फिर शुरू हुई रंगभेद पर बहस, कहां खड़ा है भारतीय समाज?

गोरे बनाम काले की बहस फिर हुई तेज. इसने चमड़ी के रंग को लेकर भारतीय समाज में चले आ रहे पूर्वाग्रह की परतों को उघाड़कर रख दिया

गोरे बनाम काले की बहस फिर हुई तेज
गोरे बनाम काले की बहस फिर हुई तेज

पति वी. वेणु के रिटायर होने पर उनकी जगह केरल की मुख्य सचिव बनने वालीं शारदा मुरलीधरन का हाल में त्वचा के रंग को लेकर ऐसी स्त्री-द्वेषी टिप्पणी से सामना हुआ कि वे इस नाइंसाफी के खिलाफ फेसबुक पर कलम चलाने से खुद को नहीं रोक सकीं. उनकी पोस्ट के अंश...

"अभी कल ही बतौर मुख्य सचिव मेरे कामकाज पर एक दिलचस्प टिप्पणी सुनने को मिली—कि वह उतना ही काला है, जितना मेरे पति गोरे. हां, मुझे अपने कालेपन को स्वीकार करना होगा."

"आखिर मुझे यह एक टिप्पणी क्यों अखर गई? इसमें काला के साथ (एक स्त्री-द्वेषी भाव) छिपा है."

"काले रंग से इतनी चिढ़ क्यों हो? काला तो इस ब्रह्मांड की सर्वव्यापी सचाई है. काला ही है जो सब कुछ अपने भीतर समा लेता है, मनुष्य को ज्ञात सबसे ताकतवर ऊर्जा. यह रंग हर किसी पर हर वक्त फबता है, ऑफिस की वेशभूषा, शाम को आरामदायक पहनावे, काजल का भाव, बारिश का वादा."

"मैं जब चार साल की थी तो मां से पूछा करती थी कि क्या वे मुझे अपनी कोख में दोबारा डाल सकती हैं और झक गोरा तथा सुंदर बनाकर निकाल सकती हैं?"

इक्कीसवीं सदी के भारत में क्या फर्क पड़ता है कि आप ऐसी महिला हैं, जो तमाम बाधाएं लांघ आई हैं. बस एक छुटपुट, रुखी-सी टिप्पणी आपको मायूसी और असुरक्षा की उस खाई में धकेल दे सकती है, जिसे आप सोचती हैं कि बहुत पीछे छोड़ आई थीं. एक ऐसा वक्त जब आपकी त्वचा का गहरा रंग आपको ढके रखता था, अनदेखा, अनसुना और अवांछित बना देता था.

शारदा मुरलीधरन ने हाल में वहीं खुद को खड़े पाया. वजह केरल की बतौर मुख्य सचिव उनके कार्यकाल पर एक बेहद गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी थी, जिसमें कहा गया कि उनका कामकाज उतना ही काला है, जितना उनके पति का रंग साफ गोरा है, काले के पीछे ''स्त्री-द्वेष का भाव भी" चस्पां था.

जीवन भर इस रंगभेद का सामना और उसकी लंबे समय से आदी होने के बावजूद शारदा ने एक फेसबुक पोस्ट में "इस बार मुकाबला करने" का फैसला किया, क्योंकि उस शख्स ने काले को "बदसूरत, अभागा, किसी काम का नहीं, काली बुराई, निर्दयी, निरंकुश, अंधेरे" के पर्याय की तरह पेश किया था.

इस भावुक पोस्ट से मानो पुराने जख्म हरे हो गए और देश में सांवले-काले रंग के लोगों के प्रति भद्दे, अनुचित पूर्वाग्रह की बहस को फिर से सुलगा दिया. शारदा की पोस्ट के जवाब में मुख्यधारा और सोशल मीडिया पर निंदा का जैसे सागर फूट पड़ा. एक्स पर #Unfair&Lovely ट्रेंड करने लगा, जिनमें सुंदरता के पैमाने को चुनौती दी गई और गहरे रंग की त्वचा की वाहवाही की गई.

कान फिल्म फेस्टिवल में ग्रां प्रि पुरस्कार जीतने वाली पायल कपाडिया की पहली फिल्म ऑल वी इमेजिन ऐज लाइट में अमिट छाप छोड़ने वाली अभिनेत्री कनि कुसरुति ने एक प्रमुख दैनिक में भावुक स्तंभ लिखा कि कैसे बचपन में उनके परिजन उन्हें केवल हल्के रंग के कपड़े पहनने को कहा करते थे, क्योंकि "काला या कोई अन्य गहरा शेड पहना तो दिखोगी ही नहीं."

उन्होंने यह भी लिखा कि रंगभेद की बाकायदा ऊंच-नीच की व्यवस्था है, खासकर महिलाओं और लड़कियों के लिए और इस तरह सुंदरता के बारे में. मॉडल-अभिनेत्री पौलोमी दास ने बताया कि एक टेलीविजन शो में उन्हें मुख्य भूमिका मिलने वाली थी, लेकिन उन्हें पता चला कि चैनल ने उनकी त्वचा के रंग की वजह से नामंजूर कर दिया.

नंदिता दासः 55 वर्षः अभिनेत्री और निर्देशक

"मेरी त्वचा के रंग से मुझे क्यों पुकारा जाए?"

