नए गिरमिटिया

पढ़ाई-लिखाई और नौकरी-रोजगार का भविष्य संवारने के लिए छात्रों के काफिले की विदेशी ठिकानों की ओर कूच.

विदेश में पढ़ाई के लिए बढ़ता नजरिया
विदेश में पढ़ाई के लिए बढ़ता नजरिया

शैली आनंद

महज 18 साल की देवांशी सूद अपने सपनों की राह संवारने के लिए अगले महीने अमेरिका जाने को तैयार हैं. सूद ने गुरुग्राम के हेरिटेज एक्सपेरिएंशियल स्कूल में पीसीएमई (भौतिक शास्त्र, रसायन विज्ञान, गणित और अर्थशास्त्र) में पढ़ाई की है और ग्रेजुएशन के लिए कंप्यूटेशनल मीडिया में अमेरिका के जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में चार साल के कोर्स में दाखिला लिया है.

वे कहती हैं, ''यह डिग्री मुझे प्रयोग करने का मौका देगी और मेरी रुचि के विषय पर्यावरण प्रौद्योगिकी में मददगार होगी, जिस विषय का अमेरिका में बड़ा बाजार है.’’ सूद पश्चिम जाना चाह रही हैं क्योंकि जिस विषय में उनकी दिलचस्पी है, उसकी पढ़ाई भारत में उपलब्ध नहीं है, और इससे उन्हें विविध विषयों में अपनी रुचि के इजाफे का भी मौका मिलेगा. वे कहती हैं, ''विज्ञान और कंप्यूटर में मेरी दिलचस्पी है, लेकिन साहित्य और राजनीति विज्ञान भी मुझे पसंद है.’’

हर साल जैसे ही पश्चिमी गोलार्द्ध में पतझड़ शुरू होता है, सूद जैसे हजारों युवा छात्र उच्च शिक्षा की तलाश में अमेरिका या यूरोप की ओर बढ़ जाते हैं, या फिर पूरब में ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का रुख करते हैं. ऐसा नहीं है कि भारतीय छात्र पहले उच्च शिक्षा के लिए विदेश नहीं जाते थे, लेकिन कई देशों में अंतरराष्ट्रीय डिग्री हासिल करने वालों की संख्या और विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों में तेजी से वृद्धि हुई है.

इस साल फरवरी में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने लोकसभा को बताया कि 2022 में 7,50,365 नए छात्रों ने उच्च अध्ययन के लिए विदेश की उड़ान भरी, जो छह वर्षों में सबसे अधिक संख्या है, और 2019 की तुलना में 1,61,642 अधिक है. इसकी पुष्टि एक और हलके से हुई. विदेश में पढ़ाई के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म यॉकेट ने पाया कि 2022 में कुल 13.2 लाख भारतीय छात्र विदेश में पढ़ रहे हैं, जो 2021 में 11.4 लाख से अधिक है. गुरुग्राम स्थित रणनीति सलाहकार फर्म रेडसियर को उम्मीद है कि 2024 तक यह संख्या 18 लाख तक पहुंच जाएगी. हालांकि अमेरिका में पढ़ाई करने वाले किसी और देश के मुकाबले सबसे अधिक चीन के छात्र हैं लेकिन भारतीय छात्रों की तादाद तेजी से आगे बढ़ रही है और यह संख्या इस साल चीन को पीछे कर सकती है.

अमेरिकी दूतावास ने पिछले साल भारतीय छात्रों को रिकॉर्ड तोड़ 1,25,000 वीजा जारी किए, जो किसी भी अन्य देश के लिए जारी किए गए वीजा से अधिक है. अमेरिका में इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल एजुकेशन की ओपनडोर्स रिपोर्ट में भारत की तुलना में अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले चीनी छात्रों की संख्या में कमी देखी गई है.

2020-21 और 2021-22 के बीच भारतीय छात्रों की कुल संख्या 1,67,582 से बढ़कर 1,99,982 हो गई, यानी 18.9 फीसद बढ़ी, जबकि चीन के छात्रों की संख्या 3,17,299 से 2,90,086 हो गई, यानी 8.6 फीसद की गिरावट देखी गई. इसी तरह, ब्रिटेन में सितंबर, 2022 में एक आव्रजन सांख्यिकी रिपोर्ट से पता चलता है कि भारतीय छात्रों को 2019 में 34,261 की तुलना में 1,27,731 वीजा जारी किए गए. चीनी छात्रों को 2019 में 1,19,231 की तुलना में 1,16,476 वीजा जारी किए गए थे. 

