राज दरभंगा की कहानी, जिसे ट्रस्टियों ने ही किया तबाह

कभी अरबों की संपत्ति, जबरदस्त सामाजिक और सियासी रसूख वाला राज दरभंगा आज भीतरी साजिश और बाहर में चोरी-चकारी की रपटों से कराह रहा है. राज दरभंगा के सुनहरे अतीत से झक सफेद पड़ते वर्तमान तक एक नजर

दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह अपनी छोटी रानी कामसुंदरी देवी के साथ
दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह अपनी छोटी रानी कामसुंदरी देवी के साथ

अप्रैल 17, 1947. राज दरभंगा के अंतिम राजा कामेश्वर सिंह महात्मा गांधी से मिलने पटना स्थित उनके कैंप में पहुंचे थे. उन्होंने गांधी से पूछा, "अब हमारे लिए क्या संदेश है?" गांधी ने कहा, "प्रजा के सेवक बनिए. आप अपनी संपत्ति के ट्रस्टी हैं, ऐसा मानकर उस संपत्ति से अपनी जरूरत पूरी करने जितना ही खर्च करें. फिजूल का सब खर्च बंद कर दीजिए." 

कामेश्वर सिंह ने संदेश सुना और 5,000 रु. का चंदा देकर लौट आए. गांधी का यह संदेश सुनकर उन्हें वह बात याद आ गई होगी, जो उनके पुरखे अक्सर कहा करते थे, "दरभंगा का पूरा राज हमारी कुलदेवी कंकाली का है, हम तो बस उसके ट्रस्टी हैं."  बहरहाल, 1961 में जब उन्होंने अपनी वसीयत तैयार कराई तो पूरी संपत्ति का एक ट्रस्ट बनाकर तीन लोगों को उसकी देखरेख की जिम्मेदारी सौंप दी.

इनमें दो परिवार से बाहर के लोग थे. एक उनके बहनोई थे. ऐशोआराम की जिंदगी जीने वाली अपनी दो रानियों के लिए उन्होंने सिर्फ प्रति माह पेंशन की व्यवस्था छोड़ी थी. वह भी कभी 3,000 रु. प्रति माह कही जाती है तो कभी 5,000 रुपए.

लॉर्ड माउंटबेटन और एडविना के साथ कामेश्वर सिंह (बीच में)

अब सीधे 30 जनवरी, 2024. ऐन गांधी जी की शहादत दिवस पर राज दरभंगा के वारिसों में से एक कामेश्वर सिंह के भाई के पोते कपिलेश्वर सिंह ने दरभंगा के यूनिवर्सिटी थाने में शिकायत दर्ज कराई कि उनके परिवार से जुड़े ट्रस्ट कामेश्वर रिलीजियस ट्रस्ट के बहुमूल्य गहनों को उदयनाथ झा नाम के व्यक्ति ने बेच दिया है. वह कामेश्वर सिंह की दूसरी पत्नी कामसुंदरी देवी का एटॉर्नी है.

कपिलेश्वर सिंह बताते हैं कि 108 मंदिरों की व्यवस्था देखने वाले इस ट्रस्ट के पास जितने गहने-जवाहरात थे, उनकी इस वक्त बाजार में कीमत करीब दो सौ करोड़ रु. होगी. दरभंगा पुलिस के सिटी एसपी ने इसे चार किलो सोना और 30 किलो चांदी बताया. एक ज्वेलर ने भी सोना खरीदने की बात कुबूल की और कहा कि कुल गहने 86 लाख रु. के थे. गहने गला दिए गए थे और पेमेंट चेक से होने वाली थी. पुलिस ने झा, ट्रस्ट के मैनेजर और ज्वेलर को हिरासत में लिया, फिर पीआर बॉन्ड पर छोड़ दिया. 

दरभंगा राज के इतिहास से वाकिफ और आम लोगों का भी कहना है कि यह 1962 में राज के ट्रस्ट बनने के बाद शुरू हुई लूट के सिलसिले का ही हिस्सा है. दरभंगा राज को उन ट्रस्टियों ने ही लूट लिया, जिन पर भरोसा करके कामेश्वर सिंह ने खरबों की संपत्ति छोड़ दी थी.