मेरे बारे में लिखा जाता है, तो मुझे अक्सर 'काली और सांवली' कहा जाता है. मुझे इससे कोई शिकायत नहीं. जो जैसा है उसे वैसा कहे जाने की मैं हिमायती हूं. असल में काले रंग को सांवला भी कहने की दरकार नहीं! मुझे बस हैरानी यह है कि मेरी त्वचा के रंग से मेरे परिचय को जोड़ने की क्या जरूरत.

मुझे उम्मीद है कि मेरे बारे में और भी बहुत कुछ है! या यह सिर्फ इसलिए है क्योंकि अभिनेत्रियां सांवली कम ही पाई जाती हैं इसलिए यह बताना जरूरी हो जाता है. किसी की त्वचा का रंग उसके कई पहलुओं में से सिर्फ एक बात है और इसलिए उस पर ज्यादा जोर देना उसके साथ नाइंसाफी होगी. बस इतना ही.

मसाबा गुप्ताः 35 वर्षः उद्यमी

"लोग काली कहकर नीचा दिखाना चाहते हैं"

यह वाकया मेरे साथ भी हुआ. मेरी प्रसवपूर्व मालिश के लिए आने वाली ने कहा कि मुझे हर रोज एक रसगुल्ला खाना चाहिए, ताकि बच्चे का रंग मुझसे कुछ साफ हो.

कुछ बातें खुलेआम कहना ठीक नहीं लेकिन बात तो की ही जाएगी...आप यह जानकर चौंक जाएंगे कि कितने ही धनी-मानी, पढ़े-लिखे और सुशिक्षित लोग भी ऐसा ही सोचते हैं.

कई बार लोग सोचते हैं कि किसी को काली कहना उसे नीचा दिखाने का तरीका है, मुझे यह बहुत बेतुका लगता है. और मैं आज भी इसकी गवाह हूं. (यूट्यूब पर फेय डिसूजा से बातचीत में)

 कनि कुसरुतिः 39 वर्षः अभिनेत्री

"त्वचा के रंग और खूबसूरती के भी ऊंच-नीच के पैमाने हैं"

आज भी हर कोई खासकर महिलाएं और लड़कियां यही समझती हैं कि रंग का और इसलिए सुंदरता का एक पैमाना है. यह रंगवाद हमारी चेतना में इतने गहरे समाया हुआ है कि किसी कमरे में प्रवेश करते ही खुद-ब-खुद दिमाग में आता है: क्या मैं इस कमरे में सबसे सांवली हूं? क्या मैं सबसे गोरी हूं? या मैं कहीं बीच की हूं?

आज हमारे समाज में रंगभेद को स्वीकार किया जाता है, और मैं ऐसे लोगों से मिलती हूं जो कहते हैं कि गहरे रंग की त्वचा सुंदर होती है. लेकिन क्या यह केवल मुंह पर बोलने की बात है या वे असलियत में सुंदरता की विविधता की सराहना करते हैं? (इंडियन एक्सप्रेस में एक स्तंभ के अंश)

विडंबना देखिए कि पांच साल पहले दास ग्लो ऐंड लवली का चेहरा थीं, जो देश में मशहूर स्किन-व्हाइटनिंग क्रीम ब्रांड का नया नाम है. दुनिया भर में विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें #BlackLivesMatter आंदोलन भी शामिल था, तो हिंदुस्तान यूनिलीवर ने 2020 में 'फेयर' शब्द की जगह 'ग्लो' कर दिया था. हालांकि यह बदलाव कॉस्मेटिक या दिखावटी भर था.

पुणे स्थित मार्केट रिसर्च फर्म फ्यूचर मार्केट इनसाइट्स की इस विषय पर एक रिपोर्ट के मुताबिक, स्किन लाइटनिंग मार्केट भारत में फिलहाल 1.3-1.5 अरब डॉलर (11,100-12,800 करोड़ रुपए) है, तेजी से बढ़ रहा है, और अगले दशक में करीब 6.5-7.2 फीसद की अनुमानित चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) से बढ़ सकता है. मुख्यधारा के मीडिया या हिंदी फिल्मों में सांवली त्वचा वाले रोल मॉडल न के बराबर हैं जबकि सोशल मीडिया में गोरेपन को खूबसूरती, खुशी और कामयाबी का पैमाना बताने वाले दृश्य भरे पड़े हैं.

बढ़ती जागरूकता के बावजूद वैवाहिक विज्ञापनों में 'गोरी' दुल्हनों की ही मांग है. दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में ऐसे विज्ञापनों पर 2018 में किए गए सर्वेक्षण से पता चला कि 60 फीसद से अधिक लड़के गोरी लड़कियां ही चाहते हैं.

भारत में रंगभेद पर व्यापक अध्ययन करने वालीं, अमेरिका के इंडियाना यूनिवर्सिटी में मीडिया अध्ययन की प्रोफेसर राधिका परमेश्वरन बताती हैं, "विवाह बाजार में स्त्रियों का शरीर ही उनकी पूंजी है. अच्छी कमाई करने वाले सांवले लड़के की गोरी, औसतन खूबसूरत लड़की से शादी ट्रॉफी जीतने जैसा है, जो उसकी हैसियत और ताकत में इजाफे की निशानी है."

वे कहती हैं, ''कई देशों में जो हालात हैं, जहां कार्यस्थल पर कामयाबी और आगे बढ़ने के लिए आपका रंग-रूप काफी मायने रखता है, तो ऐसे में हैरानी नहीं कि भारतीयों और खासकर महिलाओं की फिक्र यही रहती है कि बाकी सभी मामलों में समान होने के बावजूद गोरी चमड़ी वाले को ही काम देने के लिए चुना जाएगा."

