GDB सर्वे: शादी-ब्याह के मामले में क्यों हावी है अभी भी रूढ़िवादी सोच?
इंडिया टुडे का हालिया GDB सर्वे बताता है कि अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाहों की स्वीकार्यता के मामले में देश में हर जगह रूढ़िवादिता हावी दिखती है

हमारी रोजमर्रा की जिंदगी को प्रभावित करने वाले सामाजिक-आर्थिक व्यवहार के तमाम महत्वपूर्ण पहलुओं के प्रति भारतीयों की सोच का पता लगाने के लिए इंडिया टुडे पत्रिका की तरफ से कराए गए नए सर्वेक्षण में नतीजों को ग्रामीण-शहरी और लैंगिक आधार पर सारणीबद्ध किया गया है. सर्वेक्षण का एक अनूठा पहलू यह है कि इसके आधार पर एक सकल घरेलू व्यवहार सूचकांक बनाया गया जो विभिन्न मापदंडों पर भारतीय राज्यों की रैंकिंग को दर्शाता है.
सवालों के एक सेट के जरिए यह समझने का लक्ष्य रखा गया कि विविधता और भेदभाव के लिहाज से ग्रामीण/शहरी लोगों, पुरुषों और महिलाओं, और विभिन्न राज्यों की सोच क्या कहती है. सर्वे में पांच प्रश्न पूछे गए ताकि यह जाना जा सकें कि हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में और साथ ही आलोचनात्मक सोच और पसंद-नापसंद के मामले में कितने उदार/अनुदार हैं.
सवाल कुछ इस तरह थे: 1. क्या किसी नियोक्ता को किसी निश्चित धर्म के व्यक्ति को नौकरी पर न रखने का निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए; 2. क्या लोगों को दूसरे धर्म का जीवनसाथी चुनने की आजादी होनी चाहिए; 3. क्या लोगों को दूसरी जाति का जीवनसाथी चुनने की आजादी होनी चाहिए; 4. क्या खान-पान की आदतों के आधार पर भेदभाव किया जाना चाहिए और 5. अलग-अलग धर्मों के पड़ोसियों के साथ रहने में सहज महसूस करते हैं या असहज?
यहां यह बात ध्यान रखना जरूरी है कि सर्वेक्षण हमारे सामने बहुत व्यापक तस्वीर नहीं रखता, क्योंकि सर्वे सीमित नमूने पर किया गया. इसलिए, यह केवल एक 'आंशिक तस्वीर' ही दिखाता है. फिर एक लेख की भी शब्द सीमा होती है, और ऐसे में किसी गहन समाजशास्त्रीय विश्लेषण की अपेक्षा नहीं की जा सकती. फिर भी, विविधता और भेदभाव को लेकर सर्वे में लोगों की जो सोच उभरकर सामने आई, उसे आपके सामने रख रहे हैं.
मोटे तौर पर देखें तो 60 फीसद लोगों को यह मंजूर नहीं कि कोई नियोक्ता लोगों को उनके धर्म के आधार पर नौकरी से अलग रखे. सामान्य तौर पर दोनों ही मामलों में पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक उदार दिखती हैं. हालांकि, राज्यवार उनका व्यवहार अलग-अलग है. सबसे आश्चर्यजनक निष्कर्ष यह है कि सांप्रदायिक विभाजन के इतिहास में आगे गुजरात लोगों को उनके धर्म के आधार पर रोजगार देने के मामले में तमिलनाडु या बिहार की तुलना में अधिक उदार है.
हालांकि, अधिकांश अन्य सवालों के पैमाने पर राज्य की स्थिति गर्व करने लायक नहीं कही जा सकती. एक अजीब बात यह भी सामने आई कि धर्म के आधार पर भेदभाव न करने में उत्तर प्रदेश की तुलना में हरियाणा अधिक उदार है, शायद इसलिए क्योंकि राज्य में अल्पसंख्यक समुदाय का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. वहीं, उत्तर प्रदेश में श्रमिकों की बड़ी संख्या के कारण इस तरह का भेदभाव आम बात है और संभवत: नफरती माहौल के कारण और भी बढ़ गया है.
