GDB सर्वे : नैतिकता पर भाषण नहीं, काम पर जोर की जरूरत
भारत के लोग नागरिक दायित्वों से परिचित हैं लेकिन अक्सर इस पर अमल नहीं करते. यह सर्वेक्षण दरअसल चेतना और वास्तविक व्यवहार के बीच की फांक को जाहिर करता है.

इस सर्वेक्षण से दो खास नतीजे निकलते हैं. एक तो ये कि देश में ज्यादातर लोग जानते तो हैं कि क्या सही है मगर वे उस पर अमल नहीं करते. दूसरा ये कि दक्षिण भारत के राज्य, खासकर केरल सामाजिक जागरूकता के मामले में उत्तर के मुकाबले मीलों आगे है.
इसके कई पहलू हैं जो व्यापक दायरा तैयार करते हैं. इसमें साफ-सफाई तथा स्वच्छता, धार्मिक सहिष्णुता, तंबाकू पर प्रतिबंध, आस-पड़ोस की सुरक्षा और सबसे अहम स्त्री-पुरुष समानता की जागरूकता है.
ज्यादातर सर्वेक्षणों की तरह इस सर्वे के आंकड़ों के बीच छिपे संदेशों को पढ़ना होगा, अलबत्ता, यह भी ध्यान में रखना होगा कि ऐसे अध्ययनों की कई सीमाएं होती हैं. सबसे आम तो यही है कि सवाल कैसे पूछे जाते हैं और उसी से खेल का पता चल जाता है और जवाब वही आते हैं, जो मानो पहले से रटे-रटाए हैं. लोग भांप लेते हैं कि उनको तौला जा रहा है इसलिए वे ऐसे जवाब देते हैं जिससे वे अच्छे दिखें.
पहली नजर में कुछ नतीजे विवादास्पद लगते हैं, लेकिन गहरी नजर से देखा जाए, तो ये आंकड़े दिलचस्प कहानी बताते हैं. दो मिसालें ही काफी होंगी. इस सर्वेक्षण के नतीजों के मुताबिक, दिल्ली में 99 फीसद का कहना है कि बिना टिकट यात्रा करना बुरी बात है, 86 फीसद लोग सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी फैलाने को नापसंद करते हैं, लेकिन इन दोनों मुद्दों पर रोजमर्रा के अनुभव बिल्कुल अलग कहानी कहते हैं.
इसी तरह, 87 फीसद का मानना है कि बिजली के मीटर से छेड़छाड़ करना गलत है या 88 फीसद का कहना है कि सड़क पर या कहीं भी कोई गंभीर दुर्घटना दिखने में आए तो वे पुलिस या एम्बुलेंस को बुलाने के लिए ठहरेंगे. बेशक, ये आंकड़े संदिग्ध हैं लेकिन इन आंकड़ों से यह निकलकर आता है कि लोग जानते हैं कि गंदगी फैलाना या मीटर से छेड़छाड़ करना या बिना टिकट यात्रा करना गलत है. लेकिन फिर उनकी करनी उनकी कथनी जैसी क्यों नहीं है?
इसमें संदेह नहीं कि नागरिक शास्त्र के व्यापक सबक से सभी लोग बखूबी वाकिफ हैं. यहां तक कि जलवायु परिवर्तन से भी आम लोग (देश भर में 69 फीसद तक) अच्छी तरह वाकिफ हैं, जिसे अक्सर अभिजात वर्ग की फिक्र मान लिया जाता है. हम अगर इन आंकड़ों को ज्यों का त्यों मान लें और लोगों के कहे को ही पत्थर की लकीर मान बैठें तो हम छले जाएंगे, धोखा खा जाएंगे और बड़ी सचाई से दूर रहेंगे, जो कहीं अधिक सबक देती है.
