क्यों लगी है होड़ आदिवासी बनने की
इस समय देशभर की करीब 233 जातियों के लोग खुद को जनजाति बनाने की मांग कर रहे हैं

आनंद दत्ता
अप्रैल की 19 तारीख को मणिपुर हाइकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि राज्य सरकार को मैतेई समुदाय को शेड्यूल ट्राइब की सूची में शामिल करने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद मणिपुर की स्थिति देश-दुनिया के सामने है. दिलचस्प यह है कि आमतौर पर जिन आदिवासियों को अब तक उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता रहा है, देश की कई जातियां न सिर्फ उस आदिवासी समुदाय में शामिल होना चाह रही हैं, बल्कि लोग इसके लिए सरकार से मांग और धरना-प्रदर्शन तक कर रहे हैं. इस समय देश भर की लगभग 233 से अधिक जातियों के लोग खुद को जनजाति बनाने की मांग कर रहे हैं.
विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक, झारखंड, बंगाल और ओडिशा में कुड़मी, असम में चुटिया, मटक, मोरन, कोच-राजबंशी, ताई अहोम के अलावा टी ट्राइब खुद को एसटी सूची में शामिल कराना चाहते हैं.
लोकसभा के मॉनसून सत्र में 24 जुलाई, 2023 को कांग्रेस सांसद प्रद्युत बोरदोलोई ने सरकार से पूछा कि असम के आदिवासियों की मांग पर सरकार कब अमल कर रही है. इस पर आदिवासी मामलों के केंद्रीय राज्यमंत्री विश्वेश्वर टुडू ने कहा कि प्रस्ताव अभी विचाराधीन है. यही नहीं, सिक्किम और पश्चिम बंगाल में गुरुंग, मांगर, राय, सुनवार, मुखिया, माझी, जोगी, थामी, यखा, बहुन, छेत्री और नेवार; महाराष्ट्र में धनगर, तमिलनाडु में नॢरकुरोवर और बदागा, तेलंगाना में बोया और वाल्मीकि के अलावा जम्मू और कश्मीर में पद्दारी, कोली और गड्डा ब्राह्मण सहित कई अन्य समुदाय इसकी मांग कर रहे हैं.
ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक ने 16 सितंबर, 2022 को केंद्रीय जनजाति मंत्री अर्जुन मुंडा को एक पत्र लिख कुल 169 जातियों को एसटी सूची में शामिल करने की बात कही थी. हालांकि बीते मार्च में एनसीएसटी (नेशनल कमिशन फॉर शेड्यूल्ड ट्राइब्स) के तत्कालीन अध्यक्ष हर्ष चौहान ने कहा था कि ओडिशा सरकार को सावधानी से आदिवासियों की पहचान करनी चाहिए, क्योंकि देशभर में इसका चलन बढ़ रहा है.
इन सब के बीच संसद के मॉनसून सत्र में 25 जुलाई, 2023 को छत्तीसगढ़ की 12 जातियों को एसटी कैटेगरी में शामिल करने प्रस्ताव को दोनों सदनों से पास कर दिया गया. इससे पहले हिमाचल के हाटी समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने के लिए लोकसभा (16 दिसंबर, 2022) और राज्यसभा (26 जुलाई, 2023) में बिल पास हो चुका है. जम्मू-कश्मीर के पहाड़ी समुदाय को एसटी में शामिल करने का बिल भी इसी सत्र में लोकसभा में पेश किया गया है.
आखिर क्या वजह है कि देशभर के गैर-आदिवासी, आदिवासी बनने को बेताब दिख रहे हैं? मणिपुर के रिटायर्ड पुलिस कमिशनर और मैतेई समुदाय से ताल्लुक रखने वाले राजकुमार निमाई कहते हैं, ''अगर हमें यह दर्जा मिल जाता है तो हमारी जमीन संवैधानिक तौर पर सुरक्षित हो जाएगी. हमें शिक्षा और रोजगार में बेहतर और अधिक अवसर मिलेंगे.''
एनडीए में शामिल होने के बाद 21 जुलाई, 2023 को सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर सीएम योगी से मिले. इस मुलाकात के बाद उन्होंने कहा, ''भर-राजभर जाति को एसटी का दर्जा दिलाने के लिए केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने पर सहमति हुई है.'' उन्होंने यह भी कहा, ''संविधान बनते समय राजभर समुदाय को क्रिमिनल कास्ट में रखा गया. बाद में डीनोटिफाइड ट्राइब में डाल दिया गया. डीटी और एसटी बराबर हैं. इसलिए उन्हें एसटी का दर्जा मिलना चाहिए. यूपी में एसटी को 5.50 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है. इसका भी लाभ राज्य के 2.44 प्रतिशत राजभर को मिलेगा.''
राजभर के इस दावे के पीछे का चलन प्रमुख आदिवासी नेता दयामणि बारला को आशंकाओं से भर रहा है. वे कहती हैं, ''जो अधिकार हमें संविधान में पहले से मिले हैं, उसमें किसी और की सेंधमारी बर्दाश्त नहीं करेंगे.'' बारला का इशारा देशभर के आदिवासी इलाकों में लागू पांचवीं और छठी अनुसूची प्रावधान की ओर है.
संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासियों को परंपरागत स्वशासन की आजादी है. केंद्र या राज्य का कोई भी कानून जो परंपरा के खिलाफ होगा, आदिवासियों की जमीन से असंगत होगा, उसे लागू या संशोधित करने का अधिकार राज्यपाल को होगा. राष्ट्रपति की ओर से इसे नोटिफाइ किया जाएगा. इस श्रेणी में देश के दस राज्य—झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र शामिल हैं.
वहीं छठी अनुसूची में मेघालय, असम, मिजोरम और त्रिपुरा शामिल है. यहां जिला परिषद को विधायिका का अधिकार मिला हुआ है. यानी वे अपने क्षेत्र के हितों को देखते हुए कानून बना सकते हैं, पास कर सकते हैं, शिथिल कर सकते हैं. इसके अलावा इन दोनों इलाकों में गैर-आदिवासी, आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री नहीं कर सकते हैं. लेकिन अगर कोई नई जाति शामिल कर दी जाती है, तो उसके लोग आदिवासियों की जमीन खरीदने के योग्य हो जाएंगे. जाहिर है, सूची में खुद को शामिल करने की मांग कर रही जातियां आदिवासियों के मुकाबले आॢथक तौर पर अधिक समृद्ध हैं.
जम्मू-कश्मीर में भाजपा के एसटी मोर्चा के राष्ट्रीय सचिव मुश्ताक इंकलाबी इस मामले के राजनैतिक पक्ष की तरफ इशारा करते हैं, ''यहां खुद को पहाड़ी कहने वाले, जिसमें 100 से अधिक उप-जातियां हैं, खुद को एसटी दर्जा देने की मांग कर रहे हैं. इसमें हिंदुओं में खत्री, गुप्ता, सैनी और मुस्लिम में सैयद, शेख, अंसारी, खान, पठान, लोन, मीर, बट, मलिक, वानी शामिल हैं. इन्होंने हमेशा से बकरवालों पर राज किया है. लेकिन धारा 370 हटने के बाद गुजर-बकरवाल समुदाय को राजनैतिक आरक्षण मिला. वे अब यह बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं.'' हालांकि इस मॉनसून सत्र में 26 जुलाई को केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा ने पहाड़ी समुदाय को एसटी का दर्जा देने के जम्मू-कश्मीर अनुसूचित जनजाति आदेश संशोधन विधेयक 2023 के लिए सदन में प्रस्ताव पेश कर दिया है.
झारखंड में भाजपा की सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के मुखिया और पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुदेश महतो का अलग तर्क है. वे कहते हैं, ''कुड़मी सन् 1931 से पहले आदिवासी ही थे. इसके बाद उन्हें इससे हटा दिया गया. बाद में सन् 1951 की जनगणना के वक्त ओबीसी में शामिल कर दिया गया.'' बता दें कि झारखंड में अनुमानित तौर पर 22 प्रतिशत आबादी कुड़मी की है. महतो जोर देकर कहते हैं, ''यह कोई काल्पनिक मांग नहीं है. हम सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर हमेशा से आदिवासी ही रहे हैं.'' लेकिन केंद्रीय मंत्री मुंडा इस पूरे मसले पर साफ कहते हैं, ''यह मामला राज्य सरकार के स्तर पर पेंडिंग है. जब वहां से प्रस्ताव आएगा, तब प्रक्रिया के तहत विचार किया जाएगा.''
आखिर कौन बन सकता है आदिवासी? ट्राइबल रिसर्च इंटस्टीट्यूट, रांची के निदेशक रणेंद्र समझाते हैं, ''1965 में आई लोकुर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक, एसटी का दर्जा उन्हीं समुदायों को मिल सकता है जो भौगोलिक रूप से अलग-थलग रह रहे हों, जिनमें सांस्कृतिक विशिष्टता हो, आर्थिक रूप से कमजोर हों, दूसरे समुदायों के साथ संपर्क में न आनेवाले हों, और उनके जनजाति होने के संकेत मिल रहे हों.'' इसकी प्रक्रिया को समझें तो जनजातीय कार्य मंत्रालय के पास जब किसी जाति को एसटी का दर्जा देने के लिए आवेदन आता है तो मंत्रालय इसे संबंधित राज्य सरकार को भेजता है. राज्य सरकार की सहमति के बाद इसे रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया को भेजा जाता है, फिर यह केंद्र के पास आता है. केंद्र सरकार इसे राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को भेजती है. आयोग से पास होने के बाद मंत्रिमंडल, फिर यहां से लोकसभा और राज्यसभा से पास होने के बाद प्रक्रिया पूरी होती है.
बीते एक साल से राजनीति के केंद्र में अचानक आदिवासियों को तरजीह दी जाने लगी है. आने वाले समय में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, ऐसे में किसे एसटी कैटेगरी में शामिल करना है और किसे नहीं, यह चुनावी वादों के केंद्र में रहेगा.''
क्या कहते हैं आंकड़े
> 233 जातियां एसटी सूची में शामिल होने की मांग कर रही हैं
> 8.6 प्रतिशत लोग आदिवासी हैं, देश की कुल आबादी के
> 10.45 करोड़ आदिवासी हैं पूरे भारत में
> 32 राज्यों/संघों में हैं आदिवासी
> 94.8 प्रतिशत निवासी आदिवासी हैं, लक्ष्यद्वीप में
> 1.53 करोड़ आदिवासी मध्य प्रदेश में है, भारत में सबसे अधिक
(नोट: आंकड़े साल 2011 की जनगणना से लिए गए हैं)