एक और विरोधाभासी निष्कर्ष यह निकलकर सामने आया कि चंडीगढ़ वैसे तो पितृसत्ता प्रधान उत्तर क्षेत्र के मध्य में स्थित है लेकिन अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाह और विभिन्न धार्मिक समुदायों के मिल-जुलकर रहने के प्रति अत्यधिक उदार नजरिए के साथ यह एक बड़ा अपवाद है. अंतर-धार्मिक और अंतर-जातीय विवाहों की स्वीकार्यता के मामले में हर जगह रूढ़िवादिता हावी दिखती है. जाति और धर्म के बंधनों को तोड़ने को लेकर महिलाएं थोड़ी अधिक सतर्कता बरतती हैं और ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि आखिर सबसे ज्यादा खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ता है.
भोजन के मामले में जाति और शुद्धता-अशुद्धता के अलावा खाने में किसी तरह की मिलावट हमेशा से भारतीयों की राय में काफी मायने रखता है. हालांकि, सर्वेक्षण में शामिल आधे से अधिक उत्तरदाता खानपान की आदतों के आधार पर भेदभाव के पक्षधर नहीं दिखे, फिर भले ही बीफ का सेवन क्यों न हो. राज्यों की बात करें तो केरल और ओडिशा के विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है.
पहला पूरी तरह भेदभाव के खिलाफ है तो दूसरे के लोग भोजन विकल्पों के आधार पर बहिष्कार करना उचित मानते हैं. ओडिशा के लोगों की सोच काफी हैरान करने वाली है क्योंकि शाकाहारी-मांसाहारी दोनों तरह के खानपान वालों की मिश्रित आबादी वाले अधिकांश राज्य कम भेदभाव करने वाले पाए गए. इस तरह के भेदभाव के पक्षधर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे दक्षिणी राज्यों की तुलना में उत्तरी राज्यों में बिहार की सोच अधिक उदार है.
मीडिया में अक्सर ऐसी खबरें आती रहती हैं कि बहुसंख्यक बहुल क्षेत्रों में अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों को घर मिलने में मुश्किल होती है, इस लिहाज से देखें तो सर्वे के नतीजे काफी हैरान करने वाले हैं. दरअसल, इसमें पाया गया कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में उत्तरदाताओं का एक बड़ा हिस्सा (क्रमश: 70 फीसद और 62 फीसद), और पुरुष तथा महिलाएं समान रूप से अन्य धार्मिक समुदायों के लोगों के साथ रहने में सहज हैं. उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में पुरुष और महिलाएं सबसे अधिक असहिष्णु हैं, जबकि हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में इनकी संख्या कम है.
सर्वे से एक और अहम पहलू उभरकर सामने आया कि देश को दो हिस्सों—विंध्य के उत्तर और दक्षिण—के तौर पर समझने का पारंपरिक तरीका पुराना हो चुका है. उपरोक्त सवालों के आधार पर तैयार सूचकांक में केरल, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र शीर्ष पर हैं, जबकि मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सबसे निचले स्थान पर हैं.
बाद वाले राज्य अभी पुरानी बीमारू वाली छवि से पूरी तरह बाहर नहीं आ सके हैं जबकि सबसे उदार राज्य देशभर के हर हिस्से में मिल जाएंगे. इनमें दक्षिण में केरल, पूरब में पश्चिम बंगाल और पश्चिम में महाराष्ट्र शामिल हैं. मुख्य तौर पर दो और बिंदुओं को रेखांकित किया जा सकता है कि चाहे साथ-साथ रहने की बात हो या फिर खानपान की पसंद-नापसंद की, सामुदायिक जीवन में जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव बेमानी होता जा रहा है. लेकिन शादी-ब्याह के मामले में रुढ़िवादी सोच ने अभी भी अपनी जड़ें जमा रखी हैं.
—रविंदर कौर (लेखिका आईआईटी दिल्ली के मानविकी और समाज विज्ञान विभाग में समाजशास्त्र और सामाजिक मानव विज्ञान की प्रोफेसर (एमेरिटा) हैं.)