टिन के सस्ते चूल्हे की खोज से कैसे गरीबों को धुएं से बचा रहे अशोक ठाकुर?

यह 2005-06 की बात है. तब उन्होंने टिन को बोरसी का आकार देते हुए एक चूल्हा तैयार करना शुरू किया. उनका ध्यान इस पर भी गया कि यह चूल्हा कैसे धुआं रहित हो और इसमें आंच को किस तरह से रेगुलेट किया जाए

अशोक ठाकुर, 65 साल, मोतिहारी
अशोक ठाकुर, 65 साल, मोतिहारी

मोतिहारी शहर के गांधी चौक के पास स्थित मीना बाजार की तंग गलियों से होकर आप उनकी छोटी-सी दुकान तक पहुंचिए तो वे अक्सर आपको हथौड़े से टिन पीटते हुए मिलेंगे. यह उनकी लोहार की दुकान है. अभी वे ठंड के आ चुके सीजन के लिए एक बोरसीनुमा ऐसे चूल्हे को बनाने में जुटे हैं, जो बेकार समझकर फेंक दी जाने वाली धान और गेहूं की भूसी से जलता है.

इस चूल्हे में धुआं भी नहीं होता और इसकी आंच को भी एडजस्ट किया जा सकता है. घरेलू गैस का इस्तेमाल कर पाने की क्षमता न रखने वाले गरीबों के घरों में महज 850 रु. कीमत वाले इस चूल्हे की काफी मांग है. वहीं गाय और भैंस पालने वाले इस चूल्हे को उनका दाना गरम करने के लिए खरीदते हैं जबकि शहर के आम घरों में इसकी मांग बोरसी के तौर पर हो रही है.

पारंपरिक तौर पर लोहार का काम करने वाले अशोक ठाकुर की पढ़ाई-लिखाई ठीक से नहीं हो पाई. उन्होंने पांचवीं तक पढ़ाई की और फिर पिता की लोहार की दुकान पर बैठने लगे. पहले वे ऐसा चूल्हा बनाते थे जिसमें लकड़ी और कोयले का इस्तेमाल जलावन के तौर पर होता था. मगर जैसे-जैसे लकड़ी और कोयला महंगे होने लगे, उनके चूल्हे की मांग घटने लगी. वे परेशान रहने लगे और सोचने लगे कि आखिर कैसा चूल्हा बनाएं जो सस्ते ईंधन से चले. इसी कोशिश में उनकी नजर धान की भूसी पर पड़ी, जो लगभग मुफ्त थी और खरीदने पर भी एक रुपए किलो की पड़ती थी.

यह 2005-06 की बात है. तब उन्होंने टिन को बोरसी का आकार देते हुए एक चूल्हा तैयार करना शुरू किया. उनका ध्यान इस पर भी गया कि यह चूल्हा कैसे धुआं रहित हो और इसमें आंच को किस तरह से रेगुलेट किया जाए. विज्ञान के सामान्य नियमों का इस्तेमाल करते हुए आखिरकार उन्होंने इसे धीरे-धीरे विकसित कर ही लिया.

अब अगली और असल मुश्किल थी कि कैसे इसके ग्राहक खोजे जाएं. उनकी दुकान में खेती के लिए औजार लेने जो किसान आते थे, उनको उन्होंने यह चूल्हा दिखाना शुरू किया. पशुपालक पहले तो अपने जानवरों का दाना गर्म करने के लिए इसे ले गए. फिर गरीब लोग घर का खाना पकाने के लिए चूल्हा ले जाने लगे. उसके बाद धीरे-धीरे शहर के कुछ लोगों ने इसे बोरसी के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए खरीदना शुरू कर दिया.

एक दिन इस चूल्हे पर नजर पड़ी अहमदाबाद के राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान से जुड़े मोतिहारी शहर के स्वयंसेवक अजहर हुसैन अंसारी की. इसकी खबर उन्होंने प्रतिष्ठान तक पहुंचाई. वहां से लोग आए और उन्होंने न सिर्फ इस चूल्हे को पुरस्कृत किया, बल्कि इसके लिए पेटेंट की अर्जी भी डाल दी. तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के हाथों ठाकुर पुरस्कृत हुए. एक प्रदर्शनी में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने भी उनकी खोज की सराहना की थी.

बिहार सरकार के कृषि विभाग की नजर भी इस चूल्हे पर पड़ी. वे ठाकुर को राज्य भर में आयोजित होने वाले कृषि मेले में ले जाने लगे. अब कृषि विभाग मेलों में इनके चूल्हे पर 250 रुपए की सब्सिडी देता है. आज की तारीख में अशोक ठाकुर हर साल खुद बनाकर 400-500 ऐसे चूल्हे बेचते हैं. अब तक वे करीब 4,000 चूल्हे बेच चुके हैं.

नवाचार

उन्होंने चूल्हे को गोल कठौती जैसा आकार दिया है, जिसमें धान की भूसी बाहर से डाल दी जाती है. बीच में जो बेलनाकार हिस्सा होता है, वह सिर्फ लौ के लिए होता है. चूल्हे के नीचे जाली लगी रहती है, जिससे धुआं नहीं उठता. लोहे की एक छड़ से लौ को कम या ज्यादा किया जा सकता है.

सफलता का मंत्र

''बिक्री घटी तो परेशान नहीं हुआ, नए रास्ते सोचे. सामान जब नहीं बिक रहा था, तब भी हिम्मत नहीं हारी."

पुरस्कार

राष्ट्रपति के हाथों सम्मानित; राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान का पुरस्कार; सबौर कृषि विवि (बिहार) का पुरस्कार.

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