अधिकांश छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने का कारण विकल्पों की कमी बताते हैं. इसके अलावा और भी कारण हैं. एक वजह नई पीढ़ी (जेन जेड) की आकांक्षाओं को पूरा करने में देश की शिक्षा प्रणाली की नाकामी है. दूसरी भारतीय कॉलेजों में दखिला के लिए सीटों का टोटा है. फिर, विदेश में अनंत अवसरों का जैसे नया ब्रह्मांड खुलता है—विश्व स्तरीय फैकल्टी और अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस विशाल परिसर, लचीले तथा अच्छी तरह से डिजाइन किए गए पाठ्यक्रम, प्रचुर शोध अवसर, दूसरी संस्कृति के लोगों के साथ मेलजोल का मौका, और अंत में शायद ऐसा करियर जो आपको वैश्विक प्रोफेशनल एलीट के बीच स्थायी स्थान दिला देता है.

अस्थिरता, अनिश्चितता, जटिलता और अस्पष्टता की दुनिया में रहने वाली एक पीढ़ी के लिए तत्काल संतुष्टि बड़ी है. जैसा कि यूके विश्वविद्यालय में ग्राफिक डिजाइन में मास्टर डिग्री करने के लिए गईं बेंगलूरू की 27 वर्षीया प्रतिभा जैन कहती हैं, ''अत्याधुनिक सुविधाओं के अलावा, वैश्विक एक्सपोजर और सांस्कृतिक विविधता मुझे साथियों और पेशेवरों का नेटवर्क बनाने में मदद करेगी.’’ 

भारतीय छात्रों का महा पलायन

वे विभिन्न जगहों से आ रहे हैं—बड़े शहरों से भी और छोटे कस्बों से भी, लड़कियां भी और लड़के भी. करीब-करीब पिछले डेढ़ साल उनकी तादाद में उछाल के लिए आप कोविड को दोषी ठहरा सकते हैं. 2020 में जानलेवा वायरस की रोकथाम के लिए एक के बाद एक देशों ने ज्यों-ज्यों अपने दरवाजे बंद किए, विदेश में पढ़ने के इच्छुक छात्रों को अपने मंसूबे ठंडे बस्ते में डालने पड़े. 2021 में जब चीजें कुछ आसान हुईं, तब दाखिला टाल देने वाले छात्र जा पाए. इसी के साथ, यह भी हुआ कि स्वदेश से ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल हो रहे दूसरे छात्र अंतत: देख पाए कि यूनिवर्सिटी का मैदान कैसा दिखता है.

पलायन को तेज गति देने वाला दूसरा झटका साझा विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) की शक्ल में आया, जिसे पिछले साल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भारत में अनिवार्य बना दिया. हालांकि इसका इरादा तो वरदान बनना था, लेकिन एक तो यह कोविड से मची उथल-पुथल की छाया में शुरू हुआ, फिर इसे लागू करने के पहले साल शुरुआती परेशानियां पेश आईं. ऐसे में विश्वविद्यालय का सत्र शुरू होने में चार महीने की देरी हुई, जिसने छात्रों को दहशत और अनिश्चितता के भंवर में धकेल दिया.

सीयूईटी के आने से कट-ऑफ प्रणाली का पटाक्षेप हो गया, जो वैसे भी मजाक बनकर रह गई थी. लिहाजा, अब कक्षा 12 के अंकों से तय नहीं होता कि आप किस कॉलेज में दाखिला लेते हैं. सीयूईटी इसके बजाए विषय पर छात्र की अवधारणात्मक पकड़ का इम्तिहान लेता है और छात्रों को बराबरी का मैदान देने का प्रयत्न करता है. पहले अंक देने में ज्यादा उदार और लचीली व्यवस्था अपनाने वाले बोर्ड के छात्रों को उन छात्रों के मुकाबले अनुचित फायदा मिलता था जो कड़ाई से नंबर देने वाले बोर्ड से आते थे. लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि अंक अब अच्छे कॉलेज या कोर्स में दाखिले की गारंटी नहीं रह गए, तो कई छात्र अनिश्चितता के भंवर में पड़े रहना नहीं चाहते.

विदेश में अध्ययन करवाने वाले करियर काउंसलिंग संगठन ग्लोबल रीच की गुवाहाटी स्थित सीनियर जोनल काउंसलिंग मैनेजर रिंजी बरुआ कहती हैं, ''भारतीय शिक्षा प्रणाली और बेहतर विश्वविद्यालयों में छात्रों को दाखिला देने का इसका तरीका बहुत प्रतिस्पर्धी हो गया है.’’ यही नहीं, जैसा कि नोएडा स्थित शिव नाडर स्कूल में करियर गाइडेंस सेंटर की प्रमुख नितिना चोपड़ा दुआ बताती हैं, ''जब दुनिया टेस्ट को वैकल्पिक बनाने के तरीके की तरफ बढ़ रही है, हम टेस्ट के रास्ते जा रहे हैं.