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केस स्टडी

पौलोमी दासः 29 वर्षः  मॉडल-अभिनेत्री

"टीवी पर स्त्री सशक्तीकरण बकवास है"

पौलोमी दास

अभी दो महीने पहले पौलोमी दास को एक टीवी शो में मुख्य किरदार की भूमिका मिलने वाली थी, लेकिन उन्हें पता चला कि चैनल ने उनकी त्वचा के रंग की वजह से इनकार कर दिया है.

दास बताती हैं, ''मुझे चैनल के दोस्तों से पता चला कि उन्होंने मुझे इसलिए नहीं लिया क्योंकि 'वह बहुत काली है, उसे एमडी (प्रबंध निदेशक) जैसी दिखनी चाहिए.' ये चैनल जो महिला सशक्तीकरण का दिखावा करते हैं, वे बकवास कर रहे हैं. उनके दिमाग में कचरा और दकियानूसी विचार भरे हुए हैं. भारत में हममें से कोई भी गोरा नहीं है. यह 200 साल की ब्रिटिश गुलामी का पूर्वाग्रह है जो अभी भी कायम है."

नकारात्मक सोच वाले, बदतमीज दास को मायूस नहीं कर पाते, जो इंस्टाग्राम पर गर्व से 'द ब्राउन क्वीन' के नाम से जानी जाती हैं. उन्होंने रंगवादियों को जवाब देना सीख लिया है, चाहे वह बिग बॉस ओटीटी (2024) हो, जहां एक साथी प्रतियोगी ने उनके रंग की खिल्ली उड़ाई हो या ऑनलाइन ट्रोल.

वे कहती हैं, "वे मेरी चमक को कम नहीं कर सकते, सिर्फ इसलिए कि उन्हें लगता है कि मैं अच्छी नहीं दिखती. जब वे बोले कि तुम लीड की तरह नहीं दिखती हो, तो मैं बोली 'मेरी लाइफ स्टोरी में मैं ही लीड हूं'." पौलोमी सुहानी सी एक लड़की और कार्तिक पूर्णिमा जैसे शो में दिखाई दी हैं.

पौलोमी 2020-21 में हिंदुस्तान लीवर के ग्लो ऐंड लवली का चेहरा बन गईं, एक ऐसी उपलब्धि जिस पर उन्हें गर्व है क्योंकि इसमें ब्रांड ने गोरेपन से बदलकर बीबी क्रीम बना दिया. वे कहती हैं, "वे गलती मान रहे हैं और उद्देश्य बदल रहे हैं और मेरी त्वचा के रंग के साथ न्याय कर रहे हैं, तो मुझे उनका साथ क्यों नहीं देना चाहिए? हम सभी को आगे बढ़ना चाहिए."

केरल में छुट्टियां मना रहीं पौलोमी कहती हैं कि मैं 10 गुना ज्यादा काली होकर लौटने वाली हूं. मुझे बहुत भा रहा है. 

—सुहानी सिंह

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भारत और रंगभेद

रंगभेद 1982 में प्रसिद्ध अश्वेत लेखिका एलिस वॉकर का गढ़ा शब्द है, जो रंग के आधार पर एक ही नस्ल के लोगों के साथ किए जाने वाले पक्षपातपूर्ण व्यवहार को बताता है. हमारे देश में यह किसी से छिपा नहीं है. दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के समाजशास्त्री डॉ. विवेक कुमार जैसे कुछ विद्वान इसे तबसे देखते हैं जब पहले गोरे रंग के इंडो-आर्यों का सामना काली चमड़ी वाले द्रविड़ों से हुआ, जो इस भूमि के मूल निवासी थे.

आर्यों ने यहां के लोगों पर राज करना शुरू किया और खुद को कुलीन घोषित कर दिया. कुमार कहते हैं, "आर्यों के आगमन के साथ ही नस्लीय सिद्धांत का निर्माण समाजशास्त्रीय दृष्टि से किया गया था." हालांकि वे रंग से जुड़े भेदभाव को जाति व्यवस्था से जोड़कर नहीं देखते हैं. उनका कहना है कि प्रारंभिक अवस्था में ऐसा था जब त्वचा के रंग को अहमियत दी जाती थी. जाति व्यवस्था जन्म से ज्यादा लोगों के पेशे और कामकाज के इर्द-गिर्द संगठित हुई थी, और बहुत बाद में वंशानुगत हो गई.

कुमार आधुनिक समय में देश में रंगभेद के जुनून की वजह साफ-साफ उपनिवेशवादियों को बताते हैं. मसलन, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच और आखिरकार अंग्रेज सबसे लंबे समय तक रहे.

वे कहते हैं, "हमारे भगवान—विष्णु, शिव, राम, कृष्ण—सभी को सांवले रंग में दिखाया गया है. महाभारत की बेहद सुंदर रानी—द्रौपदी—काले रंग की थीं. गोरी त्वचा से सुंदरता और आकर्षण का जुड़ाव यूरोपीय औपनिवेशिक शासकों की देन है." असल में, ब्रिटिश नृवंशविज्ञानी हर्बर्ट होप रिस्ले ने 1915 में भारतीयों को तीन व्यापक नस्लीय प्रकारों में वर्गीकृत किया, जिसमें द्रविड़ों को काले रंग और इंडो-आर्यों को गोरे रंग के रूप में दिखाया गया.

