आरक्षण की चुनावी बिसात
ओबीसी को कई उपश्रेणियों में बांटकर 27 फीसद आरक्षण में वंचित अति पिछड़ों की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए रोहिणी आयोग की रिपोर्ट उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले आने की संभावना

पचास और साठ के दशक में सोशलिस्ट नेता राम मनोहर लोहिया का नारा ''पिछड़ा पाए सौ में साठ'' सामाजिक न्याय की राजनीति को एक नए फलक पर पहुंचा रहा था. लेकिन आज पिछड़ों के आरक्षण का मुद्दा सामाजिक न्याय और सोशल इंजीनियरिंग के सियासी फलक से गुजरते हुए शायद चुनावी सरगर्मी का मुद्दा ज्यादा बनकर रह गया है. इसीलिए, लोहियावादी राजनीति से निकले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 27 फीसद ओबीसी आरक्षण में अति पिछड़ों की हिस्सेदारी तय करने के लिए बिहार आरक्षण फॉर्मूले की तर्ज पर केंद्रीय आरक्षण की व्यवस्था करने की मांग करते हैं, तो फौरी सियासी गणित का एहसास दे जाते हैं. लेकिन उनके फौरन बाद भाजपा के राज्यसभा सदस्य तथा पूर्व मुख्यमंत्री सुशील मोदी का बयान नई सियासी दांव का संकेत देता है.
दरअसल, नीतीश ने यह राग तब छेड़ा है जब ओबीसी में शामिल गैर-प्रभावशाली जातियों को आरक्षण का पूरा लाभ दिलाने की सिफारिश के लिए गठित रोहिणी आयोग का कार्यकाल दसवीं बार 31 जुलाई 2021 तक बढ़ाया गया. केंद्र ने 2 अक्तूबर 2017 को पिछड़ा समुदाय से आने वाली दिल्ली हाइकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी. रोहिणी के नेतृत्व में चार सदस्यीय आयोग गठित किया. आयोग यह देखेगा कि ओबीसी की लिस्ट में शामिल कौन-सी जातियां आरक्षण का पूरा लाभ उठाने से वंचित रह गई हैं.
इसी के मद्देनजर नीतीश कुमार के बयान के फौरन बाद सुशील मोदी ने कहा, ''प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र की आरक्षण नीति में पिछड़ा-अति-पिछड़ा वर्गीकरण लागू करने के लिए रोहिणी आयोग का गठन किया. सभी दल इस वर्गीकरण के लिए मांग करते रहे, लेकिन आयोग बनाने की पहल पीएम मोदी ने ही की.'' यह बयान महज नीतीश कुमार के आरक्षण के मुद्दे को छेड़ने का सियासी जवाब ही नहीं है, बल्कि उन दलों को भी संकेत है, जो आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा को घेरने की रणनीति बनाने में जुटे दिखते हैं. इसकी अहमियत इसलिए भी है कि अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव है.
हालांकि उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जाटवों के अलावा अन्य दलित जातियों और कुछ अति पिछड़ी जातियों को साधकर बड़ी चुनावी सफलता हासिल की थी. लेकिन चुनाव के पहले रोहिणी आयोग की रपट आती है तो भाजपा को यादवों के अलावा पिछड़ों की लामबंदी में मदद मिल सकती है. केंद्र सरकार मानकर चल रही है कि रोहिणी आयोग अगले छह महीने में अपनी रिपोर्ट दे देगा. उसके बाद सरकार आयोग की सिफारिश के मुताबिक सरकार कानूनी प्रावधान कर उपश्रेणियों के लिए तय कोटे के हिसाब से आरक्षण की व्यवस्था लागू कर सकती है. उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी आरक्षण का पूरा लाभ न मिलने की शिकायत करते आए हैं. भाजपा मीडिया विभाग के प्रमुख अनिल बलूनी कहते हैं, ''यह मुद्दा दूसरे दलों के लिए सियासी है लेकिन भाजपा के लिए यह सबको न्याय दिलाने के लिए है. आयोग की रिपोर्ट पर सरकार विचार करेगी.''
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधिकारी अनौपचारिक रूप से कहते हैं कि, ''इस समय देश में केंद्र सरकार की नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 फीसदी कोटा आरक्षित है. लेकिन लंबे समय से देश के विभिन्न राज्यों से यह शिकायत होती रही है कि आरक्षण का लाभ अन्य पिछड़े वर्ग की लिस्ट में शामिल सभी जातियों को समान रूप से नहीं मिल रहा है और लाभ का बड़ा हिस्सा ओबीसी के प्रभावशाली जातियों के खाते में ही चला जाता है.''