इसीलिए बच्चों का अपनी पसंद के कॉलेज और कोर्स में दाखिला लेना और मुश्किल होता जा रहा है.’’ हमारे देश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अच्छे संस्थान सीमित संख्या में सीटों की पेशकश करते हैं. मिसाल के तौर पर, पिछले साल करीब 14 लाख छात्र स्कूलों से पास होकर निकले, पर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सीटें महज 2,00,000 ही थीं. 

स्वाभाविक ही, कड़ी प्रतिस्पर्धा से कई छात्र दिलचस्पी गंवा रहे हैं और उन्हें लग रहा है कि आइआइटी या दिल्ली विश्वविद्यालय के बजाए किसी अच्छी रैंक वाली विदेशी यूनिवर्सिटी में दाखिला लेना ज्यादा आसान है. 12वीं कक्षा में 95 फीसद अंक लाने वाला छात्र अपने सपनों के संस्थान में दाखिला ले पाए या न ले पाए, लेकिन टॉप 50 रैंक में आने वाली अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी में दाखिला ले सकता है, और वह भी स्कॉलरशिप के साथ. हालांकि भारतीय शिक्षा संस्थानों को अलविदा कहने की कोविड और सीयूईटी तो महज तात्कालिक वजह है, समस्या की जड़ इससे भी कहीं गहरे गुफा सरीखे उस गड्ढे में है जो भारतीय शिक्षा प्रणाली है. 

हमारी शिक्षा की खामी

यह एक ऐसी विशालकाय समस्या है, जो दिख तो सबको रही है लेकिन स्वीकार कोई नहीं करना चाहता. वास्तविकता यही है कि भारतीय शिक्षातंत्र पाठ्यपुस्तकों और कक्षा में पढ़ाई के घिसे-पिटे तरीकों से बाहर आने में विफल रहा है, और पाठ्यक्रम तो ऐसे पढ़ाया-रटाया जाता है कि उसमें छात्रों की कोई रुचि नहीं जगती, उल्टे उन्हें नींद आने लगती है. इसे दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व वीसी और अब के.आर. मंगलम यूनिवर्सिटी, गुरुग्राम के चांसलर दिनेश सिंह से बेहतर कोई नहीं जानता.

वे कहते हैं, ''तमाम कोशिशों के बावजूद हमारी शिक्षा प्रणाली वह सब नहीं दे पाती जो उसे देना चाहिए. स्नातक स्तर पर व्यावहारिक ज्ञान की कमी है. यही वजह है कि अधिकांश छात्रों को यहां की तमाम यूनिवर्सिटी में उपलब्ध पाठ्यक्रम निरर्थक लगते हैं. दूसरी ओर, विदेशी शिक्षातंत्र और विश्वविद्यालय उन्हें खुद को अभिव्यक्त करने, समीक्षा और आलोचना करने की आजादी देते हैं और इसके साथ-साथ सभी दूसरे उपयोगी और व्यावहारिक ज्ञान मुहैया कराने में सक्षम साबित होते हैं.’’

इसकी पुष्टि 19 वर्षीया साइबा बजाज भी करती हैं. दिल्ली के बीवीएम मॉडल स्कूल में विज्ञान की छात्रा रहीं साइब फिलहाल कनाडा की मैनिटोबा यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर साइंस पढ़ रही हैं. और उन्हें अपने फैसले में कुछ गलत नजर नहीं आता. वे कहती हैं, ''एक अंतरराष्ट्रीय यूनिवर्सिटी के डिग्री कोर्स में अवधारणाओं के अनुप्रयोग सिखाने में उल्लेखनीय अंतर नजर आता है. पाठ्यपुस्तकों में लिखे सिद्धांत आखिरकार कहां लागू होंगे और उनका इस्तेमाल क्या है, यह जानना मेरे लिए वाकई खासा दिलचस्प था.’’

विषय और विशेषज्ञता के मामले में सीमित विकल्प, पर्याप्त सुविधाएं न होना और अच्छे शिक्षकों का अभाव, कुछ ऐसी बाधाएं हैं जिसका सामना खासकर ऐसे कॉलेजों को ज्यादा करना पड़ रहा है जो महानगरों से दूर हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी के शहीद सुखदेव कॉलेज ऑफ बिजनेस स्टडीज की प्रिंसिपल प्रो. पूनम वर्मा कहती हैं, ''भारतीय शिक्षातंत्र का पूरा वातावरण ही संकीर्ण है. आज के युवा स्वाभाविक तौर पर प्रयोगवादी हैं और कुछ अलग सेटअप तलाशते हैं.’’ यॉकेट के फाउंडर तुमुल बुच इससे सहमत हैं. वे कहते हैं, ''जेनरेशन जेड नए जमाने के अनुरूप और कुछ ऑफ बीट कोर्स करना चाहता है.’’ और दिक्कत यह है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में ऐसा कुछ है नहीं.

