GDB सर्वे: पब्लिक सेफ्टी में केरल सबसे आगे, लेकिन आवारा कुत्तों से क्यों परेशान हैं वहां के लोग?
इंडिया टुडे के हालिया GDB सर्वे से पता चलता है कि राष्ट्र न तो पूरी तरह से महफूज है और न ही एकदम बेचैन. इसके बजाए यह आत्मविश्वास और चिंता की मिली-जुली स्थिति में उलझा हुआ

अगर जन सुरक्षा मनोदशा है, तो भारत का मानसपटल अंतर्विरोधों, मिथ्याभासों और टिमटिमाती उम्मीदों का कोलाज है. इंडिया टुडे ग्रुप की तरफ से हाउ इंडिया लिव्ज के साथ मिलकर किया गया पहला सकल घरेलू व्यवहार (जीडीबी) सर्वेक्षण न केवल यह पता करता है कि हम क्या करते हैं बल्कि यह भी कि यह करते हुए हम कितना सुरक्षित महसूस करते हैं.
नमूने के आकार और तरीके को लेकर बेशक बहस की जा सकती है, मगर यह सर्वे सच्चे विकसित राष्ट्र को परिभाषित करने वाले आचरण और नागरिक संवेदनशीलताओं के बारे में राष्ट्रीय चर्चा छेड़ने की संभावनाओं से भरपूर है. सर्वे से खुलासा होता है कि राष्ट्र न तो पूरी तरह सुरक्षित है और न ही एकदम बेसब्र-बेचैन, बल्कि वह कहीं बीच की अजीबोगरीब अवस्था में है—आत्मविश्वास और चिंता की मिली-जुली स्थिति में उलझा हुआ, जिसे सीधे-सादे तरीके से बयान नहीं किया जा सकता.
तकरीबन सार्वभौम साक्षरता और शानदार सामाजिक सूचकांकों के लिए पहचाना जाने वाला हरा-भरा तटीय राज्य केरल जन सुरक्षा रैंकिंग में शिखर पर विराजमान है. मगर सुरक्षा की इस मिसाल में भी अंतर्विरोध उभर ही आते हैं. केवल 10 फीसद केरलवासी अपने पास-पड़ोस में असुरक्षित महसूस करने की बात कहते हैं, जो देशभर में सबसे कम आंकड़ा है.
वहीं राज्य एक दिलचस्प विसंगति दिखाता है: बहुत ज्यादा 96 फीसद लोग अपने आसपास आवारा कुत्तों से परेशानी जाहिर करते हैं. यह डर जायज नजर आता है, क्योंकि केरल में 2024 में कुत्तों के काटने के हैरतअंगेज ढंग से 31.6 लाख मामले दर्ज हुए थे, जो 2017 के 13.5 लाख मामलों से दोगुने थे. ऐसे में कोई कह सकता है कि केरल में खतरा साथी नागरिकों से नहीं बल्कि उनके आसपास रहने वाले कुत्तों से है.
फलक के विपरीत छोर पर भारत का सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य और देश का राजनैतिक केंद्र उत्तर प्रदेश है. चिंताजनक ढंग से यहां के 30 फीसद उत्तरदाता मानते हैं कि उनके पास-पड़ोस के इलाके असुरक्षित हैं, जबकि एक-तिहाई लोग हिंसक अपराध की सूचना पुलिस को देने में सहज महसूस नहीं करते. कानून के अमल में मदद करने की यह अनिच्छा गहरे सांस्थानिक अविश्वास को उजागर करती है, जो अलग-अलग मात्रा में पूरे देश में प्रतिध्वनित होता है.
आंकड़ों की इस पच्चीकारी से दरअसल ऐसा राष्ट्र उभरकर सामने आता है जो अब भी नागरिक और राज्यसत्ता के बीच बुनियादी करार कायम करने के लिए जूझ रहा है. हालांकि, अपराध की सूचना देने की तत्परता—जो देशभर में 84 फीसद है—सांस्थानिक न्याय में सैद्धांतिक विश्वास की ओर इशारा करती है.
फिर भी प्रमुख शहरों में सूचना देने की वास्तविक दर से अमल में गहरे फासले का पता चल सकता है. भारतीय नागरिक कानून प्रवर्तन के अमल और व्यवहार से कहीं ज्यादा उसके विचार में यकीन करते नजर आते हैं. उदासीन पुलिस बल की विरासत को मिटाने में बरसों लगते हैं, मगर दर्ज नहीं किया जाने वाला हर अपराध सामूहिक चेतना पर दाग कुरेद देता है.
अशिष्ट समस्या के शिष्ट नाम—छेड़छाड़—को ही लीजिए. सभी उत्तरदाताओं में से 42 फीसद ने माना कि उनके इलाके में छेड़छाड़ होती है, वहीं केवल महिलाओं की राय पूछें तो यह आंकड़ा बढ़कर 44 फीसद हो जाता है. यह बेहद कम अंतर सामाजिक रूप से ओझल मसले को उजागर करता है.
