दिल्ली चुनाव 2025 में कांग्रेस-आप संघर्ष के बाद इंडिया गठबंधन के बारे में क्या सोचती है जनता?

इंडिया ब्लॉक की आंतरिक कलह और चुनावी विफलताओं के बावजूद ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो चाहते हैं कि विपक्षी गठबंधन बना रहना चाहिए

इंडिया गठबंधन के नेता
इंडिया गठबंधन के नेता

भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन या इंडिया ब्लॉक को भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ भव्य गठबंधन के तौर पर खड़ा किया गया था और अब यह अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुंच चुका है. आंतरिक विरोधाभासों, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता ने इसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है. 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात देने की तात्कालिक जरूरत के मद्देनजर साथ आए विपक्षी दलों के बीच आपसी खींचतान अब खुलकर सामने आ चुकी है

 दिल्ली की हालिया चुनावी पराजय और पिछले वर्ष महाराष्ट्र और हरियाणा में हार ने गठबंधन की कमजोरियों को रेखांकित किया है. इससे साफ है कि वैचारिक मतभेद, भूले-बिसरे घटनाक्रम और समन्वय की कमी जैसे असहज मिश्रण ने एक मजबूत राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर प्रचारित किए जा रहे गठबंधन को कमजोर करने में अहम भूमिका निभाई.

विपक्षी गठबंधन शुरू से विरोधाभासों से घिरा रहा है. सबसे बड़ी घटक कांग्रेस अपने वर्चस्व के गौरवशाली अतीत से बाहर आकर आम आदमी पार्टी (आप), तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) और समाजवादी पार्टी (सपा) जैसे क्षेत्रीय दलों को जगह देने की जरूरत को समझने में विफल रही. इंडिया ब्लॉक ने 2024 के आम चुनाव में आश्चर्यजनक ढंग से काफी अच्छा प्रदर्शन किया और भाजपा के लिए अपने बलबूते पूर्ण बहुमत हासिल करना संभव नहीं हो पाया. हालांकि, इसके बाद से उनकी एकजुटता में दरारें और चौड़ी होती गईं. दिल्ली विधानसभा चुनाव में यह दूरी और भी ज्यादा खुलकर सामने आ गई. आप और कांग्रेस दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा, उनकी सियासी दुश्मनी स्पष्ट थी, और इसे देखकर उनकी हार का अनुमान लगाना कठिन नहीं था. भाजपा 27 वर्ष बाद राष्ट्रीय राजधानी में सत्ता में लौटी है. इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर विपक्ष ने रणनीतिक दूरदर्शिता दिखाई होती तो इन नतीजों को पलटा जा सकता था.

महाराष्ट्र में विपक्ष भाजपा-शिवसेना-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की महायुति सरकार के खिलाफ एकजुट मोर्चेबंदी में विफल रहा. हरियाणा में कांग्रेस-आप के बीच गठबंधन की वार्ता विफल होने से भाजपा के लिए जीत की राह आसान हो गई. हर एक नाकामी के साथ गठबंधन के घटकों का एक-दूसरे से मोहभंग होता गया और यह राय जोर पकड़ने लगी कि गठबंधन एक सियासी सुविधा भर है, और बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के साथ असल राजनीति की कसौटी पर परखे जाते समय यह बिखरने लगा.

दिल्ली में आप की हार के साथ देश में गैर-भाजपा, गैर-एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) शासित राज्यों की संख्या घटकर केवल नौ रह गई है, जिसमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, पंजाब, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, तेलंगाना और जम्मू-कश्मीर शामिल हैं. वैसे तो गठबंधन को एक राष्ट्रीय ताकत के तौर पर पेश किया गया था लेकिन यह क्षेत्रीय शक्तियों वाले समूह में सिमट चुका है, और इसका हर एक घटक खुद अपनी सियासी जमीन बचाने में जुटा है. उसकी परस्पर सहयोग में बहुत ज्यादा रुचि नहीं है. बिहार में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और वामपंथी दलों के बीच तकनीकी तौर पर गठबंधन बरकरार है और साल के अंत में होने वाले चुनाव इसकी अग्निपरीक्षा साबित होंगे. अगर मौजूदा रुझान जारी रहा तो चुनाव से पहले तकरार और चुनाव बाद एक-दूसरे के साथ विश्वासघात की आशंका अधिक है.