यही वजह है कि छात्र विदेशों में ऐसे कोर्स, विषय और विशेषज्ञता के विकल्प चुन रहे हैं जो उद्योगों के अनुरूप और बदलती तकनीकी के लिहाज से अपडेटेड तो हैं ही, सामाजिक जरूरतों को भी पूरा करते हैं. जैसा कि, यॉर्क यूनिवर्सिटी, यूके के प्रोफेसर चार्ली जेफरी कहते हैं, ''रिसर्च आधारित यूनिवर्सिटी खास तौर पर लुभा रही हैं और यहां यॉर्क यूनिवर्सिटी में हम अंतरराष्ट्रीय सहयोग के जरिए स्थानीय समस्याओं के वैश्विक समाधान निकालने के प्रयास करते हैं.

हमारे पास खाद्य सुरक्षा, डिजिटल टेक्नोलॉजी, जलवायु परिवर्तन और हरित ऊर्जा जैसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में रिसर्च की व्यापक क्षमता है, जो कि भारत की प्राथमिकताओं के अनुरूप है और हमारे यहां पढ़ रहे भारतीय छात्रों के लिए यह बेहद फायदेमंद है. डेटा साइंस और एनालिटिक्स, फिन-टेक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निग जैसे विषयों में रुचि तेजी से बढ़ी है. हालांकि, नौकरी के असीम अवसरों और हालिया वर्षों में प्रौद्योगिकी क्रांति की वजह से एसटीईएम विषय अभी भी सबसे लोकप्रिय हैं. ओपनडोर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, 2021-2022 में अमेरिका में एसटीईएम विषयों में अध्ययन करने वाले अंतरराष्ट्रीय छात्रों की संख्या 79.4 फीसद थी.

दुनियाभर में स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों की बढ़ती मांग, उच्च वेतन और शानदार करियर की संभावना के साथ-साथ लोगों के जीवन में बदलाव लाने के अवसर के मद्देनजर हेल्थकेयर और लाइफ साइंस में विशेषज्ञता हासिल करने के इच्छुक छात्रों की संख्या बढ़ रही है. वहीं, पर्यावरण और सतत विकास जैसे मुद्दों पर बढ़ती जागरूकता के कारण भारतीय छात्रों के बीच अर्थ, एनवायरनमेंट, और एटमॉस्फेरिक साइंस चुनने वालों की तादाद भी बढ़ती नजर आ रही है. पिछले साल मेडिसिन, बायोलॉजी और इकोलॉजी चुनने वाले भारतीय छात्रों की संख्या 10 फीसद रही.

एयरोस्पेस इंजीनियरिंग और आर्ट हिस्ट्री जैसे विशिष्ट पाठ्यक्रम चुनने वालों की संख्या भी ठीकठाक है, क्योंकि ग्लोबल मार्केट में इन विषयों में भी करियर के अच्छे अवसर उपलब्ध हैं. लिटरेचर, फिलॉसफी, और पॉलिटिकल साइंस जैसी पुराने और कॉर्पोरेट गवर्नेंस, पब्लिक हेल्थ, सतत विकास और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे नए कला विषय भी बड़ी संख्या में छात्रों को आकर्षित करते हैं. यही स्थिति भाषाविज्ञान और जेंडर स्टडीज की भी है.

2022 में विदेश जाकर पढ़ने वाले छात्रों में 20 फीसद ने सोशल साइंस और ह्यूमैनिटी जैसे विषय चुने, जबकि बिजनेस और मैनेजमेंट प्रोग्राम ने 30 फीसद छात्रों को आकृष्ट किया. विदेश में शिक्षा से जुड़े प्लेटफॉर्म फॉरेन एडमिट्स के सीईओ और को-फाउंडर अश्विनी जैन कहते हैं, ''इन प्रोग्राम की मांग अंतरराष्ट्रीय स्तर का कारोबारी ज्ञान और अनुभव प्राप्त करने की इच्छा को दर्शाता है. यही नहीं, छात्र इंटर्नशिप और को-ऑप प्रोग्राम के जरिए बेहतर व्यावहारिक अनुभव भी हासिल करना चाहते हैं.’’ 

बात सिर्फ अंतरराष्ट्रीय डिग्री हासिल करने भर की नहीं है, तमाम लोगों के लिए एक अलग सांस्कृतिक परिवेश में रहकर अध्ययन करना शिक्षा हासिल करने का ही हिस्सा है. विदेश में अध्ययन से युवा छात्रों को नए दृष्टिकोण, आचार-विचार अपनाने और जीने के कुछ अलग तरीके सीखने का मौका भी मिलता है.

