किताबें/टिप्पणीः मॉडर्न गद्य में प्रयोग की ताजगी
पितृ-वध शीर्षक आशुतोष भारद्वाज की उस पहचान के अनुरूप है, जिसमें उनकी पैनी, स्पष्ट असहमतियां और स्थापनाएं एकबारगी चौंकाती हैं. अपनी स्थापनाओं के पक्ष में वे किसी मनोवैज्ञानिक के बजाए दोस्तोयवस्की के लेखन से लेकर शास्त्र वाक्य ''पुत्र और शिष्य से पराजय की इच्छा रखता हूं'' तक उद्धृत करते हैं.

राहुल कुमार सिंह
पितृ-वध शीर्षक आशुतोष भारद्वाज की उस पहचान के अनुरूप है, जिसमें उनकी पैनी, स्पष्ट असहमतियां और स्थापनाएं एकबारगी चौंकाती हैं. अपनी स्थापनाओं के पक्ष में वे किसी मनोवैज्ञानिक के बजाए दोस्तोयवस्की के लेखन से लेकर शास्त्र वाक्य ''पुत्र और शिष्य से पराजय की इच्छा रखता हूं'' तक उद्धृत करते हैं. ''वध में वैधानिकता का भाव है'' कहते हुए भीष्म, शंबूक और जयद्रथ वध के क्रम में नाथूराम गोडसे द्वारा अपने कृत्य को 'गांधी-वध' कहे जाने का उल्लेख करते हैं. ''एक पुरुष का अपने पिता के साथ जो द्वंद्वात्मक संबंध होता है वह शायद मां के साथ नहीं है, और चूंकि मैं हूं तो पुरुष ही इसलिए अपने पूर्वजों के साथ रचनात्मक संघर्ष मेरे भीतर पिता के रूपक में ही दर्ज हुआ है?'' का सवाल भी उठाते हैं, जिसका जवाब 'नहीं' पुस्तक में आगे आ जाता है.
स्वर, स्मृति, संवाद और समय शीर्षक खंडों में से एक स्वर श्रीकांत वर्मा हैं, जिनकी रचनाधर्मिता के लिए कही गई बात खुद कवि पर लागू हो सकती है, ''जो कविता खुद अपना विषय भी हो, पूरक, विलोम और शत्रु भी, वह न सिर्फ आत्म-रत है, बल्कि आत्म-हंता भी.'' मुक्तिबोध में स्त्री की अनुपस्थिति को रेखांकित करते हुए आशुतोष एकाकीपन की भूमिका बनाते दिखते हैं. वे अशोक वाजपेयी के लिए उदार हैं तो अज्ञेय के प्रति निर्मम.'' एक लेखक और सामान्य पाठक के पाठ में शायद गहरा फर्क है,'' कहते हुए निर्मल वर्मा की कड़ी के साथ आशुतोष, अज्ञेय को 'मेरे पितामह' मानते हैं, लेकिन पितृ-वध का खास खुलासा होता है, जब वे बिना पूर्वाग्रह के चाहते हैं कि ''इस कथाकार से कोई, दूर का ही सही, संबंध जोड़ पाऊं, लेकिन नहीं.'' संदेह नहीं कि हर व्यक्ति पितृ-वध को सूक्ष्म, किसी न किसी रूप में न सिर्फ स्वयं में घटित होता महसूस करता है, औरों को भी दिखता है, उम्र के साथ खुद में खुद को मरते और पिता को पनपते देखना, अनहोनी नहीं है.
'स्वर' खंड के अन्य चार निबंध, भारतीय साहित्य की स्त्री पर हैं. आमतौर पर स्त्री की योनिगत भिन्नता, मातृत्व, यौनिकता जनित लाचारी और उससे जुड़कर कभी शोषण, कभी अधिकार ही विमर्श में होता है. किंतु यहां इन निबंधों में थोथी विमर्श-पूर्ति नहीं है, व्यापक सर्वेक्षण और विश्लेषण-चिंतन करते स्त्री को बीसवीं-इक्कीसवीं सदी की संवेदनायुक्त होमो सेपियंस की तरह देखा गया है. नर से उसकी लैंगिक भिन्नता को नजरअंदाज कर समग्र जीव मानते हुए. एकदम अलग लेकिन सच को उजागर करने का वह पहलू, जिसे अब तक शायद ठीक से स्पर्श भी नहीं किया गया था. यहां उससे अलग बहुत कुछ है, उसके भय, उदासी, चिंता, भाव में कायिक कारक न के बराबर हैं, इससे स्त्री का भिन्न आयाम उभरा है, उसका फलक विस्तृत हुआ है.
इस दौर का खासकर गद्य का युवा पाठक-लेखक प्रेमचंद, छायावाद और बांग्ला लेखकों को पढ़ता और संदर्भ के लिए इस्तेमाल भी करता है पर अधिकतर प्रभावित होता है मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा और कृष्णा सोबती से. ऐसा यहां भी है. स्मृति खंड में आशुतोष का निर्मल वर्मा से मिलना, बात करते हुए उन्हें पढ़ा होना और याद करना, लेखक-पाठक को पूरा करने में किस तरह भूमिका निभाता है, देखने लायक है.
''किसी लेखक को समझने के लिए उससे मिलना जरूरी थोड़े है,'' उद्धृत कर आशुतोष संवाद खंड में कृष्ण बलदेव वैद और कृष्णा सोबती से अपनी मुलाकात-बात को गंभीर इंदराज बनाते हैं. चौथा खंड समय डायरी है. रचनाकार की डायरी, दैनंदिनी से अलग और अधिक, वह नोटबुक, जो पाठक, प्रकाशक, बाजार से अपेक्षा-मुक्त है. वैद फेलो आशुतोष की डायरी के साथ वैद की प्रकाशित डायरी-पुस्तकें याद आती हैं, जिन्हें पढ़ते हुए मुझे बार-बार लगता कि मैं यह क्यों पढ़ रहा हूं, लेकिन छोड़ नहीं पाता. वहीं मैं 'कुकी' जैसे अनूठे चरित्र से परिचित हुआ, 'दिल एक उदास मेंडक' जैसा दुर्लभ वाक्य वहां मिला, और वैद की स्वीकारोक्ति कि ''यह संपादन इसलिए भी कि सब कुछ किसी को भी बताया नहीं जा सकता, अपने आपको भी नहीं.''
आलोचना के लिए जरूरी पैनापन, समृद्ध संदर्भ और अंतर्दृष्टि तो लेखक में है, उसकी सजगता में सूझ है, लेकिन कहीं बूझ के लिए आंखें बंद करना जरूरी होता है, वह गुडाकेशी आशुतोष को मंजूर नहीं दिखता. यह पुस्तक, लेखक के भारतीय उपन्यास, आधुनिकता और राष्ट्रवाद पर आने वाले मोनोग्राफ के लिए अपेक्षा जगाने वाली है, जिसमें उम्मीद है, अधिक गहरी अंतर्दृष्टि सहजता से तल पर उभरेगी. बहरहाल पुस्तक, सोचने के लिए ऐसी जमीन बना कर देती है, जिसे समय-समय पर याद करते, खोलते रहना हो, इसलिए बुक-शेल्फ वाली जरूरी पुस्तक है. डेविड अल्तमेज्द के चित्र को आवरण पर महेश वर्मा ने संजोया है, जिसमें पुस्तक की तरह परंपरा की मिट्टी का वजन है, तो मौलिकता की ताजी लकीरें भी.
पितृ-वध
लेखक: आशुतोष भारद्वाज
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
कीमत: 299 रु.
***