अब, जरूरत इसकी है कि गठबंधन के आंतरिक मतभेदों को दूर किया जाए, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं पर चुनावी व्यावहारिकता को तरजीह दी जाए और एक सुसंगत विकल्प सामने रखा जाए. अन्यथा मौजूदा रवैये पर ही आगे बढ़ते हुए एक के बाद दूसरी आपदा को निमंत्रण दिया जाए. देश के लोग चाहते हैं कि विपक्षी गठबंधन पहला रास्ता अपनाए. यही कारण है कि राजनैतिक पर्यवेक्षक और आलोचक भले ही विपक्षी गठबंधन का अस्तित्व खत्म होने की आशंकाएं जता रहे हों, मतदाताओं की मजबूत प्राथमिकता इसके बरकरार रहने की उम्मीद जताती है.

फरवरी 2025 में कराए गए नवीनतम देश का मिज़ाज (एमओटीएन) सर्वेक्षण से इसी भावना की पुष्टि होती है, जिसमें 65 फीसद उत्तरदाताओं ने इंडिया ब्लॉक कायम रहने के प्रति अपना समर्थन जताया. यह निष्कर्ष दर्शाता है कि मतदाता केवल सतही स्तर वाला या प्रतीकात्मक विपक्ष नहीं चाहते. उनकी नजर में विपक्ष की भूमिका लोकतंत्र को मजबूत करने वाली होनी चाहिए, जो सत्तावादी होती जा रही सरकार को जन कल्याण और आर्थिक प्रगति के मामलों में जवाबदेह बनाने में रचनात्मक भूमिका निभाए. जब भी विपक्षी दलों ने प्रमुख मुद्दों पर एकजुट और सुसंगत रुख अपनाया है, उसे मतदाता की तरफ से सकारात्मक प्रतिक्रिया ही मिली है. मसलन, आर्थिक और सामाजिक विषमताओं को उजागर करने वाली इंडिया ब्लॉक की बयानबाजी, खासकर जातिगत आधार पर, वंचित तबके की आवाज बनकर गूंजती सुनाई देती है.

अनुसूचित जनजाति के उत्तरदाताओं में से 75 फीसद इंडिया ब्लॉक कायम रहने के पक्षधर हैं, जबकि अनुसूचित जाति के उत्तरदाताओं के मामले में यह आंकड़ा 67 फीसद है. इसके विपरीत, उच्च जाति के 32 फीसद उत्तरदाता चाहते हैं कि गठबंधन खत्म हो जाए. यह विपक्षी दलों की भूमिका और प्रभावशीलता को लेकर मतदाताओं की धारणा में एक महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक विभाजन को दर्शाता है.

हालांकि कई घटक गठबंधन के भीतर अपने कद को और अधिक बढ़ाने की होड़ में जुटे हैं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इंडिया ब्लॉक के नेतृत्व की इच्छा जाहिर की है और इसके लिए उन्हें एनसीपी-एसपी नेता शरद पवार और राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव जैसे दिग्गजों का समर्थन भी हासिल है. लेकिन मतदाता कांग्रेस को विपक्षी राजनीति के केंद्रबिंदु के तौर पर देखता है. देश का मिज़ाज सर्वे में 64 फीसद लोगों ने सही मायने में इसे ही विपक्षी दल माना. ग्रैंड ओल्ड पार्टी के चुनावों में पस्त होने के बावजूद यह धारणा बनी हुई है, इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि कांग्रेस राष्ट्रीय मुद्दों को उठाने में सबसे मुखर है.