यह खुलासा करता है कि किस तरह जन धारणा सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के साथ हो रही रोजमर्रा की अभद्रताओं को देखने से चूक जाती है. अपने टेक-हब होने के दर्जे के नाते कर्नाटक को भारत के ज्यादा तरक्कीपसंद राज्यों में माना जाता है, मगर इस मोर्चे पर भी सर्वेक्षण का सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आता है: पांच में से करीब चार उत्तरदाता (79 फीसद) स्वीकार करते हैं कि राज्य की महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर उत्पीड़न झेलना पड़ता है.
इसके विपरीत पड़ोसी तमिलनाडु के केवल 17 फीसद उत्तरदाताओं ने कहा कि सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं का उत्पीड़न एक समस्या है. तकरीबन समान सामाजिक-आर्थिक सूचकांक वाले दो पड़ोसी दक्षिणी राज्यों के बीच इस असंगति की आखिर क्या वजह है? शायद वह वजह है एक राज्य में उपेक्षा और चुप्पियों के विपरीत, दूसरे राज्य में जन सतर्कता और सामुदायिक प्रवर्तन की अघोषित जिम्मेदारी का होना. मगर शायद यह धारणा का प्रभाव भी है, और हर नीति-निर्माता जानता है कि धारणा हकीकत जितनी ही दमनकारी हो सकती है.
शहरी भारत में जिंदगी का आधार सार्वजनिक परिवहन सुरक्षा के परिदृश्य में विरले उजले लक्षण के रूप में उभरा. देशभर के 86 फीसद उत्तरदाताओं ने बसों, मेट्रो और लोकल ट्रेनों में सफर करते हुए खुद को सुरक्षित महसूस करने की बात कही. महाराष्ट्र इस श्रेणी में अगुआ है, जहां 89 फीसद उत्तरदाताओं ने माना कि वे सार्वजनिक परिवहन में सुरक्षित महसूस करते हैं, जो शायद मुंबई के आमतौर पर अच्छी तरह से नियम-कायदों से बंधे परिवहन नेटवर्क का प्रमाण है. यहां तक कि इस श्रेणी में फिसड्डी पंजाब में भी सुरक्षा धारणा दर सम्मानजनक ढंग से 73 फीसद है.
यातायात के नियमों के पालन के मामले में भी सर्वेक्षण के नतीजे नागरिक व्यवस्था के साथ भारत के रिश्ते की बढ़िया झलक पेश करते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर 54 फीसद उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके इलाके में यातायात के नियमों का बार-बार उल्लंघन नहीं होता—यह बात भारतीय शहरों में आने वाले विदेशियों को विचित्र लग सकती है.
नाकाफी बुनियादी ढांचे के लिए अक्सर आलोचनाओं का भागी रहा असम सबसे अच्छा व्यवहार करने वाला राज्य आंका गया है, जहां महज 32 फीसद उत्तरदाताओं ने नियमित नियम तोड़े जाने की बात स्वीकारी. कर्नाटक फिर सबसे निचले पायदान पर है, जहां हैरतअंगेज ढंग से 89 फीसद उत्तरदाता नियमित यातायात के नियमों का उल्लंघन होते देखते हैं. ऐसा लगता है कि अफरातफरी विकास का नतीजा कम और रवैये से जुड़ी समस्या ज्यादा है.
कुल मिलाकर 84 फीसद भारतीयों का कहना है कि वे हिंसक अपराध की सूचना देंगे, 86 फीसद लोग सार्वजनिक परिवहन में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं, और 56 फीसद अपने पास-पड़ोस में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. कागज पर ये आंकड़े सम्मानजनक हैं.
मगर ये ऊबड़खाबड़—भारत की गलियों और पगडंडियों पर घटने वाली त्रासदियों और फतहों—को छिपा लेते हैं. सुरक्षा आखिरकार महज खतरे की गैरमौजूदगी ही नहीं है, बल्कि यह विश्वास की मौजूदगी भी है. और विश्वास को जीडीपी या वृद्धि दरों के विपरीत आसानी से नहीं मापा जा सकता. इसे महसूस किया, जिया और पल भर में खो भी दिया जाता है.
अपनी सारी संख्यात्मक सटीकता के बावजूद यह सर्वे आखिरकार अंतर्विरोधों और जटिलताओं की कहानी बयान करता है. यह इस नतीजे पर पहुंचता है कि भारत के जन सुरक्षा परिदृश्य से उसके व्यापक राष्ट्रीय चरित्र की झलक मिलती है, जो ऊबड़-खाबड़ है, विकसित हो रहा है और सीधे-सादे वर्गीकरण के दायरों में अटने से इनकार करता है.
—विक्रम सिंह (लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक और अब नोएडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के चांसलर हैं.)