महाराष्ट्रः कड़वी होती चीनी
नकदी की तंगी से जूझ रहीं मिल और नाराज किसान, चीनी एक बार फिर उबाल पर

गन्ने के लिए भुगतान में हो रही देरी से नाराज किसानों ने 12 जनवरी को सांगली और सतारा में छह चीनी मिलों के ऑफिस जला दिए. उनका भुगतान करीब ढाई महीने से बकाया था, जबकि गन्ना नियंत्रण कानून के मुताबिक 14 दिन के भीतर भुगतान करना होता है. चीनी की कीमत में गिरावट से नकदी की तंगी झेल रहे मिल प्रबंधकों का कहना है कि वे आंशिक भुगतान करने को तैयार हैं, पर नाराज किसान पूरे भुगतान पर जोर दे रहे थे.
केंद्र सरकार ने चीनी के लिए न्यूनतम बिक्री मूल्य 29 रु. प्रति किलो तय किया है, जो उत्पादन लागत 35 रु. प्रति किलो से काफी कम है. इस सीजन में सरकार ने गन्ने के लिए 2,750 रु. प्रति टन का उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) तय किया है, जिसमें 10 फीसदी रिकवरी होती है और 10 फीसदी से ऊपर प्रति एक फीसदी की रिकवरी पर 275 रु. अतिरिक्त जोड़े जाते हैं.
चीनी मिलों ने प्रति टन 2,300 रु. ऑफर किया और गन्ना आयुक्त शेखर गायकवाड़ ने एफआरपी और 2,300 रु. के अंतर को उतने मूल्य की चीनी देकर पाटने की बात कही. उसके बाद 14 जनवरी को किसानों का विरोध-प्रदर्शन अस्थायी रूप से रुक गया. स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के नेता और सांसद राजू शेट्टी के मुताबिक, औसतन हर किसान को 300 क्विंटल चीनी मिलेगी. वे कहते हैं, ''किसान अपनी व्यक्तिगत खपत के लिए थोड़ा चीनी रख लेंगे और बाकी को 35 रु. प्रति किलो की दर पर बेच देंगे.''
शेट्टी चाहते हैं कि केंद्र सरकार चीनी मिलों को ब्याज रहित लोन देकर बचाए, ''सरकार चीनी मिलों से कर वसूलती है. मिलों को संकट से उबारना उसकी जिम्मेदारी है.'' शेट्टी के मुताबिक, सिर्फ महाराष्ट्र में गन्ना किसानों का करीब 5,000 करोड़ रु. बकाया है.
साल 2017-18 में देश में चीनी का रेकॉर्ड 3.25 करोड़ टन उत्पादन हुआ, जबकि सालाना घरेलू मांग महज 2.6 करोड़ टन थी. 2018-19 में चीनी का उत्पादन 3 करोड़ टन रहने का अनुमान है.
यह भी मांग से काफी ज्यादा है. चीनी मिलों में बड़ी मात्रा में बचा हुआ माल भी है. मिलों को प्रति क्विंटल 13.88 रु. की सब्सिडी भी मिलती है. पर निर्यात से जुड़े दस्तावेज दिखाने की बाध्यता से इसमें प्रक्रियागत देरी होती है. 2018 के अंत तक करीब 25,000 करोड़ रु. सब्सिडी बकाया थी. केंद्र सरकार ने 2018-19 के दौरान 70 लाख टन चीनी निर्यात की इजाजत दी थी, पर दिसंबर 2018 तक मिल 15 लाख टन चीनी ही निर्यात कर पाईं.
पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री और एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने देश भर की चीनी मिलों के लिए 11,000 करोड़ रु. की मदद की मांग की है, क्योंकि मिलों से किसानों को समय पर भुगतान नहीं होने से छोटे और सीमांत किसानों में असंतोष बढ़ रहा है. वे कहते हैं, ''आर्थिक हताशा से किसान आत्महत्या कर रहे हैं.'' उनका सुझाव है कि चीनी का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) प्रति किलो 34 रु. हो ताकि घाटे की भरपाई हो सके और गन्ना उत्पादकों को भुगतान में आसानी हो.
पहले भी राहत पैकेज की मांग होती रही है. केंद्र सरकार के अधीन चीनी विकास कोष (एसडीएफ) का वित्तपोषण हर साल माल एवं सेवा कर (जीएसटी) के एक हिस्से से होता है. 2013 में ऐसे ही हालात में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कोष से 5,500 करोड़ रु. ब्याज रहित कर्ज प्रदान किया था.
केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने मिल मालिकों को चीनी की जगह एथेनॉल उत्पादन पर जोर देने की सलाह दी है.
सोलापुर में 9 जनवरी को एक रैली में उन्होंने कहा कि एथेनॉल आधारित ईंधन का उद्योग 50,000 करोड़ रु. का है. हालांकि, नेशनल कोऑपरेटिव शुगर मिल फेडरेशन के अध्यक्ष दिलीप वाल्से पाटील का कहना है कि एथेनॉल अच्छा विचार है, पर इसको शुरू होने में कम से कम दो साल लग जाएंगे.
राज्य की राजनीति, खासकर पश्चिमी महाराष्ट्र, में गन्ना कीमत हमेशा अहम मसला रही है.
राज्य की कुल 48 लोकसभा सीटों में 15 पश्चिमी महाराष्ट्र में हैं. 2014 में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने कांग्रेस-एनसीपी के इस गढ़ को तोड़कर 7 सीटें जीत ली थीं. शेट्टी का आरोप है कि सरकार सियासी फायदे के लिए हालात का दोहन कर रही है, ''वे जानते हैं किसान नाराज हैं, इसलिए वे अपना हित साधने के लिए किसानों से कह रहे हैं कि मिल मालिकों से टकराएं.''
कृषि राज्यमंत्री सदाशिव खोत ने 11 जनवरी को अपने बयान में कहा था, ''किसानों को चीनी मिलों को निशाना बनाना चाहिए, न कि सरकार को.'' इससे शेट्टी के आरोप को बल मिलता है.
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