अगला साल पूरा होते-होते टीबी खत्म करना भारत का लक्ष्य, क्या ये हो पाएगा?
ट्यूबरकुलोसिस या तपेदिक को 2025 तक जड़ से खत्म करने के लिए भारत के पास ज्यादा वक्त नहीं. ऐसे में दवाओं के एक नए विकल्प ने उम्मीद पैदा की. मगर बेहद जरूरी यानी बुनियादी दवाओं की लगातार कमी से सारे किए-धरे पर पानी फिरने और दवा का प्रतिरोध बढ़ने का खतरा

दवाओं के प्रति संवेदनशील ट्यूबरकूलोसिस या तपेदिक (डीएस-टीबी) से जूझ रही गुरुग्राम की 34 वर्षीया अनुराधा कपूर (बदला हुआ नाम) के लिए उनकी जरूरतों के हिसाब से बना गोलियों का डिब्बा जीवनरक्षक बन गया है. विटामिन और हर्बल सप्लीमेंट सहित रोज 16 दवाइयां लेना और संभालना उनके लिए बेहद मुश्किल बना हुआ था जब तक कि इस सीधे-सादे समाधान ने उनके इलाज को आसान नहीं बना दिया.
इसके उलट ठाणे के 67 वर्षीय पूर्व प्लंबर फैजान खान अपने टीबी के इलाज को 'नारकीय' बताते हैं. लक्षणों में सुधार के बावजूद रोज कई सारी गोलियां लेना सिरदर्द बना हुआ था. अपने उस दोस्त की याद उन्हें भुलाए नहीं भूलती जिसे दवा-प्रतिरोधी ट्यूबरकुलोसिस (डीआर-टीबी) हुआ था और समय से पहले दवाई बंद कर देने के बाद उनकी जान लेकर ही गया. यही वजह थी कि वे इस मुश्किल इलाज पर लगातार टिके रहे.
तपेदिक जिद्दी किस्म के माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकूलोसिस से पैदा बैक्टीरिया का संक्रमण है, जो मुख्य रूप से फेफड़ों को निशाना बनाता है और हल्की खांसी, छींक या थूक को भी इस रोग के संभावित वाहक में बदल देता है. इसकी वजह से लगातार खांसी, बुखार, रात में पसीना और वजन घटना आम बात है. लेकिन अगर इलाज न किया जाए तो टीबी की वजह से फेफड़ों को नुक्सान, मेनिनजाइटिस या दूसरे अंगों के संक्रमण सरीखी गंभीर जटिलताएं पैदा हो सकती हैं.
मार्च 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2025 तक भारत में टीबी को जड़ से खत्म करने की प्रतिबद्धता जताई, जबकि बाकी दुनिया टीबी से जुड़ा सतत् विकास लक्ष्य (एसडीजी) 2030 तक हासिल करने का इरादा लेकर चल रही है. दरअसल, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की 2023 की ग्लोबल टीबी रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में टीबी का सबसे ज्यादा फैलाव भारत में है, जहां 2022 में दुनिया भर के कुल मामलों के करीब 27 फीसद थे.
उसी साल भारत में इस बीमारी से 3,31,000 जानें गईं, जो दुनिया भर में दर्ज 13 लाख मौतों की एक-चौथाई थीं. इंडिया टीबी रिपोर्ट 2024 बताती है कि 2023 में देश में 25.5 लाख मामले पाए गए. इनमें मल्टीड्रग रेजिस्टेंस टीबी (एमडीआर-टीबी) यानी कई दवाइयों की प्रतिरोधी तपेदिक के 63,939 मामले थे, जो डीएस-टीबी के इलाज में सबसे पहले इस्तेमाल की जाने वाली कम से कम दो सबसे ताकतवर दवाओं के प्रतिरोधी स्ट्रेन से होता है.