यह वर्गीकरण भारत में जाति व्यवस्था से जुड़े त्वचा के रंग से कितना करीब है, जिसमें ब्राह्मणों को अमूमन गोरी चमड़ी का और निचली जातियों तथा आदिवासियों को काली त्वचा का माना जाता है. यह विचार आज भी उसी तरह नुमायां है.

अंग्रेज तो चले गए, लेकिन रंगभेद भारतीय मानस में गहरी जड़ें जमा चुका था. स्त्रियों, लड़कियों को इस अनुचित बोझ का बेहिसाब खामियाजा भुगतना पड़ा, क्योंकि जाति, पितृसत्ता और आर्थिक हालत ने कम गोरे लोगों को हीन भावना से भर दिया. परिवारों में जन्म से ही सांवले रंग के बच्चे को कुछ कमतर माना जाने लगा. सांवले रंग को घृणित माना जाने लगा.

काली या कालिया जैसे नाम शायद श्याम या श्यामोली जैसे व्यंजनापूर्ण नामों की तरह ही आम और स्वीकार्य हो गए. बचपन से ही ताने मिलते लगते, जिनमें 'काली कलूटी, बैंगन लूटी' जैसे मुहावरे प्रचलित हो गए. स्कूल और कॉलेज में इस पूर्वाग्रह को न केवल दूसरे बच्चे बल्कि अक्सर शिक्षक भी बढ़ावा देते हैं.

इससे भी बदतर "दिमाग में समाया नस्लवाद" है, या जैसा कि परमेश्वरन कहती हैं, "इस तरह के भेदभाव के शिकार लोग पलटकर सांवले रंग वालों को नीचा दिखाते हैं." अक्सर लोग बेहिचक सलाह दे डालते हैं कि हल्दी-मलाई उबटन जैसे घरेलू उपचार या विको टरमरिक या फेयर ऐंड लवली जैसे रेडीमेड क्रीम से त्वचा का रंग हल्का और साफ करें.

जर्मनी के ओस्नाब्रुक यूनिवर्सिटी में संज्ञान विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं ने 2023 में भारतीय उपमहाद्वीप में रंगभेद पर अध्ययन में इन प्रवृत्तियों की पुष्टि की. अध्ययन का निष्कर्ष था कि "जन्म से लेकर सभी सामाजिक संरचना में त्वचा के रंग को लेकर भेदभाव पर आधारित व्यवस्था लोगों के दिमाग में बैठी है और इस प्रकार ऐसे तरीके तैयार होते हैं जिनसे लोगों के दिमाग में खुद-ब-खुद अपने और दूसरों के बारे में भावनाएं बनती-बिगड़ती हैं. यह मानसिकता लोगों को रंग के आधार पर श्रेष्ठ और हीन जैसे पैमाने गढ़ती है. आखिरकार, ऐसा रुझान विकसित होता है जो लोगों के अपने सर्वोत्तम हितों से ज्यादा गोरेपन को अहमियत देता है."

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केस स्टडी

स्निग्धा नायरः 25 वर्षः असिस्टेंट फिल्म डायरेक्टर

"डांस ग्रुप से निकाल दिया गया तो सोचा, मैं बदसूरत हूं"

महज ढाई साल की थी, जब एक दिन प्लेस्कूल से घर आई और मां के हाथ पर हाथ रखकर बोली: ''किक्का (स्निग्धा का प्यार-दुलार का नाम) काली, मम्मा गोरी."

वे याद करती हैं, ''मेरी मां रो पड़ीं. वे उसी दिन यह पूछने के लिए नर्सरी गईं कि स्कूल में किसने क्या कहा था." स्निग्धा के लिए यह प्रसंग बतलाता है कि सांवली त्वचा के खिलाफ भेदभाव किस तरह बचपन से ही शुरू हो जाता है, यहां तक कि तभी जब बच्चा ठीक से बोल तक नहीं पाता.

स्कूल में उन्हें 'काली सांड' कहा जाता और कक्षा 10 में उन्होंने पाया कि उन्हें डांस ग्रुप से इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उनका रंग-रूप ग्रुप के बाकी सदस्यों से मेल नहीं खाता था. स्निग्धा याद करती हैं, "तब मुझे यह सोचकर धक्का-सा लगा कि शायद मैं बदसूरत हूं."

तभी कोविड-19 शुरू हो गया, और घर में बंद स्निग्धा की असुरक्षाएं इतनी बढ़ गईं कि वे अपने को 'ठीक करने' के लिए गोरा बनाने वाले उत्पाद तलाशने लगीं. इसी अनुभव ने उन्हें 'यू' नाम से एक शॉर्ट फिल्म शूट करने को मजबूर किया, जिसमें वे युवा असुरक्षित महिला की उदासी और विषाद को दर्ज करती हैं.

फिल्म उद्योग का हिस्सा बन चुकीं स्निग्धा कहती हैं कि अब अदाकारों का चयन करते वक्त महिला भूमिकाओं के लिए 'गोरी चमड़ी' को मांग के तौर पर देखना आम बात हो गई है. मगर अब वे इतनी समझदार भी हो गई हैं कि उन्हें नहीं लगता कि अपनी त्वचा के लिए उन्हें किसी 'स्वीकृति' की जरूरत है. वे कहती हैं, "यह कोई विकृति नहीं, सामान्य-सी बात है."