अक्तूबर, 1962 में उनके निधन के वक्त राज की संपत्ति 2,000 करोड़ रु. के करीब बताई गई थी, जो आज के बाजार मूल्य के हिसाब से चार लाख करोड़ रु. रही होगी. इसमें 14 बड़ी कंपनियां, देश-दुनिया के कई शहरों में बंगले, अरबों के जेवरात, जमीन और शेयर बाजार में उनके नाम पर भारी निवेश था. आज उसका दो फीसद भी नहीं बचा है. कपिलेश्वर तंज कसते हैं, "एक पूरी नदी थी, अब छोटा-सा गड्ढा बच गया है. इसे भी लूटने की कोशिश चल रही है." 

कामेश्वर सिंह की मौत के बाद की घटनाओं पर लिखी गई किताब 'द क्राइसिस ऑफ सक्सेशन' के लेखक तेजकर झा कहते हैं, "लोगों का शुब्हा वाजिब है क्योंकि दरभंगा राज को लूटने का यह सेट पैटर्न रहा है. इसी तरह एंटीक ज्वेलरी को बेचा गया था. उसकी कीमत एक यूरोपियन फर्म ने उसी जमाने में 2 करोड़ पाउंड आंकी थी.

मगर महाराजा की मौत के बाद उनकी डेथ ड्यूटी (धनी व्यक्तियों की मौत के बाद उस जमाने में सरकार टैक्स लगाती थी) चुकाने के नाम पर ट्रस्टियों ने उन तमाम गहनों को मुंबई के मशहूर ज्वेलर नानू भाई को महज 70-75 लाख रु. में बेच दिया था.

बाद में नानू भाई ने उन गहनों को ओवरसीज मार्केट में ऊंची कीमत में बेचा. मुनाफे में ट्रस्टियों को भी अच्छा खासा हिस्सा मिला. इस बार भी ऐसा ही कुछ हुआ बताया जा रहा है." एंटीक ज्वेलरी बेचे जाने का जिक्र कामेश्वर सिंह की बड़ी पत्नी राजलक्ष्मी की डायरी में भी मिलता है. 30 मार्च, 1967 को वे लिखती हैं, "ज्वेलर आए. ट्रस्ट के एग्जीक्यूटर ने सारा गहना उसे बेच दिया. मुझसे किसी ने एक दफा भी नहीं पूछा."

दरअसल, ट्रस्टियों ने कामेश्वर सिंह की मौत के ठीक बाद ही लूट शुरू कर दी थी. मौत के एक महीने बाद ही 3 नवंबर, 1962 को ट्रस्टियों ने दो हवाई जहाज और 60,000 रुपए भारत सरकार को दान कर दिए. 10 जनवरी, 1963 को तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई दरभंगा आए और उन्हें ट्रस्टियों ने 15 मन (600 किलो) सोने से तौल दिया और सारा खजाना भारत सरकार के डिफेंस फंड में दे दिया गया. उस वक्त देश चीन के साथ युद्ध लड़ रहा था.

तेजकर झा कहते हैं, "जो ट्रस्ट बना था, उसके एग्जीक्यूटर पटना हाइकोर्ट के चीफ जस्टिस रहे लक्ष्मीकांत झा थे और वे भारत सरकार के लॉ कमिशन के अध्यक्ष बनना चाहते थे. यह दरियादिली इसी काम के लिए दी गई रिश्वत थी. हालांकि वे कभी लॉ कमिशन के अध्यक्ष बन नहीं पाए. हां, खजाना कुछ ही सालों में खाली हो गया. उसके बाद जो थोड़ा-बहुत सोना और गहने बचे थे, वह कामेश्वर रिलीजियस ट्रस्ट के खजाने में बचे थे, जिस पर इन ट्रस्टियों का कोई जोर नहीं था. इसलिए अब उस खजाने पर ही सबकी नजर है."

