पवार परिवार
यह विभाजन महज एक दिखावा है जिसे पवार ने यह सुनिश्चित करने के लिए रचा है कि अजित को ईडी से राहत मिल जाए

धवल कुलकर्णी
अजित पवार ने जब अपने चाचा और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के अध्यक्ष शरद पवार को छोड़कर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का हाथ थाम लिया तो ज्यादातर लोगों ने यही कहा कि राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है. कहा जा रहा है कि चचेरी बहन तथा सीनियर पवार की बेटी सुप्रिया सुले के उदय और अपनी अतिमहत्वाकांक्षा के कारण महाराष्ट्र के नए उपमुख्यमंत्री ने ऐसा कदम उठाया कि विपक्षी खेमा हैरानी से मुंह ही ताकता रह गया.
हालांकि, चाचा-भतीजे के खेमों के बीच जुबानी जंग यह साबित करती है कि यह विभाजन जितना राजनैतिक है, उससे कहीं ज्यादा व्यक्तिगत है. जब अजित ने 82 वर्षीय पवार को उम्र का तकाजा बता राजनीति से संन्यास लेने की नसीहत दी तो सुले को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने अपने चचेरे भाई का नाम लिए बगैर ही हद पार न करने की चेतावनी दे डाली: ''हम कुछ भी सुन लेंगे लेकिन माता-पिता पर हमला कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे...'' पवार ने भी चेताया कि अगर कोई उनकी उम्र को लेकर तंज कसेगा, तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. अजित ने यह खुलासा भी किया कि फिलहाल सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को एकजुट करने के प्रयासों में अहम भूमिका निभा रहे उनके चाचा ने 2014 के बाद से कई मौकों पर इसी पार्टी (भाजपा) के साथ 'बात' की थी (निश्चित तौर पर, पहली बार यह बात सार्वजनिक तौर पर तब सामने आई थी जब उस साल विधानसभा चुनाव के बाद एनसीपी ने सरकार बनाने के लिए भाजपा को 'बाहर से समर्थन' देने की पेशकश की थी.)
1960 में पवार परिवार का राजनैतिक सफर उथल-पुथल के बीच शुरू हुआ था. दरअसल, 1960 में गैर-ब्राह्मण आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाने वाले सांसद केशवराव जेधे के निधन के बाद बारामती लोकसभा क्षेत्र से उपचुनाव के लिए पीजेंट्स ऐंड वर्कर्स पार्टी (पीडब्ल्यूपी) और विपक्षी संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने वसंत राव को अपना उम्मीदवार बनाया. पेशे से वकील वसंतराव 11 भाई-बहनों में सबसे बड़े थे—शरद 8वें नंबर पर थे—और बेहद सम्मानित दर्जा रखते थे. पिता गोविंद राव और मां शारदाबाई समेत पूरा परिवार पीडब्ल्यूपी और वसंत राव का समर्थन कर रहा था, ऐसे में युवा शरद पवार के लिए कांग्रेस का प्रचार करने को लेकर थोड़ी घबराहट होना स्वाभाविक ही था. लेकिन माता-पिता और वसंतराव ने उन्हें आगे बढ़ने की इजाजत दी. अंतत: वसंतराव चुनाव हार गए, इसके साथ ही कांग्रेस के भीतर और अपने संरक्षक तथा तत्कालीन मुख्यमंत्री वाइ.बी. चह्वाण की नजर में शरद राव का कद काफी बढ़ गया. 1967 में, पवार बारामती से विधायक चुने गए, और फिर बाद के वर्षों में यही उनका गढ़ बन गया.
उस पहले चुनाव के दौरान भले ही परिवार ने बेहद समझदारी के साथ विभाजन टाल दिया था लेकिन अब साठ साल बाद पवार परिवार टूट चुका है. इस बार, शरद पवार को अपने भतीजे अजित से मुकाबला करना पड़ रहा है, जिसे करीब तीन दशक पहले वे ही अपनी ही निगरानी में राजनीति में लाए थे.
1991 के लोकसभा चुनाव में बारामती सीट पर कब्जा जमाना था. पवार के बड़े भाई और निर्वाचन क्षेत्र प्रबंधक दिनकर राव उर्फ अप्पासाहेब चुनाव लड़ने के उत्सुक थे, लेकिन पवार ने उस समय 32 वर्ष के अजित को चुना. अजित तब सहकारी समिति के जरिए राजनीति में कदम रखने की कोशिश कर रहे थे (वे छत्रपति चीनी मिल के निदेशक थे). हालांकि, उन्होंने अपनी लोकसभा सीट कुछ समय बाद ही चाचा के लिए खाली कर दी लेकिन उसी साल बारामती विधानसभा सीट से विधायक चुने गए. अजित, जिनकी शादी उस्मानाबाद निवासी पूर्व मंत्री डॉ. पद्मसिंह पाटिल की बहन सुनेत्रा से हुई है, ने इसके बाद आज तक यह सीट नहीं छोड़ी है.