आइवी लीग और अन्य शीर्ष यूनिवर्सिटी के साथ काम करने वाली ग्लोबल अंडरग्रेजुएट एडमिशन कंसल्टिंग फर्म एथेना एजुकेशन के को-फाउंडर पोषक अग्रवाल कहते हैं, अपने और अपने करियर को आगे ले जाने वाले अमूल्य कौशलों का उल्लेख करने से इतर यह अंतर-सांस्कृतिक अनुभव छात्रों के लिए वैश्विक दृष्टिकोण, दक्षता हासिल करने और विविधता के प्रति समझ बढ़ाने के लिहाज अधिक मददगार होता है.

बहरहाल, अधिकांश भारतीय माता-पिता अपने बच्चों की विदेशी शिक्षा को बेहतर करियर और सुनहरे भविष्य की गारंटी की तरह देखते हैं. फतेह एजुकेशन के सह-संस्थापक और सीईओ सुनीत सिंह कोचर के मुताबिक, ''माता-पिता को लगता है कि नौकरी बाजार में बदलते हालात के बीच एक बहुसांस्कृतिक यूनिवर्सिटी का अनुभव उनके बच्चों के सफल होने की संभावनाओं को और बढ़ाता है.’’ 

पैसों की परवाह नहीं

जब बात बच्चों की पढ़ाई की हो तो कई भारतीय माता-पिता पैसों की कोई परवाह नहीं करते. बेहतर वित्तीय योजना और बचत एवं व्यय योग्य पर्याप्त आय उनके लिए अपने बच्चों की शिक्षा में अधिक निवेश को संभव बनाती है. शिक्षा ऋण, खासकर बिना गारंटी मिलने वाला ऋण, छात्रों के लिए बेहद सुलभ हो गया है और हालिया वर्षों में प्रक्रिया भी आसान हुई है. बुच कहते हैं, ''कोलैटरल-फ्री कर्ज, जो छात्रों के वित्तपोषण पर भविष्य में उनकी संभावित कमाई के अनुमान के आधार पर तय होता है, विदेश में पढ़ाई की बढ़ती मांग का एक प्रमुख फैक्टर है.’’

अंतरराष्ट्रीय छात्र ऋणदाता प्रॉडिजी फाइनेंस के लिए भारत सबसे तेजी से बढ़ते बाजारों में एक है. 2022 में कंपनी से ऋण लेने के इच्छुक छात्रों के आवेदनों में 72 फीसद की वृद्धि दर्ज की गई और ऋण वितरण 73 फीसद अधिक रहा. प्रॉडिजी फाइनेंस के ग्लोबल पार्टनरशिप्स हेड और कंट्री हेड, इंडिया मयंक शर्मा कहते हैं, ''हमारे लिए सालाना औसत ऋण का आकार 31 लाख रुपए है.’’ और यह चलन भारत के छोटे शहरों में भी बढ़ता नजर आ रहा है. उदाहरण के तौर पर, शिक्षा पर केंद्रित एक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी अवान्से फाइनेंशियल सर्विसेज ने पिछले वित्तीय वर्ष में टियर-2 और टियर-3 शहरों से छात्र ऋण की खासी मांग दर्ज की है.

ये विदेशी शिक्षा के प्रति बढ़ते रुझान का ही नतीजा है कि असंख्य स्टडी एब्रॉड प्लेटफार्म भी अस्तित्व में आ गए हैं. छात्रों की योग्यता आंकने से लेकर, उनके लिए सबसे उपयुक्त कोर्स चुनने, आवेदन, टेस्ट और एक्स्ट्राकरिकुलर एक्टिविटीज में मदद करने तक और सारा महत्वपूर्ण ब्योरा (एसओपी) तैयार कराने में भी ये प्लेटफॉर्म छात्रों का भरपूर मार्गदर्शन करते हैं. इसमें कोई दो-राय नहीं है कि मार्गदर्शन के लिए ये प्लेटफॉर्म शुल्क वसूलते हैं, और यह रकम छोटी-मोटी नहीं होती.

बतौर उदाहरण, 'यॉकेट प्रीमियम’ के तहत यॉकेट की तरफ से छात्रों को शुरुआत से अंत तक परामर्श दिया जाता है जिसमें टेस्ट की तैयारी, देश और कोर्स चुनना, यूनिवर्सिटी की शॉर्टलिस्टिंग, बायोडाटा जैसे दस्तावेज, एसओपी और सिफारिशपत्र की व्यवस्था करना, यूनिवर्सिटी में आवेदन, शिक्षा ऋण और वीजा आदि के बारे में जानकारी देना शामिल है. कुल मिलाकर मोटी फीस के बदले स्टूडेंट्स को एक ही जगह सब कुछ मिल जाता है.