कामेश्वर रिलीजियस ट्रस्ट का गठन 16 मार्च, 1949 में कामेश्वर सिंह के जीवित रहते ही हुआ था. नियमानुसार इस ट्रस्ट का प्रमुख राज दरभंगा का ही प्रमुख हो सकता था. सो उनके निधन के बाद बड़ी रानी राजलक्ष्मी ट्रस्टी बनीं. उनके भी निधन के बाद से छोटी रानी कामसुंदरी इसकी ट्रस्टी हैं, जो अभी 96 साल की हैं. 2003 में उन्होंने अपनी पावर ऑफ एटॉर्नी उदयनाथ झा को दी, जो उनकी बड़ी बहन के बेटे हैं. उनके निधन के बाद इस ट्रस्ट की जिम्मेदारी कपिलेश्वर सिंह के परिवार में जानी है.

दरभंगा की आखिरी रानी 96 वर्षीया कामसुंदरी देवी के साथ राज के एक वारिस कपिलेश्वर सिंह

कपिलेश्वर आरोप लगाते हैं, "उदयनाथ झा को मालूम है कि मेरी दादी छोटी रानी के बाद ट्रस्ट हमारे पास आना है. उसके बाद इस ट्रस्ट की आमदनी और संपत्ति से उन्हें हाथ धोना पड़ेगा. शायद इसीलिए अब वे इस ट्रस्ट की संपत्ति बेचने में जुट गए हैं. इससे पहले भी वे रानी कामसुंदरी के आवास को रानी के जरिए अपने नाम दान करवा चुके थे. हमने एसडीएम कोर्ट जाकर इसे कैंसिल करवाया."

अपने एटॉर्नी उदयनाथ झा के प्रति रानी कामसुंदरी की उदारता की वजह यह बताई जाती है कि रानी की शादी की हड़बड़ी की वजह से उदयनाथ झा की मां रोहिणी की शादी किसी गलत परिवार में हो गई थी, जहां उनका जीवन दुखमय गुजरा. रानी इस अन्याय की वजह खुद को मानकर इसकी कीमत चुकाना चाहती हैं.

इस प्रकरण में संपर्क किए जाने पर झा ने किसी भी तरह की टिप्पणी करने से साफ मना कर दिया. फोन पर इतना ही कहा कि "अभी एसआइटी की जांच चल रही है, इसलिए मेरा कुछ भी कहना उचित न होगा." रानी ने भी बात करने से इनकार किया. कपिलेश्वर कहते हैं, "रानी कामसुंदरी मेरी दादी हैं पर मेरे लिए भी उनसे मिलना मुश्किल है. राम जन्मभूमि मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में शामिल होने का निमंत्रण मिलने पर मैं दादी से आशीर्वाद लेने गया.

उस वक्त भी झा मिलने से रोक रहे थे पर संयोग से दादी ने देख लिया और मुझे बुला लिया. मैंने आशीर्वाद लिया. उनके साथ एक फोटो लेना चाहता था. झा इससे भी रोक रहे थे. मगर दादी की अनुमति से मैंने तस्वीरें लीं." कपिलेश्वर का कहना है, "इसी के बाद झा सक्रिय हुए और उन्होंने कामेश्वर रिलीजियस ट्रस्ट के सारे गहने बेच डाले. उन्हें लगा कि अगर दादी से मेरी निकटता हो गई तो उन्हें आगे दिक्कत होगी."

महाराजा कामेश्वर सिंह के निधन के बाद सोना ही नहीं, अलग-अलग शहरों में उनकी कोठियां भी बिकने लगीं. बड़ी रानी राजलक्ष्मी की डायरी में जिक्र है कि 14 दिसंबर, 1963 को सौराठ की जमीन बिक गई. 15 फरवरी, 1964 को कलकत्ता का दरभंगा हाउस डेथ ड्यूटी चुकाने के लिए बेच दिया गया. यह ड्यूटी चुकाने के लिए एंटीक ज्वेलरी बेचे जाने का भी जिक्र मिलता है. पर डेथ ड्यूटी इसके बाद भी चुकाई नहीं जा सकी. यह जिक्र भी है कि संपत्ति के एक अन्य ट्रस्टी मुकुंद झा, जो कामेश्वर सिंह के बड़े बहनोई थे, ने इलाहाबाद की कोठियां अपने बेटे के नाम ट्रांसफर करा लीं.