—सुहानी सिंह

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केस स्टडी

प्रीति दासः 48 वर्ष, अदाकारा, स्टैंड-अप कलाकार और किस्सागो

"मुझसे कहा गया कि तुम काली हो, मगर तुम्हारे अंदर खूबसूरती है"

हमेशा मेरा सांवला रंग उत्सुकता और ढेर नाराजगी का सबब रहा है. किशोरावस्था में दो संभ्रांत बुटीक ने यह कहकर मुझे खाली हाथ लौटा दिया कि आपकी त्वचा के रंग पर फबने वाले कपड़े हमारे यहां नहीं हैं, कहीं और कोशिश कीजिए. ये तंज आज भी उतने ही गहरे चुभते हैं.

अभिनेत्री के तौर पर आपके हाथ बस कुछ घिसी-पिटी भूमिकाएं ही लगती हैं. मगर उद्योग जिस शब्दावली का इस्तेमाल करता है, वह और भी चौंकाने वाली है: मेकअप आर्टिस्टों से अक्सर कहा जाता है कि 'दलित' या 'ट्राइबल' मेकअप करें—दोनों का इशारा यही होता है कि 'उसकी त्वचा को तपा दो'. एक बार स्टैंड-अप परफॉर्मेंस के बाद तालियों की गड़गड़ाहट के बीच एक गोरी मोहतरमा मेरे पास आईं और बोलीं, "शानदार...आपका रंग काला है...आप भीतर से खूबसूरत हैं."

कई लतीफे हैं जिन पर मैं हंसती हूं, हालांकि वे मजेदार नहीं है. मेरे पति इत्तेफाकन गोरे हैं, और हमारी शादी के वक्त 'मजाक' यह था कि हमारे बच्चे शतरंज के बोर्ड की तरह होंगे. बच्चों के साथ बातचीत के दौरान भी मैं उन्हीं पूर्वाग्रहों को कायम देखती हूं. अपनी कहानियों में जब मैं भेदभाव के बारे में बात करती हूं तो सांवली लड़कियों की आंखों में आंसू आ जाते हैं; तो भी दुष्ट या नकारात्मक चरित्र हमेशा काला ही होगा.

— जुमाना शाह से बातचीत पर आधारित

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रंगभेद के नतीजे

हैरानी नहीं कि बच्चों की पूरी पीढ़ी यह मानकर बड़ी होती है कि वे अपनी त्वचा के रंग के कारण सुंदर नहीं हैं, वे इस नैरेटिव को पूरी तरह आत्मसात कर लेते हैं. वे जहां भी देखते हैं—सिनेमा स्क्रीन पर, पत्रिकाओं के कवर पर, विज्ञापनों में-उन्हें गोरे चेहरे घूरते हैं. हेमा मालिनी, शबाना आजमी, रेखा या स्मिता पाटिल अपवाद थीं, प्रचलन में तो कुछ और रहा है.

हिंदी फिल्म का हीरो गोरी नायिका को लुभाने के लिए 'ये काली काली आंखें, ये गोरे गोरे गाल', 'गोरी हैं कलाइयां' या 'गोरे गोरे मुखड़े पर काला काला चश्मा' जैसे गाने गाता है. अगर थोड़ी राहत थी, तो वह 'हम काले हैं तो क्या हुआ, दिलवाले हैं' जैसे गाने में थी. रैंप मॉडलिंग की दुनिया में ही सांवली सुंदरियों ने पहचान पाई और कोई लक्ष्मी मेनन अपने तईं खूबसूरती की मानक बनीं.

लेकिन इससे सांवली लड़कियों के लिए भारत के विवाह बाजार कोई फर्क नहीं पड़ा. गोरी दुल्हन किसी काले रंग के अमीर आदमी के लिए ट्रॉफी जीतने जैसी हो सकती है, जो शायद उसे गोरी संतान दे सके. विवाह वेबसाइट shaadi.com ने तो भारतीय त्वचा के रंग का एक पैमाना ही बना रखा था, लेकिन दुनिया भर में विरोध उठा तो उसे हटाना पड़ा.

विवाह इस भेदभाव का अंत नहीं है. कनाडा में क्वींस यूनिवर्सिटी की रीना कुकरेजा ने 2021 के सेज जर्नल्स में एक अध्ययन में चार भारतीय राज्यों-हरियाणा, राजस्थान, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के 57 गांवों का सर्वेक्षण किया, ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या त्वचा के 'गहरे' रंग वाले राज्यों के लोगों के 'गोरे' रंग वाले उत्तरी राज्यों के लोगों से शादी करने पर वैवाहिक जीवन प्रभावित होता है.

जिन 100 से अधिक महिलाओं से बातचीत की गई, उनमें से आधी ने रंगभेद की बात कही, या जिनकी अक्सर 'काला कौवा' या 'काली नागिन' कहकर तौहीन की जाती थी. जिन परिवारों में उन्होंने शादी की, उन्होंने उनकी त्वचा के रंग को निचली जाति का और इस तरह अशुद्ध होने तक की बात की. उनमें से कुछ ने यह भी बताया कि उन्हें परिवार के साथ खाना खाने या उनके लिए खाना पकाने से भी रोक दिया गया था.

रंगभेद कार्यस्थलों में भी फैल गया. यह पूर्वाग्रह पर्यटन और आतिथ्य, उड्डयन, खुदरा कारोबार, मीडिया और मनोरंजन जैसे दिखावे और तड़क-भड़क वाले उद्योगों में सबसे अधिक दिखाई देता है. भारतीय फिल्मों में गहरे रंग की महिलाओं को हाशिए के रूढ़िवादी भूमिकाओं में कास्ट किए जाने के उदाहरण भरे पड़े हैं, शायद ही कभी मुख्य भूमिका में उतारी जाती हैं. शास्त्रीय कला की दुनिया भी इस रोग से अछूती नहीं है.