प्रत्येक छात्र को अन्य विशेषज्ञ समूह के साथ एक विशेष काउंसलर की सुविधा भी मुहैया कराई जाती है. छात्र की प्रोफाइल क्या है और उसने क्या सेवाएं ली है, इसके आधार पर ही शुल्क निर्धारित होता है, जो बैचलर कोर्स के लिए 90,000 रुपए से 1.3 लाख रुपए और मास्टर्स कोर्स के लिए 27,000 रुपए से 90,000 रुपए के बीच होता है. उनके पास छात्रों के शोध करने के लिए एक फ्री प्लेटफॉर्म भी है.

दूसरी तरफ, एथेना एजुकेशन छात्रों को करियर और शैक्षिक परामर्श, साइकोमीट्रिक असेसमेंट, उनके लिए उपयुक्त यूनिवर्सिटी की विशेष सूची तैयार करने, आवेदन और डॉक्यूमेंट तैयार करने में मदद के साथ एडमिशन के बाद जरूरी सहायता भी प्रदान करता है. इसकी प्रति छात्र औसत फीस 5 लाख रुपए प्रति वर्ष है.

विदेशी यूनिवर्सिटी इस प्रवृत्ति में वृद्धि को भुना भी रही हैं. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय छात्र जो फीस भरते हैं, उससे स्थानीय छात्रों को सब्सिडी मुहैया कराना तो आसान होता ही है, इनकी वजह से स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा मिलता है. यह जगजाहिर है कि ये छात्र आवास किराए पर लेते हैं और रेस्तरां में खाना वगैरह भी खाते हैं. उदाहरण के तौर पर, 2018-19 और 2021-22 के बीच अंतरराष्ट्रीय छात्रों ने ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था में 41.9 अरब पाउंड का योगदान दिया.

विदेशी यूनिवर्सिटी इस वजह से भी अंतरराष्ट्रीय छात्रों के स्वागत को आतुर रहती हैं क्योंकि वे अपने साथ कक्षाओं में सांस्कृतिक विविधता लाते हैं. इस संबंध में कनाडा के ओन्टारियो स्थित किंग्स यूनिवर्सिटी कॉलेज के अध्यक्ष डेविड सी. मलॉय का कहना है, ''किंग्स में तो हमने विविधता भरी एक छोटी दुनिया ही बसा ली है, जिसमें कनाडाई छात्र 40 देशों के 800 से अधिक छात्रों के साथ सांस्कृतिक विविधता को साझा करके एक अलग बौद्धिक दृष्टिकोण और अंतरराष्ट्रीय अनुभव हासिल कर रहे हैं. हम अपने अंतरराष्ट्रीय छात्रों के स्वागत के लिए किंग्स और कनाडा दोनों में बेहद खास ओरिएंटेशन प्रोग्राम भी करते हैं.’’

अंतरराष्ट्रीय छात्रों को आकर्षित करने के लिए विदेशी विश्वविद्यालय आवेदन प्रक्रिया की जटिलताएं खत्म करने की ओर काम कर रहे हैं. साथ ही छात्रों के अनुकूल वीजा नीतियां तैयार करने और आकर्षक छात्रवृत्ति की पेशकश के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, जिससे ट्यूशन और रहने पर आने वाले खर्च में कमी आ सकती है. इनमें छात्रों के सभी खर्चों को पूरा करने वाली पूर्ण छात्रवृत्ति से लेकर यूनिवर्सिटी या बाहरी संगठनों की तरफ से छात्रों को मिलने वाले योग्यता आधारित अन्य वित्तीय पुरस्कार तक शामिल हैं.

फिर, ग्रेजुएट रिसर्च असिस्टेंटशिप (जीआरए) है, जिसमें स्नातक छात्र फैकल्टी मेंबर की देखरेख में रिसर्च में शामिल हो सकते हैं. जीआरए में आमतौर पर वजीफा मिलता है और रिसर्च वर्क के मद्देनजर उनकी ट्यूशन फीस माफ या कम हो सकती है. ग्रेजुएट टीचिंग असिस्टेंटशिप (जीटीए) भी इसी तरह का एक और प्रोत्साहन है. यह शिक्षण संबंधी कार्यों में फैकल्टी मेंबर की सहायता करने वाले स्नातक छात्रों को मिलता है.

जीटीए को भी वजीफा मिलता है और ट्यूशन फीस माफ या कम हो सकती है. कई देश विदेशी छात्रों को आप्रवासन और अध्ययन के बाद काम के अवसर भी प्रदान करते हैं, जिससे भारतीय छात्रों के लिए स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद देश में रहना और काम करना आसान हो जाता है. जेफरी कहते हैं, ''ग्रेजुएट इमिग्रेशन रूट यानी पढ़ाई के बाद ब्रिटेन में रहकर काम करने की अनुमति मिलना भी हमारे विश्वविद्यालयों के प्रति आकर्षण का एक बड़ा कारण है. इसका लाभ लेने की इच्छा रखने वालों में खासकर भारतीय छात्र शामिल हैं.’’ 