अगस्त के मध्य में भारत सरकार ने टीबी के एक नए इलाज (बीपाएएल) की शुरुआत को मंजूरी दी, जिससे इलाज की अवधि और गोलियों की संख्या में कमी आने की उम्मीद है, और मरीज की तरफ से इलाज के अनुपालन में सुधार आने और एमडीआर-टीबी से जुड़े जोखिम के कम होने की भी संभावना है. मगर डीएस-टीबी के इलाज के लिए सामान्यत: इस्तेमाल की जाने वाली दवाइयों तक की लगातार कमी से इन बढ़त के बेमानी होने का खतरा पैदा हो गया है.
व्हेन द ड्रग डोंट वर्क के लेखक और माइक्रोबायोलॉजिस्ट अनिर्बाण महापात्रा कहते हैं, ''ऐंटीबायोटिक्स दवाओं के दुरुपयोग या अधूरे इलाज का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने टीबी के इलाज की कई प्रमुख दवाओं को मात देना सीख लिया. अगर हम दवाओं के प्रतिरोध से निबटने के कदम नहीं उठाते, तो ऐसी स्थिति में पड़ सकते हैं जहां टीबी के इलाज के विकल्प ही खत्म हो जाएं.''
जिन मरीजों में डीएस-टीबी का नया पता चला है, उन्हें अभी दो महीने तक फोर-ड्रग फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन (4-एफडीसी) यानी एक साथ चार दवाओं की तयशुदा खुराक और उसके बाद और दो महीने तक 3-एफडीसी यानी तीन दवाओं की तयशुदा खुराक एक साथ दी जाती है. एमडीआर-टीबी का इलाज नौ महीनों के दौरान दी जाने वाली 11 दवाइयों से किया जाता है.
मगर मेदांता गुरुग्राम में रेस्पिरेटरी मेडिसिन की डायरेक्टर डॉ. बोर्नाली दत्ता के मुताबिक, इलाज आम तौर पर औसतन एक साल चलता है. कुछ मामलों में दो साल भी लग सकते हैं. डॉ. दत्ता यह भी कहती हैं, ''ज्यों-ज्यों हम कमियों की पहचान करते गए, टीबी का इलाज विकसित होता गया. पहले हम इंजेक्शन से दी जाने वाली दवाओं से इसका इलाज करते थे और अब यह पूरी तरह मुंह से दी जाने वाली दवाइयों से होता है. अगला कदम इलाज की अवधि और गोलियों की संख्या कम करना है.''
नया इलाज
दिसंबर 2022 में डब्ल्यूएचओ एमडीआर-टीबी और रिफैम्पिसिन-प्रतिरोधी (आरआर) टीबी के लिए एक नया इलाज लेकर आया. इस नए-नवेले छह महीने लंबे इलाज में मुंह से दी जाने वाली बस तीन दवाइयां—बेडाक्विलीन, प्रीटोमेनिड और लिनेजोलिड (इसीलिए बीपीएएल नाम)—शामिल थीं. बेडाक्विलीन अमेरिका की बड़ी फार्मा कंपनी जॉनसन ऐंड जॉनसन ने विकसित की और यह टीबी के बैक्टीरिया में ऊर्जा का उत्पादन तितर-बितर कर देती है.
यह डीआर-टीबी के इलाज के कार्यक्रम का जरूरी हिस्सा रही है, जिसकी कीमत में पिछले साल पेटेंट खत्म होने के बाद काफी गिरावट आई. प्रीटोमेनिड गैर-लाभकारी टीबी एलायंस ने विकसित की और यह ऑक्सीजन की आपूर्ति सीमित करके बैक्टीरिया की वृद्धि को रोक देती है. लिनेजोलिड जेनरिक दवा है जो प्रोटीन संश्लेषण में रोककर बैक्टीरिया की वृद्धि को रोकती है.
