प्रधान संपादक की कलम से

गोरी त्वचा के अभिनेताओं को तरजीह दी जाती है, और कुछ दूसरों ने आदर्श सांचे में ढलने के लिए मेकअप के जरिए डिजिटल ढंग से या बुढ़ापे के दिनों में अपने रंग-रूप बदलवा लिए

इंडिया टुडे कवर : रंग का भेद
इंडिया टुडे कवर : रंग का भेद

—अरुण पुरी

किसी अफसरशाह की काबिलियत, समर्पण या नेतृत्व क्षमता का उसकी त्वचा के रंग से भला क्या लेना-देना! फिर भी भारत में त्वचा के रंग को लेकर गहराई से जड़ें जमाए बैठे पूर्वाग्रह किसी को नहीं बख्शते, यहां तक कि प्रशासनिक सीढ़ी के बिल्कुल शिखर पर विराजमान शख्सियत को भी नहीं.

भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) की 1999 बैच की सम्मानित अधिकारी शारदा मुरलीधरन का मामला ही लीजिए. सितंबर 2024 में उन्होंने अपने पति और साथी अफसर वी. वेणु की प्रशासनिक भूमिका में उतरते हुए उनके उपरांत केरल के मुख्य सचिव का काम संभाला.

दोनों के बीच तुलना तो शायद अपेक्षित ही थी, लेकिन जिस किस्म की तुलना का उन्हें सामना करना पड़ा, उसने कहीं ज्यादा घातक सचाई को उघाड़कर रख दिया. 25 मार्च को फेसबुक पर दिल को छू जाने वाली एक पोस्ट में उन्होंने अपने काम के बारे में किसी की कही बात का जिक्र किया, ''यह उतना ही काला है जितना मेरे पति का सफेद था." उनका जवाब रक्षात्मक नहीं था. यह काफी विचारशील और अत्यंत मार्मिक था.

रंग-आधारित पक्षपात से निबटने के अपने ताउम्र सफर को साझा करते हुए उन्होंने लिखा, "मुझे अपने सांवलेपन को स्वीकार करना होगा." उन्होंने मर्मस्पर्शी वर्णन करते हुए बताया कि चार साल की उम्र में किस तरह एक बार उन्होंने अपनी मां से पूछा कि क्या वे फिर से 'गोरी और सुंदर' पैदा हो सकती हैं. उनकी पोस्ट वायरल हो गई, जिससे देश भर में भावनाओं और चर्चाओं की बाढ़ आ गई. इसने दुखती रग को इसलिए छेड़ दिया क्योंकि कई सारे भारतीय और खासकर महिलाएं ऐसे ही अनुभवों से गुजरी हैं.

यह पूर्वाग्रह नया नहीं है. यह स्कूल में खेल के मैदानों से शुरू होता है और बोर्डरूम से लेकर जीवनसाथी के चयन तक हर जगह इसी तरह से रिसता जाता है. त्वचा को उजला बनाने वाले उत्पादों का बाजार, जिसके 2030 तक 20,500 करोड़ रुपए का पहुंच जाने की उम्मीद है, इस बात की झलक देता है कि यह पूर्वाग्रह कितना सर्वव्यापी और फायदेमंद हो गया है. यह पूर्वाग्रह सौंदर्य के प्रतिमानों पर ही खत्म हो जाए, ऐसा भी नहीं. यह कक्षाओं, दफ्तरों और मीडिया स्थलों पर लोगों के साथ हो रहे बर्ताव पर असर डालता है.

2018 के एक अध्ययन से पता चला कि महिलाओं या उनके परिवार की तरफ से दिए गए 70 फीसद वैवाहिक विज्ञापनों में गोरेपन को वांछित गुण के तौर पर प्रमुखता से रखा गया था. पुरुषों में 60 फीसद से ज्यादा ने बढ़-चढ़कर गोरी त्वचा वाली दुल्हनों की मांग की थी. यहां तक कि शादीडॉटकॉम सरीखे लोकप्रिय प्लेटफॉर्म तब तक त्वचा की रंगत का पैमाना दिखाते रहे जब तक कि उन्हें आड़े हाथों नहीं लिया गया और इसे हटाने के लिए उन्हें मजबूर नहीं कर दिया गया.