सूत्रों के मुताबिक, आयोग ने एक फॉर्मला तैयार किया है, ताकि ओबीसी लिस्ट में शामिल जाति समूहों को चार-उपश्रेणियों और एक विशेष उपश्रेणी में डाला जा सके. आयोग मार्च महीने के पहले हफ्ते से अगले ओबीसी कोटे को चार उप-श्रेणियों और एक विशेष श्रेणी में विभाजित करने के तरीकों और वर्गीकरण को लेकर चर्चा करेगा. जद (यू) नेता के.सी त्यागी कहते हैं, ''मेरी जानकारी के मुताबिक आयोग केंद्रीय सूची में शामिल कुल 2,633 ओबीसी जातियों को चार उप-श्रेणियों में डालने पर विचार कर रहा है.'' सूत्रों की मानें तो ओबीसी के लिए 27 फीसद आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था में श्रेणी एक की जातियों को 2 फीसद, श्रेणी दो की जातियों को 6 फीसद, श्रेणी तीन की जातियों को 9 फीसद और श्रेणी चार की जातियों को 10 फीसद आरक्षण देने पर राज्यों से सलाह और सहमति ली जाएगी.
अनौपचारिक जानकारी यह भी है कि पहली उप-श्रेणी में 1,674 जाति समूहों को रखने का विचार है. इस श्रेणी में वे जातियां हैं जिन तक आरक्षण का लाभ अभी तक नहीं पहुंचा है. दूसरी उप-श्रेणी में 534 जाति समूहों को शामिल किया जा सकता है. तीसरी उपश्रेणी में 328 और चौथी में 97 जातियों को शामिल किया जा सकता है. सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधिकारियों ने अनौपचारिक बातचीत में बताया, ''एक आकलन के मुताबिक, ओबीसी आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था में सिर्फ 10 पिछड़ी जातियां आरक्षण लाभ का एक-चौथाई हिस्सा ले जाती हैं. ओबीसी के 37 जाति समूह ऐसे हैं जो आरक्षण लाभ का दो-तिहाई फायदा ले जाते हैं.
जबकि तीन-चौथाई आरक्षण का लाभ ओबीसी की 100 जाति समूहों को मिल पाता है. अर्थात् केंद्रीय सूची में शामिल कुल 2,633 जातियों में बाकी की 2,486 जातियों को 27 फीसद आरक्षण का सिर्फ पांचवां हिस्सा ही मिल पाता है.'' हालांकि आयोग के सामने असली चुनौती यह है कि लगभग 1,000 ऐसी जातियों को आरक्षण लाभ के नेट में लाना है, जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलता ही नहीं है. आयोग वर्गीकरण को लेकर मार्च महीने के पहले हफ्ते से राज्यों से विचार-विमर्श शुरू करने जा रहा है. राजद नेता मनोज झा कहते हैं, ''यह मुद्दा संवेदनशील है. आरक्षण का लाभ सबको मिलना चाहिए, इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन पहले रोहिणी आयोग की रिपोर्ट तो आ जाए.'' जद (यू) नेता के.सी. त्यागी कहते हैं, ''आयोग का गठन अच्छी बात है लेकिन सभी को समुचित न्याय मिले इसके लिए जाति जनगणना भी जरूरी है और यह होनी ही चाहिए.''
बहरहाल, आयोग के सामने एक बड़ी चुनौती यह है कि 9 राज्यों आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पुदुच्चेरी, हरियाणा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्रह और तमिलनाडु में पहले से ही उपश्रेणियां है इसलिए आयोग को राज्यों की उपश्रेणियों से अपनी श्रेणी का मिलान करना पड़ेगा. यह बेहद पेचीदा और लंबा समय लेने वाला काम है. किसी राज्य के किसी खास जाति समूह को उपश्रेणियों में शामिल करने में कोई तकनीकी दिक्कत होगी तो उसे विशेष उपश्रेणी में लाने का विचार किया जा सकता है. फिलहाल, रोहिणी आयोग सियासी उबाल भले न पैदा कर रहा हो, रिपोर्ट आने के बाद जातियों का सियासी समीकरण फिर करवट ले सकता है, जिसकी दस्तक 2022 के उत्तर प्रदेश के चुनाव में देखने को मिल सकती है. भले सरकारी नौकरियां सिकुड़ रही हों पर चुनावी बिसात तो तैयार हो ही सकती है.