिरे से जोर दिया जाने लगा. सरकार ने इसे कपड़ा मंत्रालय तक सीमित करने के बजाय, संस्कृति और विदेश मामलों के मंत्रालयों के भीतर भी हस्तशिल्प के लिए अलग जगह बनाई. कठिन समय में हस्तशिल्प बिरादरी को पुनर्वास के लिए विशेष राहत का बंदोबस्त किया गया. मसलन, गुजरात में भारी भूकंप और ओडिशा में महाचक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के बाद उन्हें हर तरह की मदद दी गई.

यहां कोविड-19 महामारी का विशेष रूप से जिक्र करना जरूरी है. शिल्पकारों ने जैसी दयानतदारी दिखाई, वह सभी के लिए एक सबक है. कई बुनकरों ने दूसरों के साथ कच्चा माल साझा किया, कुछ ने पुलिस, बैंक और रेलवे कर्मियों के लिए मास्क बनाए. कच्छ के शिल्पकारों ने राशन की कमी से जूझ रहे लोगों के साथ अपने खेतों की उपज साझा की. पश्चिम बंगाल में एक बाटिक कलाकार और उसके साथियों ने खाली प्लॉट पर सब्जियां उगाईं और पड़ोसियों में बांटीं.

पारंपरिक कलाकारों ने गैर-सरकारी संगठनों के जरिए ऑनलाइन बिक्री के लिए सैकड़ों की संख्या में मास्क बनाने के अलावा, मास्क पहनने, हाथ धोने और सैनिटाइजर का उपयोग करने जैसे बीमारी से बचने के उपायों को अपनी पुरानी शैली की आकृतियों में चित्रित किया. हमारे संगठन ने इसे लंदन और सिंगापुर को निर्यात भी किया. महामारी के बाद, बाजारों में हस्तशिल्प के लिए उत्साह सैलाब की तरह उमड़ा. ऐसा लगता था कि काले बादल छंट गए हैं. किसी ने दिक्कतों की बात नहीं की. वैसे भी, वह सब किसी बुरे सपने जैसा था, जिसे भूल जाना ही बेहतर था.

पिछले पांच वर्षों में प्रतिभाशाली आर्किटेक्ट, इंटीरियर डिजाइनर, ग्राफिक डिजाइनर, पुस्तक इलस्ट्रेटर और फोटोग्राफर वगैरह के सहयोग से देश में हस्तशिल्प की पहुंच का दायरा व्यापक हुआ है, जो अब टेक्नोलॉजी, इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से और अधिक सुलभ हो गया है.

पीढ़ीगत कौशल, बिक्री की बेहतर सुविधाओं, लचीलेपन और नए बदलावों के साथ प्रासंगिक बने रहने की क्षमता ने हस्तशिल्प को नया जीवन और शक्ति प्रदान की है. इसने सरकारी एजेंसियों और निजी उद्यमियों को समान रूप से आकर्षित किया है. इस अनूठे पुनर्जागरण का सर्वाधिक श्रेय देश के शिल्पकारों को दिया जाना चाहिए.

वक्त के साथ कदमताल
स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने शिल्प क्षेत्र की अहमियत पहचानी और इसके विकास के लिए उदारता से धन आवंटित किया

शिल्पकारों के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय पुरस्कार स्थापित किए गए और बाद में पद्म श्री और शिल्प गुरु पुरस्कार भी दिए जाने लगे

शिल्प मेलों और पर्यटन से जुड़े मेलों ने हस्तशिल्प के अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा दिया

नए आधुनिक डिजाइन विकसित करने और उन्हें प्रदर्शित करने पर विशेष ध्यान दिया गया, जिससे ब्रांडेड आयातों से प्रतिस्पर्धा करते हस्तशिल्प को बढ़ावा मिला

शहरों में 'हाटों’ की अवधारणा से दस्तकारों को सीधे ग्राहकों से जुड़ने में मदद मिली

विदेशों में आयोजित निजी शिल्प बाजारों और सरकारी व्यापार मेलों ने शिल्पों को ज्यादा बड़ा मार्केटिंग प्लेटफॉर्म दिया

राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान और राष्ट्रीय फैशन टेक्नोलॉजी संस्थान सरीखी संस्थाओं और बाद में निजी डिजाइन संस्थाओं के भी डिजाइन इनपुट ने नवीनतम रुझानों के साथ चलने में इस क्षेत्र की मदद की

एमेजन से लेकर विशेष रूप से शिल्पों के प्रचार और मार्केटिंग के प्रति समर्पित 'बुटीक साइट्स’ तक सोशल मीडिया और ई-कॉमर्स वेबसाइटों के आगमन ने हस्तशिल्प क्षेत्र के विस्तार में मदद की. सरकार ने भी ऑनलाइन मार्केटिंग सुविधाएं स्थापित कीं.

सरकारी इमारतों, निजी क्षेत्र के वास्तुशिल्पियों, इंटीरियर डिजाइनरों, बुक इलेस्ट्रेटरों, होटलों और क्षेत्रीय टूरिस्ट रिजॉर्ट ने हस्तशिल्प को अपने काम में समाहित किया, जिससे क्षेत्र का दायरा बढ़ा

निम्न-गुणवत्ता वाले औद्योगिक विदेशी ब्रांडों से ऊबे पैसे वाले अभिजात्य वर्ग को हस्तश्ल्पि सुहाने लगा.

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