विभिन्न देश कोर्स के आधार पर अलग-अलग अवधि के वर्क वीजा देते हैं. सामान्यत: ये देश और कोर्स के आधार पर एक से पांच साल तक के लिए होते हैं. गैर-तकनीकी विषयों की तुलना में एसटीईएम विषयों में लंबी अवधि के वर्क वीजा मिलते हैं. अमेरिका में एसटीईएम छात्रों के वीजा प्रोग्राम के तहत एसटीईएम ओपीटी या ऑप्शनल प्रैक्टिकल ट्रेनिंग एक्सटेंशन के आधार पर अंतरराष्ट्रीय छात्र अपना वर्क वीजा एक और साल बढ़वा सकते हैं.

छात्र क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग, टाइम्स हायर एजुकेशन वल्र्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग और अमेरिका के लिए यूएस न्यूज जैसी विशिष्ट रैंकिंग का भी सहारा ले सकते हैं. वहीं, एजुकेशन यूएसए इंडिया और ब्रिटिश काउंसिल इंडिया-स्टडी यूके की तरफ से भी आवेदन और वीजा प्रक्रिया समझाने में छात्रों का मार्गदर्शन किया जाता है.

यह सब भारतीय उम्मीदवारों को आश्वस्त करता है कि विदेश में शिक्षा हासिल करना अब सपना भर नहीं है. उनमें से अधिकांश टॉप की यूनिवर्सिटी की बड़ी संख्या और बड़ी तादाद में प्रवासी भारतीयों की मौजूदगी को देखते हुए अमेरिका और ब्रिटेन का रुख करते हैं. अपनी उदार आव्रजन नीतियों, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अपेक्षाकृत सस्ती ट्यूशन फीस के कारण कनाडा एक और लोकप्रिय एजुकेशन डेस्टिनेशन बन चुका है. 

अमेरिका में जहां चार साल के स्नातक कोर्स पर वार्षिक लागत 40-55 हजार डॉलर (33 से 45 लाख रुपए) आती है, वहीं यूके में तीन साल की स्नातक डिग्री लेने के लिए लगभग 22 हजार पाउंड (23 लाख रुपए) खर्च करने पड़ते हैं. जबकि कनाडा में स्नातक कोर्स के लिए प्रति वर्ष 20-35 हजार कनाडाई डॉलर (यानी 12.4 से 21.7 लाख रुपए तक) खर्च होते हैं. 

अपने शानदार जीवन स्तर, विश्वस्तरीय शिक्षा प्रणाली और स्नातक की पढ़ाई के बाद नौकरी के अच्छे अवसरों को देखते हुए ऑस्ट्रेलिया एक और आकर्षक विकल्प है. ऑस्ट्रेलिया में स्नातक कोर्स की लागत प्रति वर्ष 20 हजार ऑस्ट्रेलिया डॉलर (करीब 11 लाख रुपए) से 40 हजार ऑस्ट्रेलिया डॉलर (22 लाख रुपए) के बीच है.

वैसे, एंग्लोफोन (जहां अंग्रेजी बोली जाती है) देश अधिकांश भारतीय छात्रों की पहली पसंद बने हुए हैं. लेकिन यह जानना भी दिलचस्प है कि फ्रांस, इटली और जर्मनी जैसे देशों में आवेदन करने वाले भारतीय छात्रों की संख्या भी खासी बढ़ी है (देखें: विदेश में बिखरी संभावनाएं). उदाहरण के तौर पर पब्लिक यूनिवर्सिटी में ट्यूशन-फ्री एजुकेशन और जर्मन सीखने के मौके को देखते हुए भारतीय छात्रों के बीच जर्मनी भी काफी लोकप्रिय हो रहा है.

बल्कि भारत के विदेश मंत्रालय ने इस साल संसद में बताया कि दुनिया के 240 देशों में भारतीय स्टूडेंट अध्ययन कर रहे हैं. जहां इनमें से कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और यूके स्टूडेंट्स के लिए टॉप के विकल्प बने हुए हैं, स्टूडेंट्स की एक बड़ी संख्या उज्बेकिस्तान, फिलीपीन्स, रूस, आयरलैंड, किर्गिजिस्तान, और कजाकस्तान की ओर भी रुख कर रही है.

आखिर में, वह कहावत तो सुनी ही होगी-जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ. तो असीम संभावनाओं का एक पूरा संसार आपके सामने है, इसमें क्या चुनना है, कौन सी दिशा जाना है,  यह तो आप पर ही निर्भर करेगा.