डॉ. दत्ता कहती हैं कि ''बीपीएएल का फायदा यह है कि इस इलाज की अवधि छोटी है. तीव्रता का दौर खत्म होने के बाद कई मरीज इलाज के लिए वापस नहीं आते. इससे दवा के प्रति प्रतिरोध विकसित हो सकता और समुदाय में बैक्टीरिया फैल सकता है.'' बीपीएएल से इलाज की सफलता की वैश्विक दर 63 फीसद रही, जबकि डब्ल्यूएचओ ने अपने क्लिनिकल परीक्षणों में सफलता की दर करीब 90 फीसद बताई.
हालांकि भारत की दवा कंपनी मैकलियोड्स ने प्रीटोमेनिड की आपूर्ति के लिए टीबी एलायंस के साथ लाइसेंसिंग समझौता कर रखा है, पर अगस्त के मध्य में भारत को आखिरकार बीपीएएल शुरू करने की मंजूरी देने में करीब दो साल लगे. सूत्र इसके लिए लालफीताशाही को जिम्मेदार ठहराते हैं, जबकि सरकार का कहना है कि वह घरेलू परीक्षणों के नतीजों का इंतजार कर रही थी—विडंबना यह है कि इन नतीजों का इंतजार अब भी है.
नए इलाज के जाहिरा फायदों के बावजूद विशेषज्ञ सतर्क हैं. सबसे पहले खुद मरीजों ने ही लिनोजोलिड के कई साइड इफेक्ट बताए, जैसे सिरदर्द, मितली, लीवर की परेशानियां और कुछ मामलों में न्यूरोपैथी यानी तंत्रिका तंत्र की विकृतियां जिनका असर उनकी चलने की क्षमता पर पड़ा. जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ और सर्वाइवर्स अगेंस्ट टीबी के डायरेक्टर चपल मेहरा कहते हैं, ''लिनेजोलिड शायद उतनी घातक नहीं है जितनी बरसों पहले टीबी के इलाज के लिए इस्तेमाल और इंजेक्शन से दी जाने वाली कुछ दवाइयां थीं जिनसे मतिभ्रम और अवसाद के लक्षण पैदा होते थे, लेकिन यह साइड इफेक्ट से पूरी तरह मुक्त भी नहीं है.''
डॉक्टरों ने बेडाक्विलीन के प्रतिरोध के बारे में बताया, जिसे लेकर भी देश में चिंताएं हैं. यह डीआर-टीबी के इलाज में बेहद असरदार है और अगर बैक्टीरिया इसके प्रति व्यापक प्रतिरोध विकसित कर लेता है, तो इलाज बहुत ही चुनौतीपूर्ण बन जाएगा. विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार इसकी सुलभता को नियम-कायदों के दायरे में लाए और पक्का करे कि मरीज इलाज के पूरे कोर्स का पालन करें.
आपूर्ति की मुश्किलें
राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के तहत टीबी की दवाइयों की खरीद का केंद्रीयकरण कर दिया गया है. मगर एक साल से भी कम वक्त में दो बार—अगस्त 2023 और मार्च 2024—बड़े पैमाने पर हफ्तों टीबी की दवाइयों की कमी होने की रिपोर्ट आईं. ज्यादातर राज्य अभी भी भारत में बहुतायत मामलों के लिए जिम्मेदार डीएस-टीबी के इलाज में बेहद अहम 4-एफडीसी और 3-एफडीसी का स्टॉक कम होने की शिकायत कर रहे हैं.
दवाइयां नहीं मिलने के कारण इलाज रुक जाने से टीबी के इन दवाइयों का प्रतिरोधी बन जाने का जोखिम बढ़ जाता है. मेहरा दावा करते हैं, ''मणिपुर सरीखे हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में टीबी की दवाइयों की कमी और भी बदतर है.'' मणिपुर के मेडिसिन्स सैन्स फ्रंटियर्स क्लिनिक के एक सूत्र के मुताबिक आम तौर पर केंद्र से सप्लाइ की जाने वाली गोलियों को एक साथ देने के बजाय अलग-अलग गोलियां दी जा रही हैं. सूत्र कहते हैं, ''लेकिन अलग-अलग गोलियों का हिसाब रखना मुश्किल होता है और मरीज की तरफ से जरा-सी चूक से डीआर-टीबी फैल सकता है.''
