2020 में शुरू हुई गर्भ में बेटियों को बचाने की मुहिम; पिछले 5 साल में कितना सुधरा लिंग अनुपात?
1971 में गर्भपात को वैधानिक मान्यता मिली और उसके तुरंत बाद प्रसव-पूर्व जांच तकनीकें आ गईं. यह सब उस समाज के लिए मददगार साबित हुआ जो लड़कों पर आश्रित था और बेटियों को बोझ समझता था

जन्म से पहले ही मार देना, मानवाधिकार का इससे बड़ा उल्लंघन और क्या हो सकता है? इसके बावजूद, देश में जन्म के समय लिंगानुपात (एसआरबी) पर गौर करें तो अवांछित बेटियों से छुटकारा पाने के लिए कन्या-भ्रूण हत्या जैसा अमानवीय कृत्य 21वीं सदी में भी जारी है. अनुपात 2020 में 100 लड़कियों पर 108.1 लड़के का था जबकि नैसर्गिक एसआरबी 105 है. देश में यह एसआरबी 1970 के दशक के पहले होता था.
इसलिए देश में बच्चियों को बचाने की मुहिम लंबे समय से जारी है और पीएनडीटी या प्रसवपूर्व निदान तकनीक (विनियमन और दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 1994 इस दिशा में उठाया गया पहला कदम था. इसके जरिए आनुवंशिक परामर्श केंद्रों, प्रयोगशालाओं और क्लिनिक को प्रसवपूर्व परीक्षण से संबंधित गतिविधियों को अंजाम देने पर रोक दिया गया था.
अधिनियम के तहत पंजीकृत न होने पर ऐसे प्रतिष्ठानों को अल्ट्रासाउंड मशीनों की बिक्री पर भी पाबंदी लगा दी गई और ऐसी तकनीकों के इस्तेमाल को संदिग्ध आनुवंशिक गड़बड़ियों के मामलों तक सीमित कर दिया गया. अधिनियम के तहत इसका उल्लंघन करना गैर-जमानती अपराध है और दोषी पाए जाने पर तीन साल तक की कैद और/या जुर्माना हो सकता है.
देश में वर्ष 1971 में गर्भपात को वैधानिक मान्यता मिली और उसके तुरंत बाद प्रसव-पूर्व जांच तकनीकें आ गईं. यह सब उस समाज के लिए मददगार साबित हुआ जो लड़कों पर आश्रित था और बेटियों को बोझ समझता था. यह जांच एमनियोसेंटेसिस नामक प्रक्रिया का इस्तेमाल करके की जाती थी, जिसमें बच्चे के लिंग का पता करने के लिए सूई डालकर एमनियोटिक द्रव की जांच की जाती थी और उसके बाद लड़की होने पर गर्भपात कर दिया जाता था. यह जांच सस्ती नहीं थी लेकिन सामाजिक स्वीकृति के आगे लोगों को यह अतिरिक्त खर्च घाटे का सौदा नहीं लगता था.
1980 के दशक तक अल्ट्रासाउंड तकनीक आने के साथ ज्यादा लागत भी बाधा नहीं रही, जहां आपके बच्चे का लिंग अल्ट्रासाउंड ग्राफ पर साफ पता चल जाता था. यह जानकारी घातक साबित हुई क्योंकि इससे 'लापता लड़कियों' वाला परिदृश्य हावी होता चला गया और 2000 के दशक में लिंग अनुपात प्रति 100 लड़कियों पर 110 लड़के पर पहुंच गया और अगले 20 वर्षों तक यहीं पर स्थिर रहा. साल 2003 में पीएनडीटी अधिनियम में संशोधन कर गर्भधारण-पूर्व को भी इसके दायरे में लाया गया. नाम बदलकर पीसीपीएनडीटी या गर्भधारण-पूर्व एवं प्रसवपूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम कर दिया गया.
बहरहाल, सिर्फ यह अधिनियम कन्या-भ्रूण हत्या रोकने के लिए नाकाफी था. देश का एसआरबी 1990 के दशक से अगले 20 वर्षों तक 110 पर अटका रहा और साल 2011 में यह 111 पर पहुंच गया. इससे लड़कियों को प्राथमिकता देने के बारे में जागरूकता और विज्ञापन अभियान की जरूरत महसूस हुई. बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान 2015 में शुरू किया गया जिसका उद्देश्य इसी भूमिका को निभाना था. संभव है कि इससे कोई चमत्कार न हुआ हो लेकिन कुछ बदलाव तो आया है. देश में लिंगानुपात अंतर की खाई पटनी शुरू हुई लेकिन यह अभी सामान्य से दूर है.
क्या आप जानते हैं?
इस कानून के तहत भ्रूण के लिंग का पता लगाने के लिए किसी भी उपकरण की बिक्री, वितरण, आपूर्ति या किराए पर लेना भी गैर-कानूनी है
90 लाख लड़कियां 2000 से 2019 के बीच कन्या भ्रूण हत्या के कारण 'लापता' हो गईं. प्यू रिसर्च सेंटर का एक विश्लेषण
इंडिया टुडे के पन्नों से
अंक: 12 नवंबर 2003
लोग और लोकाचार: तेजी से सिकुड़ती आधी आबादी
● स्त्रीरोग विशेषज्ञ ने पूछा, ''मैं क्या मदद कर सकती हूं?'' मैंने बताया कि मैं उम्र के तीसरे दशक के बीच हूं, उच्च रक्तचाप से पीड़ित हूं, मेरा 14 साल का बेटा है लेकिन मैं फिर गर्भवती हूं. मैंने पूछा, ''मैं गर्भावस्था को जारी नहीं रखना चाहती तो क्या आप लिंग-निर्धारण परीक्षण और गर्भपात करवाएंगी?'' उसने कहा, ''आपको पता है यह गैर-कानूनी है?'' और फिर कहा, ''पर मैं एक रेडियोलॉजिस्ट को बुलाऊंगी जो 12 हक्रते पूरे होने के बाद जांच करेगा.''
—शेफाली वासुदेव
स्वागत योग्य पहल
> प्रसवपूर्व परीक्षण प्रतिबंध ने बच्चियों के इर्द-गिर्द केंद्रित अन्य अभियानों की नींव भी रखी—मसलन बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ
> एनएफएचएस-5 (2019-21) के मुताबिक, देश में कुल लिंग अनुपात 2011 में प्रति 1,000 पुरुषों पर 946 महिलाओं की तुलना में बढ़कर प्रति 1,000 पुरुषों पर 1,021 महिला हो गया है, और देश वैश्विक लिंग अनुपात के करीब पहुंच रहा है
> भारत में महिला साक्षरता दर भी सुधरी है, और 2022 में यह करीब 70 फीसद हो गई
''कन्या-भ्रूण हत्या एक मानसिक रोग है. ऐसा अपराध करके हम अपने को 21वीं सदी का नागरिक नहीं कह सकते...हम कोख में ही अपनी बच्चियों की हत्या कर देते हैं...यह हमारा दिमागी दिवालियापन है.''
—प्रधानमंत्री मोदी, 2015 में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान शुरू करते समय