पिछले साल क्लासिकल डांसर कलामंडलम सत्यभामा की मोहिनीअट्टम नर्तक आर.एल.वी. रामकृष्णन के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने के लिए व्यापक आलोचना हुई, जो दलित जाति के हैं. उनके रंग की तुलना कौवे से करते हुए, उन्होंने उन्हें नृत्य के लिए अयोग्य माना, क्योंकि उस नृत्य के लिए "गोरे, सुंदर दिखने वाले पुरुष" ही योग्य हैं. बाद में रामकृष्णन केरल कलामंडलम में एसिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त किया गया.

जर्नल पर्सपेक्टिव्स ऑन साइकोलॉजिकल साइंस में 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, जिनका रंगभेद या नस्लवाद से सामना होता है, उनमें उच्च रक्तचाप, मनोवैज्ञानिक परेशानी से ग्रस्त होने की आशंका अधिक होती है और वे स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझते हैं. लगातार नकारात्मक टिप्पणियां और वारदातें उनके अंदर शर्म, चिंता और भय पैदा करती हैं, जो शारीरिक तनाव के रूप में प्रकट हो सकती हैं.

मनोवैज्ञानिक उपासना चड्ढा कहती हैं, ''सुंदरता का एक निश्चित 'पैमाने' के अनुरूप होने के इतने दबाव होते हैं कि छोटे बच्चे वास्तव में फिट होने और सामाजिक मेलजोल बढ़ाने की कोशिश करते रहते हैं, और जो अनुरूप नहीं होते, उन्हें बहिष्कार और अलग दिखने से जलालत का शिकार होना पड़ता है."

परमेश्वरन का मानना है कि पिछले दो दशकों में रंग पूर्वाग्रह और भी बढ़ गए हैं. इसके लिए सोशल मीडिया को दोषी ठहराया जा सकता है, जिसके एल्गोरिद्म से भरे बुलबुले में ऐसी छवियां होती हैं जो एकदम फिट, खुश और सफल होती हैं.

कई युवा फिल्टर या एआई टूल की मदद से ऐसी तस्वीर निकालते हैं जैसा वे दिखना चाहते हैं, न कि वह जैसा वे दिखते हैं. इस हीन भावना का बेशक सबसे ज्यादा फायदा सौंदर्य-प्रसाधन उद्योग को ही हुआ है. परमेश्वरन कहती हैं, "दुनिया भर में सुंदर दिखने के तरीकों और चर्चाओं का लाभ सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों और सेवाओं के विस्तार में दिख रहा है. उनकी तो चांदी हो गई है."

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केस स्टडी

रितिका अनिल कुमारः 28 वर्ष कम्यूनिकेशन मैनेजर, क्रिएटनेट एजुकेशन, दिल्ली

"मुझे ब्लैकी, अफ्रीकी पुकारा गया"

अपनी सांवली त्वचा की वजह से झेले गए पूर्वाग्रह के बारे में बात करते वक्त रितिका की दबी हुई हंसी बिल्कुल बचपन से ही दरपेश सामाजिक पूर्वाग्रहों के बीच रास्ता बनाने के वर्षों को छिपा लेती है. केरल में तिरुवल्ला के ईसाई स्कूल में उनके बचपन और किशोरावस्था के वर्षों में सहपाठी उन्हें 'ब्लैकी', 'ब्लैक ब्यूटी' और 'अफ्रीकी' सरीखे उपनामों से चिढ़ाया करते.

यहां तक कि छह साल की मासूम उम्र में ही रितिका ने भांप लिया था कि उनकी त्वचा की रंगत को लेकर कुछ न कुछ 'सही नहीं' है. इस धारणा को रिश्तेदारों ने और पुख्ता कर दिया, जो उनके गोरी रंगत वाले भाई से अक्सर उनकी तुलना करते.

अपने डॉक्टर माता-पिता के अटूट समर्थन से रितिका को रंगभेदी टिप्पणियों के खिलाफ लोच विकसित करने में मदद मिली. उनकी मां की समझदारी—"तुम्हारे अंदर जो है, उसे तुम्हारा बाहरी रंग-रूप तय नहीं करता"—रितिका की भावनात्मक ढाल बन गई, जिसने उन्हें ऐसे पूर्वाग्रह से निबटने के लिए मोटी चमड़ी वाला बना दिया.

—बंदीप सिंह

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फेयरनेस का बूम

इस राजनैतिक रूप से उचित रहने के इस दौर में उन्हें फेयरनेस क्रीम नहीं कह सकते हैं, लेकिन 'स्किन लाइटनिंग' व्यवसाय कहीं भी थमा नहीं है. इसके 2030 तक 2.4 अरब डॉलर (मौजूदा विनिमय दर पर 20,500 करोड़ रुपए) को पार कर जाने की उम्मीद है, जिनके दायरे में मुख्य रूप से शहरी और कस्बाई क्षेत्र हैं. यहां के लोग सोशल मीडिया के जरिए नाइका, पर्पल या मामाअर्थ जैसे ऑनलाइन ब्यूटी रिटेल ब्रांडों के प्रति आकर्षित होते हैं और ब्रांडों की बढ़ती उपलब्धता से उनका प्रसार बढ़ रहा है.