केंद्र सरकार ने 18 मार्च को सभी राज्यों को पत्र लिखकर डीएस-टीबी की दवाइयां तीन महीने तक राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के फंड से खरीदने को कहा. सेंट्रल टीबी डिविजन के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डॉ. राजेंद्र जोशी के लिखे पत्र में कहा गया, ''(दवाइयों की) केंद्रीय खरीद उन्नत चरण में है. फिर भी अप्रत्याशित और बाहरी परिस्थितियों की वजह से आपूर्ति में देर हो सकती है.''
राज्यों को खुद-ब-खुद दवाइयां खरीदने वाले मरीजों को बाद में रकम का भुगतान करने का विकल्प भी दिया गया. मरीजों की तो बात ही छोड़ दें, राज्यों के पास भी कीमत को लेकर मोलभाव करने की वह ताकत नहीं है जो सामान्यत: बहुत बड़ी तादाद में दवाइयां खरीदने वाली केंद्र सरकार के पास है. तमिलनाडु के एक टीबी अधिकारी कहते हैं, ''हमें फंड जुटाने और उन मैन्युफैक्चरर से दवाइयां खरीदने के लिए जूझना पड़ा जिनके साथ हमने पहले काम नहीं किया था. कम से कम उस बीमारी के लिए जिसका इलाज इस कदर जरूरी है, पहले सूचना दी जानी चाहिए थी.''
मार्च की 24 तारीख को मनाए जाने वाले विश्व टीबी दिवस पर जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों और टीबी का दंश झेल चुके लोगों ने मोदी को लिखे पत्र में टीबी की दवाइयों की बार-बार होने वाली कमी को रोकने के लिए तत्काल दखल देने की मांग की. कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री दिनेश गुंडू राव ने भी अप्रैल के पहले हफ्ते में तब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया को पत्र लिखकर दवाइयों की कमी की तरफ ध्यान दिलाया. उसी महीने छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और राजस्थान के टीबी अधिकारी भी यही शिकायत लेकर स्वास्थ्य मंत्री तक पहुंचे. मगर इंडिया टुडे से बात करने वाले जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों का दावा है कि दवाओं की आपूर्ति अब भी उतनी सुनिश्चित और सुचारु नहीं है जितनी साल भर पहले हुआ करती थी.
डीएस-टीबी की दवाइयों की खरीद और वितरण के पीछे जिम्मेदारी की जटिल शृंखला है. आम तौर पर स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए दवाइयों की खरीद का काम करने वाली केंद्रीय चिकित्सा सेवा सोसाइटी (सीएमएसएस) निविदा निकालकर और आपूर्तिकर्ताओं का चयन करके प्रक्रिया शुरू करती है. केंद्रीय खरीद पूरी होने पर ये जीवनदायी दवाइयां राज्य दवा भंडारों को या सीधे जिलों को भेज दी जाती हैं, जिसकी देखरेख निक्षय औषधि पोर्टल के जरिए हर तीन महीनों में पेश रिपोर्ट से की जाती है.
जिला स्तर से उन्हें ट्यूबक्यूलोसिस इकाइयों (टीयू) को भेज दिया जाता है, जो फिर उनकी आपूर्ति परिधीय स्वास्थ्य संस्थानों (पीएचआइ) को करती हैं. आखिर में पीएचआइ मरीजों को दवाएं जारी करते हैं. इस आपूर्ति में दवाइयों के फिर से आने में करीब 15-20 दिन लगते हैं.
फार्मास्यूटिकल फर्म ल्यूपिन सीएमएसएस को लंबे वक्त से डीएस-टीबी की दवाओं की आपूर्ति करती आ रही है. एजेंसी के सूत्र बताते हैं कि सितंबर 2023 से यह बदल गया, जब 4-एफडीसी और 3-एफडीसी की खरीद के लिए नए टेंडर निकाले गए. कुछ दिन बाद 1 अक्तूबर को केंद्र ने प्रेस विज्ञप्ति में दावा किया कि उसके पास डीएस-टीबी की दवाओं का पर्याप्त स्टॉक है, जबकि साझा किए गए आंकड़ों में वह स्टॉक भी शामिल था जो अभी आने की प्रक्रिया में था.