असल में कांग्रेस के सिवाय किसी अन्य पार्टी ने आर्थिक नीतियों पर भाजपा-नीत नरेंद्र मोदी सरकार को लगातार और इतने आक्रामक ढंग से चुनौती नहीं दी है. लोकसभा में नेता विपक्ष के तौर पर अपनी भूमिका में राहुल गांधी यह नैरेटिव आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं कि मोदी सरकार गरीबों और मध्य वर्ग की आर्थिक चिंताओं के प्रति उदासीन है. ऐसा लगता है कि सरकार ने भी इस पर गौर किया है. यही वजह है, बजट 2025 को इस नैरेटिव से निबटने और आर्थिक रूप से कमजोर मतदाताओं का विश्वास हासिल करने के प्रयास के तौर पर देखा जा रहा है.

कांग्रेस के लिए सबसे उत्साहजनक बात तो यही है कि 68 फीसद ओबीसी उत्तरदाता इसे असली विपक्षी दल मानते हैं. यह किसी भी जाति समूह में सबसे अधिक आंकड़ा है और सामाजिक न्याय की दिशा में राहुल के निरंतर प्रयासों और ओबीसी मतदाताओं को लुभाने की उनकी रणनीति की सफलता को दर्शाता है. उनकी तरफ से जाति गणना और अपडेट जनगणना डेटा के आधार पर आरक्षण नीतियां लागू करने की वकालत ने इस बदलाव में अहम भूमिका निभाई है. यह देखते हुए कि पिछले जाति-आधारित सर्वेक्षणों से पता चलता है कि ओबीसी भारत की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है, राहुल की तरफ से उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर जोर दिया जाना इस महत्वपूर्ण मतदाता आधार के बीच कांग्रेस की स्वीकृति को बढ़ाने में रणनीतिक राजनैतिक हथियार साबित हो रहा है.

कांग्रेस के विपक्षी राजनीति के केंद्रबिंदु होने के बावजूद पार्टी और उसके नेतृत्व के प्रति मतदाता संतुष्टि में गिरावट दिखी है. केवल 49 फीसद उत्तरदाताओं ने नेता विपक्ष के तौर पर राहुल गांधी के प्रदर्शन को अच्छा या उत्कृष्ट माना, जो छह माह पहले के सर्वे में 51 फीसद की तुलना में कम है. कांग्रेस के समग्र प्रदर्शन को भी झटका लगा और 34 फीसद ने इसे खराब या बहुत खराब माना. यह रेटिंग छह माह पूर्व के 28 फीसद की तुलना में उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाती है. कांग्रेस के प्रदर्शन को उत्कृष्ट या अच्छा बताने वाले उत्तरदाताओं का आंकड़ा 44 फीसद से घटकर 40 फीसद रह गया है.

हालांकि, 54 वर्षीय राहुल गांधी युवा नेता तो नहीं हैं लेकिन पहली बार के वोटरों पर पकड़ बनाते दिख रहे हैं. 18-24 आयु वर्ग के उत्तरदाताओं में से 35 फीसद ने उनके प्रदर्शन को उत्कृष्ट बताया. यह सभी आयु समूहों में सबसे अधिक स्वीकृति रेटिंग है. इससे यह भी पता चलता है कि राहुल पारंपरिक मतदाताओं को भले अपनी नेतृत्व क्षमता का कायल न बना पा रहे हों, लेकिन नए राजनैतिक नैरेटिव तलाश रहे युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल कर सकते हैं.

कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह मतदाताओं की पसंद को चुनावी सफलता में बदल पाने में असमर्थ रही है. हालांकि लोकसभा चुनाव में पार्टी ने अपनी सीट संख्या 99 तक बढ़ा ली थीं जो पिछले एक दशक में सबसे ज्यादा है. दूसरी तरफ, राज्य चुनावों, खासकर हरियाणा और महाराष्ट्र की हार दर्शाती है कि पार्टी ने सत्ता-विरोधी भावनाओं का पूरा लाभ उठाना नहीं सीखा है. राजनैतिक विश्लेषक इन असफलताओं के लिए आत्मसंतुष्टि, कमजोर संगठनात्मक संरचना और प्रेरणाहीन नेतृत्व को जिम्मेदार मानते हैं. देश का मिज़ाज सर्वे से पता चलता है कि अगर आज चुनाव होते हैं तो कांग्रेस की लोकसभा सीटों की संख्या घटकर 78 हो जाएगी. यह निराशाजनक पूर्वानुमान राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पैठ बनाए रखने में पार्टी की चुनौतियों को रेखांकित करता है.