और सिर्फ महिलाएं और लड़कियां ही इस चक्कर में नहीं हैं, बल्कि पुरुष और लड़के भी वही कर रहे हैं. दिल्ली के एक प्रमुख स्कूल के 17 वर्षीय अर्जुन मेहता (बदला हुआ नाम) कहते हैं, "मैं पिछले कुछ साल से फेशियल और ब्लैकहेड रिमूवल करवा रहा हूं. मुझे तो इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता."

ओपन लिंग्विस्टिक्स पत्रिका में 2020 में किए गए एक शोध में पता चला कि 21वीं सदी की शुरुआत में टेलीविजन विज्ञापनों ने पुरुषों की त्वचा को गोरा करने वाले उत्पादों को कैसे बढ़ावा देना शुरू किया. पश्चिम के 'लंबा, काला और सुंदर' वाले ढर्रे से हटकर, फेयर ऐंड हैंडसम, जैसा कि पुरुषों के लिए फेयरनेस क्रीम कहा जाता था, को वांछनीय खासियत के रूप में प्रचारित किया गया, जिसे पुरुषों के आकर्षण, शहरीपन और सफलता की बुनियादी विशेषता बताया गया.

पुराने समय की फेयरनेस क्रीमें अब पुरानी हो चुकी हैं, अब विशेष सीरम, मास्क और बॉडी प्रोडक्टस की एक पूरी शृंखला त्वचा की रंगत को एक समान करने, हाइपरपिग्मेंटेशन को कम करने और यहां तक कि आपकी उम्र को उलटने का वादा करती है.

ब्यूटी पार्लर अब सिर्फ सादे फ्रूट फेशियल और ब्लीच ही नहीं देते, बल्कि वे अब 'क्लिनिक' बन गए हैं, जो आपकी त्वचा की 'समस्याओं' के लिए लेजर और रासायनिक समाधान पेश करते हैं. गोरापन अब सिर्फ चेहरे तक सीमित नहीं है, बल्कि बगल और योनि के लिए भी गोरेपन के विकल्प मौजूद हैं.

त्वचा के प्रति सकारात्मक रुख

तो, अब यहां से कहां जाएं? धीरे-धीरे ही सही, कदम शायद सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. परमेश्वरन कहती हैं, "यकीनन, खूबसूरती के मानकों और लोगों को कलंकित करने तथा उन्हें मानसिक सदमा देने के खिलाफ सक्रियता बढ़ी तो उसका नतीजा सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों और सेवाओं पर स्वागतयोग्य असर हुआ."

मसलन, सौंदर्य शब्दावली में समावेशी शब्द का प्रचलन बढ़ गया है, कैटवॉक में विविधता के दर्शन हो रहे हैं. बार्बी अब सांवले रंग में भी पेश की जा रही है, ताकि त्वचा के गहरे रंग वालों को शह दी जा सके. थिएटर और सिनेमा में काले और भूरे रंग के अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए भूमिकाएं और जगह मिल रही है. अब सांवला रंग दिव्य हो गया है और भूरा रंग सुंदर हो गया है.

नई असलियत के मद्देनजर कंपनियां गहरे रंग की भारतीय त्वचा के लिए विशेष मेकअप लेकर आई हैं. मामाअर्थ, द डर्मा कंपनी और बीब्लंट जैसे ब्रांड वाले हॉन्सा कंज्यूमर की सह-संस्थापक और चीफ इनोवेशन ऑफिसर गजल अलघ कहती हैं, "जब हमने मामाअर्थ की शुरुआत की, तो हमने गोरेपन का वादा करने वाले उत्पादों को बनाने या बेचने का निर्णय सोच-समझकर नहीं किया. इसके बजाए, हमने स्वस्थ, अच्छी तरह से पोषित त्वचा पर ध्यान केंद्रित किया. समावेशिता का मतलब सौंदर्य विज्ञापन की छवियों को चुनौती देना भी था. पहले दिन से, हमने तय किया कि हम अपने अभियानों में वास्तविक, विविध भारतीय त्वचा टोन को शामिल करें."

एफएई ब्यूटी में, फिल्टर और फोटोशॉप के खिलाफ एक सख्त नीति है. उसकी संस्थापक करिश्मा केवलरमानी कहती हैं, "हम अवास्तविक शारीरिक मानकों का प्रचार नहीं करना चाहते और चाहते हैं कि उपभोक्ता चीजों को वैसे ही देखें जैसे वे हैं. हमारी सामग्री एकदम कच्ची और बिना फिल्टर की हुई है."

हालांकि, अभी भी कुछ रास्ता तय करना बाकी है. परमेश्वरन कहती हैं, "सेलेब्रिटीज के अभियान सतही रहे हैं, वे भारतीय मानस के जाति और वर्ग संबंधी पूर्वाग्रहों की गहराई तक नहीं गए हैं." उनका मानना है कि इन मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता की शुरुआत कम उम्र में ही हो जानी चाहिए, शायद प्राथमिक विद्यालय में, "न कि किसी कार्यशाला में जब आप वयस्क हो जाएं और बहुत से आघात झेल चुके हों."

नाम न बताने की शर्त पर सौंदर्य और शारीरिक देखभाल उद्योग की एक विशेषज्ञ कहती हैं कि ब्रांडों को समावेशी बनने यानी विविध रंगों की अहमियत पर जोर देने के लिए केवल दिखावटी तामझाम से कहीं अधिक करने की आवश्यकता है.