तेजकर झा कहते हैं, "रानी की डायरी में सिर्फ गहनों और कोठियों के बिकने की बातें दर्ज हैं. मगर राज दरभंगा की संपत्ति सिर्फ इतनी ही नहीं थी. कई बड़ी कंपनियां थीं. महाराजा कामेश्वर सिंह ने देश-दुनिया के शेयर बाजारों में भी पैसा लगा रखा था. इन शेयरों का क्या हुआ, किसी को नहीं मालूम." गौरतलब है कि 1987 में पारिवारिक समझौते के तहत राज दरभंगा की संपत्ति का बंटवारा होने पर पता चला था कि उस संपत्ति में तकरीबन 63 लाख रुपए के शेयर थे.

तेजकर झा इस समझौते पर भी सवाल उठाते हैं, "पहली बात तो जिसे 1961 की महाराजा की वसीयत कहा जाता है, उसमें कहीं भी यह जिक्र नहीं कि महाराजा के पास कुल कितनी संपत्ति थी. बस इतना कहा गया कि संपत्ति के तीन ट्रस्टी होंगे: जस्टिस लक्ष्मीकांत झा, गिरींद्र मोहन मिश्र और उनके बहनोई मुकुंद झा. लक्ष्मीकांत झा एग्जीक्यूटर होंगे.

दोनों रानियों को रहने के लिए एक-एक महल और महीने के पांच-पांच हजार रुपए मिलेंगे. दोनों रानियों के निधन के बाद संपत्ति भतीजों की हो जाएगी. साथ ही संपत्ति का एक-तिहाई हिस्सा लोकहित के लिए रहेगा. कामेश्वर सिंह जो इस तरह के मामलों के अच्छे जानकार थे, वे वसीयत में अपनी तमाम चल-अचल संपत्ति का जिक्र करना कैसे भूल गए! दूसरी बात, साल भर पहले ही उन्होंने लंदन के लॉएड्स बैंक को चिट्ठी लिखी थी कि वह उनकी 1958 की वसीयत को सुरक्षित रखे. इसलिए यह मामला संदिग्ध लगता है."

उनके शब्दों में, "अगर यह वसीयत सच भी थी तो उसको खारिज कर अदालत ने कैसे फैमिली सेटलमेंट करा दिया." सेटलमेंट के तहत संपत्ति छोटी रानी और उनके भतीजों के बीच बांटी गई. अब एक-तिहाई के बदले एक-चौथाई संपत्ति लोकहित के लिए छोड़ी गई थी. बड़ी रानी का निधन 1976 में ही हो गया था. हालांकि बड़ी रानी की डायरी के आखिरी दिनों के पन्ने इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि इमरजेंसी के दौरान राज दरभंगा की संपत्ति का तेजी से सरकारीकरण हुआ.

कामेश्वर धार्मिक न्यास, दरभंगा

वे लिखती हैं, "26 अगस्त, 1975 को बिहार सरकार ने अपने मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की अगुआई में दरभंगा राज का मुख्य कार्यालय ले लिया. 3 सितंबर, 1976 को जगन्नाथ मिश्र ने दरभंगा शहर में राज की 300 बीघा जमीन के लिए 70,000 रुपए के मुआवजे की पेशकश की, जिसे ट्रस्टियों ने स्वीकार कर लिया." वे आरोप लगाती हैं कि ट्रस्टियों ने ऐसा करने के लिए सरकार से रिश्वत ली. वहां जो विश्वविद्यालय बना वह ललित नारायण मिश्र के नाम से बना. 10 अक्तूबर को वे राज के महल नरगौना पैलेस के सरकारी अधिग्रहण की सूचना भी देती हैं.

बड़ी रानी जो सूचना नहीं दे पातीं, वह उन फैक्टरियों के अधिग्रहण के बारे में है, जिसे बिहार सरकार ने निगम बनाकर अपने कब्जे में ले लिया था. मगर ऐसा माना जाता है कि इमरजेंसी और उसके बाद के वर्षों में राज दरभंगा के स्वामित्व वाली ज्यादातर फैक्ट्रियों का अधिग्रहण कर लिया गया. राज दरभंगा के मामलों पर लगातार शोध करने और सोशल मीडिया पर मुखर लेखन करने वालीं कुमुद सिंह कहती हैं, "इन अधिग्रहणों के पीछे एक पैटर्न है."