ऊपर उल्लिखित सूत्र दावा करते हैं कि बोली जीतने वाली दो कंपनियां समयबद्ध ढंग से ऑर्डर की पूर्ति नहीं कर पाईं, जिससे आपूर्ति चरमरा गई. नतीजा यह हुआ कि इस साल सरकार ने दवाइयों की आपूर्ति के लिए 'आपातकालीन' टेंडर निकाला—पहले 8 मार्च को और फिर 22 मार्च को दोबारा. तकरीबन यही वह वक्त था जब केंद्र ने राज्यों को दवाओं की आपूर्ति में देरी के बारे में लिखा.
टीबी के खिलाफ पैरोकारी करने वालों का दावा है कि मरीजों से उन्हें लगातार संकट में होने के फोनकॉल मिल रहे हैं. डब्ल्यूएचओ और सेंट्रल टीबी डिविजन दोनों के साथ कम कर रही जनस्वास्थ्य पैरोकार आशना अशेष कहती हैं, ''जब मरीज हमें कॉल करके जरूरी दवाई या खुराक न मिलने की शिकायत करता है, तो हम सहायता के लिए राज्य टीबी अधिकारियों से संपर्क करते हैं.
सामान्यत: वे काफी मददगार होते हैं. मगर स्टॉक खत्म होना उनके भी नियंत्रण से बाहर है.'' खुद एमडीआर-टीबी का दंश झेल चुकी आशना कहती हैं कि दूसरी पंक्ति की दवाइयों की करीबी निगरानी बहुत जरूरी है ताकि प्रतिरोध जड़ न पकड़ ले. वे यह भी कहती हैं, ''हमें सामुदायिक स्तर की निगरानी की तरफ बढ़ने की जरूरत है, जिसमें समुदाय के सदस्य लक्षणों, दवाओं की कमी और दूसरे मसलों पर नजर रख सकें.''
नए इलाज के आने से उन लोगों के लिए बेहतर नतीजों की उम्मीद बंधी है जो इतने खुशकिस्मत हैं कि उन्हें यह मिल सकता है, लेकिन इसे और बड़े स्तर पर ले जाने और टीबी की सभी दवाइयों की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित करने की अहम चुनौतियां कायम हैं. 2025 तक इस 'प्राचीन' बीमारी को खत्म करने का भारत का महत्वाकांक्षी लक्ष्य समय रहते लक्षणों का पता लगाने और इलाज के कोर्स पूरा होने पर टिका है. इस मोर्चे पर जरा भी नाकामी संभावित उलटे नतीजे की तरफ ले जा सकती है—और वह है अत्यधिक दवा-प्रतिरोधी टीबी का प्रकोप.
25.5 लाख कुल टीबी के मामले 2023 में भारत में पाए गए
63,939 मल्टीड्रग रेजिस्टेंट टीबी के मामले 2023 में पाए गए
3,31,000 मौतें भारत में 2022 में टीबी से हुईं
27% भारत का हिस्सा वैश्विक टीबी के मामलों में
25% भारत का हिस्सा दुनियाभर में टीबी से होने वाली मौत में
केंद्र सरकार ने एमडीआर-टीबी के इलाज के लिए बीपीएएल खुराक देने की व्यवस्था को अगस्त में हरी झंडी दी
स्रोत: डब्ल्यूएचओ ग्लोबल टीबी रिपोर्ट 2023 और इंडिया टीबी रिपोर्ट 2024
टीबी का इलाज और चुनौतियां
टीबी हवा से फैलने वाली बीमारी है. यह फेफड़ों को निशाना बनाने वाले एक जिद्दी बैक्टीरिया की वजह से होती है. इसकी वजह से आम तौर पर लगातार खांसी, बुखार, रात में पसीना आना और वजन कम होता जाता है. अगर इसका इलाज न किया जाए तो यह फेफड़ों की क्षति, मेनिन्जाइटिस या अन्य अंगों के संक्रमण जैसी गंभीर जटिलताओं को जन्म दे सकता है
भारत में टीबी का फिलहाल इलाज क्या है?