उनके प्रचार में गहरे रंग की त्वचा वाली मॉडल हो सकती है, लेकिन उनके उत्पाद रेंज में वह बात दिखाई नहीं देती, उसमें जोर तो गोरेपन पर ही है... आज भी, वे 15 गोरेपन या कुछ बीच के उत्पाद लॉन्च करते हैं, लेकिन गहरे सांवले और भूरे रंग की त्वचा के लिए केवल चार ही उत्पाद होते हैं.

कुछ दूसरे लोग तो 'त्वचा तटस्थता' की वकालत भी कर रहे हैं—मसलन, त्वचा को सिर्फ एक अंग की तरह ही मानना और इस पर बिल्कुल भी ध्यान न देना. सेलेना गोमेज, शनाया कपूर और आलिया भट्ट सहित कई हस्तियां बिना मेकअप, फिल्टर और टच-अप के सेल्फी पोस्ट कर रही हैं, ताकि यह दिखाया जा सके कि उनकी त्वचा पर भी दाग-धब्बे हैं और उनकी त्वचा भी परफेक्ट नहीं है. यह मुहिम इस बात को स्वीकार करती है कि कोई व्यक्ति अपनी त्वचा के रंग के बारे में अभी भी नकारात्मक विचार रख सकता है और मायूस हो सकता है, खासकर वे जो रंगभेद के शिकार रहे हैं.

लेकिन यह आपकी त्वचा के रंग के लिए खुद से नफरत न करने की दिशा में एक कदम है, बल्कि सहज बनने और उसका जश्न मनाने की दिशा में एक कदम है. और यही हमें नई राह दिखाएगा कि कैसे रंगभेद को लेकर लोगों का नजरिया बदला जाए.

—साथ में सोनल खेत्रपाल

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त्वचा विज्ञान

या कैसे होमो सेपियन्स या आधुनिक मनुष्य को मिला त्वचा का रंग

● अध्ययनों से पता चलता है कि हम सभी बीस लाख साल पहले काले ही थे. जंगल के बाहर अस्तित्व रक्षा और सूर्य की किरणों से त्वचा को बचाने के लिए शरीर मेलानिन बनाने लगा.

● उत्तरी ध्रुव की ओर बढ़ने वालों में मेलानिन का उत्पादन कम हो गया, ताकि काफी कम मिलने वाली सूर्य की किरणों से विटामिन डी हासिल हो सके.

● आधुनिक मनुष्य को त्वचा का रंग मेलानोकोर्टिन 1 रिसेप्टर या एमसी1आर जीन से मिला है.

● हमारी त्वचा का रंग हमें अपने जैविक मां-बाप से मिला है. हमारे मेलानोसाइट्स दो तरह के मेलानिन का उत्पादन करते हैं. एक, इयूमेलानिन, जिससे त्वचा और बालों का रंग गहरा होता है. दूसरे, फियोमेलानिन, जिससे त्वचा का रंग हल्का, साफ होता है और बाल लाल होते हैं.

खूबसूरती का बाजार

● हेलियोस लेजर ट्रीटमेंट

इसमें काले धब्बों का दिखना कम करने और त्वचा की रंगत को एक-सा बनाने के लिए पिग्मेंट के गुच्छों और खासकर मेलानिन को निशाना बनाकर टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है.

खर्च: 4,000 रुपए से 35,000 रुपए प्रति सेशन.

देश में गोरेपन का बाजार आज 11,100-12,800 करोड़ रु. का है. बूम के पीछे ये कुछ उत्पाद हैं

● ग्लूटेथिओन इंजेक्शन

शरीर में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले ऐंटीऑक्सीडेंट ग्लूटेथिओन की एक खुराक मेलानिन का बनना और अत्यधिक पिग्मेंटेशन को कम करने में मदद करता है, इस तरह त्वचा की रंगत को उजला बना देता है.

खर्च: 10,000 से 40,00 रुपए प्रति इंजेक्शन

● ग्लायकोलिक पील

वे काले धब्बों को तोड़ने के लिए कई तरह के एसिड या अम्लों का इस्तेमाल करते हैं. नतीजे अलबत्ता अलग-अलग और दूसरे ट्रीटमेंट जितने टिकाऊ नहीं भी हो सकते हैं.

खर्च: 900 रुपए से ऊपर

● फेशियल/ ब्लीच

फेशियल या तो प्रयोगशाला में बने हो सकते हैं (ग्लायकोलिक एसिड, कोजिक एसिड, नियासिनमाइड) या त्वचा को हल्की रंगत में 'ब्लीच’ करने के लिए प्राकृतिक रसायनों का प्रयोग किया जा सकता है (हल्दी, सोया, मुलैठी का सत्व). कुछ फेशियल कोलेजन और कोशिका वृद्धि बढ़ाने के लिए आपके अपने शरीर के खून का इस्तेमाल करते हैं, जिससे त्वचा कुछ ज्यादा उजली और जवान हो जाती है.

खर्च: अलग-अलग

● बॉडी पॉलिशिंग

कुछ उत्पाद त्वचा के छिद्रों में गहरे जमे मैल और गंदगी को रगड़कर साफ करने के जरिए उजली त्वचा का वादा करते हैं
खर्च: 900 रुपए से शुरू

● क्रीम

ब्लीचिंग क्रीम में इस्तेमाल आम सामग्रियों में हाइड्रोक्विनोन, कोजिक एसिड और कुछ निश्चित कॉर्टिकोस्टेरॉइड शामिल हैं. ये त्वचा में मेलानिन के निर्माण को दबाने का काम करते हैं.
खर्च: अलग-अलग

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