चाचा बनाम भतीजा
वैसे, सोच-समझ के मामले में दोनों पवार एक-दूसरे से काफी अलग हैं. पवार सीनियर को एक मंझे हुए खांटी राजनेता के रूप में देखा जाता है, जिनकी सभी पार्टियों के नेताओं के साथ मित्रता है. वहीं, अजित को थोड़ा आक्रामक और घमंडी माना जाता है, जिनके बस कुछ ही करीबी मित्र हैं. अजित के सहयोगी इस संदर्भ में 2004 के विधानसभा चुनाव का जिक्र करते हैं, जब एनसीपी को कांग्रेस से दो सीटें अधिक मिली थीं. तब सीनियर पवार ने मुख्यमंत्री पद के लिए दबाव नहीं डाला, जबकि साफ था कि अजित पार्टी में इस पद की दावेदारी में सबसे आगे थे. 2010 में, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी विवाद के बाद कांग्रेस ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण से पृथ्वीराज चह्वाण के लिए कुर्सी छोड़ने को कहा तब भी अजित काफी सक्रिय हो गए थे. अपनी सारी ताकत झोंककर अजित ने चाचा पर दबाव डाला और यह सुनिश्चित किया कि छगन भुजबल की जगह वे उपमुख्यमंत्री बनें. बहरहाल, चचेरी बहन सुप्रिया के राजनीति में कदम रखने तक, अजित को ही उनके चाचा का राजनैतिक वारिस माना जाता था. सुप्रिया 2009 से बारामती से लोकसभा सांसद हैं. सुले के बढ़ते कद के अलावा भतीजे रोहित के सक्रिय राजनीति में प्रवेश ने भी अजित की बेचैनी बढ़ा दी थी.
आखिरी धक्का
शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि हमेशा से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बनने की अजित की महत्वाकांक्षा उन पर हावी होती जा रही है. साथ ही जोड़ा, हो सकता है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) का शिकंजा कसने की खबरों ने भी उन्हें ऐसा करने को बाध्य कर दिया हो. इस बीच, पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चह्वाण ने सार्वजनिक तौर पर संभावना जताई है कि अजित के शीर्ष पद संभालने के बाद भाजपा शिवसेना से अलग हुए धड़े के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को बर्खास्त कर सकती है. एनसीपी को तोड़ने के बाद अजित ने भी (थोड़ा मजाकिया लहजे में) कहा था कि वे रिकॉर्ड पांच बार डिप्टी सीएम का पद संभाल चुके हैं, और अब उनके शीर्ष पद पर पहुंचने का समय आ गया है.
कहा तो यह भी जाता है कि भतीजा यह पीड़ा भुला नहीं पाया है कि कैसे 2019 में भाजपा के साथ उनके अल्पकालिक गठबंधन में उन्हें एक असफल व्यक्ति साबित कर दिया गया था, जब देवेंद्र फडणवीस के डिप्टी के तौर पर शपथ लेने के बाद वे महज 72 घंटे ही इस पद पर रह पाए थे.
मई में जारी अपने संस्मरण में सीनियर पवार ने 2019 में अजित और भाजपा के बीच किसी गोपनीय समझौते की पूर्व जानकारी होने से इनकार किया था. हालांकि, वे अब स्वीकारते हैं कि उन्हें यह सब कुछ पता था.
तमाम लोग अजित के भाजपा गठबंधन में शामिल होने से हैरान रह गए (क्योंकि हाल तक दोनों एक-दूसरे पर प्रहार कर रहे थे), तो दूसरी तरफ परिवार के सहयोगी इस तरफ ध्यान आकृष्ट करने में जुटे हैं कि कैसे भतीजे का अपनी मां की तरफ से संघ परिवार से मजबूत रिश्ता है. उनके ममेरे भाई चंद्रशेखर कदम अहमदनगर के राहुरी से पूर्व भाजपा विधायक हैं, जबकि एक अन्य ममेरे भाई जगदीश जनता सहकारी बैंक जैसे संघ परिवार-नियंत्रित संस्थान से जुड़े हैं और दिवंगत इतिहासकार बी.एम. 'बाबासाहेब' पुरंदरे के करीबी रहे हैं, जो कि छत्रपति शिवाजी के जीवनकाल पर अपने लेखन के लिए कुछ कट्टरपंथी मराठा समूहों के निशाने पर थे.
हालांकि, चंद्रराव उर्फ चंद्रअन्ना तावरे, जो अलग होने से पहले करीब चार दशक तक सीनियर पवार के साथ रहे हैं, का आरोप है कि यह विभाजन महज एक दिखावा है जिसे पवार ने यह सुनिश्चित करने के लिए रचा है कि अजित को ईडी से राहत मिल जाए. तावरे का आरोप है, ''अजित के पास यही विकल्प था..चाहे तो कुर्सी पर (डिप्टी सीएम के तौर पर) बैठें, या फर्श पर (जेल में) बैठें.''
बारामती के भाजपा नेता रंजनकुमार तावरे मानते हैं कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ता अजित पवार के साथ आने से खुश नहीं हैं. वे भी यह आरोप दोहराते हैं कि विभाजन दिखावटी और अजित को कानूनी कार्रवाई से बचाने का प्रयास है. तावरे कहते हैं, ''यह तो लोकसभा चुनाव में स्पष्ट हो ही जाएगा. क्योंकि तभी पता चलेगा कि सुनेत्रा या पार्थ को मैदान में उतारा जाएगा या फिर सुले को वॉकओवर देने के लिए डमी प्रत्याशी उतारा जाएगा.''
इसमें कोई दो-राय नहीं कि राजनीति में कुछ भी संभव हो सकता है.