मामला साफ है कि लोग सार्वजनिक व्यवहार के सही-गलत से वाकिफ हैं, तो फिर ज्यादातर व्यवहार में उसका उलट क्यों करते हैं? इस सर्वे से पहले हम चुपचाप यह मान लेते थे कि हममें से बहुत-से लोग नहीं जानते कि उचित और सभ्य व्यवहार क्या है, इसलिए हमें लगता था कि हमारा सबसे बड़ा दायित्व अज्ञानी जनता को जागरूक करना है. सर्वे बताता है कि ऐसा निष्कर्ष बिल्कुल सच नहीं. देश में लोगों को सार्वजनिक नैतिकता का पाठ पढ़ाने की नहीं, सार्वजनिक व्यवहार पर अमल कराने की दरकार है.
इस मकसद से इंडिया टुडे सर्वेक्षण ने कई नतीजों के साथ दूसरे स्रोतों से प्राप्त देशव्यापी आंकड़ों को भी रखा है, जो हमें लोगों के वास्तविक सार्वजनिक व्यवहार के बारे में बताते हैं. इससे लोगों की कही बातों और वास्तव में उनके तौर-तरीकों के बीच बड़ा फर्क दिखता है. अगर 88 फीसद ने वाकई किसी गंभीर दुर्घटना के बारे में रिपोर्ट की, जैसा कि उन्होंने कहा है, तो फिर परिवहन मंत्रालय ने यह रिपोर्ट क्यों दी कि 50 फीसद मौतें इसलिए हुईं क्योंकि समय पर चिकित्सा मुहैया नहीं कराई जा सकी?
एक बार फिर, इस सर्वेक्षण के मुताबिक, 93 फीसद उत्तरदाताओं का मानना है कि बेटियों और बेटों को समान शिक्षा के अवसर मिलने चाहिए; फिर मिडल स्कूल में लड़कियों का ड्रॉपआउट यानी स्कूल छोड़ने की दर इतनी अधिक क्यों है? इसी तरह, अगर सर्वे में 84 फीसद लोग बेटियों को घर से बाहर काम करने जाने देने के हिमायती हैं, तो संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की संख्या इतनी कम क्यों हैं, आइटीआइ में लगभग नगण्य क्यों हैं और पढ़ाई-लिखाई के बाद भी उन्हें अक्सर घर के काम करने के लिए ही क्यों मजबूर होना पड़ता है?
कई ग्रामीण घरों में पढ़ी-लिखी बहू को इसलिए तरजीह नहीं दी जाती कि वह कमाने वाली हो, बल्कि इसलिए कि वह अपने बेटों को स्कूल के होमवर्क में मदद कर सके. इस मामले में भी सर्वे में जोरदार तरीके से बताया गया है कि लोग जो कहते हैं और जो असल में करते हैं, उसके बीच कितना बड़ा फर्क है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, 58 फीसद महिलाओं को अस्पताल या बाजार जाने की भी इजाजत नहीं होती.
यही नहीं, हम यह भी पाते हैं कि महिलाएं उस नजरिए की काफी हद तक हिमायती हैं, जो असलियत में उनके हक में नहीं है. आश्चर्यजनक रूप से, 43 फीसद महिलाओं का मानना है कि घर के सभी मामलों में पुरुषों का फैसला आखिरी होना चाहिए. इसके अलावा, 30 फीसद महिलाओं का कहना है कि बेटियों और पत्नियों को अपनी कमाई को खर्च करने से पहले परिवार की मंजूरी लेनी चाहिए. चौंकाने वाली हकीकत यह है कि 14 फीसद महिलाएं असल में पतियों के हाथों पत्नियों की पिटाई को सही मानती हैं.
कुछ दूसरे मामलों में भी स्थापित पारंपरिक और पुरातनपंथी मान्यताओं की नए सिरे से व्याख्या हो रही है. शहरीकरण और ग्रामीण भारत में मंथन के बावजूद सर्वेक्षण में शामिल दो-तिहाई से ज्यादा लोगों की राय थी कि लड़कियों को मां-बाप की इच्छा के विरुद्ध विवाह नहीं करना चाहिए. इसी तरह, 61 फीसद ने अंतर-धार्मिक विवाहों का विरोध किया और लगभग उतने ही लोग अंतर-जातीय विवाहों में भी विश्वास नहीं करते. यानी कोई ऐसा क्षेत्र जहां परंपरा की जड़ें सबसे ज्यादा गहरी हो गई हैं तो वह है स्त्री भेदभाव या लैंगिक समानता का मामला.