"ज्यादातर अधिग्रहण कंपनी को बंद करने के इरादे से किए गए लगते हैं. जिन कंपनियों का अधिग्रहण हुआ वे एक दशक के अंदर बंद हो गईं." चीनी मिलों के अधिग्रहण की कथा बताते हुए कुमुद कहती हैं, "बिहार विधान परिषद् में दरभंगा स्नातक क्षेत्र से विधान पार्षद और जगन्नाथ मिश्र के करीबी कमलनाथ सिंह ठाकुर ने लोहट समेत तमाम चीनी मिलों में अस्थायी कर्मचारियों के आंदोलन को आधार बनाकर प्रस्ताव दिया कि सरकार को इलाके में रोजगार के संरक्षण के लिए अधिग्रहण कर लेना चाहिए.

अस्सी के दशक में इन मिलों का अधिग्रहण हुआ और नब्बे के दशक में वे बंद हो गईं. इसके पीछे कहीं न कहीं दरभंगा राज के प्रति संजय गांधी की नाराजगी भी थी. अस्सी के दशक में मारुति उद्योग में दरभंगा राज के शेयरों को भी ट्रस्टियों पर दबाव बनाकर औने-पौने बिकवा दिया गया. समस्तीपुर की जूट मिल भी अधिग्रहीत हो गई और अब जैसे-तैसे चल रही है."

कुछ ऐसी ही कहानी अपने जमाने की एशिया की सबसे बड़ी अशोक पेपर मिल की है. इसकी इकाई बिहार और असम दोनों राज्यों में थी. राज दरभंगा की कंपनियों के लेबर अफसर विश्वबंधु बिनोदानंद झा अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "पहले तो इस पेपर मिल की असम इकाई को राज दरभंगा के ट्रस्ट एग्जीक्यूटर लक्ष्मीकांत झा बेचना चाहते थे मगर उस वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के प्रयासों से इसे बेचा नहीं जा सका. बाद के राजनेताओं ने खास तौर पर मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने अपने राजनैतिक हस्तक्षेप के जरिए इसे ठीक से चलने नहीं दिया. यह भ्रष्ट राजनेताओं का चारागाह बन गया."

इस पूरे प्रकरण में यह जानकारी नहीं मिलती कि उस पब्लिक ट्रस्ट का क्या हुआ जिसकी वसीयत महाराजा कामेश्वर सिंह ने लोकोपकारी कार्यों के लिए की थी. इसके लिए पहले उनकी एक तिहाई संपत्ति तय की गई थी, बाद में फैमिली सेटलमेंट के जरिए उसे एक-चौथाई कर दिया गया. कुमुद सिंह कहती हैं, "उस ट्रस्ट में अभी भी काफी पैसा होना चाहिए, क्योंकि उसकी लूट इतनी आसानी से नहीं हो सकती. पर मेरी जानकारी में उस पैसे से बस एक अस्पताल चल रहा है."

उसके ट्रस्टियों में से एक कपिलेश्वर सिंह कहते हैं, "मैं और मेरे बड़े भाई ट्रस्ट के पैसों से नियमित हेल्थ कैंप लगाते हैं और दिव्यांगों को ट्राइसाइकिल और दूसरे उपकरण बांटते हैं." अपनी किताब क्राइसिस ऑफ सक्सेशन के हवाले से तेजकर झा बताते हैं, "1951 में एक बार वे, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति रहे डॉ. अमरनाथ झा के साथ पूर्णिया सोरैया राज की पुरानी कोठियों को देखने गए. उन्हें देख कामेश्वर सिंह भावुक हो गए और रोने लगे. अमरनाथ झा ने कारण पूछा तो बोले, मैं इनमें अपने घर, परिवार और राज दरभंगा का भविष्य देख रहा हूं." सच! 

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