> नए पहचाने गए ड्रग-सेंसिटिव ट्यूबरकुलोसिस (डीएस-टीबी)—जो सभी दवाओं पर प्रतिक्रिया करता है—के इलाज में दो महीने तक चार दवाओं (आइसोनियाजिड, रिफैम्पिसिन, एथमब्यूटोल और पाइराजिनामाइड) की खुराक दी जाती है. उसके बाद दो महीने तक तीन दवाएं (आइसोनियाजिड, रिफैम्पिसिन और एथमब्यूटोल) खिलाई जाती हैं.
> मल्टीड्रग-रेजिस्टेंट टीबी (एमडीआर-टीबी) के इलाज में आमतौर पर चार महीने तक सात दवाएं (बेडाक्विलीन, लेवोफ्लॉक्सासिन, क्लोफाजिमाइन, आइसोनियाजिड, एथमब्यूटोल, पाइराजिनामाइड और एथियोनामाइड) का सेवन किया जाता है, उसके बाद पांच महीने तक चार दवाएं (लेवोफ्लॉक्सासिन, क्लोफाजिमाइन, पाइराजिनामाइड और एथमब्यूटोल) की खुराक ली जाती है.
> लगभग 30 फीसद डीआर-टीबी रोगियों में, साइक्लोसेरिन और लाइनजोलिड जैसी दवाएं भी दी जाती हैं; ज्यादातर मामलों में, इलाज बहुत लंबे समय तक चलता है. इलाज की यह अवधि एक से दो साल तक हो सकती है.
> टीबी की दवाओं के कई तरह के साइड इफेक्ट होते हैं. इनमें मानसिक विकार, मतिभ्रम, शरीर या नसों में गंभीर दर्द, मतली और वजन कम होना शामिल है.
नया बीपीएएल इलाज क्या है?
> डब्ल्यूएचओ ने दिसंबर 2022 में एमडीआर-टीबी के लिए एक नया उपचार पेश किया. बीपीएएल के नाम से पहचाने जाने वाले इस इलाज में सिर्फ तीन दवाएं—बेडाक्विलीन, प्रीटोमैनिड और लाइनजोलिड—हैं और इसमें इलाज की अवधि छह महीने तक कम हो जाती है.
> कम दवाएं और कम अवधि तक लेने की व्यवस्था से इसकी संभावना बढ़ जाती है कि मरीज कोर्स पूरा करेंगे वरना बीमारी का गंभीर चरण पार करते ही लोग गोलियां लेना बंद कर देते हैं. वैश्विक स्तर पर इस उपचार की कामयाबी दर 63 फीसद है.
> इनमें से प्रत्येक दवा की व्यापक उपलब्धता के बावजूद, भारत को अगस्त के मध्य में बीपीएएल के रोलआउट को मंजूरी देने में लगभग दो साल लग गए.
दवाओं की निरंतर आपूर्ति क्यों बेहद जरूरी है?
> भारत में टीबी की दवाओं पर भारी सब्सिडी दी जाती है, और उनकी खरीद राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम के तहत केंद्रीकृत है..
> लेकिन एक साल से भी कम समय में—अगस्त 2023 और मार्च 2024—दो बार हफ्तों तक दवा बड़े पैमाने पर दवा की किल्लत की खबरें आई.
> अधूरे या अनियमित इलाज की वजह से बैक्टीरिया को दवा के खिलाफ प्रतिरोधक शक्ति विकसित करने का मौका मिल जाता है. इस दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया से मरीजों के अलावा दूसरों को भी खतरा पैदा हो जाता है.