हालांकि लोगों के जवाब और तौर-तरीकों में भारी फर्क वाले दायरों के विपरीत एक दायरा ऐसा है, जहां एक निश्चित सामंजस्य मिलता है. सौभाग्य से, 70 फीसद लोग दूसरे धर्म के पड़ोसियों को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं और लगभग 60 फीसद नौकरियों में धार्मिक भेदभाव का विरोध करते हैं. फिर भी, ऐसे लोगों का एक बड़ा हिस्सा है जो अभी भी धार्मिक पूर्वाग्रहों के साथ खड़े हैं और यह संख्या फिक्रमंद होने के लिए काफी है.
इसके अलावा, यह तथ्य कि केरल की अगुआई में दक्षिण भारत सामाजिक आचार-व्यवहार के मामले में सबसे आगे है, यह भी गौरतलब है कि ऐसे कई मामले हैं जिसमें ग्रामीण और शहरी रवैए में काफी कम फर्क है. गांवों में भी लड़कियों-महिलाओं के साथ छेड़छाड़ एक समस्या है. फिर, ग्रामीण और शहरी भारत दोनों ने बिना टिकट यात्रा, सार्वजनिक कूड़ा-कचरा, लड़कियों की शिक्षा और चुनावी व्यवहार जैसे सवालों पर सही बातें कही हैं. इससे पता चलता है कि इन मामलों पर जानकारी गांवों तक भी पहुंच गई है, यही वजह है कि सोच और तौर-तरीकों के बीच का अंतर इतना साफ है.
इसी तरह, समानता और न्याय के मामले में भी पुरुषों और महिलाओं के जवाब में असल में उतना फर्क न था जितना कि सोचा जाता था. पूरे देश में पितृसत्तात्मक नजरिए को आम तौर पर स्वीकार किया जाता है. जब पूछा जाता है कि क्या पुरुषों को घरेलू मुद्दों पर अंतिम निर्णय लेना चाहिए, तो पुरुष और महिला दोनों कमोबेश एकमत हैं. समुदाय के बाहर विवाह के मामले में भी प्रतिक्रियाओं में समानता है. पुरुष और महिला समान रूप से आम तौर पर ऐसे विवाह के पक्ष में नहीं हैं.
दो निष्कर्ष. पहला और सबसे अप्रत्याशित निष्कर्ष यह कि बहुत-से लोग जानते हैं कि सही सामाजिक आचार-व्यवहार क्या है, फिर भी उसका पालन नहीं करते जिसे वे उचित मानते हैं. दूसरा, ग्रामीण और शहरी प्रतिक्रियाओं के साथ-साथ स्त्री-पुरुष के जवाबों में भी बहुत कम असमानता है. कोई उम्मीद कर सकता है कि वे बहुत व्यापक होंगे. दोनों निष्कर्ष इस नजरिए को पुष्ट करते हैं कि नैतिकता नहीं, बल्कि उन पर अमल करवाना आज की जरूरत है. आगे का काम लोगों को वह करने के लिए मजबूर करना है जो वे कहते हैं पर करते नहीं.
नैतिक भाषण नहीं बल्कि उन पर अमल करवाना आज की जरूरत है. आगे की चुनौती लोगों को वह करने के लिए मजबूर करने की है जो वे कहते हैं पर करते नहीं. नैतिक भाषण नहीं बल्कि उन पर अमल करवाना आज की जरूरत है. आगे की चुनौती लोगों को वह करने के लिए मजबूर करने की है जो वे कहते हैं पर करते नहीं.