यह कितनी बड़ी विडंबना है कि कृष्ण, शिव और राम सरीखे हमारे कई देवताओं को महाकाव्यों में श्यामवर्णी बताया गया है; महाभारत की तेजस्वी-ओजस्वी रानी द्रौपदी भी श्यामवर्ण की ही थीं. तो फिर? दरअसल हम कहीं न कहीं बीच राह औपनिवेशिक विरासतों और विकृत आदर्शों की बदौलत उजली त्वचा को खूबसूरती, काबिलियत और कामयाबी के बराबर मानने लगे.

मीडिया और मनोरंजन उद्योग ने भी मदद नहीं की. गोरी त्वचा के अभिनेताओं को तरजीह दी जाती है, और कुछ दूसरों ने आदर्श सांचे में ढलने के लिए मेकअप के जरिए डिजिटल ढंग से या बुढ़ापे के दिनों में अपने रंग-रूप बदलवा लिए. और जब बेहद दिलकश और प्रतिभाशाली मॉडल और अभिनेत्री पौलोमी दास सरीखा कोई शख्स महज अपनी त्वचा की रंगत की वजह से किसी टेलीविजन शो में अग्रणी भूमिका से वंचित कर दिया जाता है तो यह हमें याद दिलाता है कि ज्यादा कुछ नहीं बदला है.

इससे भी बदतर यह कि यह दबाव सबसे ज्यादा भार महिलाओं पर डालता है. पेशेवर उत्कृष्टता को संभालना ही मानो काफी न हो, उन्हें अक्सर इस बात से आंका जाता है कि वे रंगरूप की रूढ़िबद्ध धारणा में कितनी अच्छी तरह फिट होती हैं.

इस पूर्वाग्रह को डिगाना इतना मुश्किल क्यों है? इसलिए कि यह हमारे इतिहास में गहरे धंसा हुआ है. समाजशास्त्री विवेक कुमार आर्यों और द्रविड़ों के बीच हुई प्राचीन मुठभेड़ और बाद में हमारी औपनिवेशिक पराधीनता की तरफ इशारा करते हैं. इंडियाना यूनिवर्सिटी के मीडिया स्कूल में प्रोफेसर राधिका परमेश्वरन का कहना है कि यह सनक सोशल मीडिया के साथ और घनीभूत होती गई है. उनकी दलील है कि असल बदलाव आरंभ में स्कूलों से ही शुरू होना चाहिए, इससे पहले कि बच्चे इन नुक्सानदेह प्रतिमानों को अपने दिलोदिमाग में बैठा लें, आत्मसात कर लें.

इस हफ्ते की आवरण कथा कई कोणों, आंकड़ों, जिए गए अनुभवों, इतिहास, और विज्ञान के नजरियों से रंगभेद की पड़ताल करती है. एग्जीक्यूटिव एडिटर मनीषा सरूप ने तमाम ब्यूरो से मिली जानकारियों से ऐसी कहानियों का तानाबाना बुना जो अनगढ़, असल और उम्मीदों से भरी हैं. मसलन, असिस्टेंट डायरेक्टर स्निग्धा नायर की कहानी, जिन्होंने यू शीर्षक से शॉर्ट फिल्म बनाकर दिलोदिमाग में घर बनाकर बैठ गई शर्म के खिलाफ लड़ाई लड़ी. उनके शब्द आपके मन में ठहर जाते हैं, "यह कोई विकृति नहीं है, यह सामान्य बात है."

क्यों? क्योंकि हां, यही हमारा सहज-सामान्य है. सांवला रंग, सांवली त्वचा कोई असामान्य चीज तो है नहीं. यह हमारा उद्गम है. सूरज की धूप में जिंदा रहने के लिए हमारे पूर्वजों की काली त्वचा ही तो विकसित हुई. जीवविज्ञान के लिहाज से गोरापन ज्यादा जोखिम भरा और असुरक्षित है. दरअसल, गोरी त्वचा वाले लोगों में त्वचा कैंसर होने की आशंका 70 गुना ज्यादा होती है.

सचाई सीधी-सादी है. मसला त्वचा का रंग नहीं है. मसला यह है कि हम इसे कैसे देखते-समझते हैं. अगर हम समाज के तौर पर आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें अपने पूर्वाग्रहों को अपने मूल्यों से ज्यादा तेज आवाज में बोलने देने से रोकना होगा.

क्योंकि अंत में, असली बदसूरती किसी के रंगरूप में नहीं होती. यह उस आंख में होती है जो किसी की इंसानियत को देखने से इनकार करती है.

बेहतर है अपने पूर्वाग्रह को आप खुद मार डालें, इससे पहले कि वह आपको दबोच ले. बदसूरती देखने वाले के दिमाग में होती है.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).​​​​​​

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