 

ईशा जैन, 17 वर्ष, दिल्ली
कहां कूच: बायो-इंजीनियरिंग में बैचलर्स डिग्री के लिए स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी

 क्यों जाना चाहती हैं
''मेरी रुचि कई विषयों में है इसलिए मैं अपनी दिलचस्पी की शिद्दत से तलाश का मौका चाहती हूं, जो स्टैनफोर्ड प्रयोगवादी और खुले माहौल के जरिए मुहैया कराती है. आंत्रप्रेन्योरशिप में मेरी रुचि को भी अमेरिका में स्टार्ट-अप संस्कृति से बल मिलेगा’’

हमारी शिक्षा व्यवस्था तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुहैया नहीं करा पा रही, जो कराना चाहिए. अंडरग्रेजुएट स्तर पर व्यावहारिक ज्ञान की कमी है 
—दिनेश सिंह चांसलर, के.आर.मंगलम यूनिवर्सिटी, गुरुग्राम

संभ्य कंवर, 18 वर्ष, गुरुग्राम
कहां कूच: इकोनॉमिक्स में बैचलर्स डिग्री के लिए लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स
 
क्यों जाना चाहते हैं
''मुझे लगता है कि ब्रिटेन में पढ़ाई करने से आगे बढ़ने के  कई अवसर खुल जाएंगे और मुझे नए हुनर हासिल होंगे. इससे मुझे बाद में मास्टर डिग्री हासिल करने में भी मदद मिलेगी और मेरे लंबे करियर की राह भी खुल जाएगी’’

साइबा बजाज, 19 वर्ष, दिल्ली
कहां कूच: कंप्यूटर साइंस में बैचलर्स डिग्री, यूनिवर्सिटी ऑफ मैनीटोबा, कनाडा
 
क्यों गईं
''विदेश जाना पढ़ाई और डिग्री से बढ़कर अपनी जिंदगी के सफर जैसा है. लचीली अवधि के भीतर किसी सेमेस्टर में अपनी रुचि के विषयों की भी पढ़ाई की जा सकती है. आप किसी भी विषय को जोड़ सकते हैं’’

मां-बाप को लगता है कि रोजगार बाजार में बढ़ती तेजी के दौर में बहुसांस्कृतिक विश्वविद्यालय का अनुभव उनके बच्चों को कामयाबी के लिए बेहतर ढंग से तैयार कर पाएगा 
—सुनीत सिंह कोचर, सीईओ, फतेह एजुकेशन

अक्षत सेठी, 17 वर्ष, दिल्ली
कहां कूच: एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग में इंटीग्रेटेड मास्टर डिग्री, इंपीरियल कॉलेज, लंदन, यूके

क्यों जाना चाहते हैं
''मुझे एसटीईएम विषयों में खासी दिलचस्पी है, जैसे कुछ बनाना और कोड तैयार करना और उसी के साथ अपनी रुचि और रुझान के दूसरे विषयों को सीखना-समझना. यह सब ध्यान में रखकर विदेश में पढ़ाई स्वाभाविक विकल्प था’’

प्रतिभा जैन, 27 वर्ष, दिल्ली
कहां कूच: ग्राफिक डिजाइनिंग में मास्टर डिग्री, यूनिवर्सिटी ऑफ क्रिएटिव आर्ट्स, ब्रिटेन

क्यों जाना चाहती हैं
''इस यूनिवर्सिटी में अत्याधुनिक सुविधाएं और संसाधन दुनिया भर में बेहतरीन की कतार में हैं, जिससे मेरी समग्र पढ़ाई में मदद मिलेगी. वैश्विक अनुभव और सांस्कृतिक विविधता मुझे उद्योग के साथियों और पेशेवरों का नेटवर्क स्थापित करने में मददगार होगी’’

ग्रेजुएट इमिग्रेशन रूट यानी पढ़ाई के बाद ब्रिटेन में रहकर काम करने की अनुमति मिलना भी हमारे विश्वविद्यालयों के प्रति आकर्षण का एक बड़ा कारण है 
—प्रो. चार्ली जेफरी, वाइस चांसलर, यूनिवर्सिटी ऑफ यॉर्क, यूके

देवांशी सूद, 18 वर्ष, गुरुग्राम
कहां कूच: कंप्यूटेशनल मीडिया में बैचलर्स डिग्री, जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, अमेरिका

क्यों जाना चाहती हैं
''मेरी दिलचस्पी पर्यावरण टेक्नोलॉजी में है और मुझे लगता है कि यह डिग्री मुझे प्रयोग करने का मौका देगी. इस खास विषय का अमेरिका में भारी बाजार भी है’’.

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