विपक्षी गठबंधन में भी राहुल की स्थिति कमजोर ही हुई है. यह पूछे जाने पर कि इंडिया ब्लॉक के नेतृत्व के लिए कौन सबसे उपयुक्त है, सिर्फ 24 फीसद उत्तरदाताओं ने राहुल का समर्थन किया, जबकि छह महीने पहले ही यह आंकड़ा 32 फीसद था. हालांकि राहुल शीर्ष विकल्प बने हुए हैं लेकिन उनके और उनकी सबसे करीबी प्रतिद्वंद्वी ममता बनर्जी के बीच का अंतर काफी घट गया है. अब उन्हें 14 फीसद उत्तरदाताओं का समर्थन हासिल है, जो छह माह पहले की तुलना में दोगुना है. ऐसे में कहा जा सकता है कि गैर-कांग्रेसी नेतृत्व की मांग को लेकर इंडिया में तीव्र होते सुर राहुल के लिए चिंता का विषय होने चाहिए.

देश का मिज़ाज सर्वे के मुताबिक, अपनी पार्टी के भीतर भी राहुल का दबदबा घट रहा है. हालांकि वे कांग्रेस के सबसे मजबूत नेता बने हुए हैं और 36 फीसद लोगों ने पार्टी नेतृत्व के लिए सबसे अच्छे व्यक्ति के तौर पर उनका समर्थन किया लेकिन अगस्त 2024 में 49 फीसद लोगों के समर्थन की तुलना में यह आंकड़ा काफी कम है. इस बीच, चुनावी राजनीति में आने के साथ प्रियंका गांधी की लोकप्रियता में काफी उछाल आया है, 11 फीसद उत्तरदाताओं ने उन्हें आदर्श कांग्रेस नेता के तौर पर अपनी पसंद बताया. यह आंकड़ा छह महीने पहले की उनकी रेटिंग की तुलना में करीब दोगुना है. गांधी परिवार से इतर सचिन पायलट ने कांग्रेस के भीतर तीसरे सबसे पसंदीदा नेता के तौर पर अपनी स्थिति कायम रखी. यह दर्शाता है कि कांग्रेस को वंशवादी राजनीति से परे देखना चाहिए.

सर्वे बताता है कि मतदाता लोकतंत्र की मजबूती के लिए विश्वसनीय विपक्षी आवाज के उभरने की तीव्र इच्छा रखते हैं

75% अनुसूचित जाति के उत्तरदाता चाहते हैं कि इंडिया ब्लॉक बना रहे जबकि 32 फीसद ऊंची जाति के उत्तरदाता चाहते हैं कि यह खत्म हो जाए

35% 18-24 आयु वर्ग के उत्तरदाताओं ने राहुल गांधी के प्रदर्शन को उत्कृष्ट बताया. यह सभी आयु समूहों में सबसे अधिक स्वीकृति रेटिंग है

प्र: प्रतिपक्ष के मौजूदा नेताओं में कौन विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त है?

नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त?

प्र: क्या इंडिया गठबंधन जारी रहना चाहिए?

प्र: क्या आप मानते हैं कि कांग्रेस ही असली विपक्षी पार्टी है?

प्र: कौन सा कांग्रेस नेता पार्टी का नेतृत्व करने के लिए सबसे उपयुक्त है?

प्र: एक विपक्षी दल के रूप में आप कांग्रेस के प्रदर्शन का आकलन किस तरह करते हैं?

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